चिंतन Notes in Hindi Class 11 Psychology Chapter-7 Book-1
0Team Eklavyaअगस्त 03, 2025
परिचय
हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कई बार ‘चिंतन’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। कभी किसी चीज़ को याद करने के लिए, कभी ध्यान देने के लिए, और कभी अनिश्चितता दिखाने के लिए। लेकिन मनोविज्ञान में चिंतन का मतलब अलग है। यह एक मानसिक प्रक्रिया है, जिसमें हम समस्याएँ हल करते हैं, निष्कर्ष निकालते हैं, बातें समझते हैं और सही निर्णय लेते हैं। इस अध्याय में हम इन सभी बातों को समझेंगे।
हम सृजनात्मक चिंतन (Creative Thinking) पर भी बात करेंगे—यह क्या है, इसकी विशेषताएँ क्या हैं और इसे कैसे विकसित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, जब बच्चा रेत से किला बनाता है, उसे तोड़कर नया बनाता है और खुद से बातें करता है, तो यह उसकी रचनात्मकता और समस्या हल करने की क्षमता दिखाता है।
इसके अलावा, हम यह भी जानेंगे कि सोचते समय हम खुद से क्यों बातें करते हैं और भाषा का विचारों से क्या संबंध है। इसके लिए भाषा के विकास और भाषा व सोच के बीच के संबंध को समझना जरूरी है। चिंतन को समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह हमारी सोचने और समझने की बुनियाद है।
चिंतन का स्वरूप
चिंतन एक उच्च मानसिक प्रक्रिया है जो केवल मनुष्यों में पाई जाती है। इसमें हम वातावरण से मिली जानकारी को समझते, विश्लेषण करते और अपने ज्ञान से जोड़ते हैं। जैसे, पेंटिंग देखते समय हम केवल रंग और रेखाओं पर नहीं रुकते, बल्कि उसका अर्थ निकालने की कोशिश करते हैं। चिंतन का उपयोग सार बनाने, तर्क करने, कल्पना करने, समस्या हल करने और निर्णय लेने में होता है। यह हमेशा लक्ष्य-निर्देशित और संगठित होता है, जैसे खाना बनाना या गणित हल करना। यह एक आंतरिक प्रक्रिया है जिसे सीधे नहीं देखा जा सकता, केवल व्यवहार से अनुमान लगाया जा सकता है।
चिंतन के आधारभूत तत्व
चिंतन हमारे पहले से मौजूद ज्ञान पर आधारित होता है, जो या तो मानसिक प्रतिमा (चित्र) या शब्दों के रूप में होता है। उदाहरण के लिए, किसी पुराने स्थान पर जाते समय हम रास्ते की मानसिक तस्वीर का उपयोग करते हैं, जबकि किताब खरीदते समय हमारा चयन लेखकों और विषयों की जानकारी पर निर्भर करता है। यानी कभी हम चित्रों से सोचते हैं और कभी शब्दों या संप्रत्ययों से।
मानसिक प्रतिमा
मानसिक प्रतिमा वह चित्र है जो हम अपने मन में किसी वस्तु, स्थान या घटना की कल्पना करते समय बनाते हैं। जैसे, अगर आपको कहा जाए कि पेड़ पर पूँछ ऊपर करके बैठी बिल्ली की कल्पना करें, तो आप उस दृश्य को मन में चित्रित करेंगे। इसी तरह, ताजमहल के सामने खड़े होने की कल्पना करते समय भी आप अपने मन में तस्वीर बनाएंगे। मानचित्र पढ़ते या किसी को दिशा बताते समय भी हम मानसिक प्रतिमाओं का उपयोग करते हैं। यह संवेदी अनुभवों का मानसिक चित्रण है, जिससे हम वस्तुओं और घटनाओं के बारे में सोच पाते हैं।
संप्रत्यय
