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संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ Notes in Hindi Class 11 Psychology Chapter-4 Book-1

संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ Notes in Hindi Class 11 Psychology Chapter-4 Book-1



परिचय

कुछ इंद्रियाँ, जैसे आँख और कान, आसानी से देखी जा सकती हैं, जबकि अन्य शरीर के अंदर होती हैं और विशेष उपकरणों के बिना नहीं दिखतीं। इस अध्याय में हम जानेंगे कि ये इंद्रियाँ बाहरी और आंतरिक दुनिया से जानकारी कैसे जुटाती हैं। साथ ही, अवधान (Attention) और उसे प्रभावित करने वाले कारकों, प्रत्यक्षण (Perception) की प्रक्रिया, तथा यह कि आकृतियों और चित्रों के कारण हम कभी-कभी दृष्टि भ्रम का शिकार क्यों होते हैं, इसका अध्ययन करेंगे।


जगत का ज्ञान

हमारा संसार वस्तुओं, लोगों और घटनाओं से भरा है, जिन्हें हम अपनी ज्ञानेंद्रियों जैसे आँख और कान से अनुभव करते हैं। ये इंद्रियाँ बाहरी जगत और शरीर से सूचनाएँ लेकर मस्तिष्क को भेजती हैं, जहाँ उन्हें अर्थ मिलता है। किसी वस्तु को समझने के लिए उसका हमारा ध्यान आकर्षित करना जरूरी है। हमारे आसपास की दुनिया का ज्ञान तीन प्रक्रियाओं पर आधारित है – संवेदना, अवधान और प्रत्यक्षण, जो आपस में जुड़ी हुई हैं और संज्ञान के हिस्से मानी जाती हैं।


उद्दीपक का स्वरूप एवं विविधता

हमारे आसपास अनेक प्रकार के उद्दीपक होते हैं, जिन्हें हम देखने, सुनने, सूंघने, चखने और छूने से अनुभव करते हैं। इनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे पास सात ज्ञानेंद्रियाँ हैं – पाँच बाहरी (आँख, कान, नाक, जिह्वा, त्वचा) और दो आंतरिक (गतिसंवेदी एवं प्रघाण तंत्र)। आँखें दृष्टि, कान श्रवण, नाक गंध, जिह्वा स्वाद और त्वचा स्पर्श, गर्मी, ठंडक व पीड़ा के लिए जिम्मेदार होती हैं। आंतरिक इंद्रियाँ शरीर की स्थिति और गति की जानकारी देती हैं। इन इंद्रियों से हम प्रकाश, रंग, ध्वनि, गंध और अन्य गुणों को पहचानते और पंजीकृत करते हैं।


संवेदन प्रकारताएँ

हमारी ज्ञानेंद्रियाँ बाहरी और आंतरिक जगत की मूल जानकारी देती हैं। किसी ज्ञानेंद्रिय द्वारा उद्दीपक का पहला अनुभव संवेदना कहलाता है। इसमें हम भौतिक उद्दीपकों को पहचानते और उनका संकेतन करते हैं। संवेदना का संबंध वस्तुओं के गुणों जैसे कठोरता, गर्मी, तीव्रता या रंग से होता है। हर ज्ञानेंद्रिय विशेष प्रकार के उद्दीपकों से जुड़ी होती है और इन्हें संवेदन प्रकारता कहा जाता है।


ज्ञानेंद्रियों की प्रकार्यात्मक सीमाएँ

हमारी ज्ञानेंद्रियाँ सीमित दायरे में काम करती हैं और केवल एक निश्चित तीव्रता वाले उद्दीपक को ही महसूस कर सकती हैं। किसी उद्दीपक को पहचानने के लिए उसका न्यूनतम स्तर होना जरूरी है, जिसे निरपेक्ष सीमा (absolute threshold) कहते हैं। उदाहरण के लिए, पानी में चीनी की इतनी मात्रा जिससे पहली बार मिठास महसूस हो। इसी तरह, दो उद्दीपकों में अंतर पहचानने के लिए उनके बीच न्यूनतम अंतर जरूरी होता है, जिसे भेद सीमा (difference threshold) कहते हैं। ये सीमाएँ व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर निर्भर करती हैं। संवेदना केवल उद्दीपक पर नहीं, बल्कि ज्ञानेंद्रियों, तंत्रिका मार्गों और मस्तिष्क की कार्यप्रणाली पर भी निर्भर करती है। अगर इनमें कोई गड़बड़ी हो, तो संवेदना आंशिक या पूरी तरह खत्म हो सकती है।


