परिचय
जब आप अपने आस-पास देखते हैं, तो आपको यह महसूस होगा कि एक व्यक्ति के जीवन में जन्म के बाद से लेकर वृद्धावस्था तक कई बदलाव होते रहते हैं। एक निश्चित समय में, हम बढ़ते और विकसित होते हैं, नई चीज़ें सीखते हैं जैसे चलना, बोलना, गिनती करना, पढ़ना और लिखना। हम सही और गलत का अंतर समझते हैं, दोस्त बनाते हैं, विवाह करते हैं, बच्चों की देखभाल करते हैं और फिर वृद्ध हो जाते हैं। हालांकि हम सभी अलग-अलग होते हैं, हममें कुछ समानताएँ भी होती हैं। इस अध्याय में, आप जीवन के विभिन्न चरणों में होने वाले परिवर्तनों के बारे में जानेंगे। आप जानेंगे कि प्रसवपूर्व अवस्था, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था में क्या बदलाव होते हैं। यह अध्ययन आपको अपने विकास को समझने में मदद करेगा और दूसरों के साथ बेहतर तरीके से व्यवहार करने में सहायक होगा।
विकास का अर्थ
विकास गर्भाधान से मृत्यु तक चलने वाली एक निरंतर और क्रमबद्ध प्रक्रिया है, जो केवल शारीरिक नहीं बल्कि सोचने, भाषा, भावनाओं और सामाजिक संबंधों में भी बदलाव लाती है। इसमें संवृद्धि और हास दोनों शामिल होते हैं। विकास तीन प्रमुख प्रक्रियाओं से प्रभावित होता है—जैविक (जैसे लंबाई, वजन, अंगों का विकास), संज्ञानात्मक (ज्ञान, सोच, समस्या समाधान) और समाज-संवेगात्मक (संबंध, भावनाएँ, व्यक्तित्व)। ये प्रक्रियाएँ आपस में जुड़ी होती हैं और जीवनभर मिलकर व्यक्ति के समग्र विकास को आकार देती हैं।
विकास का जीवनपर्यंत परिप्रेक्ष्य
जीवनपर्यंत परिप्रेक्ष्य के अनुसार विकास एक सतत प्रक्रिया है, जो गर्भाधान से मृत्यु तक चलती है और इसमें प्राप्तियाँ तथा हानियाँ दोनों शामिल होती हैं। यह जैविक, संज्ञानात्मक और समाज-संवेगात्मक प्रक्रियाओं की परस्पर क्रिया से प्रभावित होता है। विकास बहु-दिशात्मक, लचीला और संशोधन योग्य है, अर्थात कौशलों में जीवनभर सुधार संभव है। यह ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यक्तिगत संदर्भों से प्रभावित होता है तथा प्रत्येक व्यक्ति की परिस्थितियों के अनुसार भिन्न होता है। विभिन्न शैक्षणिक विधाएँ जैसे मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और तंत्रिका विज्ञान मानव विकास को समझने का प्रयास करती हैं।
विकास को प्रभावित करने वाले कारक
हम सभी इंसान हैं, फिर भी एक-दूसरे से अलग दिखते और व्यवहार करते हैं। किसी का रंग गोरा है, किसी का सांवला, किसी के बाल सीधे हैं, किसी के घुँघराले। कुछ लोग लंबे होते हैं, कुछ छोटे। मानसिक गुणों में भी फर्क है—बुद्धि, स्मृति, व्यक्तित्व।
लेकिन हम सब मानव जाति के हैं। यह समानता और अंतर क्यों? इसका उत्तर है—
आनुवंशिकता (Genetics) और परिवेश (Environment) की अंतःक्रिया।
1. आनुवंशिकता क्या है?
आनुवंशिकता वह प्रक्रिया है जिसमें माता-पिता अपनी विशेषताएँ जीन के माध्यम से संतानों को देते हैं। जीन हमारी हर कोशिका में मौजूद होते हैं और यही तय करते हैं कि बच्चा इंसान बनेगा। इंसान के शरीर में लगभग 80,000 से अधिक जीन होते हैं, जो मिलकर शारीरिक और मानसिक विशेषताएँ निर्धारित करते हैं।
2. जीन प्ररूप (Genotype) और दृश्य प्ररूप (Phenotype)
Genotype हमारी आनुवंशिक संरचना है जो हमें माता-पिता से मिलती है, जबकि Phenotype हमारी दिखाई देने वाली और मापी जा सकने वाली विशेषताएँ हैं, जैसे ऊँचाई, त्वचा का रंग, बुद्धि और व्यक्तित्व। Phenotype, Genotype और वातावरण के संयुक्त प्रभाव का परिणाम होता है।
3. जीन क्या करते हैं?