जब हम किसी नई या परिचित वस्तु को देखते हैं, तो उसके लक्षणों को पहचानकर पहले से मौजूद श्रेणी से मिलाते हैं। जैसे, सेब को फल, मेज़ को फर्नीचर और कुत्ते को पशु के रूप में पहचानते हैं। यदि कोई नया जानवर दिखे, जो कुत्ते जैसा लगे, तो हम उसे कुत्ते की श्रेणी में रखेंगे। संप्रत्यय (Concept) किसी श्रेणी का मानसिक चित्रण है, जिसमें समान विशेषता वाली वस्तुएँ आती हैं। संप्रत्यय बनाना जरूरी है क्योंकि यह हमारे ज्ञान को व्यवस्थित करता है और सोचने की प्रक्रिया को तेज व आसान बनाता है, जैसे घर में सामान या पुस्तकालय में किताबें व्यवस्थित करना।
चिंतन की प्रक्रिया
अब तक हमने जाना कि चिंतन क्या है और इसका स्वरूप कैसा है। हमने यह भी देखा कि चिंतन में मानसिक प्रतिमाएँ और संप्रत्यय कैसे मदद करते हैं। अब हम समझेंगे कि चिंतन समस्या समाधान में कैसे उपयोग किया जाता है।
समस्या समाधान
जब हम साइकिल की मरम्मत, यात्रा की योजना या मनमुटाव सुलझाते हैं, तो यह समस्या समाधान कहलाता है, जो लक्ष्य-निर्देशित चिंतन है। कुछ समस्याएँ सरल होती हैं और संकेतों से जल्दी हल हो जाती हैं, जबकि जटिल समस्याओं में अधिक समय और प्रयास लगता है। समस्या समाधान में एक प्रारंभिक अवस्था (समस्या) और एक अंतिम अवस्था (लक्ष्य) होती है, जिन्हें कई चरणों या मानसिक प्रक्रियाओं से जोड़ा जाता है।
समस्या समाधान में अवरोध
समस्या समाधान में मानसिक विन्यास तथा अभिप्रेरणा का अभाव दो प्रमुख अवरोध हैं।
मानसिक विन्यास
मानसिक विन्यास में व्यक्ति पुरानी सफल विधियों को नई समस्याओं में अपनाता है, जो कभी मददगार तो कभी बाधक बनती है। प्रकार्यात्मक स्थिरता में लोग वस्तुओं के सामान्य उपयोग तक सीमित रहते हैं; जैसे पुस्तक से कील ठोकना इस स्थिरता को तोड़ना है।
अभिप्रेरणा का अभाव
समस्या समाधान में कुशल होने पर भी अभिप्रेरणा के बिना दक्षता बेकार है। शुरुआती कठिनाई या असफलता पर लोग जल्दी हार मान लेते हैं, इसलिए समाधान के लिए कठिनाइयों के बावजूद प्रयास जारी रखना जरूरी है।
तर्कना
रेलवे प्लेटफॉर्म पर दौड़ते व्यक्ति को देखकर आप कई अनुमान लगा सकते हैं, जैसे वह ट्रेन पकड़ना चाहता है, मित्र को विदा करना है या गाड़ी में छोड़ा बैग लाना है। यह समझने के लिए हम निगमनात्मक या आगमनात्मक तर्क का उपयोग करते हैं।
निगमनात्मक तथा आगमनात्मकतर्कना
1. तर्कना (Reasoning) क्या है?
तर्कना सूचनाओं को एकत्र कर उनका विश्लेषण करके निष्कर्ष तक पहुँचने की प्रक्रिया है, जो समस्या समाधान का एक रूप है।
2. तर्कना के प्रकार
(अ) निगमनात्मकतर्कना (Deductive Reasoning)
निगमनात्मक तर्क सामान्य अभिग्रह से विशेष निष्कर्ष तक पहुँचता है। जैसे, “लोग ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ते हैं” से निष्कर्ष निकला कि दौड़ता व्यक्ति ट्रेन के लिए देर कर रहा है। यदि अभिग्रह गलत हो, तो निष्कर्ष भी गलत होगा।
(ब) आगमनात्मकतर्कना (Inductive Reasoning)
आगमनात्मक तर्क विशेष प्रेक्षणों से सामान्य निष्कर्ष बनाता है, जैसे व्यक्ति को बैग के साथ लौटते देखकर मानना कि उसने बैग गाड़ी में छोड़ा था। सभी तथ्य न होने पर निष्कर्ष गलत हो सकता है। वैज्ञानिक तर्कना प्रायः आगमनात्मक होती है।
(स) साम्यानुमानतर्कना (Analogical Reasoning)
