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भारतीय कला और स्थापत्य में मौर्योत्तर कालीन प्रवृत्तियाँ Notes in Hindi Class 11 Fine Art Chapter-4 Book-1

भारतीय कला और स्थापत्य में मौर्योत्तर कालीन प्रवृत्तियाँ Notes in Hindi Class 11 Fine Art Chapter-4 Book-1



ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के बाद मौर्य साम्राज्य के विघटन के साथ ही भारत में कई नए शासकों का उदय हुआ। उत्तर और मध्य भारत में शुंग, कण्व, कुशाण और गुप्त शासकों ने शासन किया, जबकि दक्षिण और पश्चिम भारत में सातवाहन, इक्ष्वाकु, अभीर और वाकाटक शासकों ने अपना वर्चस्व स्थापित किया। इसी काल में सनातन धर्म के दो प्रमुख संप्रदाय—वैष्णव और शैव धर्म—का भी विकास हुआ। इस युग की मूर्तिकला के महत्वपूर्ण केंद्र विदिशा, भरहुत, बोधगया, जगय्यपेट, मथुरा, खंडगिरि-उदयगिरि, भज और पावनी रहे, जहाँ से उत्कृष्ट मूर्तिकला के नमूने प्राप्त हुए हैं।


भरहुत

प्रमुख विशेषताएँ:

भरहुत की मूर्तियों में मौर्य कालीन यक्ष-यक्षिणियों की तरह दीर्घाकार (लंबी) आकृतियाँ दिखाई देती हैं। इन मूर्तियों में आयतन का उभार कम है, लेकिन रेखाएँ स्पष्ट रूप से उकेरी गई हैं। उत्कीर्णन छिछला है, जिससे आकृतियाँ सतह से अधिक बाहर नहीं निकली हैं और हाथ-पैर शरीर से चिपके हुए दिखते हैं। आख्यानात्मक शैली में त्रि-आयामी प्रभाव एक ओर झुकाव के साथ रचा गया है। प्रारंभ में कम पात्रों के साथ कहानियाँ प्रस्तुत की गईं, लेकिन समय के साथ अधिक पात्रों को जोड़ा जाने लगा। कभी एक चित्र में कई घटनाएँ दिखाई गई हैं, तो कभी एक घटना को पूरी सतह पर विस्तार से दर्शाया गया है। हाथों की स्थिति भी बदली—पहले वे छाती से चिपके हुए थे, बाद में स्वाभाविक ढंग से आगे बढ़ते हुए दिखाए गए। मूर्तिकार सामूहिक रूप से कार्य करते थे—पहले सतह को चिकना कर आकृतियाँ उकेरी जाती थीं। प्रारंभिक मूर्तियाँ कठोर मुद्रा में थीं, लेकिन समय के साथ उनमें गहराई और यथार्थता आई।

प्रमुख उदाहरण:

भरहुत, बोधगया, साँची स्तूप-2, जगय्यपेट में इस शैली की मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।

विशेष आख्यान उद्धृतियाँ (Reliefs):

भरहुत स्तूप की मूर्तियों में महारानी मायादेवी का स्वप्न दर्शाया गया है, जिसमें वे लेटी हुई हैं और एक हाथी आकाश से उतरकर उनकी कोख की ओर जा रहा है—यह बुद्ध के जन्म की भविष्यवाणी का प्रतीक है। जातक कथाओं में, जैसे रूरू जातक में, बोधिसत्व हिरन के रूप में एक व्यक्ति की जान बचाते हुए उसे पीठ पर उठाकर ले जाता है। एक अन्य दृश्य में वही व्यक्ति राजा को हिरन की पहचान बता रहा है, जबकि राजा उस पर तीर चलाने ही वाला होता है।

कलात्मक बदलाव:

ईसा पूर्व 1st-2nd शताब्दी की पुरुष प्रतिमाओं में बालों की सज्जा जटाओं जैसी गुंथी हुई दिखाई देती है। यह शैली लगभग सभी मूर्तियों में एक जैसी और समान रूप से प्रकट होती है।

आज के संग्रहालयों में:

भरहुत की कई महत्वपूर्ण मूर्तियाँ भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में संरक्षित हैं।


