मनोविज्ञान में जाँच की विधियाँ Notes in Hindi Class 11 Psychology Chapter-2 Book-1
0Team Eklavyaअगस्त 02, 2025
परिचय
पहले अध्याय में आपने सीखा कि मनोविज्ञान अनुभवों, व्यवहार और मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। अब आप जानेंगे कि मनोवैज्ञानिक इनका अध्ययन कैसे करते हैं। मानव व्यवहार बहुत जटिल और विविध होता है, इसलिए केवल एक ही विधि से इसका अध्ययन संभव नहीं है। मनोवैज्ञानिक वैज्ञानिक तरीके से काम करते हैं और अपने अध्ययन का वर्णन, पूर्वानुमान, व्याख्या और नियंत्रण करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए वे औपचारिक और व्यावहारिक प्रेक्षणों का उपयोग करते हैं। इस कारण मनोविज्ञान को एक वैज्ञानिक क्रियाकलाप माना जाता है। इस अध्याय में आप जानेंगे कि मनोवैज्ञानिक जाँच के उद्देश्य क्या हैं, किस प्रकार की जानकारी एकत्र की जाती है और किन विधियों जैसे प्रेक्षण, प्रयोग, सहसंबंधात्मक अनुसंधान, सर्वेक्षण, मनोवैज्ञानिक परीक्षण और व्यक्ति अध्ययन का उपयोग किया जाता है। साथ ही, आप इन विधियों से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में भी पढ़ेंगे।
मनोवैज्ञानिक जाँच के लक्ष्य
मनोवैज्ञानिक जाँच का उद्देश्य वैज्ञानिक अनुसंधान की तरह होता है। मुख्य लक्ष्य पाँच हैं:
वर्णन (Description), पूर्वकथन (Prediction), व्याख्या (Explanation), नियंत्रण (Control), और अनुप्रयोग (Application)।
1. वर्णन (Description)
किसी व्यवहार या घटना का सही और स्पष्ट विवरण देना आवश्यक है ताकि उसे अन्य व्यवहारों से अलग पहचाना जा सके। उदाहरण के लिए, यदि शोधकर्ता छात्रों की अध्ययन आदतों का अध्ययन कर रहा है, तो उसे कक्षाओं में नियमित उपस्थिति, समय पर कार्य जमा करना, अध्ययन की योजना बनाना और रोज़ाना समीक्षा जैसे पहलुओं का उल्लेख करना चाहिए। स्पष्ट विवरण से व्यवहार को समझना आसान होता है।
2. पूर्वकथन (Prediction)
व्यवहार का सही वर्णन होने पर उसका भविष्य में अनुमान लगाना आसान हो जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बच्चा अधिक समय पढ़ाई में लगाता है, तो संभावना है कि वह अच्छे अंक लाएगा। अधिक लोगों का प्रेक्षण करने से पूर्वकथन अधिक सटीक होता है।
3. व्याख्या (Explanation)
व्याख्या का उद्देश्य यह समझना है कि कोई व्यवहार क्यों होता है और किन कारणों से नहीं होता। इसके लिए कारणों और पूर्ववर्ती दशाओं की पहचान कर कार्य-कारण संबंध स्थापित किया जाता है। उदाहरण के लिए, यह जानना कि कुछ बच्चे कक्षा में ध्यान क्यों देते हैं और कुछ अध्ययन में अधिक समय क्यों नहीं लगाते।
4. नियंत्रण (Control)
व्यवहार के कारण जान लेने पर उसे नियंत्रित किया जा सकता है, जिसका अर्थ है उसे कराना, घटाना या बढ़ाना। उदाहरण के लिए, अध्ययन के घंटे बढ़ाना या घटाना या उपचार द्वारा व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन करना।
5. अनुप्रयोग (Application)
मनोवैज्ञानिक अनुसंधान का अंतिम लक्ष्य लोगों के जीवन में सुधार लाना है, जैसे समस्याओं का समाधान और जीवन की गुणवत्ता बढ़ाना। उदाहरण के लिए, योग और ध्यान से तनाव कम कर कार्यक्षमता बढ़ाई जाती है। साथ ही, अनुसंधान नए सिद्धांतों और विधियों के विकास में सहायक होता है।