सादृश्य तर्क समानता के आधार पर संबंध पहचानता है, जैसे जल : मछली :: हवा : मनुष्य या सफेद : बर्फ :: काला : कोयला। यह वस्तुओं और घटनाओं के गुण समझने में सहायक है।
निर्णयन
1. निर्णयन और निर्णय का अर्थ
निर्णय ज्ञान और साक्ष्य पर आधारित निष्कर्ष या मूल्यांकन है, जबकि निर्णयन उपलब्ध विकल्पों में से सबसे उपयुक्त विकल्प चुनने की प्रक्रिया है।
2. निर्णय के प्रकार
स्वचालित निर्णय आदत के कारण बिना चेतन प्रयास के होते हैं, जैसे लाल बत्ती पर ब्रेक लगाना। जटिल निर्णय ज्ञान, अनुभव और पसंद पर आधारित होते हैं, जैसे पेंटिंग या साहित्य का मूल्यांकन।
3. निर्णय को प्रभावित करने वाले कारक
निर्णय विश्वास और अभिवृत्तियों से प्रभावित होते हैं, लेकिन नए अनुभव से बदल सकते हैं। जैसे, अध्यापक को पहले कठोर मानना और बाद में मित्रवत समझना।
4. निर्णयन की विशेषताएँ
निर्णयन में कई विकल्पों में से एक चुनना शामिल है, जिसके लिए लागत-लाभ का मूल्यांकन आवश्यक है। उदाहरण: कक्षा 11 में मनोविज्ञान या अर्थशास्त्र चुनना, या राज्य स्तरीय बैडमिंटन खेलना बनाम परीक्षा की तैयारी करना।
5. निर्णयन और समस्या समाधान में अंतर
समस्या समाधान का अर्थ है नया समाधान ढूँढना, जबकि निर्णयन पहले से उपलब्ध विकल्पों में से चयन करना है।
6. वास्तविक जीवन में निर्णय की प्रकृति
अधिकांश निर्णय त्वरित होते हैं क्योंकि हर स्थिति का गहन विश्लेषण संभव नहीं। अलग-अलग व्यक्तियों की प्राथमिकताएँ भिन्न होने से उनके निर्णय भी अलग होते हैं।
सर्जनात्मक चिंतन का स्वरूप एवं प्रक्रिया
सर्जनात्मक चिंतन का अर्थ है नए और उपयोगी विचार या समाधान ढूँढ़ना। इतिहास में कई लोगों ने पुरानी तरीकों से संतुष्ट न होकर नए आविष्कार किए, जैसे बीज बोना, पहिया बनाना या गुफाओं में चित्र बनाना। आज भी विज्ञान, तकनीक, कला, संगीत और साहित्य में सर्जनात्मकता के कारण प्रगति हो रही है। उदाहरण के लिए, ए.डी. कार्वे ने धुआँ रहित चूल्हा बनाया और गन्ने के सूखे पत्तों से ईंधन तैयार किया, या छात्र आशिषपंवार ने रोबोट बनाकर अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में पदक जीता। सर्जनात्मकता सिर्फ बड़े आविष्कारों तक सीमित नहीं है; यह रोजमर्रा की गतिविधियों में भी दिखती है, जैसे लिखना, पढ़ाना, खाना बनाना, कहानी सुनाना, खेलना, समस्याओं को हल करना और कामों को बेहतर तरीके से करना। हर व्यक्ति में सर्जनात्मक होने की क्षमता होती है, फर्क सिर्फ यह है कि कोई इसे साधारण कार्यों में दिखाता है और कोई बड़ी उपलब्धियों में।
सर्जनात्मक चिंतन का स्वरूप
1. सर्जनात्मक चिंतन का अर्थ
रचनात्मकता का अर्थ है समस्याओं के नए और मौलिक समाधान या विचार उत्पन्न करना। यह केवल अलग तरह से सोचने तक सीमित नहीं, बल्कि नवीनता और मौलिकता दोनों जरूरी हैं। उदाहरणतः, कार का नया मॉडल तभी रचनात्मक माना जाएगा जब उसमें कोई अनोखी विशेषता हो।
2. विशेषताएँ
रचनात्मकता के लिए मौलिकता जरूरी है, यानी विचार पहले से मौजूद न हों। इसमें प्रभावी आश्चर्य होना चाहिए, ताकि विचार या उत्पाद देखकर लोग चौंकें। साथ ही, उपयुक्तता भी आवश्यक है, यानी विचार वास्तविकता में उपयोगी, रचनात्मक और सामाजिक रूप से वांछनीय हो।
3. गलतफहमी