साँची का स्तूप

मूर्तिकला के विकास का अगला चरण साँची के स्तूप-1, मथुरा और आंध्र प्रदेश के वेन्गी (गुंटूर) की मूर्तियों में देखा जा सकता है, जो शैली और तकनीक की दृष्टि से काफी उन्नत हैं। साँची के स्तूप-1 में दो प्रदक्षिणा पथ और चार सुंदर तोरण हैं, जिन पर बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं के दृश्य गहराई और स्वाभाविकता से उकेरे गए हैं। आकृतियाँ अब अधिक गतिशील, प्राकृतिक हाव-भाव वाली और कम कठोर हैं। बुद्ध को प्रतीकों के माध्यम से दिखाने की परंपरा जारी रही। आख्यानों में विस्तार आया है, जैसे स्वप्न प्रसंग और कुशीनगर की घेराबंदी जैसे ऐतिहासिक घटनाएँ। मथुरा की मूर्तियाँ भी इसी प्रकार की विशेषताओं को दर्शाती हैं, यद्यपि उनके अंग-प्रत्यंग के रूपांकन में कुछ भिन्नता है।


मथुरा, सारनाथ एवं गांधार

1. प्रमुख मूर्तिकला केंद्र:

प्राचीन भारतीय मूर्तिकला के प्रमुख केंद्रों में उत्तर भारत में गांधार (अब पाकिस्तान में) और मथुरा (उत्तर प्रदेश) शामिल थे, जबकि दक्षिण भारत में वेन्गी (आंध्र प्रदेश) एक महत्वपूर्ण केंद्र था।

2. बुद्ध की मूर्तियों का विकास:

प्रारंभ में बुद्ध को प्रतिमा के बजाय प्रतीकों जैसे पदचिन्ह और बोधिवृक्ष से दर्शाया जाता था, लेकिन बाद में गांधार और मथुरा में बुद्ध की मानव रूप में मूर्तियाँ बननी शुरू हो गईं।

3. गांधार और मथुरा की मूर्तिकला की विशेषताएँ:

4. अन्य मूर्तियाँ (मथुरा):

इस काल में जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ, सम्राट कनिष्क की बिना सिर वाली मूर्तियाँ, विष्णु और शिव की मूर्तियाँ उनके आयुधों जैसे चक्र और त्रिशूल के साथ बनाई गईं। साथ ही यक्ष, यक्षिणी और अन्य मानव प्रतिमाएँ भी निर्मित की गईं। इनमें सबसे अधिक संख्या में बुद्ध की मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं।

5. शताब्दियों के अनुसार मूर्तिकला का विकास:

6. दो प्रमुख मूर्तिकला परंपराएँ (घराने):

1. मथुरा परंपरा:

इस काल की मूर्तियों में ओढ़ने के वस्त्र की कई तहें स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। आभामंडल को अत्यंत सजावटी रूप में दर्शाया गया है, और मूर्तियाँ मांसल व सजीव प्रतीत होती हैं, जिससे उनमें यथार्थता और जीवंतता झलकती है।

2. सारनाथ परंपरा:

इन मूर्तियों में दोनों कंधे वस्त्र से ढँके होते हैं, आभामंडल में बहुत कम सजावट दिखाई देती है, और चेहरा सौम्य व शांत भाव से युक्त होता है, जो साधना और गंभीरता का प्रतीक है।

7. अन्य महत्वपूर्ण स्थल:

कौशाम्बी उत्तर भारत का एक प्रमुख मूर्तिकला केंद्र था। पंजाब के संघोल से मथुरा शैली की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं, जबकि देवनिमोरी (गुजरात) गंगा घाटी से बाहर का एक महत्वपूर्ण स्तूप स्थल है।

8. मूर्तिकला संग्रहालय (जहाँ ये मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं):

मथुरा, सारनाथ, वाराणसी, नई दिल्ली, चेन्नई, अमरावती

9. परवर्ती शताब्दियों की विशेषताएँ:

इस काल की मूर्तियाँ पतली और छरहरी बनाई गईं, जिनमें वस्त्रों की पारदर्शिता को ही प्रमुख सौंदर्य तत्व के रूप में दर्शाया गया है।


दक्षिण भारतीय बौद्ध स्मारक

1. प्रमुख स्तूप स्थल (वेंगी क्षेत्र, आंध्र प्रदेश):

