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परवर्ती भित्ति-चित्रण परंपराएँ Notes in Hindi Class 11 Fine Art Chapter-5 Book-1

परवर्ती भित्ति-चित्रण परंपराएँ Notes in Hindi Class 11 Fine Art Chapter-5 Book-1



अजंता के बाद भी, चित्रकला के बहुत कम पुरास्थल बचे हैं जो चित्रकला की अपरंपर परंपरा के पुनर्निर्माण के लिए बहुमूल्य साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि प्रतिमाएँ अत्यधिक पलस्तर और रंग रोगन की हुईं थीं। गुफ़ाएँ खोदने की परंपरा भी अनेक ऐसे स्थानों पर चलती रही जहाँ मूर्तिकला और चित्रकला दोनों का एक साथ उपयोग होता रहा।


बादामी

कर्नाटक स्थित बादामी चालुक्य वंश की प्रारंभिक राजधानी थी, जहाँ 6वीं शताब्दी में गुफ़ा संख्या 4 का निर्माण हुआ, जिसे विष्णु गुफ़ा कहा जाता है। इसका संरक्षण चालुक्य नरेश मंगलेश ने किया था, जो पुलकेशिन प्रथम का पुत्र और कीर्तिवर्मन प्रथम का भाई था। गुफ़ा में विष्णु की प्रतिमा और मेहराबदार छत पर चित्रकारी के अवशेष मिलते हैं, जिनमें राजमहल के दृश्य जैसे कीर्तिवर्मन का नृत्य दृश्य और इंद्र की आकृतियाँ शामिल हैं। ये चित्र अजंता की भित्तिचित्र परंपरा का दक्षिण भारत में विस्तार दिखाते हैं। चित्रों की रेखाएँ लयबद्ध, संयोजन सुसंगठित और चेहरे की रेखाएँ स्पष्ट हैं, जो उस समय की परिपक्व चित्रकला का प्रमाण हैं।


पल्लव, पांड्य और चोल राजाओं के शासन काल में भित्तिचित्र

1. पल्लव वंश (7वीं शताब्दी):

  • महेन्द्रवर्मन प्रथम पल्लव वंश के एक प्रमुख शासक थे, जिनकी कलाप्रियता और स्थापत्य रुचि के लिए उन्हें कई उपाधियाँ दी गईं, जैसे—विचित्रचित्त (जिज्ञासु मन वाला), चित्रकारपुलि (कलाकार केशरी), और चैत्यकारी (मंदिर निर्माता)।
  • प्रमुख स्थल: उन्होंने पनामलई, मंडगपट्टू और कांचीपुरम् (तमिलनाडु) में मंदिरों का निर्माण करवाया।
  • चित्रकला: महेन्द्रवर्मन की प्रेरणा से अनेक चित्र बने। पनामलई की देवी आकृति में लालित्य है, जबकि कांचीपुरम् के चित्रों में सोमस्कंद (शिव-पार्वती-पुत्र स्कंद) का सुंदर चित्रण मिलता है। इन चित्रों में चेहरों की गोलाई, बड़ी आँखें, लयबद्ध रेखाएँ और अधिक अलंकरण की विशेषता दिखाई देती है।

2. पांड्य वंश:

प्रमुख स्थल: तिरुमलैपुरम् गुफाएँ और सित्तनवासल (पुदुकोट्टई, तमिलनाडु) की जैन गुफाएँ प्राचीन चित्रकला के महत्वपूर्ण केंद्र हैं।

चित्रकला की विशेषताएँ:

इन चित्रों में, टूटे हुए पलस्तर के बावजूद सुंदरता अब भी स्पष्ट झलकती है। नृत्य करती स्वर्गीय अप्सराएँ सिंदूरी लाल रंग में, पीले शरीर और लचकदार अंगों के साथ चित्रित हैं। चेहरों पर भावनात्मक अभिव्यक्ति स्पष्ट है। बड़ी और उभरी हुई आँखें चित्रों की खास विशेषता हैं, जो बाद में दक्षिण भारतीय कला की पहचान बन गईं। चित्रों में लय, गति और कल्पनाशक्ति भरपूर दिखाई देती है।

3. चोल वंश (9वीं–13वीं शताब्दी):

प्रमुख शासक:

राजराज चोल, राजेन्द्र चोल, राजराज चोल द्वितीय

प्रमुख स्थल और मंदिर:

तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण राजराज चोल ने कराया था, जो चोल स्थापत्य की उत्कृष्टता का प्रतीक है। राजेन्द्र चोल ने गंगैकोंडचोलपुरम् में भव्य मंदिर बनवाया, जबकि राजराज चोल द्वितीय ने दारासुरम् में सुंदर मंदिर का निर्माण कराया। नर्तनमलई भी एक महत्वपूर्ण स्थल है, जहाँ प्राचीन चित्रकला के कुछ उदाहरण आज भी उपलब्ध हैं।

बृहदेश्वर मंदिर चित्रकला:

बृहदेश्वर मंदिर में चित्रांकन परिक्रमा पथ की दीवारों पर किया गया है। ये चित्र दो परतों में हैं—ऊपरी परत 16वीं शताब्दी की है, जो नायक काल की चित्रकला को दर्शाती है, जबकि नीचे की परत चोल काल की मूल चित्रकला परंपरा को प्रदर्शित करती है, जो अधिक प्राचीन और कलात्मक रूप से समृद्ध है।

चित्र विषय:

बृहदेश्वर मंदिर की चित्रकला में भगवान शिव के विभिन्न रूपों का सुंदर चित्रण किया गया है, जैसे – कैलाशवासी शिव, त्रिपुरांतक शिव और नटराज शिव। साथ ही, चित्रों में राजराज चोल, उनके गुरु कुरुवर, और मंदिर में नृत्य करती हुई नर्तकियाँ भी दर्शाई गई हैं, जो भक्ति और सांस्कृतिक जीवन के जीवंत दृश्य प्रस्तुत करते हैं।


विजयनगर के भित्तिचित्र

1. चोल काल की चित्रकला (9वीं–13वीं शताब्दी):

प्रमुख स्थल:

बृहदेश्वर मंदिर, तंजावुर

विशेषताएँ:

बृहदेश्वर मंदिर की चित्रकला में शैली की परिपक्वता और अभ्यास का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। चित्रों में लहरियेदार रेखाएँ, हाव-भाव में स्वाभाविकता, और अंगों में लचक देखने को मिलती है। शिव के विविध रूपों जैसे नटराज, त्रिपुरांतक, और कैलाशवासी शिव का सुंदर चित्रण किया गया है। साथ ही राजराज चोल, उनके गुरु, और नृत्यांगनाओं के भी जीवंत चित्र मौजूद हैं, जो चित्रकला को ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ प्रदान करते हैं।

2. विजयनगर काल की चित्रकला (14वीं–16वीं शताब्दी):

प्रमुख स्थल:

तिरूपराकुनरम् (तमिलनाडु) में 14वीं शताब्दी के आरंभिक चित्र मिलते हैं। इसके अलावा, हम्पी का विरूपाक्ष मंदिर और लेपाक्षी मंदिर (हिंदूपुर, आंध्र प्रदेश) भी दक्षिण भारत की भित्तिचित्र परंपरा के महत्वपूर्ण स्थल हैं, जहाँ धार्मिक और सांस्कृतिक विषयों पर सुंदर चित्रांकन किया गया है।

चित्र विषय:

हम्पी और लेपाक्षी जैसे मंदिरों की चित्रकला में रामायण, महाभारत और विष्णु के विभिन्न अवतारों की कथाएँ प्रमुख रूप से चित्रित की गई हैं। साथ ही बुक्काराय के गुरु विद्यारण्य की पालकी शोभायात्रा का दृश्य भी चित्रों में दर्शाया गया है, जो धार्मिक और ऐतिहासिक घटनाओं का सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है।

चित्र शैली:

दक्षिण भारतीय मंदिरों की चित्रकला में पार्श्व चित्रण (side view) और दो आयामों में चित्रण की शैली अपनाई गई है। चित्रों में बड़ी आँखें, पतली कमर, और सरल, निश्चल रेखाएँ प्रमुख विशेषताएँ हैं। साथ ही, पूरे दृश्य में समरूप संयोजन (uniform composition) दिखाई देता है, जो चित्रों को संतुलित और सौंदर्यपूर्ण बनाता है।

3. नायक काल की चित्रकला (17वीं–18वीं शताब्दी):

प्रमुख स्थल:

तिरूपराकुनरम् में दो कालों के चित्र मिलते हैं—14वीं और 17वीं शताब्दी के, जो शैली में अंतर और विकास को दर्शाते हैं। इसके अलावा श्रीरंगम्, तिरूवरूर, चिदंबरम्, चेंगम और तिरुवलंजलि जैसे स्थल भी दक्षिण भारत की समृद्ध चित्रकला परंपरा के महत्वपूर्ण केंद्र हैं।

चित्र विषय:

दक्षिण भारतीय मंदिर चित्रकला में महावीर के जीवन प्रसंग, रामायण, महाभारत, और कृष्णलीला जैसे धार्मिक आख्यानों को चित्रित किया गया है। साथ ही मुचुकुंद कथा, शिव का भिक्षाटन रूप, और विष्णु का मोहिनी रूप भी प्रमुख विषय हैं। चेंगम स्थित श्रीकृष्ण मंदिर में लगभग 60 चित्रफलक मिलते हैं, जिनमें कथात्मक दृश्यों को विस्तारपूर्वक दर्शाया गया है।

शैलीगत विशेषताएँ:

दक्षिण भारत की चित्रकला में विजयनगर शैली का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है, हालांकि कुछ क्षेत्रीय अंतर भी देखने को मिलते हैं। आकृतियाँ समतल पृष्ठभूमि पर बनाई गई हैं और अधिकांश चित्र पार्श्व रूप (side view) में हैं। पुरुष आकृतियाँ यहाँ पतली कमर वाली हैं, जबकि विजयनगर शैली में आमतौर पर भारी पेट दर्शाया गया है। चित्रों में गति और लय का सुंदर समावेश है, जिससे चित्रों के अंतराल में भी गतिशीलता अनुभव होती है।

उदाहरण:

तिरुवलंजलि का नटराज चित्र – गति और परंपरा का सुंदर मिश्रण 


केरल के भित्तिचित्र 

दक्षिण भारत की चित्रकला में विजयनगर शैली का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है, हालांकि कुछ क्षेत्रीय अंतर भी देखने को मिलते हैं। आकृतियाँ समतल पृष्ठभूमि पर बनाई गई हैं और अधिकांश चित्र पार्श्व रूप (side view) में हैं। पुरुष आकृतियाँ यहाँ पतली कमर वाली हैं, जबकि विजयनगर शैली में आमतौर पर भारी पेट दर्शाया गया है। चित्रों में गति और लय का सुंदर समावेश है, जिससे चित्रों के अंतराल में भी गतिशीलता अनुभव होती है।

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