बिना उद्देश्य के अजीब या अलग तरह से सोचना सर्जनात्मक चिंतन नहीं है।
4. जे.पी. गिलफर्ड के अनुसार चिंतनकेप्रकार
(अ) अभिसारी चिंतन (Convergent Thinking)
समीपक चिंतन का अर्थ है ऐसी समस्याओं का समाधान जिनका केवल एक सही उत्तर होता है। उदाहरण: श्रेणी 3, 6, 9, … में अगला अंक 12 होगा।
रचनात्मकता के चार मुख्य आयाम हैं। चिंतन प्रवाह (Fluency) एक समस्या के लिए कई विचार उत्पन्न करने की क्षमता है, जैसे कागज के कप के अधिकतम उपयोग बताना। लचीलापन (Flexibility) विभिन्न दृष्टिकोणों से सोचना है, जैसे कप का उपयोग पीने के अलावा ड्रॉइंग के लिए करना। मौलिकता (Originality) नए संबंध खोजकर दुर्लभ और अनोखे विचार देना है। विस्तारण (Elaboration) विचारों को विस्तार से समझना और विकसित करना है।
6. सर्जनात्मक चिंतन कैसे काम करता है?
अपसारी चिंतन अनेक नए और मौलिक विचार उत्पन्न करता है, जबकि अभिसारी चिंतन उनमें से सबसे उपयुक्त विचार चुनने में मदद करता है। रचनात्मक समस्या समाधान के लिए दोनों आवश्यक हैं।
सर्जनात्मक चिंतन की प्रक्रिया क्रिया
सर्जनात्मक प्रक्रिया कई चरणों में होती है। यह तब शुरू होती है जब हमें किसी नई चीज़ की ज़रूरत महसूस होती है, आमतौर पर तब जब मौजूदा जानकारी या समाधान पर्याप्त नहीं होता। पहला चरण है तैयारी (Preparation), जिसमें व्यक्ति समस्या को समझता और अलग-अलग दृष्टिकोण से सोचता है। इसके बाद आता है उद्भवन (Incubation), जब व्यक्ति कुछ समय के लिए समस्या से हटकर आराम करता है, लेकिन मन अवचेतन रूप से काम करता रहता है। फिर आता है प्रदीप्ति (Illumination), यानी अचानक "अहा!" क्षण जब समाधान या नया विचार मिल जाता है। अंत में होता है सत्यापन (Verification), जिसमें विचार या समाधान की उपयुक्तता का परीक्षण किया जाता है।
सर्जनात्मक चिंतन के उपाय
सर्जनात्मक चिंतन को बढ़ाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण उपाय हैं:
सजग और संवेदनशील बनें –अपने आसपास की चीज़ों, ध्वनियों और अनुभवों पर ध्यान दें। समस्याओं, कमियों और असंगतियों को पहचानने की आदत डालें। इसके लिए विविध विषयों का अध्ययन करें, प्रश्न पूछें और नए विचारों पर मनन करें।
विचारों का प्रवाह बढ़ाएँ –किसी भी काम या स्थिति के लिए अधिक से अधिक समाधान, सुझाव और योजनाएँ सोचें। अपने विचारों में लचीलापन लाएँ और अलग-अलग दृष्टिकोण से सोचने का अभ्यास करें।
विचारावेश (Brainstorming) का उपयोग करें –इसमें विचारों को बिना मूल्यांकन के स्वतंत्र रूप से आने दें। पहले जितने हो सके उतने विचार उत्पन्न करें और बाद में उनका चयन करें। इसे परिवार या दोस्तों के साथ खेल की तरह भी किया जा सकता है।
प्रश्नों और सूचियों का प्रयोग करें –नए विचारों के लिए खुद से सवाल पूछें जैसे: "और क्या हो सकता है?", "इसे कितने तरीकों से किया जा सकता है?", "इसके अन्य उपयोग क्या हैं?"।
विचार एवं भाषा
हमने चिंतन के अर्थ, स्वरूप और उसकी प्रक्रियाओं पर चर्चा की, जिससे स्पष्ट होता है कि विचार व्यक्त करने के लिए भाषा आवश्यक है। यह खंड भाषा और विचार के संबंध की पड़ताल करता है—क्या भाषा विचार को निर्धारित करती है, विचार भाषा को, या दोनों का उद्गम अलग है?