अवधानिक प्रक्रियाएँ

हमारी ज्ञानेंद्रियों पर कई उद्दीपक एक साथ असर करते हैं, लेकिन हम एक समय में केवल कुछ पर ही ध्यान दे पाते हैं। यह प्रक्रिया अवधान (attention) कहलाती है। इसमें चयन के साथ सतर्कता, एकाग्रता और खोज जैसी विशेषताएँ शामिल हैं। सतर्कता का मतलब तत्पर रहना है, जैसे दौड़ शुरू होने से पहले खिलाड़ी का तैयार रहना। एकाग्रता का मतलब किसी विशेष वस्तु पर ध्यान केंद्रित करना और अन्य चीजों को नजरअंदाज करना है। खोज का मतलब विशेष वस्तु को ढूँढना है, जैसे भीड़ में अपने भाई को पहचानना। अवधान के दो मुख्य प्रकार हैं—चयनात्मक अवधान (किसी एक वस्तु पर ध्यान) और संधृत अवधान (लंबे समय तक ध्यान बनाए रखना)। कभी-कभी हम एक साथ दो कामों पर भी ध्यान देते हैं, जिसे विभक्त अवधान कहते हैं।


चयनात्मक अवधान

चयनात्मक अवधान का संबंध मुख्यतः अनेक उद्दीपकों में से कुछ सीमित उद्दीपकों अथवा वस्तुओं के चयन से होता है। हमने पहले ही बताया है कि हमारे प्रात्यक्षिक तंत्र में सूचनाओं को प्राप्त करने एवं उनका प्रक्रमण करने की सीमित क्षमता होती है। इसका अर्थ यह है कि एक विशेष समय में वे मात्र कुछ उद्दीपकों पर ही ध्यान दे सकते हैं। प्रश्न यह है कि इनमें से किन उद्दीपकों का चयन और प्रक्रमण होगा। मनोवैज्ञानिकों ने उद्दीपकों के चयन को निर्धारित करने वाले अनेक कारकों का पता लगाया है।


चयनात्मक अवधान को प्रभावित करने वाले कारक

चयनात्मक अवधान को दो प्रकार के कारक प्रभावित करते हैं—बाह्य और आंतरिक। बाह्य कारक उद्दीपक की विशेषताओं से जुड़े होते हैं, जैसे आकार, तीव्रता, गति, नवीनता और जटिलता। बड़ा, चमकीला, गतिशील या नया उद्दीपक जल्दी ध्यान आकर्षित करता है। आंतरिक कारक व्यक्ति की विशेषताओं से जुड़े होते हैं। इनमें अभिप्रेरणात्मक कारक (जैविक व सामाजिक जरूरतें, जैसे भूख लगने पर भोजन की गंध पर ध्यान) और संज्ञानात्मक कारक (रुचि, अभिवृत्ति और पूर्वविन्यास) शामिल हैं। जिन वस्तुओं में हमारी रुचि होती है या जिनके प्रति हम तैयार होते हैं, उन पर हमारा ध्यान जल्दी जाता है।


चयनात्मक अवधान के सिद्धांत

चयनात्मक अवधान को समझाने के लिए तीन प्रमुख सिद्धांत हैं। निस्यंदक सिद्धांत (Broadbent, 1956) के अनुसार, कई उद्दीपक एक साथ आने पर केवल एक उद्दीपक चयनात्मक निस्यंदक से गुजरकर उच्च स्तर तक पहुँचता है, बाकी छँट जाते हैं। निस्यंदक क्षीणन सिद्धांत (Triesman, 1962) के अनुसार, जो उद्दीपक चयनित नहीं होते, वे पूरी तरह अवरुद्ध नहीं होते बल्कि उनकी शक्ति कम हो जाती है। इसलिए कभी-कभी महत्वपूर्ण उद्दीपक, जैसे अपना नाम सुनना, कमज़ोर होने पर भी ध्यान आकर्षित कर सकते हैं।