मनोवैज्ञानिक अनुसंधान के चरण
विज्ञान की परिभाषा:
विज्ञान को इस आधार पर नहीं परिभाषित किया जाता कि वह क्या खोजता है, बल्कि इस आधार पर कि वह कैसे खोजता है।
वैज्ञानिक विधि का अर्थ है –
किसी घटना का अध्ययन वस्तुनिष्ठ (Objective), व्यवस्थित (Systematic) और परीक्षणीय (Testable) तरीके से करना।
मुख्य विशेषताएँ
वस्तुनिष्ठता का अर्थ है कि यदि दो व्यक्ति एक ही घटना का अध्ययन करें, तो परिणाम लगभग समान हों, जैसे आप और मित्र एक ही मापनी से मेज की लंबाई मापें। शोध एक व्यवस्थित प्रक्रिया है, जिसमें समस्या का संप्रत्ययन, डेटा संग्रह, निष्कर्ष निकालना और निष्कर्षों का पुनरीक्षण जैसे चरण शामिल होते हैं।
वैज्ञानिक विधि के चरण
1. समस्या का संप्रत्ययन (Identification of Problem)
शोध की शुरुआत समस्या की पहचान से होती है, जो पिछले शोध, प्रेक्षण या अनुभवों पर आधारित हो सकती है। मनोविज्ञान में समस्याएँ व्यक्तिगत व्यवहार, दूसरों के व्यवहार, समूह के प्रभाव और संगठनात्मक स्तर से जुड़ी हो सकती हैं। परिकल्पना समस्या का संभावित उत्तर होती है, जैसे—“टीवी पर हिंसा देखने से बच्चों में आक्रामकता बढ़ती है।”
2. प्रदत्त संग्रह (Data Collection)
डेटा संग्रह की प्रक्रिया में चार मुख्य निर्णय शामिल होते हैं: प्रतिभागी का चयन (जैसे छात्र, बच्चे, कर्मचारी), विधि का निर्धारण (प्रेक्षण, प्रयोग, सहसंबंधात्मक, केस स्टडी), उपकरण का चयन (प्रश्नावली, साक्षात्कार अनुसूची, प्रेक्षण अनुसूची) और डेटा संग्रह की प्रक्रिया (वैयक्तिक या सामूहिक रूप से)। इसके बाद वास्तविक डेटा एकत्र किया जाता है।
3. निष्कर्ष निकालना (Drawing Conclusions)
संग्रहीत डेटा का विश्लेषण ग्राफ़ (जैसे पाई चार्ट, बार ग्राफ़) और सांख्यिकीय विधियों से किया जाता है, ताकि यह तय किया जा सके कि परिकल्पना सही है या गलत।
4. शोध निष्कर्षों का पुनरीक्षण (Revision of Conclusions)
यदि निष्कर्ष परिकल्पना को समर्थन देते हैं, तो सिद्धांत पुष्ट होता है; यदि नहीं, तो नई परिकल्पना बनाकर पुनः परीक्षण किया जाता है। इस प्रकार अनुसंधान एक निरंतर प्रक्रिया है।
संक्षेप में मुख्य बिंदु
विज्ञान यह जानने की प्रक्रिया है कि चीजें कैसे होती हैं, और वैज्ञानिक विधि वस्तुनिष्ठ, व्यवस्थित और परीक्षणीय होती है। इसके मुख्य चरण हैं: समस्या पहचानना और परिकल्पना बनाना, डेटा संग्रह करना, विश्लेषण और निष्कर्ष निकालना तथा पुनरीक्षण करना।
अनुसंधान के वैकल्पिक प्रतिमान
मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि मानव व्यवहार का अध्ययन भौतिकी, रसायन विज्ञान और जीवविज्ञान जैसी वैज्ञानिक विधियों से किया जा सकता है क्योंकि यह आंतरिक और बाह्य शक्तियों से प्रभावित होता है और इसका प्रेक्षण, मापन तथा नियंत्रण संभव है। इसलिए बीसवीं सदी तक मनोविज्ञान मुख्यतः प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले व्यवहार पर केंद्रित रहा, वैयक्तिक अनुभूतियों पर नहीं। आधुनिक