विचार के निर्धारक के रूप में भाषा
भारतीय भाषाओं में रिश्तों के लिए कई शब्द होते हैं, जबकि अंग्रेजी में सभी के लिए "अंकल" शब्द प्रयोग होता है। इसी तरह, अंग्रेजी में रंगों के अधिक शब्द हैं, जबकि कुछ भाषाओं में केवल दो-चार। क्या ऐसी भाषाई भिन्नताएँ सोचने के तरीके को प्रभावित करती हैं? बेंजामिन ली व्होर्फ के अनुसार, भाषा विचार को निर्धारित करती है, जिसे भाषाई सापेक्षता प्राक्कल्पना कहते हैं। इसके अनुसार, भाषा और उसकी संरचनाएँ इस बात को प्रभावित करती हैं कि हम क्या और कैसे सोचते हैं, लेकिन शोध बताता है कि सभी भाषाओं में विचार की गुणवत्ता समान हो सकती है; हाँ, कुछ विचार एक भाषा में दूसरी की तुलना में सरल हो सकते हैं।
भाषा निर्धारक के रूप में विचार
जीनपियाजे के अनुसार, विचार भाषा से पहले उत्पन्न होता है। उन्होंने दिखाया कि बच्चे दुनिया का आंतरिक निरूपण चिंतन से करते हैं, जैसे अनुकरण करते समय वे बिना भाषा के सोचते हैं। भाषा चिंतन का एक साधन है, लेकिन विचार उत्पन्न करने के लिए आवश्यक नहीं। पियाजे का मत है कि भाषा सीखने के लिए पहले संप्रत्ययों का ज्ञान होना चाहिए, इसलिए विचार भाषा का आधार है।
भाषा एवं विचार के भिन्न उद्गम
लेववायगोत्सकी के अनुसार, दो वर्ष की उम्र तक विचार और भाषा अलग-अलग विकसित होते हैं; प्रारंभिक विचार क्रियाओं पर आधारित होते हैं। दो वर्ष बाद बच्चा विचार को वाचिक रूप से व्यक्त करने लगता है और भाषा व विचार परस्पर निर्भर हो जाते हैं। संप्रत्ययात्मक चिंतन आंतरिक भाषा की गुणवत्ता पर, और आंतरिकभाषा चिंतन पर निर्भर करती है। बिना भाषा के विचार चाक्षुष या क्रियाओं से होते हैं, जबकि भावनाओं या औपचारिक संवाद में भाषा बिना विचार के भी प्रयुक्त हो सकती है। जब दोनों प्रक्रियाएँ मिलती हैं, तो तार्किक भाषा और वाचिक विचार संभव होते हैं।
भाषा एवं भाषा के उपयोग का विकास
भाषा का अर्थ एवं स्वरूप
पिछले खंड में हमने भाषा और चिंतन के संबंध पर चर्चा की। अब हम जानेंगे कि मनुष्य विभिन्न आयु स्तरों पर भाषा कैसे अर्जित करता है और उपयोग करता है। भाषा के बिना हम अपने विचार और भावनाएँ व्यक्त या दूसरों के विचार समझ नहीं सकते। शैशवावस्था से रोने और “माँ” कहने से शुरू होकर, शब्दों को जोड़ने, वाक्य बनाने के नियम सीखने और कई भाषाओं में दक्ष होने तक की यात्रा अद्भुत है। भाषा प्रतीकों, उन्हें संगठित करने वाले नियमों और संप्रेषण का माध्यम है। प्रतीक किसी वस्तु या घटना का प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसे “घर” या “विद्यालय”। नियम शब्दों के सही क्रम को निर्धारित करते हैं, जैसे “मैं विद्यालय जा रहा हूँ”। भाषा का मुख्य उद्देश्य विचारों, योजनाओं और भावनाओं का आदान-प्रदान है, जो मौखिक, हाव-भाव या संकेत भाषा के माध्यम से भी हो सकता है।
भाषा का विकास
1. भाषा की विशेषताएँ
भाषा जटिल, सर्जनात्मक और सहज प्रक्रिया है, जो केवल मनुष्यों में पाई जाती है। अन्य जीव जैसे चिम्पैंजी, डॉल्फिन और तोते संकेत भाषा सीख सकते हैं, लेकिन उनकी क्षमता मानवीय भाषा जैसी नहीं होती।