बहुविधिक सिद्धांत का विकास जॉन्सटन एवं हिन्त

जॉन्सटन और हाइन्ज़ (1978) के अनुसार, अवधान एक लचीली प्रक्रिया है जो उद्दीपकों का चयन तीन चरणों में करती है: पहला, संवेदी प्रतिरूपण (जैसे दृश्य छवि) बनता है; दूसरा, आर्थी प्रतिरूपण (जैसे वस्तु का नाम) बनता है; और तीसरा, ये प्रतिरूप चेतना में प्रवेश करते हैं। यदि चयन प्रारंभिक चरण में होता है तो कम मानसिक प्रयास लगता है, जबकि अंतिम चरण में चयन होने पर अधिक प्रयास और समय की आवश्यकता होती है।


संधृत अवधान

संधृत अवधान हमारी उस क्षमता को दर्शाता है जिससे हम किसी वस्तु या कार्य पर लंबे समय तक ध्यान केंद्रित रखते हैं, इसे सतर्कता भी कहते हैं। जैसे हवाई यातायात नियंत्रक या राडार ऑपरेटर को स्क्रीन पर सिग्नल लगातार मॉनीटर करने होते हैं। ऐसी स्थितियों में त्रुटियाँ खतरनाक हो सकती हैं, इसलिए अधिक सतर्कता और एकाग्रता जरूरी होती है।


संधृत अवधान को प्रभावित करने वाले कारक

संधृत अवधान को कई कारक प्रभावित करते हैं। संवेदन प्रकारता में श्रवण उद्दीपक पर निष्पादन दृष्टि उद्दीपक से बेहतर होता है। उद्दीपक की स्पष्टता भी महत्वपूर्ण है—तेज़ और लंबे समय तक रहने वाले उद्दीपक ध्यान बनाए रखने में सहायक होते हैं। कालिक अनिश्चितता में नियमित अंतराल पर आने वाले उद्दीपक अधिक ध्यान आकर्षित करते हैं, जबकि अनियमित कम। स्थानिक अनिश्चितता में निश्चित स्थान पर प्रकट होने वाले उद्दीपकों पर ध्यान देना आसान होता है। अवधान का महत्व व्यावहारिक जीवन में भी है, जैसे वाहन नंबर प्लेट डिजाइन या बच्चों के सीखने में, क्योंकि अवधान की कमी से सीखने पर असर पड़ता है।


प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

संवेदना केवल उद्दीपक का प्रारंभिक अनुभव देती है, लेकिन उसका अर्थ नहीं बताती। उद्दीपकों को अर्थवान बनाने की प्रक्रिया प्रत्यक्षण कहलाती है। इसमें हम अपने अधिगम, स्मृति, अभिप्रेरणा और भावनाओं का उपयोग करके जानकारी की व्याख्या करते हैं। प्रत्यक्षण केवल बाहरी वस्तुओं की पहचान नहीं, बल्कि हमारे दृष्टिकोण से उनकी रचना भी है। इसमें दो प्रक्रियाएँ होती हैं: ऊर्ध्वगामी प्रक्रमण (bottom-up), जो उद्दीपक के लक्षणों से शुरू होकर संपूर्ण पहचान करता है, और अधोगामी प्रक्रमण (top-down), जो पूर्व अनुभव से शुरू होकर घटकों की पहचान करता है। दोनों प्रक्रियाएँ मिलकर हमें जगत की समझ प्रदान करती हैं।


प्रत्यक्षणकर्ता

मानव बाह्य जगत से उद्दीपकों को मात्र यांत्रिक रूप से अथवा निष्क्रिय रूप से ग्रहण करने वाले नहीं होते हैं। वे सर्जनशील होते हैं तथा बाह्य जगत को अपने ढंग से समझने का प्रयास करते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी अभिप्रेरणाएँ एवं प्रत्याशाएँ. सांस्कृतिक ज्ञान, पूर्व अनुभव, तथा स्मृतियों के साथ-साथ मूल्य, विश्वास एवं अभिवृत्तियाँ बाह्य जगत को अर्थवान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं। उनमें से कुछ कारकों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है।


प्रत्यक्षण के प्रक्रमण उपागम

हम किसी वस्तु की पहचान कैसे करते हैं? क्या हम किसी कुत्ते की पहचान इसलिए करते हैं कि हम उसके रोएँदार आवरण, उसके चार पैरों, उसकी आँखों, कानों आदि की