काल में व्याख्यापरक दृष्टिकोण उभरा, जो पूर्वानुमान की बजाय समझ को महत्व देता है। इसके अनुसार जटिल मानव अनुभवों को भौतिक विज्ञान जैसी विधियों से नहीं, बल्कि संदर्भ आधारित अर्थ समझकर अध्ययन करना चाहिए। कई स्थितियों में वस्तुनिष्ठता संभव नहीं होती क्योंकि हर व्यक्ति अपनी तरह से सत्य का निर्माण करता है। इसलिए शोधकर्ता का कार्य संदर्भानुसार मिले अनुभवों का विस्तृत विवरण तैयार करना होता है। वैज्ञानिक और व्याख्यापरक दोनों दृष्टियाँ दूसरों के व्यवहार और अनुभव का अध्ययन करती हैं, लेकिन मनोविज्ञान का उद्देश्य यह भी होना चाहिए कि हम अपने अनुभवों, विचारों और व्यवहार को समझकर सुधार सकें।
मनोवैज्ञानिक प्रदत्त का स्वरूप
मनोवैज्ञानिक प्रदत्त (डेटा) अन्य विज्ञानों से अलग होता है क्योंकि यह व्यक्तियों के व्यवहार, अनुभवों और मानसिक प्रक्रियाओं से संबंधित होता है। ये प्रदत्त किसी संदर्भ, समय, सामाजिक व भौतिक परिस्थितियों से स्वतंत्र नहीं होते। उदाहरण के लिए, हम घर, स्कूल या दोस्तों के बीच अलग-अलग व्यवहार करते हैं। प्रदत्त की गुणवत्ता और स्वरूप संग्रह की विधि (सर्वेक्षण, साक्षात्कार, प्रयोग) और स्रोत (व्यक्ति, समूह, आयु, लिंग, ग्रामीण-शहरी) पर निर्भर करते हैं। यह स्वयं सत्य नहीं बताता, बल्कि शोधकर्ता संदर्भ में अर्थ निकालता है। मनोविज्ञान में विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ ली जाती हैं—
ये सूचनाएँ श्रेणियों (हाँ/नहीं), क्रम (प्रथम, द्वितीय) या संख्याओं (10, 20) में हो सकती हैं और इनका विश्लेषण गुणात्मक व मात्रात्मक तरीकों से किया जाता है।
मनोविज्ञान की कुछ महत्वपूर्ण विधियाँ
मनोविज्ञान में विभिन्न प्रकार के प्रदत्त एक ही विधि से प्राप्त नहीं होते, बल्कि कई विधियों से जुटाए जाते हैं। प्रमुख विधियाँ हैं—प्रेक्षण, प्रायोगिक, सहसंबंधात्मक, सर्वेक्षण, मनोवैज्ञानिक परीक्षण और व्यक्ति अध्ययन। शोधकर्ता अपने उद्देश्य के अनुसार एक या अधिक विधियाँ अपना सकता है। उदाहरण:
प्रेक्षण: फुटबॉल मैच के दौरान दर्शकों के व्यवहार का अध्ययन।
प्रायोगिक विधि: यह जांचना कि बच्चे अपनी कक्षा में परीक्षा देने पर अधिक अच्छा प्रदर्शन करते हैं या परीक्षा भवन में।
सहसंबंधात्मक विधि: बुद्धि और आत्म-सम्मान के बीच संबंध का पता लगाना।
सर्वेक्षण: शिक्षा के निजीकरण पर विद्यार्थियों की राय जानना।
मनोवैज्ञानिक परीक्षण: व्यक्तियों के बीच अंतर जानने के लिए।
व्यक्ति अध्ययन: बच्चे के भाषा विकास का गहन अध्ययन।
प्रेक्षण विधि
प्रेक्षण मनोवैज्ञानिक जाँच की महत्वपूर्ण विधि है, जिसका उद्देश्य व्यवहार का सटीक वर्णन करना है। दैनिक जीवन में हम कई चीजें देखते हैं, पर वैज्ञानिक प्रेक्षण अलग होता है क्योंकि यह सुनियोजित और उद्देश्यपूर्ण होता है। इसमें तीन मुख्य विशेषताएँ होती हैं:
(क) चयन: सभी व्यवहारों का नहीं, बल्कि शोध उद्देश्य से जुड़े विशिष्ट व्यवहार का प्रेक्षण किया जाता है।
(ख) अभिलेखन: प्रेक्षित व्यवहार को सटीक रूप से दर्ज किया जाता है, जैसे टैली मार्क, प्रतीक, फोटोग्राफ या वीडियो द्वारा।