अमरावती, जगय्यपेट, भट्टीप्रोलु, नागार्जुनकोंडा, गोली, गुंटापल्ली और अनाकपल्ली (विशाखापट्टनम के पास) प्राचीन आंध्र प्रदेश के प्रमुख बौद्ध कला और मूर्तिकला केंद्र थे।

2. अमरावती स्तूप की विशेषताएँ:

अमरावती के महाचैत्य (विशाल स्तूप) की विशेषता यह है कि उसका प्रदक्षिणा पथ वेदिका से ढका हुआ था, जिस पर बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं से जुड़ी आख्यानात्मक मूर्तियाँ उकेरी गई थीं। तोरण (प्रवेश द्वार) अब नष्ट हो चुका है। गुम्बद पर उभारदार मूर्तियाँ हैं। प्रतिमाएँ पतली हैं, त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हैं, और उनके चेहरों पर विविध भाव दिखाई देते हैं। मूर्तियों का संयोजन जटिल है और उनमें तीन-आयामी प्रभाव स्पष्ट झलकता है। इन मूर्तियों में गति और रेखाओं में लचीलापन दिखाई देता है। अमरावती की कई महत्वपूर्ण मूर्तियाँ आज चेन्नई, दिल्ली और लंदन के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।

3. मूर्तियों में चित्रण (उदाहरण):

अमरावती मूर्तिकला में मायादेवी का स्वप्न एक प्रमुख विषय है, जिसमें हाथी के साथ शय्या पर महारानी और उनकी दासियाँ दर्शाई गई हैं। एक मूर्ति में बुद्ध के जन्म से जुड़ी चार घटनाएँ एक साथ दिखायी गई हैं। कई जातक कथाएँ भी उकेरी गई हैं, हालांकि कुछ कथाएँ इतनी जटिल हैं कि उन्हें स्पष्ट रूप से पहचाना नहीं जा सका है।

4. अन्य स्थल और विशेषताएँ:

  • नागार्जुनकोंडा और गोली (3rd Century CE) में मूर्तियों में गति कम है, लेकिन उभरी हुई सतहों पर आकृतियाँ स्वाभाविक और सुंदर दिखाई देती हैं। संयोजन प्रभावी और संतुलित है।
  • गुंटापल्ली (एलुरु के पास) में चट्टानों को काटकर गजपृष्ठीय और वृत्ताकार चैत्य कक्ष (2nd century BCE) बनाए गए, साथ ही संरचनात्मक मंदिर भी पाए जाते हैं।
  • अनाकपल्ली (विशाखापट्टनम) में चट्टानों को काटकर स्तूपों का निर्माण किया गया है।
  • सन्नति (गुलबर्गा, कर्नाटक) में अब तक का सबसे बड़ा खुदाई में प्राप्त स्तूप मिला है, जो अमरावती की तरह उभारदार मूर्तियों से सुसज्जित है।

5. संरचनात्मक निर्माण कार्य:

इस काल में बड़ी संख्या में स्तूपों के साथ-साथ मंदिर, विहार और चैत्य भी बनाए गए। उदाहरण के रूप में साँची का मंदिर संख्या 18 एक गजपृष्ठाकार चैत्य है, और गुंटापल्ली के मंदिर भी उल्लेखनीय संरचनाएँ हैं। हालांकि, अधिकांश प्राचीन संरचनात्मक चैत्य अब नष्ट हो चुके हैं।

6. बुद्ध व बोधिसत्व प्रतिमाएँ:

  • बुद्ध के अतिरिक्त अवलोकितेश्वर, पद्मपाणि, वज्रपाणि, अमिताभ और मैत्रेय जैसे बोधिसत्वों की मूर्तियाँ भी बनाई गईं।
  • वज्रयान शाखा के प्रभाव से इन मूर्तियों में मानवीय सद्गुणों का बोधिसत्व रूप में चित्रण हुआ। ये मूर्तियाँ न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक बनीं, बल्कि बौद्ध सिद्धांतों के प्रचार का प्रभावशाली माध्यम भी रहीं।


पश्चिम भारतीय गुफाएँ

1. प्रमुख काल व स्थान:

अधिकांश बौद्ध गुफाएँ ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी और उसके बाद की हैं। इन गुफाओं का प्रमुख निर्माण केंद्र महाराष्ट्र राज्य रहा है।

2. वास्तुकला की तीन प्रमुख शैलियाँ:

बौद्ध स्थापत्य में विभिन्न प्रकार के चैत्य कक्ष मिलते हैं। अजंता, पीतलखोड़ा और भज में गजपृष्ठीय (घोड़े की पीठ जैसी) मेहराबी छत वाले चैत्य कक्ष प्रमुख हैं। महाराष्ट्र के थाना-नादसर में इसी प्रकार की गजपृष्ठीय मेहराबी छत वाले स्तंभहीन कक्ष पाए जाते हैं। वहीं कोंडिवाइट (महाराष्ट्र) में सपाट छत वाला चतुष्कोणीय कक्ष है, जिसके पीछे एक वृत्ताकार छोटा कक्ष भी स्थित है।

3. चैत्य गुफ़ाओं की प्रमुख विशेषताएँ:

बौद्ध गुफाओं का मुख्य भाग अर्द्धवृत्ताकार मेहराब वाला एक विशाल कक्ष होता था। सामने का खुला भाग अक्सर लकड़ी की मोहरे (सजावटी पर्दे या ढांचा) से ढका होता था। अधिकांश गुफाओं में स्तूप पीछे की ओर स्थित होता था। कुछ गुफाओं, जैसे कोंडिवाइट में, खिड़की नहीं होती थी, जिससे भीतर का वातावरण गहन और ध्यान केंद्रित करने योग्य रहता था।

4. ईसा पूर्व पहली शताब्दी में बदलाव:

समय के साथ चैत्य कक्ष आयताकार बनाए जाने लगे, जैसे अजंता की गुफा संख्या 9 में देखा जा सकता है। इन कक्षों के सामने पत्थर की परदी (मुखौटा या façade) भी बनाई गई, जो उन्हें भव्यता प्रदान करती थी। ऐसे उदाहरण बेदसा, नासिक, कार्ला और कन्हेरी जैसी गुफाओं में प्रमुख रूप से मिलते हैं।

5. प्रमुख चैत्य स्थल:

कार्ला (महाराष्ट्र):

सबसे बड़ा गजपृष्ठीय चैत्य कक्ष चट्टान को तराशकर बनाया गया था। इसकी संरचना में दो खंभों वाला सहन (प्रवेश भाग), पत्थर की परदी दीवार, एक बरामदा, आंतरिक चैत्य कक्ष और पीछे स्थित स्तूप शामिल थे। इसकी सजावट में मानव और पशु आकृतियाँ प्रमुख थीं, जिनमें गति और जीवंतता स्पष्ट रूप से झलकती थी।

कन्हेरी गुफा सं. 3:

कार्ला चैत्य गुफा की योजना विस्तृत और परिष्कृत है, जिसमें गहराई और विस्तार दोनों का संयोजन दिखाई देता है। यह निर्माण एक साथ पूरा नहीं हुआ, बल्कि विभिन्न चरणों में हुआ, जिससे इसके स्थापत्य में विकास की स्पष्ट झलक मिलती है। स्थापत्य शैली, सजावट, और मूर्तिकला में समय के साथ हुए परिवर्तन इस गुफा की निर्माण प्रक्रिया को दर्शाते हैं।

6. विहार गुफ़ाओं की विशेषताएँ:

इस प्रकार की गुफाओं की संरचना में एक बरामदा, एक बड़ा मुख्य कक्ष और चारों ओर छोटे-छोटे प्रकोष्ठ शामिल होते थे। आरंभिक चरण में मेहराबों और द्वारों पर वेदिका डिज़ाइन जैसी समृद्ध सजावट की जाती थी, लेकिन समय के साथ इन सजावटों में कमी आ गई और शैली अधिक सादगीपूर्ण होती चली गई।

महत्वपूर्ण विहार गुफ़ाएँ:

अजंता की गुफा संख्या 12, बेदसा की गुफा संख्या 11, और नासिक की गुफाएं संख्या 3, 10 और 17 उल्लेखनीय हैं। इन गुफाओं की मोहरे (मुखावरण) पर मानव आकृतियाँ उकेरी गई हैं, और घट-आधार-शीर्ष पर सुंदर शिल्प कार्य किया गया है, जो उस समय की मूर्तिकला और स्थापत्य कला की उत्कृष्टता को दर्शाता है।

7. अन्य उल्लेखनीय स्थल:

  • जुन्नार (गणेशलेनी): इस स्थल की एक गुफा में गणेश प्रतिमा स्थापित होने के कारण इसे “गणेशलेनी” कहा जाता है। बाद में यहां के एक विहार में स्तूप जोड़कर उसे चैत्य-विहार में परिवर्तित किया गया। जुन्नार क्षेत्र में 200 से अधिक गुफाएँ हैं, जो इसे भारत का सबसे बड़ा गुफा समूह बनाती हैं।
  • कन्हेरी (मुंबई के पास): यहाँ लगभग 108 गुफाएँ हैं। यह स्थल आज भी सक्रिय है और धार्मिक व दर्शनीय दोनों रूपों में महत्वपूर्ण बना हुआ है।

8. मूर्तिकला में बदलाव (4th–5th Century CE):

बौद्ध स्थापत्य में स्तूपों के साथ बुद्ध की प्रतिमाएँ भी जोड़ी जाने लगीं, जिससे पूजा का केंद्र अधिक प्रत्यक्ष और साकार हुआ। साथ ही अवलोकितेश्वर, पद्मपाणि, वज्रपाणि, अमिताभ और मैत्रेय जैसे बोधिसत्वों की मूर्तियाँ भी बनाई गईं। वज्रयान बौद्ध परंपरा के अनुसार, इन मूर्तियों के माध्यम से मानवीय गुणों को मूर्त रूप में दर्शाया गया, जिससे धर्म का प्रचार और भावनात्मक जुड़ाव दोनों सशक्त हुए।

9. प्रमुख गुफा स्थल (Revision Table):


अजंता

1. स्थान और पहुँच:

एलोरा गुफाएँ महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित हैं। ये भुसावल, जलगाँव और औरंगाबाद जैसे प्रमुख शहरों से आसानी से पहुँची जा सकती हैं।

2. कुल गुफाओं की संख्या:

एलोरा में कुल 26 गुफाएँ हैं, जिनमें से 4 गुफाएँ (संख्या 9, 10, 19, और 26) चैत्य गुफाएँ हैं। शेष सभी गुफाएँ विहार गुफाएँ हैं, जो निवास और ध्यान के लिए उपयोग में आती थीं।

3. काल निर्धारण:

एलोरा की गुफाओं को तीन कालखंडों में विभाजित किया जाता है:

  • प्रारंभिक काल (ई.पू. 2वीं–1वीं शताब्दी): इस काल की प्रमुख गुफाएँ हैं – गुफा संख्या 9, 10, 12 और 13।
  • मध्य काल (5वीं शताब्दी): इस दौर की गुफाओं में गुफा संख्या 7, 11, 15 और 6 (ऊपरी व निचली दोनों) शामिल हैं।
  • परवर्ती काल (5वीं–6वीं शताब्दी): इसमें गुफा संख्या 1, 2, 16, 17, 19, 26 आदि प्रमुख हैं, जिनमें स्थापत्य और मूर्तिकला अधिक परिष्कृत दिखाई देती है।

4. वास्तु और योजना:

एलोरा की गुफाओं में गजपृष्ठीय छत, मंडप और खंभों वाला बरामदा प्रमुख स्थापत्य विशेषताएँ हैं। चैत्य गुफा सं. 19 और 26 विस्तृत नक्काशी और बुद्ध-बोधिसत्व की सुंदर आकृतियों से सज्जित हैं। विशेष रूप से गुफा सं. 26 में महापरिनिर्वाण बुद्ध की प्रभावशाली प्रतिमा स्थित है। वहीं गुफा सं. 5, 14, 23 और 24 अपूर्ण अवस्था में हैं, जो निर्माण प्रक्रिया के अधूरे पड़ाव को दर्शाती हैं।

5. प्रमुख संरक्षक:

6. चित्रकला का विकास:

  • प्रारंभिक चित्र (गुफा 9–10): ये ई.पू. 1वीं शताब्दी के हैं, जिनमें सीमित रंगों का प्रयोग, पैनी रेखाएँ और क्षैतिज नियोजन दिखता है। भौगोलिक घटना समूहों को अलग-अलग चित्रित किया गया है।
  • परवर्ती चित्र (गुफा 1, 2, 16, 17): ये 5वीं शताब्दी के हैं, जिनमें स्पष्ट रेखाएँ, लयबद्धता और त्रि-आयामी प्रभाव मिलता है। त्वचा के रंग भूरा, हरित, पीला और पीताभ भूरा प्रयोग किए गए हैं। आकृतियाँ भारी नहीं हैं, बल्कि उनमें लयात्मक घुमाव और कोमलता दिखाई देती है।