अभिप्रेरणा

प्रत्यक्षणकर्ता की आवश्यकताएँ एवं इच्छाएँ उसके प्रत्यक्षण को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। लोग विभिन्न साधनों या उपायों से अपनी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं। ऐसा करने का एक तरीका चित्र में वस्तुओं का प्रत्यक्षण ऐसी चीजों के रूप में करना है जिनसे उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होगी। प्रत्यक्षण पर भूख के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए अनेक प्रयोग किए गए हैं। जब भूखे लोगों को कुछ अस्पष्ट चित्र दिखाए गए तो पाया गया कि तृप्त लोगों की तुलना में उन्होंने इन चित्रों का प्रत्यक्षण बहुधा आहार सामग्री के रूप में किया।


प्रत्याशाएँ अथवा प्रात्यक्षिक विन्यास

किसी दी गई स्थिति में हम जिसका प्रत्यक्षण कर सकते हैं उसकी प्रत्याशाएँ भी हमारे प्रत्यक्षण को प्रभावित करती हैं। प्रात्यक्षिक अंतरंगता अथवा प्रात्यक्षिक सामान्यीकरण का यह गोचर इस प्रवृत्ति का द्योतक है कि जब परिणाम यथार्थ रूप से बाह्य वास्तविकता को नहीं दिखाते हैं तब भी हम वही देखते हैं जिसको देखने की हम प्रत्याशा करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि आपका दूध देने वाला प्रतिदिन लगभग सांध्य 5.30 बजे दूध देता है तो किसी के द्वारा उसी समय के आसपास दरवाजा खटखटाने पर लगता है कि दूध देने वाला आया है, भले ही कोई और आया हो।


संज्ञानात्मक शैली

संज्ञानात्मक शैली हमारे पर्यावरण को समझने और उसके साथ तालमेल बिठाने के तरीके को प्रभावित करती है। मुख्य रूप से दो प्रकार की शैलियाँ होती हैं: क्षेत्र आश्रित, जहाँ व्यक्ति बाहरी जगत को समग्र रूप में देखता है, और क्षेत्र अनाश्रित, जहाँ व्यक्ति चीजों को छोटे हिस्सों में बाँटकर विश्लेषण करता है। उदाहरण के लिए, किसी चित्र में छिपे त्रिभुज को जल्दी खोजने वाला व्यक्ति क्षेत्र अनाश्रित माना जाता है, जबकि अधिक समय लेने वाला क्षेत्र आश्रित। 


सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और अनुभव

सांस्कृतिक परिवेश और अनुभव प्रत्यक्षण को गहराई से प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, चित्रविहीन वातावरण से आने वाले लोग चित्रों में वस्तुओं और दूरी को पहचानने में कठिनाई महसूस करते हैं। हडसन के अध्ययन में अफ्रीकी लोगों ने चित्रों की गलत व्याख्या की। एस्किमो बर्फ़ के विभिन्न रूपों को पहचानते हैं, जबकि हम नहीं कर पाते। इसी तरह, साइबेरियाई आदिवासी रेंडीयर की त्वचा के रंगों में भेद कर सकते हैं। ये उदाहरण बताते हैं कि प्रत्यक्षण व्यक्तिगत, सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों पर निर्भर करता है।


प्रात्यक्षिक संगठन के सिद्धांत

1. आकृति प्रत्यक्षण क्या है?

हमारी दृष्टि में कई तत्व जैसे बिंदु, रेखा और रंग होते हैं, लेकिन हम इन्हें अलग नहीं, बल्कि एक अर्थपूर्ण समग्र के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, साइकिल को हम पूरी वस्तु के रूप में देखते हैं, न कि उसके अलग-अलग हिस्सों के रूप में।

2. गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिक कौन थे?

गेस्टाल्ट मनोविज्ञान के प्रमुख नाम कोहलर, कोपका और वर्दीमर हैं। गेस्टाल्ट का अर्थ है नियमित आकृति या रूप। इसका मुख्य विचार है कि हम उद्दीपकों को अलग नहीं, बल्कि संगठित समग्र के रूप में देखते हैं, और किसी वस्तु का रूप उसके हिस्सों के योग से भिन्न होता है। उदाहरण: फूलदान और फूल मिलकर एक आकृति बनाते हैं, लेकिन फूल हटाने पर भी फूलदान एक नया समग्र बनेगा।

3. अच्छा रूप (Good Figure) या सौष्ठव (Pragnanz)