(ग) विश्लेषण: अभिलेखित डेटा का विश्लेषण कर अर्थ निकाला जाता है।
प्रेक्षण एक कौशल है, जिसमें प्रेक्षक को पता होना चाहिए कि क्या, कब, कहाँ और कैसे देखना है और अभिलेख व विश्लेषण किस रूप में करना है।
प्रेक्षण के प्रकार
प्रेक्षण दो आधारों पर विभाजित होता है:
(क) प्रकृतिवादी बनाम नियंत्रित प्रेक्षण: जब प्रेक्षण प्राकृतिक स्थितियों में बिना हस्तक्षेप के किया जाता है, उसे प्रकृतिवादी प्रेक्षण कहते हैं (जैसे विद्यालय या घर में)। वहीं, जब प्रयोगशाला में कुछ कारकों को नियंत्रित कर प्रेक्षण किया जाता है, उसे नियंत्रित प्रेक्षण कहते हैं।
(ख) असहभागी बनाम सहभागी प्रेक्षण: असहभागी प्रेक्षण में प्रेक्षक दूरी बनाए रखता है और सीधे गतिविधियों में भाग नहीं लेता, जबकि सहभागी प्रेक्षण में प्रेक्षक समूह का हिस्सा बनकर कार्य करता है।
लाभ: यह विधि प्राकृतिक परिस्थितियों में वास्तविक व्यवहार का अध्ययन करने देती है।
सीमाएँ: यह समय-साध्य, श्रमसाध्य होती है और प्रेक्षक के पूर्वाग्रह से प्रभावित हो सकती है। इसलिए सलाह दी जाती है कि प्रेक्षण के समय केवल अभिलेख बनाया जाए, व्याख्या बाद में की जाए।
प्रायोगिक विधि
प्रयोग प्रायः एक नियंत्रित दशा में दो घटनाओं या परिवत्यों के मध्य कार्य-कारण संबंध स्थापित करने के लिए किया जाता है। यह सतर्कतापूर्वक संचालित प्रक्रिया है जिसमें एक कारक में कुछ परिवर्तन किए जाते हैं और किसी दूसरे कारक पर उनके प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, जबकि अन्य संबंधित कारक स्थिर रखे जाते हैं। प्रयोग में कारण वह घटना है जिसे परिवर्तित तथा प्रहस्तित किया जाता है। प्रभाव व्यवहार होता है जो प्रहस्तन के कारण परिवर्तित होता है।
परिवर्त्य का संप्रत्यय
परिवर्त्य (Variable) क्या है?
जो चीज़ या घटना बदलती रहती है और मापी जा सकती है, उसे परिवर्त्य कहते हैं, जैसे कलम का रंग, आकार, कमरे का आकार, व्यक्ति का कद, बालों का रंग, बुद्धि का स्तर या कमरे में लोगों की उपस्थिति। स्थिर वस्तु परिवर्त्य नहीं होती, लेकिन उसके गुण परिवर्त्य हो सकते हैं।
परिवर्त्यों के प्रकार
1. अनाश्रित परिवर्त्य (Independent Variable)
जिस परिवर्त्य को शोधकर्ता बदलता या नियंत्रित करता है, उसे स्वतंत्र परिवर्त्य कहते हैं। यह कारण (Cause) माना जाता है, जैसे कमरे में अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति या अनुपस्थिति।
2. आश्रित परिवर्त्य (Dependent Variable)
जो परिवर्त्य स्वतंत्र परिवर्त्य से प्रभावित होता है, उसे आश्रित परिवर्त्य कहते हैं। यह परिणाम (Effect) होता है, जैसे धुएँ के समय सूचना देना।
संबंध:
अनाश्रित = कारण
आश्रित = परिणाम
दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
बाह्य परिवर्त्य (Extraneous Variables)
वे कारक जो आश्रित परिवर्त्य को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन अध्ययन का मुख्य उद्देश्य नहीं होते, उन्हें बाह्य परिवर्त्य कहते हैं। ये जैविक (जैसे बुद्धि, तनाव, व्यक्तित्व), पर्यावरणीय (शोर, तापमान) और अनुक्रमिक (थकान, अभ्यास प्रभाव) हो सकते हैं।
क्यों नियंत्रित करें?