जीन हमारे विकास के लिए ब्लूप्रिंट और समय-सारणी तय करते हैं, लेकिन उनका प्रभाव तभी दिखता है जब उन्हें उचित परिवेश मिलता है।
4. परिवेश (Environment) का प्रभाव
परिवेश में पोषण, शिक्षा, परिवार, समाज, अवसर और अनुभव शामिल होते हैं। जीन विकास की सीमा तय करते हैं, जबकि उस सीमा के भीतर परिवेश विकास को आकार देता है। जैसे, छोटे कद वाले जीन वाला बच्चा अच्छे पोषण के बावजूद बहुत लंबा नहीं होगा, और अंतर्मुखी प्रवृत्ति वाला बच्चा सामाजिक वातावरण पाकर थोड़ा बहिर्मुखी हो सकता है।
5. माता-पिता की भूमिका
माता-पिता बच्चों को जीन के साथ-साथ परिवेश भी देते हैं। जैसे, बुद्धिमान और पढ़ने के शौकीन माता-पिता घर में किताबें उपलब्ध कराकर बच्चे में पढ़ाई की रुचि बढ़ाते हैं।
6. बच्चे का खुद का चयन
बच्चे अपने जीन के आधार पर भी परिवेश चुनते हैं। जैसे, खेलों में अच्छा बच्चा खेल का माहौल खोजेगा, जबकि संगीत में अच्छा बच्चा संगीत से जुड़ी गतिविधियाँ चुनेगा।
7. समय के साथ बदलाव
परिवेश का प्रभाव उम्र के साथ बदलता है, और शैशवावस्था से किशोरावस्था तक जीन और परिवेश की अंतःक्रिया अलग-अलग रूप में दिखाई देती है।
सोचिए और जवाब दीजिए:
कक्षा का मॉनीटर पढ़ाई में अच्छा और लोकप्रिय होने के कारण चुना गया हो तो यह जीन और परिवेश दोनों का परिणाम है। वहीं, ग्रामीण क्षेत्र का बुद्धिमान बच्चा कंप्यूटर न जानने के कारण नौकरी न पाए तो यह परिवेश का प्रभाव है।
विकास का संदर्भ
विकास हमेशा विशेष सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश में होता है। जीवन के बदलाव—जैसे स्कूल, किशोरावस्था, नौकरी, विवाह, बच्चों का होना और रिटायरमेंट—जैविक और परिवेशीय बदलावों के संयुक्त परिणाम हैं। परिवेश बदलने से अनुभव और विकास समय के साथ बदलते रहते हैं।
यूरी ब्रानफेनब्रेनर का पारिस्थितिक दृष्टिकोण
ब्रानफेनब्रेनर (Urie Bronfenbrenner) ने कहा कि विकास को समझने के लिए हमें परिवेश के कई स्तरों को देखना चाहिए।
1. लघु मंडल (Microsystem)
यह निकटतम परिवेश है जहाँ बच्चा परिवार, दोस्तों, शिक्षकों और पड़ोसियों के साथ सीधे अंतःक्रिया करता है।
2. मध्य मंडल (Mesosystem)
यह अलग-अलग लघु मंडलों के बीच का संबंध है, जैसे माता-पिता और शिक्षक का रिश्ता या माता-पिता का बच्चे के दोस्तों के प्रति दृष्टिकोण।
3. बाह्य मंडल (Exosystem)
यह उन परिवेशों को दर्शाता है जहाँ बच्चा सीधे शामिल नहीं होता, लेकिन उनका प्रभाव उस पर पड़ता है। जैसे, माता-पिता का ट्रांसफर घर का माहौल बदलकर बच्चे को प्रभावित करता है।
4. बृहत् मंडल (Macrosystem)
यह वह संस्कृति और सामाजिक मूल्य हैं जिनमें व्यक्ति रहता है, जैसे परंपराएँ, कानून, संस्कृति और आर्थिक व्यवस्था।
5. घटना मंडल (Chronosystem)
यह समय के साथ होने वाले बदलावों को दर्शाता है, जैसे माता-पिता का तलाक, आर्थिक संकट या ऐतिहासिक घटनाएँ।
मुख्य बात: बच्चे का विकास केवल उसके परिवार या दोस्तों से नहीं, बल्कि एक बड़े सामाजिक और आर्थिक तंत्र से प्रभावित होता है।
अभावग्रस्त (साधनरहित) परिवेश का प्रभाव