हमारा मस्तिष्क दुनिया को सरल, संतुलित और संगठित रूप में देखकर उसे अर्थपूर्ण बनाने की कोशिश करता है।

4. आकृति-भूमि पृथक्करण (Figure-Ground Segregation)

किसी सतह को देखते समय कुछ हिस्सा स्पष्ट आकृति के रूप में और बाकी पृष्ठभूमि में दिखता है। जैसे किताब में शब्द आकृति हैं और पृष्ठ पृष्ठभूमि, या दीवार पर पेंटिंग आकृति है और दीवार पृष्ठभूमि। उदाहरण: एक चित्र में सफेद भाग फूलदान और काला भाग दो चेहरे दिखा सकता है।

आकृति और पृष्ठभूमि के बीच अंतर:

आकृति का रूप निश्चित और संगठित होता है, उसकी स्पष्ट परिरेखा होती है और वह निकट व स्पष्ट दिखती है, जबकि पृष्ठभूमि रूपहीन, कम संगठित, परिरेखाहीन और दूर व अस्पष्ट लगती है।

निकटता का सिद्धांत

जो वस्तुएँ किसी स्थान अथवा समय में एक दूसरे के निकट होती हैं वे एक दूसरे से संबंधित अथवा एक समूह के रूप में दिखती हैं। उदाहरण के लिए, चित्र 4.4 बिंदुओं के एक वर्ग प्रतिरूप जैसा नहीं दिखता है, बल्कि बिंदुओं के स्तंभ की एक श्रृंखला के रूप में दिखाई देता है। इसी प्रकार, चित्र 4.4 पंक्तियों में बिंदुओं के एक समूह के रूप में दिखाई देता है।

समानता का सिद्धांत

जिन वस्तुओं में समानता होती है तथा विशेषताओं में वे एक दूसरे के समान होती हैं वे एक समूह के रूप में प्रत्यक्षित होती हैं। चित्र 4.5 में छोटे वृत्त एवं वर्ग क्षैतिज और उदग्र रूप से समरूप अंतराल पर हैं जिससे निकटता का प्रश्न नहीं उठता है। हम यहाँ एकांतर वृत्त एवं वर्ग के स्तंभ को देखते हैं।

निरंतरता का सिद्धांत

यह सिद्धांत बताता है कि जब वस्तुएँ एक सतत प्रतिरूप प्रस्तुत करती हैं तो हम उनका प्रत्यक्षण एक दूसरे से संबंधित के रूप में करते हैं। उदाहरण के लिए, हमें अ-ब तथा स-द रेखाएँ एक दूसरे को काटती हुई दिखती हैं. तुलना में चार रेखाएँ केंद्र प पर मिल रही हैं।

लघुता का सिद्धांत

इस नियम के अनुसार लघुक्षेत्र बृहद् पृष्ठभूमि की तुलना में आकृति के रूप में दिखाई देते हैं। चित्र 4.7 में इस सिद्धांत के कारण हम वृत्त के अंदर काले क्रॉस को सफ़ेद क्रॉस की तुलना में आसानी से देखते हैं।

सममिति का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार असममित पृष्ठभूमि की तुलना में सममित क्षेत्र आकृति के रूप में दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, चित्र 4.8 में काला क्षेत्र आकृति के रूप में दिखाई देता है (सममित गुणों के कारण) तथा असममित सफ़ेद क्षेत्र पृष्ठभूमि के रूप में दिखाई देता है।

अविच्छिन्नता का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार जब एक क्षेत्र अन्य क्षेत्रों से घिरा होता है तो उसे हम आकृति के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, चित्र 4.9 की प्रतिमा सफ़ेद पृष्ठभूमि में पाँच चित्रों के रूप में दिखाई देती है न कि शब्द 'LIFT' के रूप में दिखती है।

पूर्ति का सिद्धांत

उद्दीपन में जो लुप्त अंश होता है उसे हम भर लेते हैं तथा वस्तुओं का प्रत्यक्षण उनके अलग-अलग भागों के रूप में नहीं बल्कि समग्र आकृति के रूप में करते हैं। उदाहरण के लिए. चित्र 4.10 में छोटे कोण, हमारी संवेदी आगत से प्राप्त वस्तु में रिक्ति को पूर्ण करने की प्रवृत्ति के कारण, एक त्रिभुज के रूप में दिखते हैं।