7. विशेष चित्र विषय:

अजंता की गुफाओं की दीवारों पर बुद्ध का जीवन, जातक कथाएँ और अवदान कथाएँ चित्रित की गई हैं। प्रमुख कथाओं में छदंत जातक (गुफा 10 और 17), महाजनक जातक, विधुरपंडित जातक और सिंहल अवदान शामिल हैं। इन कथाओं को पूरी तरह चित्रित किया गया है, जिससे धार्मिक शिक्षाओं और नैतिक मूल्यों का प्रभावशाली दृश्यात्मक प्रस्तुतीकरण मिलता है।

8. विशेष चित्र और मूर्तियाँ:

अजंता की गुफा 1 में पद्मपाणि और वज्रपाणि की आकृतियाँ अत्यंत सुंदर रूप में चित्रित की गई हैं, जो इस शैली की श्रेष्ठता दर्शाती हैं। गुफा 2 में वेंगी शैली का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है, जबकि कुछ अन्य आकृतियों में विदर्भ क्षेत्र की मूर्तिकला का भी प्रभाव देखा जा सकता है, जो स्थानीय और क्षेत्रीय कलात्मक परंपराओं के मेल को दर्शाता है।

9. संक्षिप्त पुनरावलोकन बिंदु:


एलोरा

स्थान:

औरंगाबाद जिले में, अजंता से 100 किमी दूर

गुफाओं की कुल संख्या:

एलोरा में कुल 34 गुफाएँ हैं, जिनमें गुफा 1 से 12 तक बौद्ध गुफाएँ हैं, 13 से 29 तक ब्राह्मण (हिंदू) गुफाएँ हैं, और 30 से 34 तक जैन गुफाएँ हैं। ये गुफाएँ तीन धर्मों की स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

विशेषताएँ:

एलोरा में तीनों धर्मों—बौद्ध, हिंदू और जैन—के मठ एक ही स्थान पर स्थित हैं, जो धार्मिक सह-अस्तित्व का अद्भुत उदाहरण है। इनका निर्माण 5वीं से 11वीं शताब्दी के बीच हुआ। यहाँ विदर्भ, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसी विभिन्न क्षेत्रों की कलात्मक शैलियों का संगम दिखाई देता है। मूर्तियाँ बड़ी, भारी तथा गहराई और गतिशीलता से युक्त हैं, जो स्थापत्य की उत्कृष्टता को दर्शाती हैं।

बौद्ध गुफाओं की विशेषताएँ:

एलोरा की बौद्ध गुफाएँ वज्रयान बौद्ध धर्म से संबंधित हैं। प्रमुख मूर्तियों में तारा, महामयूरी, अक्षोभ्य, अवलोकितेश्वर, मैत्रेय, अमिताभ, वैरोचन और वज्रराज शामिल हैं। गुफा संख्या 12 विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो तीन मंजिला है और इसमें प्रमुख बोधिसत्वों की प्रतिमाएँ स्थित हैं। बुद्ध की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ भी यहाँ मिलती हैं, जिनके साथ पद्मपाणि और वज्रपाणि अंगरक्षक के रूप में चित्रित किए गए हैं।

ब्राह्मण (हिंदू) गुफाओं की विशेषताएँ:

एलोरा की गुफा संख्या 14 एक प्रमुख दो मंजिला गुफा है। गुफा 13 से 28 तक की गुफाओं में शिव, विष्णु और उनके अवतारों की भव्य मूर्तियाँ मिलती हैं। शैव कथाओं में रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाने, अंधकासुर वध और कल्याण-सुंदर रूप जैसे दृश्य प्रमुख हैं। वहीं वैष्णव परंपरा में विष्णु के विभिन्न अवतारों का विस्तृत चित्रण किया गया है।

कला विशेषताएँ:

एलोरा की मूर्तियाँ विशाल, उभरी हुई और अत्यंत गतिशील हैं, जिनमें गहराई और जीवंतता स्पष्ट झलकती है। स्तंभों का डिज़ाइन सर्वप्रथम बौद्ध गुफाओं में दिखाई देता है, लेकिन जैन गुफाओं में ये स्तंभ अत्यधिक अलंकृत और सजावटी रूप में विकसित हुए हैं।

