भारत में मंदिरों का निर्माण पूजा स्थलों के रूप में कब शुरू हुआ, यह स्पष्ट नहीं है, परंतु वे देवी-देवताओं की पूजा और धार्मिक क्रियाओं के लिए बनाए गए होंगे। समय के साथ मंदिर केवल धार्मिक केंद्र नहीं रहे, बल्कि सामाजिक संस्थाएँ भी बन गए, जैसा कि शिलालेखों में राजाओं द्वारा दिए गए दान से स्पष्ट होता है। बाद में मंदिरों में अर्द्धमंडप, महामंडप, नाट्य मंडप जैसे मंडप भी जोड़े गए। दसवीं शताब्दी तक मंदिर भू-प्रशासन में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे थे।
प्राचीन मंदिर
स्तूपों के निर्माण के साथ-साथ सनातन या हिंदू धर्म में मंदिरों और देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का निर्माण भी शुरू हुआ। हर मंदिर में एक अधिष्ठाता देवता की मूर्ति होती थी और मंदिरों को धार्मिक आख्यानों से सजाया जाता था। पूजा गृह तीन प्रकार के होते थे—संधर (प्रदक्षिणा पथ सहित), निरंधर (प्रदक्षिणा पथ रहित), और सर्वतोभद्र (चारों ओर से प्रवेश योग्य)। देवगढ़, एरण, नचना-कुठार और उदयगिरि जैसे स्थलों पर प्रारंभिक मंदिर मिले हैं। हिंदू मंदिर का मूल ढाँचा गर्भगृह, मंडप, शिखर/विमान और वाहन से मिलकर बनता है। भारत में मंदिरों की प्रमुख शैलियाँ नागर (उत्तर भारत), द्रविड़ (दक्षिण भारत) और मिश्रित वेसर शैली मानी जाती हैं। कालांतर में मंदिरों की बनावट में जटिलता बढ़ी, पर उनकी मूल योजना वही बनी रही।
मूर्तिकला, मूर्तिविद्या और अलंकरण
देवी-देवताओं की मूर्तियों का अध्ययन मूर्तिविद्या (iconography) कहलाता है, जिसमें प्रतीकों और पुराण कथाओं के आधार पर मूर्तियों की पहचान की जाती है। हालांकि देवताओं की मूल कथाएँ स्थिर रहती हैं, पर समय और स्थान के अनुसार उनके स्वरूप में परिवर्तन आ जाता है। प्रतिमाओं की शैली, रूप और अलंकरण में क्षेत्रीय भिन्नताएँ दिखाई देती हैं। मूर्तियों की स्थापना मंदिर में सोच-समझकर की जाती थी—जैसे नागर शैली में गंगा-यमुना को गर्भगृह के द्वार पर और द्रविड़ शैली में द्वारपालों को गोपुरम् पर रखा जाता था। मिथुन, नवग्रह और यक्ष भी द्वार पर दिखते हैं, जबकि मुख्य देवता के विभिन्न रूप गर्भगृह की बाहरी दीवारों पर और अष्टदिग्पाल अपनी-अपनी दिशाओं में स्थापित किए जाते थे। मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटे मंदिरों में देवता के परिवार या अवतारों की मूर्तियाँ रहती थीं। विभिन्न पंथों के बीच प्रतिस्पर्धा के कारण देवताओं की प्रतिमाओं में विविधता आई और गवाक्ष, याली, कल्पलता, आमलक, कलश आदि जैसे अलंकरणों का प्रयोग मंदिरों में सुंदरता के लिए किया गया।
नागर या उत्तर भारतीय मंदिर शैली