स्थान, गहनता तथा दूरी प्रत्यक्षण

जिस सतह पर वस्तुएँ स्थित या गतिशील होती हैं उसे स्थान कहते हैं, और हमारा परिवेश तीन विमाओं से संगठित होता है। यद्यपि हमारी आँखों पर वस्तुओं की प्रतिमाएँ द्विविमीय बनती हैं, हम उन्हें त्रिविमीय रूप में देखते हैं। इस प्रक्रिया को दूरी या गहनता प्रत्यक्षण कहते हैं, जो दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण है, जैसे गाड़ी चलाते समय दूरी का अनुमान लगाना। गहराई के प्रत्यक्षण के लिए हम दो संकेतों पर निर्भर करते हैं: द्विनेत्री संकेत (दोनों आँखों से) और एकनेत्री संकेत (एक आँख से), जो द्विविमीय प्रतिमा को त्रिविमीय अनुभव में बदलते हैं।


एकनेत्री संकेत (मनोवैज्ञानिक संकेत)

गहनता प्रत्यक्षण के लिए दो प्रकार के संकेत होते हैं—एकनेत्री (monocular) और द्विनेत्री (binocular)।

एकनेत्री संकेत, जिन्हें चित्रीय संकेत भी कहते हैं, में शामिल हैं:

  • सापेक्ष आकार: दूर की वस्तुएँ छोटी दिखती हैं।
  • आच्छादन: जो वस्तु दूसरी को ढकती है, वह निकट मानी जाती है।
  • रेखीय परिप्रेक्ष्य: दूर की वस्तुएँ पास-पास लगती हैं, जैसे रेल की पटरियाँ।
  • आकाशी परिप्रेक्ष्य: धूल और आर्द्रता के कारण दूर की वस्तुएँ धुंधली दिखती हैं।
  • प्रकाश-छाया: प्रकाश और छाया दूरी का संकेत देते हैं।
  • सापेक्ष ऊँचाई: बड़ी वस्तुएँ निकट और छोटी दूर लगती हैं।
  • रचनागुण प्रवणता: दूर की वस्तुओं में सघनता अधिक दिखती है।
  • गतिदिगंतराभास: यात्रा के दौरान पास की वस्तुएँ तेज और दूर की धीमी लगती हैं।
  • द्विनेत्री संकेत में शामिल हैं:
  • दृष्टिपटलीय असमता: दोनों आँखों पर बनने वाली अलग-अलग छवियों का अंतर दूरी का संकेत देता है।
  • अभिसरण: निकट वस्तुओं पर देखने के लिए आँखें भीतर की ओर मुड़ती हैं।
  • समंजन: निकट वस्तु के लिए आँखों के लेंस का मोटा होना और मांसपेशियों का संकुचन दूरी का संकेत देता है। 


प्रात्यक्षिक स्थैर्य

जब हम गतिशील होते हैं तो पर्यावरण से प्राप्त संवेदी सूचनाएँ लगातार परिवर्तित होती रहती हैं। इसके बाद भी हम वस्तु के एक स्थिर प्रत्यक्षण की रचना करते हैं चाहे उन वस्तुओं को हम किसी भी दिशा से तथा प्रकाश की किसी भी तीव्रता स्तर में देखें। संवेदी ग्राहियों के उद्दीपन में परिवर्तन के बाद भी वस्तुओं का सापेक्षिक स्थिर प्रत्यक्षण ही प्रात्यक्षिक स्थैर्य कहलाता है। यहाँ हम तीन प्रकार के प्रात्यक्षिक स्थैयों की विवेचना करेंगे जिनका हम सामान्यतया अपने चाक्षुष क्षेत्र में अनुभव करते हैं।


आकार स्थैर्य

जब वस्तु की दूरी बदलती है, तो उसकी प्रतिमा का आकार दृष्टिपटल पर बदलता है, लेकिन हमें उसका आकार लगभग समान लगता है। उदाहरण के लिए, दूर से पास आते मित्र का आकार हमें ज्यादा नहीं बदलता दिखता। दूरी बदलने पर भी वस्तु के आकार का लगभग स्थिर रहना आकार स्थैर्य कहलाता है।


