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मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला Notes in Hindi Class 11 Fine Art Chapter-6 Book-1

मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला Notes in Hindi Class 11 Fine Art Chapter-6 Book-1



भारत में मंदिरों का निर्माण पूजा स्थलों के रूप में कब शुरू हुआ, यह स्पष्ट नहीं है, परंतु वे देवी-देवताओं की पूजा और धार्मिक क्रियाओं के लिए बनाए गए होंगे। समय के साथ मंदिर केवल धार्मिक केंद्र नहीं रहे, बल्कि सामाजिक संस्थाएँ भी बन गए, जैसा कि शिलालेखों में राजाओं द्वारा दिए गए दान से स्पष्ट होता है। बाद में मंदिरों में अर्द्धमंडप, महामंडप, नाट्य मंडप जैसे मंडप भी जोड़े गए। दसवीं शताब्दी तक मंदिर भू-प्रशासन में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे थे।


प्राचीन मंदिर

स्तूपों के निर्माण के साथ-साथ सनातन या हिंदू धर्म में मंदिरों और देवी-देवताओं की प्रतिमाओं का निर्माण भी शुरू हुआ। हर मंदिर में एक अधिष्ठाता देवता की मूर्ति होती थी और मंदिरों को धार्मिक आख्यानों से सजाया जाता था। पूजा गृह तीन प्रकार के होते थे—संधर (प्रदक्षिणा पथ सहित), निरंधर (प्रदक्षिणा पथ रहित), और सर्वतोभद्र (चारों ओर से प्रवेश योग्य)। देवगढ़, एरण, नचना-कुठार और उदयगिरि जैसे स्थलों पर प्रारंभिक मंदिर मिले हैं। हिंदू मंदिर का मूल ढाँचा गर्भगृह, मंडप, शिखर/विमान और वाहन से मिलकर बनता है। भारत में मंदिरों की प्रमुख शैलियाँ नागर (उत्तर भारत), द्रविड़ (दक्षिण भारत) और मिश्रित वेसर शैली मानी जाती हैं। कालांतर में मंदिरों की बनावट में जटिलता बढ़ी, पर उनकी मूल योजना वही बनी रही।


मूर्तिकला, मूर्तिविद्या और अलंकरण

देवी-देवताओं की मूर्तियों का अध्ययन मूर्तिविद्या (iconography) कहलाता है, जिसमें प्रतीकों और पुराण कथाओं के आधार पर मूर्तियों की पहचान की जाती है। हालांकि देवताओं की मूल कथाएँ स्थिर रहती हैं, पर समय और स्थान के अनुसार उनके स्वरूप में परिवर्तन आ जाता है। प्रतिमाओं की शैली, रूप और अलंकरण में क्षेत्रीय भिन्नताएँ दिखाई देती हैं। मूर्तियों की स्थापना मंदिर में सोच-समझकर की जाती थी—जैसे नागर शैली में गंगा-यमुना को गर्भगृह के द्वार पर और द्रविड़ शैली में द्वारपालों को गोपुरम् पर रखा जाता था। मिथुन, नवग्रह और यक्ष भी द्वार पर दिखते हैं, जबकि मुख्य देवता के विभिन्न रूप गर्भगृह की बाहरी दीवारों पर और अष्टदिग्पाल अपनी-अपनी दिशाओं में स्थापित किए जाते थे। मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटे मंदिरों में देवता के परिवार या अवतारों की मूर्तियाँ रहती थीं। विभिन्न पंथों के बीच प्रतिस्पर्धा के कारण देवताओं की प्रतिमाओं में विविधता आई और गवाक्ष, याली, कल्पलता, आमलक, कलश आदि जैसे अलंकरणों का प्रयोग मंदिरों में सुंदरता के लिए किया गया।


नागर या उत्तर भारतीय मंदिर शैली

उत्तर भारत में प्रचलित मंदिर वास्तुकला की नागर शैली में मंदिर ऊँचे चबूतरे पर बनाए जाते हैं, जिन तक सीढ़ियों से पहुँचा जाता है। दक्षिण भारतीय द्रविड़ शैली के विपरीत, इनमें चहारदीवारी या प्रवेशद्वार नहीं होते। मंदिरों में एक ऊँचा, घुमावदार शिखर होता है जो गर्भगृह के ठीक ऊपर स्थित होता है। प्रारंभ में एक ही शिखर होता था, लेकिन समय के साथ कई छोटे शिखरों का समूह बनने लगा। नागर शैली के शिखरों के आधार पर इसकी उपश्रेणियाँ बनीं, जैसे—रेखा-प्रासाद (सीधे ऊँचे उठते शिखर), फमसाना (चौड़े, ढलवां छत वाले भवन, मंडपों में उपयोग), और वलभी (शकटाकार, मेहराबदार छत वाले भवन)। वलभी शैली बौद्ध चैत्यों की शकटाकार योजना से प्रभावित थी, जिनमें लंबे कक्ष और अर्धगोलाकार पीठें होती थीं। नागर शैली का विकास धीरे-धीरे जटिल हुआ और मंदिरों में कई शिखरों वाला पर्वताकार स्वरूप दिखाई देने लगा।