उत्तर भारत में प्रचलित मंदिर वास्तुकला की नागर शैली में मंदिर ऊँचे चबूतरे पर बनाए जाते हैं, जिन तक सीढ़ियों से पहुँचा जाता है। दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली के विपरीत, इनमें चहारदीवारी या प्रवेशद्वार नहीं होते। मंदिरों में एक ऊँचा, घुमावदार शिखर होता है जो गर्भगृह के ठीक ऊपर स्थित होता है। प्रारंभ में एक ही शिखर होता था, लेकिन समय के साथ कई छोटे शिखरों का समूह बनने लगा। नागर शैली के शिखरों के आधार पर इसकी उपश्रेणियाँ बनीं, जैसे—रेखा-प्रासाद (सीधे ऊँचे उठते शिखर), फमसाना (चौड़े, ढलवां छत वाले भवन, मंडपों में उपयोग), और वलभी (शकटाकार, मेहराबदार छत वाले भवन)। वलभी शैली बौद्ध चैत्यों की शकटाकार योजना से प्रभावित थी, जिनमें लंबे कक्ष और अर्धगोलाकार पीठें होती थीं। नागर शैली का विकास धीरे-धीरे जटिल हुआ और मंदिरों में कई शिखरों वाला पर्वताकार स्वरूप दिखाई देने लगा।
मध्य भारत
1. सामान्य विशेषताएँ:
तीनों राज्यों के मंदिरों में बलुआ पत्थर का प्रयोग आम रूप से किया गया है। प्रारंभिक मंदिर सरल और आडंबरहीन होते थे, जो केवल पूजा के लिए बनाए गए थे और जिनमें स्थापत्य की अपेक्षा धार्मिक भावना पर अधिक बल दिया गया था।
2. गुप्त काल के मंदिर (4th–6th शताब्दी):
मध्य प्रदेश:
उदयगिरि मंदिर, विदिशा के पास स्थित है और यह गुफा मंदिरों के समूह का एक हिस्सा है, जो गुप्त काल की कला और वास्तुकला का महत्वपूर्ण उदाहरण है। वहीं, साँची मंदिर भारत का सबसे प्राचीन समतल छत वाला संरचनात्मक मंदिर माना जाता है, जो प्रारंभिक हिंदू मंदिर निर्माण शैली को दर्शाता है।
उत्तर प्रदेश:
देवगढ़ मंदिर, ललितपुर (उत्तर प्रदेश) में स्थित है और 6वीं शताब्दी का एक उत्कृष्ट गुप्तकालीन स्थापत्य उदाहरण है। यह मंदिर पंचायतन शैली में बना है, जिसमें एक मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर चार सहायक मंदिर होते हैं। इसमें विष्णु से संबंधित शिल्पांकन जैसे शेषशयन, नर-नारायण और गजेंद्र मोक्ष दर्शनीय हैं। इसका प्रवेश पश्चिम दिशा की ओर है, जो भारतीय मंदिरों में दुर्लभ माना जाता है। मंदिर का शिखर वक्ररेखीय रेखा-प्रासाद शैली में बना है, जो प्रारंभिक नागर शैली का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
3. खजुराहो के मंदिर (10वीं शताब्दी, चंदेल वंश):
लक्ष्मण मंदिर, 954 ई. में राजा धंग द्वारा नागर शैली में बनवाया गया था। यह मंदिर ऊँची वेदी पर स्थित है, जिसमें सीढ़ियाँ और चार कोनों पर छोटे-छोटे देवालय हैं। इसके शिखर पर आमलक और कलश नागर शैली की पहचान को दर्शाते हैं। वहीं, कंदरिया महादेव मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला की पराकाष्ठा का उदाहरण है, जो मध्य भारत की श्रेष्ठ शैली को दर्शाता है। इसकी मूर्तिकला में काम और आध्यात्मिकता का सुंदर संगम है, विशेष रूप से मिथुन मूर्तियाँ श्रृंगार रस और शुभता का प्रतीक हैं। ये मूर्तियाँ मंदिर के द्वार, बाहरी दीवारों और मंडप-देवालय के बीच पाई जाती हैं, जिनकी विशेषताएँ हैं – उभरी आकृतियाँ, तीखी नाक, लंबी आँखें और मुड़ी भौंहें।
4. चौसठ योगिनी मंदिर (खजुराहो):