ताकि अनाश्रित और आश्रित के बीच का सही संबंध स्पष्ट हो सके।
नियंत्रण की तकनीकें
बाह्य परिवर्त्यों को नियंत्रित करने के तरीके हैं: निरसन, जिसमें बाहरी प्रभाव हटाए जाते हैं (जैसे ध्वनिरोधी कक्ष); स्थिर रखना, जब हटाना संभव न हो; सुमेलन, जिसमें समूहों को आयु या लिंग के आधार पर समान बनाया जाता है; प्रतिसंतुलन, जिसमें कार्यों का क्रम बदला जाता है; और यादृच्छिक वितरण, जिसमें प्रतिभागियों को समूहों में यादृच्छिक रूप से रखा जाता है।
प्रायोगिक और नियंत्रित समूह
प्रायोगिक समूह वह होता है जहाँ स्वतंत्र परिवर्त्य लागू किया जाता है, जबकि नियंत्रित समूह तुलना के लिए होता है जहाँ कोई प्रहस्तन नहीं किया जाता। उदाहरण: नियंत्रित समूह में कोई अन्य व्यक्ति न हो और प्रायोगिक समूह में अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति हो।
प्रायोगिक विधि की सीमाएँ
प्रयोगों में बाह्य वैधता कम होती है क्योंकि प्रयोगशाला स्थितियाँ प्राकृतिक नहीं होतीं, जिससे परिणाम वास्तविक जीवन में लागू नहीं हो पाते। साथ ही, नैतिक सीमाएँ रहती हैं, जैसे बच्चों को भूखा रखकर अध्ययन नहीं किया जा सकता, और सभी परिवर्त्यों को नियंत्रित करना भी कठिन होता है।
संक्षेप में मुख्य बिंदु
परिवर्त्य = बदलने योग्य कारक।
मुख्य प्रकार = अनाश्रित (Independent) और आश्रित (Dependent)।
बाह्य परिवर्त्यों को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न तकनीकें।
प्रायोगिक विधि कारण-परिणाम संबंध पता करने का सबसे अच्छा तरीका है, लेकिन व्यावहारिक सीमाएँ भी हैं।
क्षेत्र प्रयोग एवं प्रयोग-कल्य
जब प्रयोगशाला में अध्ययन संभव न हो, तब अनुसंधानकर्ता वास्तविक परिस्थितियों में प्रयोग करता है जिसे क्षेत्र प्रयोग (Field Experiment) कहते हैं। उदाहरण: विद्यालय में छात्रों को दो समूहों में बाँटकर एक को व्याख्यान विधि और दूसरे को करके दिखाने की विधि से पढ़ाना और परिणाम की तुलना करना। ऐसे प्रयोगों में नियंत्रण कम होता है, समय और लागत अधिक लगती है। कुछ स्थितियाँ, जैसे भूकंप से प्रभावित बच्चों का अध्ययन, प्रयोगशाला में संभव नहीं होतीं। ऐसे में प्रयोग-कल्प (Quasi Experiment) अपनाया जाता है, जहाँ शोधकर्ता प्राकृतिक रूप से बने समूहों का उपयोग करता है। उदाहरण: प्रायोगिक समूह में वे बच्चे जो भूकंप में अनाथ हुए और नियंत्रित समूह में वे बच्चे जो भूकंप का अनुभव तो कर चुके हैं, लेकिन माता-पिता से नहीं बिछुड़े।
सहसंबंधात्मक अनुसंधान
मनोवैज्ञानिक अध्ययन में दो परिवर्त्यों के बीच संबंध जानने के लिए सहसंबंध विधि का उपयोग किया जाता है, जिसमें परिवर्त्यों का प्रहस्तन नहीं किया जाता। इस संबंध की शक्ति और दिशा को सहसंबंध गुणांक द्वारा व्यक्त किया जाता है, जिसका मान –1.0 से +1.0 तक होता है।
धनात्मक सहसंबंध (+): दोनों परिवर्त्य साथ-साथ बढ़ते या घटते हैं (जैसे अध्ययन समय बढ़े तो उपलब्धि भी बढ़े)।
ऋणात्मक सहसंबंध (–): एक बढ़े तो दूसरा घटे (जैसे अध्ययन समय बढ़े तो अन्य गतिविधियों का समय घटे)।
शून्य सहसंबंध (0): कोई संबंध नहीं (मान लगभग 0)। +1 या –1 के निकट मान मजबूत संबंध का संकेत देते हैं, जबकि 0 के पास मान संबंध की अनुपस्थिति दर्शाते हैं।