मध्य भारत

1. सामान्य विशेषताएँ:

तीनों राज्यों के मंदिरों में बलुआ पत्थर का प्रयोग आम रूप से किया गया है। प्रारंभिक मंदिर सरल और आडंबरहीन होते थे, जो केवल पूजा के लिए बनाए गए थे और जिनमें स्थापत्य की अपेक्षा धार्मिक भावना पर अधिक बल दिया गया था।

2. गुप्त काल के मंदिर (4th–6th शताब्दी):

मध्य प्रदेश:

उदयगिरि मंदिर, विदिशा के पास स्थित है और यह गुफा मंदिरों के समूह का एक हिस्सा है, जो गुप्त काल की कला और वास्तुकला का महत्वपूर्ण उदाहरण है। वहीं, साँची मंदिर भारत का सबसे प्राचीन समतल छत वाला संरचनात्मक मंदिर माना जाता है, जो प्रारंभिक हिंदू मंदिर निर्माण शैली को दर्शाता है।

उत्तर प्रदेश:

देवगढ़ मंदिर, ललितपुर (उत्तर प्रदेश) में स्थित है और 6वीं शताब्दी का एक उत्कृष्ट गुप्तकालीन स्थापत्य उदाहरण है। यह मंदिर पंचायतन शैली में बना है, जिसमें एक मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर चार सहायक मंदिर होते हैं। इसमें विष्णु से संबंधित शिल्पांकन जैसे शेषशयन, नर-नारायण और गजेंद्र मोक्ष दर्शनीय हैं। इसका प्रवेश पश्चिम दिशा की ओर है, जो भारतीय मंदिरों में दुर्लभ माना जाता है। मंदिर का शिखर वक्ररेखीय रेखा-प्रासाद शैली में बना है, जो प्रारंभिक नागर शैली का उदाहरण प्रस्तुत करता है।

3. खजुराहो के मंदिर (10वीं शताब्दी, चंदेल वंश):

लक्ष्मण मंदिर, 954 ई. में राजा धंग द्वारा नागर शैली में बनवाया गया था। यह मंदिर ऊँची वेदी पर स्थित है, जिसमें सीढ़ियाँ और चार कोनों पर छोटे-छोटे देवालय हैं। इसके शिखर पर आमलक और कलश नागर शैली की पहचान को दर्शाते हैं। वहीं, कंदरिया महादेव मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला की पराकाष्ठा का उदाहरण है, जो मध्य भारत की श्रेष्ठ शैली को दर्शाता है। इसकी मूर्तिकला में काम और आध्यात्मिकता का सुंदर संगम है, विशेष रूप से मिथुन मूर्तियाँ श्रृंगार रस और शुभता का प्रतीक हैं। ये मूर्तियाँ मंदिर के द्वार, बाहरी दीवारों और मंडप-देवालय के बीच पाई जाती हैं, जिनकी विशेषताएँ हैं – उभरी आकृतियाँ, तीखी नाक, लंबी आँखें और मुड़ी भौंहें।

4. चौसठ योगिनी मंदिर (खजुराहो):

10वीं शताब्दी से पहले बना यह मंदिर तांत्रिक पूजा का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें 64 वर्गाकार देवालय हैं, जिनमें प्रत्येक में एक देवी की प्रतिमा स्थापित है। यह मंदिर ग्रेनाइट शिलाओं को काटकर बनाया गया है। योगिनी पूजा की यह परंपरा 7वीं से 10वीं शताब्दी के बीच मध्य भारत, ओडिशा और तमिलनाडु में विशेष रूप से प्रचलित थी।