10वीं शताब्दी से पहले बना यह मंदिर तांत्रिक पूजा का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें 64 वर्गाकार देवालय हैं, जिनमें प्रत्येक में एक देवी की प्रतिमा स्थापित है। यह मंदिर ग्रेनाइट शिलाओं को काटकर बनाया गया है। योगिनी पूजा की यह परंपरा 7वीं से 10वीं शताब्दी के बीच मध्य भारत, ओडिशा और तमिलनाडु में विशेष रूप से प्रचलित थी।
पश्चिमी भारत
भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र, जिसमें गुजरात, राजस्थान और कभी-कभी पश्चिमी मध्य प्रदेश शामिल हैं, में अनेक मंदिर मिलते हैं जो विभिन्न प्रकार के पत्थरों जैसे बलुआ पत्थर, धूसर स्लेटी, काले बेसाल्ट और सफेद संगमरमर से बने हैं। माउंट आबू और रणकपुर के जैन मंदिरों में संगमरमर का सुंदर उपयोग हुआ है। गुजरात का शामलाजी क्षेत्र गुप्तकाल के बाद की कला परंपराओं और नई शैली के मेल का उदाहरण है। मोढेरा का सूर्य मंदिर, जिसे सोलंकी राजा भीमदेव प्रथम ने 1026 ई. में बनवाया, स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है। इसके सामने सूर्यकुंड नामक बड़ा जलाशय है, जिसके भीतर 108 छोटे देवस्थान हैं। यह मंदिर चारों ओर से खुला है और इसमें गुजरात की काष्ठ-उत्कीर्णन परंपरा की झलक मिलती है। मंदिर पूर्वाभिमुख है और विषुव के दिनों में सूर्य की किरणें सीधे गर्भगृह पर पड़ती हैं।
पूर्वी भारत
- पूर्वी भारत के मंदिर – परिचय
- क्षेत्र: पूर्वोत्तर भारत, बंगाल और ओडिशा।
- विशेषता: हर क्षेत्र की अपनी अलग स्थापत्य शैली है।
पूर्वोत्तर भारत और बंगाल
- मुख्य बात यह है कि कई प्राचीन मंदिरों का समय के साथ नवीकरण किया गया है, जिससे अब वे ईंट और कंक्रीट की संरचना में परिवर्तित हो गए हैं। इसके कारण उनकी मूल स्थापत्य शैली अक्सर छुप जाती है और ऐतिहासिक वास्तुकला की पहचान मुश्किल हो जाती है।
- प्राचीन मंदिरों की निर्माण सामग्री में चिकनी पकी मिट्टी, जिसे टेराकोटा कहा जाता है, का प्रमुख रूप से प्रयोग होता था। इस पर देवी-देवताओं की सुंदर आकृतियाँ उकेरी जाती थीं, जो धार्मिक आस्था और कला का प्रतीक मानी जाती थीं।
महत्वपूर्ण स्थान:
- डापर्वतिया (असम): छठी शताब्दी का मंदिर द्वार मिला।
- रंगागोरा (तिनसुकिया के पास): गुप्तकालीन मूर्तियाँ मिलीं।
शैली का विकास:
12वीं से 14वीं शताब्दी के बीच असम में अहोम शैली का विकास हुआ, जो बंगाल की पाल शैली और टाई (Tai) जनजातियों की कला का अद्वितीय मिश्रण थी। यह शैली क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रभावों और स्थापत्य परंपराओं का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करती है।
पाल और सेन शैली
पाल शैली का विकास 9वीं से 12वीं सदी के बीच बिहार और बंगाल क्षेत्र में हुआ, जबकि सेन शैली 11वीं से 13वीं सदी तक सेन वंश के शासनकाल में विकसित हुई। इन दोनों शैलियों में हिंदू और बौद्ध धर्मों से संबंधित मूर्तियाँ प्रमुखता से बनाई गईं, जो धार्मिक सह-अस्तित्व और कलात्मक समृद्धि को दर्शाती हैं।
बंगाल की बंग शैली
- स्थानीय निर्माण: झोपड़ी जैसी छत, बाँस का उपयोग।
- उदाहरण: बर्द्धमान का सिद्धेश्वर महादेव मंदिर (9वीं सदी) — ऊँचा मोड़दार शिखर और आमलक।