सर्वेक्षण अनुसंधान
सर्वेक्षण अनुसंधान का उपयोग लोगों के मत, अभिवृत्ति और सामाजिक तथ्यों को जानने के लिए किया जाता है। प्रारंभ में इसका उद्देश्य वास्तविकता का पता लगाना था, जैसे साक्षरता दर, आय स्तर, धार्मिक संबद्धता आदि। बाद में इसका उपयोग अभिवृत्तियों का अध्ययन करने में हुआ, जैसे परिवार नियोजन, पंचायती राज या स्वास्थ्य व शिक्षा से जुड़े कार्यक्रमों पर लोगों की राय। आज सर्वेक्षण तकनीकें अधिक परिष्कृत हो गई हैं और कारण-कार्य संबंधों का पूर्वानुमान करने में भी मदद करती हैं। सूचना एकत्र करने के लिए इसमें वैयक्तिक साक्षात्कार, प्रश्नावली सर्वेक्षण, दूरभाष सर्वेक्षण और नियंत्रित प्रेक्षण जैसी तकनीकों का उपयोग होता है।
वैयक्तिक साक्षात्कार
साक्षात्कार लोगों से जानकारी प्राप्त करने की सबसे सामान्य विधि है, जिसमें साक्षात्कारकर्ता प्रश्न पूछता है और प्रतिक्रियादाता उत्तर देता है। यह आमने-सामने या फोन पर किया जा सकता है। साक्षात्कार दो प्रकार के होते हैं:
संरचित (Structured): प्रश्न पूर्व-निर्धारित और क्रमबद्ध होते हैं, परिवर्तन की अनुमति नहीं।
असंरचित (Unstructured): प्रश्नों और क्रम में लचीलापन होता है, उत्तर मुक्त होते हैं।
साक्षात्कार की स्थितियाँ हो सकती हैं: व्यक्ति-से-व्यक्ति, व्यक्ति-से-समूह, समूह-से-व्यक्ति, और समूह-से-समूह। यह विधि लचीली है और गहन जानकारी देती है, इसलिए अशिक्षितों और बच्चों के लिए भी उपयोगी है। हालांकि, यह समय-साध्य, महंगी और प्रशिक्षित साक्षात्कारकर्ता की आवश्यकता वाली होती है।
प्रश्नावली सर्वेक्षण
प्रश्नावली सूचना एकत्र करने की सबसे सरल, सस्ती और प्रचलित विधि है, जिसमें पूर्वनिर्धारित प्रश्नों का एक सेट होता है। प्रतिक्रियादाता स्वयं प्रश्न पढ़कर लिखित उत्तर देता है, इसलिए यह आत्म-संवाद विधि है। प्रश्नावली दो प्रकार के प्रश्नों से बनी होती है: मुक्त प्रश्न (जहाँ उत्तर स्वतंत्र होते हैं) और अमुक्त प्रश्न (जैसे हाँ/नहीं, सही/गलत, बहुविकल्प, या मापनियाँ जैसे 3-बिंदु, 5-बिंदु स्केल)। इसका उपयोग जनांकिकीय जानकारी, अभिवृत्तियों, भूतकालीन व्यवहार और अपेक्षाओं को जानने में होता है। प्रश्नावली समूह में या डाक से भेजी जा सकती है, लेकिन डाक विधि में प्रतिक्रियाएँ अक्सर कम मिलती हैं।
दूरभाष सर्वेक्षण
सर्वेक्षण आजकल दूरभाष और मोबाइल एसएमएस द्वारा भी किए जाते हैं, जिससे समय कम लगता है, लेकिन इसमें असहयोग, सतही उत्तर और प्रतिक्रिया न देने की समस्या अधिक होती है। सर्वेक्षण के लाभ हैं: बड़ी संख्या में लोगों से जल्दी और प्रभावी ढंग से जानकारी प्राप्त करना और नए मुद्दों पर त्वरित जनमत जानना। सीमाएँ हैं: लोग गलत या अधूरी जानकारी दे सकते हैं, स्मृति की गड़बड़ी हो सकती है या वे शोधकर्ता को खुश करने के लिए अपेक्षित उत्तर दे सकते हैं। इसलिए विधि चुनते समय शोधकर्ता को सावधानी बरतनी चाहिए।
मनोवैज्ञानिक परीक्षण