प्रसिद्ध गुफाएँ:

बाघ गुफाएँ (मध्य प्रदेश) – सरल नोट्स

भीमबेटका गुफाएँ मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित हैं, जो धार से लगभग 97 किमी दूर बघानी नदी के किनारे स्थित एक महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल हैं।

विशेषताएँ:

भीमबेटका क्षेत्र में सातवाहन काल की गुफाएँ चट्टानों को काटकर बनाई गई थीं, ये प्राकृतिक नहीं थीं। कुल 9 गुफाएँ थीं, लेकिन वर्तमान में केवल 5 गुफाएँ ही सुरक्षित बची हैं।

वास्तु रचना:

इन सभी गुफाएँ विहार थीं, यानी भिक्षुओं के विश्राम और निवास के लिए बनाई गई थीं। प्रत्येक विहार के पीछे की ओर एक चैत्य (प्रार्थना कक्ष) स्थित था, जहाँ भिक्षु ध्यान और पूजा करते थे।

चित्रकला विशेषताएँ:

भीमबेटका की गुफा संख्या 4, जिसे रंगमहल कहा जाता है, प्रमुख चित्रों के लिए प्रसिद्ध है। अन्य चित्र गुफा संख्या 2, 3, 5 और 7 में भी पाए जाते हैं। ये चित्र लाल-भूरे रंग में मोटे पलस्तर पर बनाए गए हैं। विशेष रूप से गुफा 4 के बरामदे की दीवारों पर सबसे सुंदर और विस्तृत चित्रांकन देखने को मिलता है।

चित्रों का संरक्षण:

वर्ष 1982 में चित्रों को ग्वालियर पुरातात्विक संग्रहालय में स्थापित किया गया


एलिफेंटा एवं अन्य स्थल

मुंबई के पास स्थित एलिफैंटा गुफ़ाएँ शैव धर्म से संबंधित हैं और एलोरा की समकालीन हैं। इनकी प्रतिमाएँ गहरे और हल्के प्रभावों के साथ पतली आकृति में दिखाई देती हैं। दक्कन में चट्टानों को काटकर गुफ़ाएँ बनाने की परंपरा महाराष्ट्र, कर्नाटक (बादामी, ऐहोली), आंध्र प्रदेश (विजयवाड़ा) और तमिलनाडु (महाबलीपुरम्) में पल्लव व चालुक्य शासकों के संरक्षण में जारी रही। छठी शताब्दी के बाद कला का विकास शासकों के संरक्षण में हुआ, जबकि पहले यह जनसामान्य की भागीदारी से फली-फूली। साथ ही, देशभर में पकी मिट्टी की छोटी-छोटी धार्मिक और घरेलू मूर्तियाँ भी पाई गईं, जो एक समानांतर स्थानीय परंपरा और उनकी व्यापक लोकप्रियता को दर्शाती हैं।


पूर्वी भारत की गुफ़ा परम्परा

पूर्वी भारत, विशेषकर आंध्र प्रदेश और ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में भी बौद्ध गुफाओं का निर्माण हुआ। आंध्र प्रदेश के गुंटापल्ली में स्तूप, विहार और गुफाएँ एक ही स्थल पर बनी हैं, जो इसे विशिष्ट बनाती हैं। यहाँ की चैत्य गुफा गोलाकार है और द्वार चैत्य शैली में बना है। ये गुफाएँ आकार में छोटी लेकिन सजावटी हैं, विशेषकर विहार गुफाएँ आयताकार और मेहराबदार छतों वाली हैं। रामपरेमपल्लम और अनकापल्ली भी महत्त्वपूर्ण स्थल हैं, जहाँ पहाड़ काटकर स्तूपों का निर्माण हुआ, अनकापल्ली में देश का एक विशाल स्तूप चट्टान काटकर बनाया गया। ओडिशा में खंडगिरि-उदयगिरि की गुफाएँ जैन परंपरा से जुड़ी हैं, जिनमें खारवेल के शिलालेख हैं। ये गुफाएँ प्रायः एक कक्ष की हैं, कुछ को पशु आकार में तराशा गया है, और बड़ी गुफाओं में स्तंभों से युक्त बरामदे तथा सजावटी प्रवेश द्वार हैं, जो लोक गाथाओं से सजे हैं।

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