- पुरूलिया जिले के मंदिर: काले-धूसर पत्थर से बने स्तंभ और मेहराब इस स्थापत्य शैली की प्रमुख विशेषताएँ थीं। इस शैली का प्रभाव बंगाल सल्तनत की इमारतों पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जिससे क्षेत्रीय वास्तुकला में विशिष्टता और भव्यता आई।
बंगला छत शैली
बाँस की झोपड़ी जैसी मुड़ी हुई ढलान वाली छत एक विशिष्ट स्थापत्य शैली थी, जिसे बाद में मुगल वास्तुकला ने भी अपनाया। यह शैली विशेष रूप से पकी ईंटों से बने मंदिरों में देखने को मिलती है और 17वीं सदी में काफी प्रसिद्ध हुई, जिससे क्षेत्रीय और मुगल स्थापत्य में सुंदर समन्वय दिखाई देता है।
विष्णुपुर और बांकुड़ा के मंदिर
पाल शैली, मुस्लिम वास्तुकला (जैसे गुंबद और मेहराब) और झोपड़ी जैसी मुड़ी छत की शैली के मेल से एक नई मिश्रित स्थापत्य शैली का विकास हुआ। ये मंदिर मुख्यतः ईंट से बनाए गए हैं और बंगाल क्षेत्र में इनकी एक विशिष्ट सांस्कृतिक और स्थापत्य पहचान बनी हुई है।
ओडिशा की मंदिर शैली
ओडिशा की मंदिर वास्तुकला में तीन प्रमुख उपशैलियाँ पाई जाती हैं – रेखापीड, ढाडकेव और खाकरा। ये शैली मुख्य रूप से प्राचीन कलिंग क्षेत्र यानी पुरी, भुवनेश्वर और कोणार्क में विकसित हुईं। इन मंदिरों की विशेषताएँ यह हैं कि इनका शिखर (देवल) लंबा, सीधा होता है जो ऊपर जाकर भीतर की ओर मुड़ता है। गर्भगृह से पहले का मंडप 'जगमोहन' कहलाता है। मंदिर की भूयोजना सामान्यतः वर्गाकार आधार पर बनी होती है, और ऊपरी ढाँचा बेलनाकार होता है। इन मंदिरों की बाहरी दीवारें अत्यधिक अलंकृत होती हैं, जबकि भीतर का भाग अपेक्षाकृत साधारण रहता है।
कोणार्क सूर्य मंदिर
कोणार्क का सूर्य मंदिर लगभग 1240 ई. के आसपास निर्मित हुआ था, जो अब भग्नावशेष के रूप में मौजूद है। कभी इसका शिखर 70 मीटर ऊँचा था, जो अब गिर चुका है। यह मंदिर एक विशाल वेदी पर बना है और इसकी पूरी संरचना एक रथ के रूप में बनाई गई है, जिसमें 12 जोड़ी विशाल पहिए सूर्य के रथ का प्रतीक हैं। दक्षिणी दीवार पर हरे पत्थर की सुंदर सूर्य मूर्ति स्थापित है। पहले तीन दिशाओं में सूर्य देव की तीन मूर्तियाँ थीं, जिन पर हर दिशा से सूर्य की किरणें सीधे गर्भगृह में प्रवेश करती थीं, जो इस मंदिर की अद्भुत वास्तुकला को दर्शाता है।
महत्वपूर्ण शब्दावली
पहाड़ी क्षेत्र
1. कश्मीर में गांधार प्रभाव
कश्मीर में पाँचवीं शताब्दी से गांधार कला, विशेष रूप से तक्षशिला और पेशावर क्षेत्र की प्रभावशाली शैली का असर दिखाई देने लगा। इसके साथ ही सारनाथ, मथुरा, गुजरात और बंगाल की गुप्त एवं गुप्तोत्तर कला परंपराएँ भी यहाँ तक पहुँचीं, जिससे कश्मीर की कला में विविध सांस्कृतिक प्रभावों का सुंदर समन्वय हुआ।
2. धार्मिक मिलन का केंद्र
कश्मीर, गढ़वाल और कुमाऊँ से ब्राह्मण, पंडित और बौद्ध भिक्षु नियमित रूप से कांचीपुरम् और नालंदा जैसे प्रमुख शिक्षाकेंद्रों की यात्रा करते थे। इस सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान के परिणामस्वरूप बौद्ध और हिंदू परंपराओं के बीच गहरा मेल देखने को मिला, जिसने भारतीय धार्मिक और स्थापत्य परंपरा को समृद्ध किया।