शोध से पता चलता है कि जिन बच्चों को किताबें, खिलौने, लाइब्रेरी या माता-पिता का मार्गदर्शन नहीं मिलता और जो शोरगुल व भीड़भाड़ वाले माहौल में रहते हैं, उन्हें सीखने में कठिनाई होती है और उनका विकास प्रभावित होता है।
भारतीय संदर्भ: दुर्गानन्द सिन्हा का मॉडल
दुर्गानन्द सिन्हा (1977) ने बच्चों के विकास के लिए एक दो-परत वाला पारिस्थितिक मॉडल दिया:
ऊपरी परत (दृश्य परत)
घर में जगह, संसाधन, खिलौने और तकनीक, स्कूल में पढ़ाई की गुणवत्ता व सुविधाएँ, और दोस्तों के साथ की जाने वाली गतिविधियाँ बच्चे के विकास को प्रभावित करती हैं।
आसपास की परत
भौगोलिक परिवेश में खेलने की जगह, भीड़ और जनसंख्या शामिल हैं, जबकि संस्थागत परिवेश जाति और वर्ग के आधार पर मिलने वाली सुविधाओं से जुड़ा है। पानी, बिजली और मनोरंजन जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी विकास को प्रभावित करती हैं। ये सभी परतें मिलकर विकास पर असर डालती हैं।
विकासात्मक अवस्थाओं की समग्र दृष्टि
मानव विकास को सामान्यतया विभिन्न अवस्थाओं में विभाजित किया जाता है, क्योंकि हर व्यक्ति जीवन के अलग-अलग चरणों में भिन्न व्यवहार करता है। प्रत्येक अवस्था अस्थायी होती है और उसकी एक विशिष्ट विशेषता होती है, जो उसे अद्वितीय बनाती है। इन अवस्थाओं में व्यक्ति कुछ निर्धारित लक्ष्यों या कौशलों को प्राप्त करता है, जिन्हें विकासात्मक कार्य (developmental tasks) कहा जाता है। यद्यपि समय और गति में व्यक्तिगत भिन्नताएँ होती हैं, फिर भी कुछ कौशल विशेष अवस्थाओं में अधिक आसानी से सीखे जाते हैं। ये उपलब्धियाँ सामाजिक अपेक्षाओं के रूप में भी देखी जाती हैं।
प्रसवपूर्व अवस्था
गर्भाधान से जन्म तक की लगभग 40 सप्ताह की अवधि को प्रसवपूर्व काल कहते हैं, जिसमें विकास आनुवंशिक और परिवेशीय कारकों से प्रभावित होता है। माँ की आयु, पोषण, स्वास्थ्य और भावनात्मक स्थिति महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संक्रमण जैसे रूबेला, हर्पिस और एचआईवी शिशु में समस्याएँ पैदा कर सकते हैं। विकास के लिए बड़ा खतरा विरूपजनन-तत्व (teratogens) होते हैं, जिनमें मादक द्रव्य, शराब, तंबाकू, संक्रमण, विकिरण, प्रदूषण और विषाक्त पदार्थ शामिल हैं। ये कारक जन्मजात असामान्यताएँ, जीन में स्थाई परिवर्तन या मृत्यु तक का कारण बन सकते हैं।
शैशवावस्था
1. मस्तिष्क का विकास
जन्म से पहले मस्तिष्क की अधिकांश कोशिकाएँ बन जाती हैं, और जन्म के बाद तंत्रिकीय संधियाँ तेज़ी से विकसित होती हैं। मस्तिष्क के विभिन्न हिस्से भाषा, बुद्धि और सोचने की क्षमता को नियंत्रित करते हैं।
2. नवजात शिशु की क्षमताएँ
जन्म के समय शिशु पूरी तरह असहाय नहीं होता; वह सांस लेता, चूसता, निगलता और अपशिष्ट निकालता है। पहले हफ्ते में वह आवाज़ की दिशा पहचान सकता है, माँ और दूसरों की आवाज़ में अंतर कर सकता है तथा जीभ निकालने और मुँह खोलने जैसे हावभाव की नकल कर सकता है।
3. प्रतिवर्त (Reflexes)
प्रतिवर्त उद्दीपनों पर स्वचालित प्रतिक्रिया है, जैसे खाँसना, पलक झपकाना और जम्हाई लेना, जो जीवनभर रहते हैं। कुछ प्रतिवर्त मस्तिष्क के विकास और व्यवहार नियंत्रण सीखने पर समाप्त हो जाते हैं।