पश्चिमी भारत

भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र, जिसमें गुजरात, राजस्थान और कभी-कभी पश्चिमी मध्य प्रदेश शामिल हैं, में अनेक मंदिर मिलते हैं जो विभिन्न प्रकार के पत्थरों जैसे बलुआ पत्थर, धूसर स्लेटी, काले बेसाल्ट और सफेद संगमरमर से बने हैं। माउंट आबू और रणकपुर के जैन मंदिरों में संगमरमर का सुंदर उपयोग हुआ है। गुजरात का शामलाजी क्षेत्र गुप्तकाल के बाद की कला परंपराओं और नई शैली के मेल का उदाहरण है। मोढेरा का सूर्य मंदिर, जिसे सोलंकी राजा भीमदेव प्रथम ने 1026 ई. में बनवाया, स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है। इसके सामने सूर्यकुंड नामक बड़ा जलाशय है, जिसके भीतर 108 छोटे देवस्थान हैं। यह मंदिर चारों ओर से खुला है और इसमें गुजरात की काष्ठ-उत्कीर्णन परंपरा की झलक मिलती है। मंदिर पूर्वाभिमुख है और विषुव के दिनों में सूर्य की किरणें सीधे गर्भगृह पर पड़ती हैं।


पूर्वी भारत

  • पूर्वी भारत के मंदिर – परिचय
  • क्षेत्र: पूर्वोत्तर भारत, बंगाल और ओडिशा।
  • विशेषता: हर क्षेत्र की अपनी अलग स्थापत्य शैली है।

पूर्वोत्तर भारत और बंगाल

  • मुख्य बात यह है कि कई प्राचीन मंदिरों का समय के साथ नवीकरण किया गया है, जिससे अब वे ईंट और कंक्रीट की संरचना में परिवर्तित हो गए हैं। इसके कारण उनकी मूल स्थापत्य शैली अक्सर छुप जाती है और ऐतिहासिक वास्तुकला की पहचान मुश्किल हो जाती है।
  • प्राचीन मंदिरों की निर्माण सामग्री में चिकनी पकी मिट्टी, जिसे टेराकोटा कहा जाता है, का प्रमुख रूप से प्रयोग होता था। इस पर देवी-देवताओं की सुंदर आकृतियाँ उकेरी जाती थीं, जो धार्मिक आस्था और कला का प्रतीक मानी जाती थीं।

महत्वपूर्ण स्थान:

  • डापर्वतिया (असम): छठी शताब्दी का मंदिर द्वार मिला।
  • रंगागोरा (तिनसुकिया के पास): गुप्तकालीन मूर्तियाँ मिलीं।

शैली का विकास:

12वीं से 14वीं शताब्दी के बीच असम में अहोम शैली का विकास हुआ, जो बंगाल की पाल शैली और टाई (Tai) जनजातियों की कला का अद्वितीय मिश्रण थी। यह शैली क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रभावों और स्थापत्य परंपराओं का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करती है।

पाल और सेन शैली

पाल शैली का विकास 9वीं से 12वीं सदी के बीच बिहार और बंगाल क्षेत्र में हुआ, जबकि सेन शैली 11वीं से 13वीं सदी तक सेन वंश के शासनकाल में विकसित हुई। इन दोनों शैलियों में हिंदू और बौद्ध धर्मों से संबंधित मूर्तियाँ प्रमुखता से बनाई गईं, जो धार्मिक सह-अस्तित्व और कलात्मक समृद्धि को दर्शाती हैं।

बंगाल की बंग शैली

  • स्थानीय निर्माण: झोपड़ी जैसी छत, बाँस का उपयोग।
  • उदाहरण: बर्द्धमान का सिद्धेश्वर महादेव मंदिर (9वीं सदी) — ऊँचा मोड़दार शिखर और आमलक।
  • पुरूलिया जिले के मंदिर: काले-धूसर पत्थर से बने स्तंभ और मेहराब इस स्थापत्य शैली की प्रमुख विशेषताएँ थीं। इस शैली का प्रभाव बंगाल सल्तनत की इमारतों पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जिससे क्षेत्रीय वास्तुकला में विशिष्टता और भव्यता आई।

बंगला छत शैली

बाँस की झोपड़ी जैसी मुड़ी हुई ढलान वाली छत एक विशिष्ट स्थापत्य शैली थी, जिसे बाद में मुगल वास्तुकला ने भी अपनाया। यह शैली विशेष रूप से पकी ईंटों से बने मंदिरों में देखने को मिलती है और 17वीं सदी में काफी प्रसिद्ध हुई, जिससे क्षेत्रीय और मुगल स्थापत्य में सुंदर समन्वय दिखाई देता है।

विष्णुपुर और बांकुड़ा के मंदिर

पाल शैली, मुस्लिम वास्तुकला (जैसे गुंबद और मेहराब) और झोपड़ी जैसी मुड़ी छत की शैली के मेल से एक नई मिश्रित स्थापत्य शैली का विकास हुआ। ये मंदिर मुख्यतः ईंट से बनाए गए हैं और बंगाल क्षेत्र में इनकी एक विशिष्ट सांस्कृतिक और स्थापत्य पहचान बनी हुई है।