3. स्थानीय निर्माण परंपरा
हिमालयी क्षेत्रों में मंदिर मुख्यतः लकड़ी से बनाए जाते थे, जिनकी छतें ढलानदार होती थीं ताकि बर्फ आसानी से फिसल जाए। इन मंदिरों का गर्भगृह और शिखर प्रायः पत्थर में रेखा-प्रासाद शैली में निर्मित होते थे, जबकि मंडप पारंपरिक काष्ठ (लकड़ी) वास्तुशिल्प में बनाए जाते थे, जो स्थानीय जलवायु और संसाधनों के अनुसार अनुकूल थे।
4. पंड्रेथान मंदिर (8वीं-9वीं सदी)
यह मंदिर एक जलाशय के बीच बनी वेदी पर स्थित है और संभवतः शिव को समर्पित था। इसकी स्थापत्य शैली गुप्तोत्तर परंपरा से भिन्न है, क्योंकि यह बहुत कम अलंकृत है। इसकी प्रमुख सजावट में केवल हाथियों की कतार और सुशोभित प्रवेश द्वार शामिल हैं, जो इसे सरल किन्तु विशिष्ट बनाते हैं।
चम्बा और हिमाचल की मूर्तिकला
5. लक्षणा देवी मंदिर, चम्बा (7वीं सदी)
इन मंदिरों में प्रमुख मूर्तियाँ महिषासुरमर्दिनी और नरसिंह की हैं, जो गुप्तोत्तर काल की सौंदर्यशैली और स्थानीय कश्मीरी धातु परंपरा का सुंदर मेल दर्शाती हैं। इन मूर्तियों के निर्माण में पीतल, तांबा और जस्ता जैसी मिश्र धातुओं का उपयोग किया गया था, जो उन्हें टिकाऊ और कलात्मक रूप से प्रभावशाली बनाता है।
उत्तराखंड (कुमाऊँ और गढ़वाल) के मंदिर
6. जगेश्वर (अल्मोड़ा) और चंपावत मंदिर
ये मंदिर नागर शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिनमें ऊँची वेदी, शिखर और गर्भगृह जैसे तत्व प्रमुख हैं। ये विशेषताएँ उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य की विशिष्ट पहचान को दर्शाती हैं।
दक्षिण भारतीय मंदिर स्थापत्य (द्रविड़ शैली)
7. विशेषताएँ:
द्रविड़ शैली के इन मंदिरों की प्रमुख विशेषता है चारों ओर बनी चहारदीवारी और भव्य प्रवेश द्वार जिसे 'गोपुरम्' कहा जाता है। मंदिर का शिखर 'विमान' कहलाता है, जो पिरामिड की तरह ऊपर की ओर चढ़ता है। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही भयानक रूप वाले द्वारपालों की मूर्तियाँ दिखाई देती हैं, जो मंदिर की रक्षा के प्रतीक माने जाते हैं।
8. गर्भगृह = सबसे छोटा और सबसे पुराना भाग:
मंदिर विस्तार के साथ नई चहारदीवारियाँ और ऊँचे गोपुरम् बनते रहे।
9. दक्षिण की उप-श्रेणियाँ (5 आकृतियाँ):
पल्लव वंश (तमिलनाडु) – प्रारंभिक द्रविड़ शैली
10. महाबलीपुरम् / मामल्लपुरम्
- नरसिंहवर्मन प्रथम (640 ई.) → मामल्ल नाम से।
- तटीय मंदिर (शिव + विष्णु) = 3 देवालय एक साथ।
11. विशेषताएँ:
इस तटीय मंदिर परिसर में एक मंदिर पूर्वमुखी है, दूसरा पश्चिममुखी, और उनके बीच में विष्णु का मंदिर स्थित है। परिसर में एक जलाशय, भव्य गोपुरम् (प्रवेश द्वार), और कई सुंदर प्रतिमाएँ हैं। समुद्र के निकट होने के कारण समय के साथ कुछ मूर्तियाँ और आकृतियाँ क्षरण से क्षतिग्रस्त हो गई हैं, फिर भी यह मंदिर स्थापत्य का अनमोल उदाहरण बना हुआ है।
चोल वंश और बृहदेश्वर मंदिर (1009 ई.)