आकृति स्थैर्य

अपनी उन्मुखता में अंतर के परिणामस्वरूप दृष्टिपटलीय प्रतिमा के रूप में परिवर्तन के बाद भी हमारे प्रत्यक्षण में परिचित वस्तुओं की आकृति अपरिवर्तित रहती है। उदाहरण के लिए. रात्रि-भोजन के प्लेट का रूप वही रहता है, चाहे उसकी दृष्टिपटलीय प्रतिमा एक वृत्त या एक दीर्घवृत्त या एक छोटी सी रेखा (यदि प्लेट को किनारे से देखा जाए) हो। इसे आकृति स्थैर्य भी कहते हैं।


द्युति स्थैर्य

चाक्षुष वस्तुओं में केवल आकार नहीं, बल्कि उनकी चमक भी स्थिर रहती है, भले ही प्रकाश की मात्रा बदल जाए। सूर्य के प्रकाश में सफेद दिखने वाला कागज कमरे की रोशनी में भी सफेद ही लगता है। इस प्रवृत्ति को आभासी द्युति स्थैर्य कहते हैं।


भ्रम

हमारा प्रत्यक्षण हमेशा सही नहीं होता। कभी-कभी हम संवेदी सूचनाओं की गलत व्याख्या करते हैं, जिससे उद्दीपक और प्रत्यक्षण में अंतर होता है। इसे भ्रम कहते हैं। यह बाहरी उद्दीपन की स्थिति में उत्पन्न होता है और अधिकतर लोग इसका अनुभव करते हैं। भ्रम सभी इंद्रियों में हो सकता है, लेकिन चाक्षुष भ्रम सबसे अधिक अध्ययन किए गए हैं। कुछ भ्रम सार्वभौम होते हैं, जैसे रेल की पटरियाँ मिलती दिखना, जबकि कुछ व्यक्ति-विशेष पर निर्भर करते हैं।


ज्यामितीय भ्रम

मूलर-लायर भ्रम में दो समान रेखाएँ अलग लंबाई की लगती हैं, जैसे चित्र में 'अ' रेखा 'ब' से छोटी प्रतीत होती है, जबकि दोनों बराबर होती हैं। इसी तरह, ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज रेखाओं में भी भ्रम होता है, जहाँ ऊर्ध्वाधर रेखा क्षैतिज की तुलना में बड़ी दिखती है, जबकि दोनों समान होती हैं। ये भ्रम सभी लोग, यहाँ तक कि बच्चे और कुछ पशु भी अनुभव करते हैं। 


आभासी गतिभ्रम

जब स्थिर चित्रों को तेज़ी से एक के बाद एक दिखाया जाता है, तो हमें गति का भ्रम होता है, जिसे फ़ाई-घटना (phi-phenomenon) कहते हैं। सिनेमा और जलती-बुझती लाइट्स में यही प्रभाव दिखता है। वर्दीमर के अनुसार, गति का यह अनुभव तभी होता है जब रोशनी की द्युति, आकार, स्थानिक अंतराल और समय का सही संयोजन हो। यह बताता है कि हम संसार को जैसा है वैसा नहीं, बल्कि अपने अनुभव और उद्दीपकों के आधार पर रचते हैं।


प्रत्यक्षण पर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव

अध्ययनों से पता चलता है कि प्रत्यक्षण की प्रक्रियाएँ सांस्कृतिक अनुभवों से प्रभावित होती हैं। सेगॉल, कैंपबेल और हर्सकोविट्स के शोध में पाया गया कि अफ्रीकी लोग ऊर्ध्वाधर-क्षैतिज भ्रम के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, जबकि पश्चिमी लोग मूलर-लायर भ्रम के प्रति। इसका कारण उनके पर्यावरण से जुड़ी आदतें हैं—अफ्रीकी लोग बड़े पेड़ों के कारण ऊर्ध्वाधरता का अधिक अनुमान लगाते हैं, जबकि पश्चिमी लोग कोणीय संरचनाओं वाले वातावरण के कारण बंद रेखाओं की लंबाई का। हडसन के अध्ययन में, जिन लोगों ने चित्र नहीं देखे थे, उन्हें चित्रों में वस्तुओं और गहराई की व्याख्या करने में कठिनाई हुई। इसी तरह, सिन्हा और मिश्रा के शोध से पता चला कि चित्रों की समझ सांस्कृतिक अनुभवों और चित्रों के प्रति परिचय पर निर्भर करती है।

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