वैयक्तिक भिन्नता का मूल्यांकन मनोविज्ञान का महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें बुद्धि, अभिक्षमता, व्यक्तित्व, अभिवृत्ति, मूल्य आदि मापने के लिए मानकीकृत मनोवैज्ञानिक परीक्षण बनाए जाते हैं। इनका उपयोग चयन, प्रशिक्षण, निर्देशन और निदान जैसे उद्देश्यों हेतु विभिन्न संस्थानों में किया जाता है। परीक्षण में कई प्रश्न (एकांश) होते हैं जो किसी विशेषता को मापते हैं और आयु व समय सीमा के अनुसार बनाए जाते हैं। ये परीक्षण वस्तुनिष्ठ (objectivity) और प्रमाणिक (standardised) होते हैं। वस्तुनिष्ठता का मतलब है कि अलग-अलग शोधकर्ताओं द्वारा दिए जाने पर परिणाम लगभग समान हों। परीक्षण की रचना में निर्देश, देने की प्रक्रिया और मूल्यांकन विधि स्पष्ट होनी चाहिए। एक अच्छे परीक्षण में तीन गुण जरूरी हैं—
विश्वसनीयता (Reliability): एक ही परीक्षण दो बार देने पर लब्धांक समान होना चाहिए। इसे परीक्षण-पुनःपरीक्षण या विभक्तार्थ (split-half) विधि से मापा जाता है।
वैधता (Validity): परीक्षण वही मापे जिसका दावा करता है (जैसे गणितीय उपलब्धि परीक्षण गणित ही मापे, भाषा नहीं)।
मानक (Norms): बड़े समूह पर औसत प्रदर्शन तय कर मानक विकसित किए जाते हैं ताकि तुलना और व्याख्या संभव हो सके।
परीक्षण के प्रकार
मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का वर्गीकरण भाषा, देने की रीति और जटिलता स्तर पर आधारित है। भाषा के अनुसार ये तीन प्रकार के होते हैं—वाचिक (भाषा आधारित), अवाचिक (चित्र/प्रतीक आधारित) और निष्पादन (वस्तुओं को क्रम में सजाना)। देने की रीति के अनुसार परीक्षण वैयक्तिक (एक व्यक्ति पर, समय अधिक, बच्चों और भाषा न जानने वालों के लिए उपयोगी) या समूह (अनेक व्यक्तियों पर, समय कम) हो सकते हैं। जटिलता के आधार पर परीक्षण गति परीक्षण (समय सीमा के साथ, समान कठिनाई) और शक्ति परीक्षण (समय सीमा के बिना, कठिनाई बढ़ते क्रम में) में विभाजित होते हैं। अधिकांश परीक्षण गति और शक्ति का मिश्रण होते हैं। चूँकि इनका उपयोग अनुसंधान और निर्णय में होता है, इसलिए परीक्षणों का चयन सावधानी से करना चाहिए और केवल एक परीक्षण पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। व्यक्ति की पृष्ठभूमि, रुचियों और पूर्व प्रदर्शन को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।
व्यक्ति अध्ययन
व्यक्ति अध्ययन (Case Study) में किसी एक व्यक्ति, छोटे समूह, संस्था या घटना का गहराई से अध्ययन किया जाता है ताकि कम समझे गए पहलुओं पर महत्वपूर्ण जानकारी मिले। इसमें साक्षात्कार, प्रेक्षण और मनोवैज्ञानिक परीक्षण जैसी विधियाँ उपयोग की जाती हैं। इस विधि से कल्पनाएँ, भय, आघात, और लालन-पालन जैसे विषयों पर गहन जानकारी मिलती है। प्रसिद्ध उदाहरणों में फ्रायड का मनोविश्लेषण सिद्धांत और पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत शामिल हैं। यह विधि नैदानिक मनोविज्ञान और मानव विकास के अध्ययन में उपयोगी है। हालांकि, सामान्यीकरण करते समय सावधानी आवश्यक है क्योंकि एकल केस की वैधता चुनौतीपूर्ण हो सकती है। इसलिए, विभिन्न स्रोतों और अनेक विधियों का उपयोग करके साक्ष्यों की श्रृंखला बनाना महत्वपूर्ण है।
प्रदत्त विश्लेषण
सूचनाओं के संग्रह के बाद अगला चरण प्रदत्त विश्लेषण है, जिससे निष्कर्ष निकाला जाता है। इसके लिए दो प्रमुख उपागम उपयोग होते हैं—परिमाणात्मक विधि (Quantitative), जिसमें संख्यात्मक आंकड़ों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया जाता है, और गुणात्मक विधि (Qualitative), जिसमें वर्णनात्मक और व्याख्यात्मक विश्लेषण कर अर्थ निकाला जाता है।