4. शारीरिक (पेशीय) विकास
विकास का क्रम लगभग सभी में समान होता है, जैसे पकड़ना, बैठना, रेंगना, खड़ा होना, चलना और फिर दौड़ना। मांसपेशियों और तंत्रिका तंत्र के परिपक्व होने के साथ बच्चा नई क्षमताएँ सीखता है।
5. संवेदी योग्यताएँ (Sensory Abilities)
जन्म के समय दृष्टि कमजोर होती है, लेकिन 6 महीने में सुधारकर 1 साल में लगभग वयस्क जैसी हो जाती है, और 3 महीने तक रंग पहचान विकसित हो जाती है। श्रवण जन्म से मौजूद है और समय के साथ आवाज़ की दिशा पहचानने की क्षमता बढ़ती है। स्पर्श, स्वाद और गंध भी जन्म से होते हैं, और शिशु दर्द महसूस कर सकता है।
6. संज्ञानात्मक विकास (Piaget का सिद्धांत)
बच्चे सक्रिय रूप से ज्ञान बनाते हैं। शैशवावस्था (0-2 वर्ष) में वे इंद्रियों और क्रियाओं से दुनिया समझते हैं। शुरुआत में वे वस्तु स्थायित्व नहीं समझते, यानी छिपी वस्तु नहीं खोजते। भाषा विकास 3-6 महीने में बबलाने से शुरू होता है।
7. सामाजिक और भावनात्मक विकास
जन्म से ही बच्चा सामाजिक होता है। 6-8 महीने में माँ से जुड़ाव बढ़ता है और अजनबियों से डर लगता है। आसक्ति स्नेह और सुरक्षा पर आधारित है। Harlow के अध्ययन में बंदर भोजन से अधिक कपड़े की माँ को पसंद करते थे, जिससे पता चलता है कि स्पर्श का सुख महत्वपूर्ण है। एरिक्सन के अनुसार पहला वर्ष विश्वास बनाम अविश्वास की अवस्था है, जहाँ संवेदनशील देखभाल से बच्चा सुरक्षित लगाव विकसित करता है।
8. सुरक्षित बनाम असुरक्षित लगाव
सुरक्षित लगाव वाला बच्चा आत्मविश्वासी, स्वतंत्र और सामाजिक होता है, जबकि असुरक्षित लगाव वाला बच्चा चिंतित, भयभीत और अलग होने पर परेशान रहता है।
बाल्यावस्था
1. विकास की गति
शैशवावस्था की तुलना में संवृद्धि धीमी हो जाती है, लेकिन ऊँचाई और वजन बढ़ते हैं। बच्चे चलना, दौड़ना, कूदना और गेंद खेलना सीखते हैं।
2. सामाजिक विकास
बच्चा अब माता-पिता के साथ-साथ परिवार, पड़ोस और स्कूल से जुड़ता है और अच्छे-बुरे की समझ यानी नैतिकता का बोध विकसित करता है।
3. शारीरिक विकास
दो मुख्य सिद्धांत हैं: शिरःपदाभिमुख, यानी सिर से पैर तक विकास, और समीप-दूराभिमुख, यानी शरीर के मध्य से बाहरी अंगों तक विकास। सिर का विकास तेज होता है, बच्चे पतले दिखते हैं क्योंकि धड़ लंबा और वसा कम होता है। मस्तिष्क तेजी से विकसित होकर आँख-हाथ समन्वय में मदद करता है, जिससे पेंसिल पकड़ना और लिखना आसान होता है। पेशीय विकास में स्थूल कौशल जैसे दौड़ना, चढ़ना और सूक्ष्म कौशल जैसे चित्र बनाना व लिखना शामिल हैं। इस समय बाएँ या दाएँ हाथ की पसंद भी विकसित होती है।
4. संज्ञानात्मक विकास (Piaget)
पूर्व-सक्रियात्मक अवस्था (2-7 वर्ष) में बच्चे वस्तुओं को प्रतीकों से दर्शाते हैं, अहंकेंद्रित रहते हैं, निर्जीव वस्तुओं को सजीव मानते हैं, एक ही विशेषता पर ध्यान देते हैं और बहुत प्रश्न पूछते हैं। मध्य बाल्यावस्था (7-11 वर्ष) में वे मूर्त सक्रियात्मक अवस्था में पहुँचते हैं, तार्किक सोच और प्रतिक्रमणीय क्रियाएँ समझते हैं, अहंकेंद्रवाद कम होता है और समस्या-समाधान क्षमता बढ़ती है, लेकिन अमूर्त सोच नहीं कर पाते।
5. भाषा विकास