2. बच्चों में भाषा विकास के चरण
जन्म के समय शिशु केवल अविभेदित रोने से अपनी आवश्यकता व्यक्त करता है। धीरे-धीरे रोने में भेद आने लगता है, जैसे भूख या पीड़ा के लिए अलग स्वर। इसके बाद किलकारियाँ (जैसे ‘आऽ’, ‘ऊऽ’) आती हैं। लगभग 6 माह में बलबलाना शुरू होता है, जिसमें स्वर और व्यंजन ध्वनियाँ (‘दा’, ‘बा’) शामिल होती हैं। 9 माह तक शिशु ध्वनियों का अनुकरण करते हुए शब्द समूह बार-बार दोहराता है (‘दादा…’)। एक वर्ष में एक-शब्द अवस्था आती है (‘माँ’, ‘दा’), जबकि 18-20 माह में दो-शब्द अवस्था और तार भाषा का उपयोग होने लगता है (जैसे “रुपये भेजो”)। 2.5 से 3 वर्ष की उम्र में बच्चा भाषा के नियमों का उपयोग कर वाक्य बनाना शुरू कर देता है।
3. भाषा अर्जन –प्रकृति बनाम परिपोषण
दोनों महत्वपूर्ण (Nature + Nurture)।
4. सिद्धांत
(अ) बी.एफ. स्किनर (व्यवहारवादी दृष्टिकोण)
भाषा अधिगम से विकसित होती है और यह कई प्रक्रियाओं पर आधारित है। साहचर्य में बच्चा शब्द को वस्तु से जोड़ता है, जैसे बोतल देखकर “बोतल” कहना। अनुकरण द्वारा वह वयस्कों की नकल करता है। पुनर्बलन के रूप में सही बोलने पर मुस्कान या गले लगाने से उसे प्रोत्साहन मिलता है। रूपायतन में बच्चा धीरे-धीरे सही शब्द बोलना सीखता है। इसका साक्ष्य क्षेत्रीय भाषाओं और उच्चारणों में अंतर है, जो अलग-अलग पैटर्न के सुदृढ़ होने से बनते हैं।
(ब) नोआमचॉमस्की (जन्मजात दृष्टिकोण)
बच्चे व्याकरण सीखने की अंतर्निहित क्षमता के साथ जन्म लेते हैं। वे बिना औपचारिक शिक्षा के भाषा सीखते हैं और ऐसे नए वाक्य बना लेते हैं जो उन्होंने पहले कभी नहीं सुने। भाषा अधिगम के लिए एक क्रांतिक अवधि होती है, जिसमें यह प्रक्रिया सबसे प्रभावी होती है। नोमचॉम्स्की के अनुसार, बच्चे सर्वभाषा व्याकरण (Universal Grammar) के साथ जन्मते हैं, जो उन्हें किसी भी भाषा को सीखने में सक्षम बनाता है।
5. तुलना
स्किनर के अनुसार, भाषा सीखने का परिणाम है, जो अनुभव, अनुकरण और पुनर्बलन से विकसित होती है। जबकिचॉमस्की का मत है कि भाषा जैविक तत्परता और जन्मजात क्षमता पर आधारित है। दोनों दृष्टिकोण मिलकर भाषा विकास को समझने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
भाषा का उपयोग
भाषा का सही उपयोग केवल शब्दों और व्याकरण जानने से पूरा नहीं होता, बल्कि यह भी जरूरी है कि हम सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार बात करें। भाषा का प्रयोग करते समय हमारा उद्देश्य अलग-अलग हो सकता है, जैसे अनुरोध करना, धन्यवाद देना, सवाल पूछना आदि। इसलिए भाषा न केवल व्याकरण की दृष्टि से सही होनी चाहिए, बल्कि संदर्भ के अनुसार भी उपयुक्त होनी चाहिए। बच्चे अक्सर विनम्रता से बोलने या सही तरीके से अनुरोध करने में कठिनाई महसूस करते हैं, जिससे उनकी बात कभी-कभी आदेशजैसीलगती है। बातचीत करते समय भी बच्चों को बारी-बारी से बोलने और सुनने में परेशानी होती है।