परिमाणात्मक विधि
मनोवैज्ञानिक परीक्षण, प्रश्नावली और संरचित साक्षात्कार में अमुक्त प्रश्न होते हैं, जिनकी प्रतिक्रियाएँ मापनियों पर दी जाती हैं (जैसे 1 से 5 या 1 से 11 तक)। सही उत्तर को अंक (अक्सर 1) और गलत को 0 दिया जाता है, फिर सभी अंकों का योग करके गुण विशेष का स्तर निर्धारित किया जाता है। इसके बाद व्यक्ति या समूह के लब्धांकों की तुलना सांख्यिकीय विधियों से की जाती है, जैसे माध्य, माध्यिका, बहुलक, मानक विचलन और सहसंबंध गुणांक, जिससे डेटा को अर्थपूर्ण बनाया जा सके।
गुणात्मक विधि
मानवीय अनुभव अत्यंत जटिल होते हैं और केवल प्रश्नों से इन्हें समझना संभव नहीं। उदाहरण के लिए, किसी माँ की संतान खोने पर अनुभूत पीड़ा को समझने के लिए उसकी कहानी सुननी होगी। ऐसे अनुभवों को संख्याओं में बदलना कठिन है, इसलिए मनोवैज्ञानिक गुणात्मक विधियाँ अपनाते हैं, जैसे विवरणात्मक विश्लेषण। इसमें डेटा साक्षात्कार, प्रेक्षण नोट्स, फोटो, वीडियो आदि के रूप में होता है, जिसे सांख्यिकीय रूप से नहीं बल्कि विषय-विश्लेषण द्वारा वर्गीकृत कर समझा जाता है। ध्यान रखें, परिमाणात्मक और गुणात्मक विधियाँ विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं, और किसी घटना को पूरी तरह समझने के लिए दोनों का संयुक्त उपयोग आवश्यक है।
मनोवैज्ञानिक जाँच की सीमाएँ
मनोवैज्ञानिक मापन में कुछ सामान्य समस्याएँ होती हैं:
वास्तविक शून्य बिंदु का अभाव: मनोवैज्ञानिक गुण जैसे बुद्धि का शून्य नहीं होता, इसलिए मापन सापेक्षिक होता है। उदाहरण: रैंकिंग में छात्रों के बीच अंतर समान नहीं होता।
उपकरणों का सापेक्षिक स्वरूप: परीक्षण संदर्भ-विशेष पर आधारित होते हैं। शहरी छात्रों के लिए बने परीक्षण जनजातीय क्षेत्रों में या विदेशी परीक्षण भारतीय संदर्भ में उपयुक्त नहीं होते। इन्हें अनुकूलित करना आवश्यक है।
गुणात्मक प्रदत्तों की आत्मपरक व्याख्या: गुणात्मक डेटा की व्याख्या व्यक्तिपरक होती है, इसलिए अधिक विश्वसनीयता के लिए कई शोधकर्ताओं द्वारा संयुक्त प्रेक्षण और विमर्श आवश्यक है। प्रतिक्रियादाताओं की सहभागिता से सटीकता बढ़ती है।
नैतिक मुद्दे
मनोवैज्ञानिक अनुसंधान में प्रतिभागियों की सुरक्षा और अधिकार सुनिश्चित करने के लिए कुछ नैतिक सिद्धांतों का पालन आवश्यक है:
स्वैच्छिक सहभागिता: प्रतिभागी बिना दबाव या प्रलोभन के अध्ययन में भाग लें और चाहें तो कभी भी अलग हो सकें।
सूचित सहमति: प्रतिभागियों को अध्ययन का स्वरूप और संभावित अनुभव पहले से बताया जाए ताकि वे सूचित निर्णय ले सकें।
स्पष्टीकरण (Debriefing): अध्ययन समाप्त होने पर सभी जानकारी देकर उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति पूर्ववत करना, विशेषकर यदि छल का उपयोग हुआ हो।
परिणाम की भागीदारी: अनुसंधान के निष्कर्ष प्रतिभागियों को बताए जाएँ, जिससे उनकी अपेक्षाएँ पूरी हों और शोध को नई अंतर्दृष्टि मिले।
गोपनीयता: प्रतिभागियों की व्यक्तिगत जानकारी गुप्त रखी जाए और पहचान से संबंधित अभिलेख नष्ट कर दिए जाएँ।