इस अवस्था में शब्दावली, व्याकरण और बोलने-समझने की क्षमता तेजी से विकसित होती है।
6. सामाजिक-सांवेगिक विकास
स्व का विकास पहले शारीरिक विशेषताओं से होता है, फिर आंतरिक गुणों और समूह पहचान से। बच्चे सामाजिक तुलना करने लगते हैं। एरिक्सन के अनुसार, इस अवस्था में पहल शक्ति बनाम अपराध बोध का संघर्ष होता है; सकारात्मक प्रतिक्रिया आत्मविश्वास देती है, जबकि नकारात्मक प्रतिक्रिया दोष-भावना उत्पन्न करती है।
7. नैतिक विकास (Kohlberg)
9 वर्ष से पहले सही-गलत का आधार दंड और पुरस्कार होता है, पूर्व-किशोरावस्था में नियमों का पालन दूसरों की स्वीकृति के लिए किया जाता है, और बाद में व्यक्तिगत नैतिक संहिता विकसित होती है।
8. अन्य मुख्य बिंदु
- विकास धीमा लेकिन स्थिर।
- स्थूल और सूक्ष्म कौशलों में सुधार।
- सोच में लचीलापन बढ़ता है।
- सामाजिक दायरा परिवार से बाहर मित्रों तक बढ़ता है।
- नैतिकता की समझ और भाषा कौशल विकसित होते हैं।
किशोरावस्था की चुनौतियाँ
1. अर्थ और विशेषताएँ
Adolescence लैटिन शब्द adolescere से लिया गया है, जिसका अर्थ है परिपक्व होना। यह बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के बीच का संक्रमण काल है, जो यौवनारंभ से शुरू होता है और जैविक, मानसिक व सामाजिक बदलावों से जुड़ा होता है, जिसका अनुभव सांस्कृतिक संदर्भ पर निर्भर करता है।
2. शारीरिक विकास – यौवनारंभ (Puberty)
किशोरावस्था में तीव्र संवृद्धि और यौन परिपक्वता होती है। मूल लैंगिक लक्षण में प्रजनन अंगों का विकास शामिल है, जबकि गौण लक्षणों में लड़कों में चेहरे पर बाल, आवाज में बदलाव और लंबाई बढ़ना, तथा लड़कियों में स्तनों का विकास, मासिक धर्म और लंबाई में वृद्धि होती है। यह आमतौर पर लड़कियों में 10-11 वर्ष और लड़कों में 12-13 वर्ष में शुरू होता है। इसे आनुवंशिकता, पोषण और पर्यावरण प्रभावित करते हैं, और बेहतर पोषण के कारण मासिक धर्म की आयु घट रही है।
3. मानसिक और सामाजिक बदलाव
किशोरावस्था में विपरीत लिंग में रुचि और यौन जागरूकता बढ़ती है, लेकिन माता-पिता से इस विषय पर बातचीत कठिन होने से भ्रम और गोपनीयता बढ़ती है। एड्स और यौन रोगों के कारण जागरूकता जरूरी है।
4. संज्ञानात्मक विकास (Piaget)
औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (11-15 वर्ष) में किशोर अमूर्त चिंतन करने लगते हैं, आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं और परिकल्पनात्मक-निगमनात्मक तर्क से समस्याओं के समाधान खोजने की क्षमता विकसित करते हैं।
5. नैतिक विकास
किशोर लचीला नैतिक दृष्टिकोण अपनाते हैं, वैकल्पिक नियमों की खोज करते हुए अपनी व्यक्तिगत नैतिक संहिता बनाते हैं और कभी-कभी सामाजिक मानकों को चुनौती देते हैं, जैसे विरोध प्रदर्शन में भाग लेना।
6. अहंकेंद्रवाद (David Elkind)
किशोर अक्सर काल्पनिक श्रोता का अनुभव करते हैं, यानी उन्हें लगता है कि लोग हमेशा उन्हें देख रहे हैं, जैसे शर्ट पर दाग दिखने का डर। वे व्यक्तिगत दंतकथा में भी विश्वास करते हैं, खुद को अद्वितीय मानते हुए सोचते हैं कि उनकी पीड़ा कोई नहीं समझ सकता।
7. पहचान का निर्माण (Identity Formation)