ओडिशा की मंदिर शैली

ओडिशा की मंदिर वास्तुकला में तीन प्रमुख उपशैलियाँ पाई जाती हैं – रेखापीड, ढाडकेव और खाकरा। ये शैली मुख्य रूप से प्राचीन कलिंग क्षेत्र यानी पुरी, भुवनेश्वर और कोणार्क में विकसित हुईं। इन मंदिरों की विशेषताएँ यह हैं कि इनका शिखर (देवल) लंबा, सीधा होता है जो ऊपर जाकर भीतर की ओर मुड़ता है। गर्भगृह से पहले का मंडप 'जगमोहन' कहलाता है। मंदिर की भूयोजना सामान्यतः वर्गाकार आधार पर बनी होती है, और ऊपरी ढाँचा बेलनाकार होता है। इन मंदिरों की बाहरी दीवारें अत्यधिक अलंकृत होती हैं, जबकि भीतर का भाग अपेक्षाकृत साधारण रहता है।

कोणार्क सूर्य मंदिर

कोणार्क का सूर्य मंदिर लगभग 1240 ई. के आसपास निर्मित हुआ था, जो अब भग्नावशेष के रूप में मौजूद है। कभी इसका शिखर 70 मीटर ऊँचा था, जो अब गिर चुका है। यह मंदिर एक विशाल वेदी पर बना है और इसकी पूरी संरचना एक रथ के रूप में बनाई गई है, जिसमें 12 जोड़ी विशाल पहिए सूर्य के रथ का प्रतीक हैं। दक्षिणी दीवार पर हरे पत्थर की सुंदर सूर्य मूर्ति स्थापित है। पहले तीन दिशाओं में सूर्य देव की तीन मूर्तियाँ थीं, जिन पर हर दिशा से सूर्य की किरणें सीधे गर्भगृह में प्रवेश करती थीं, जो इस मंदिर की अद्भुत वास्तुकला को दर्शाता है।

महत्वपूर्ण शब्दावली


पहाड़ी क्षेत्र

1. कश्मीर में गांधार प्रभाव

कश्मीर में पाँचवीं शताब्दी से गांधार कला, विशेष रूप से तक्षशिला और पेशावर क्षेत्र की प्रभावशाली शैली का असर दिखाई देने लगा। इसके साथ ही सारनाथ, मथुरा, गुजरात और बंगाल की गुप्त एवं गुप्तोत्तर कला परंपराएँ भी यहाँ तक पहुँचीं, जिससे कश्मीर की कला में विविध सांस्कृतिक प्रभावों का सुंदर समन्वय हुआ।

2. धार्मिक मिलन का केंद्र

कश्मीर, गढ़वाल और कुमाऊँ से ब्राह्मण, पंडित और बौद्ध भिक्षु नियमित रूप से कांचीपुरम् और नालंदा जैसे प्रमुख शिक्षाकेंद्रों की यात्रा करते थे। इस सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान के परिणामस्वरूप बौद्ध और हिंदू परंपराओं के बीच गहरा मेल देखने को मिला, जिसने भारतीय धार्मिक और स्थापत्य परंपरा को समृद्ध किया।

3. स्थानीय निर्माण परंपरा

हिमालयी क्षेत्रों में मंदिर मुख्यतः लकड़ी से बनाए जाते थे, जिनकी छतें ढलानदार होती थीं ताकि बर्फ आसानी से फिसल जाए। इन मंदिरों का गर्भगृह और शिखर प्रायः पत्थर में रेखा-प्रासाद शैली में निर्मित होते थे, जबकि मंडप पारंपरिक काष्ठ (लकड़ी) वास्तुशिल्प में बनाए जाते थे, जो स्थानीय जलवायु और संसाधनों के अनुसार अनुकूल थे।

4. पंड्रेथान मंदिर (8वीं-9वीं सदी)

यह मंदिर एक जलाशय के बीच बनी वेदी पर स्थित है और संभवतः शिव को समर्पित था। इसकी स्थापत्य शैली गुप्तोत्तर परंपरा से भिन्न है, क्योंकि यह बहुत कम अलंकृत है। इसकी प्रमुख सजावट में केवल हाथियों की कतार और सुशोभित प्रवेश द्वार शामिल हैं, जो इसे सरल किन्तु विशिष्ट बनाते हैं।

चम्बा और हिमाचल की मूर्तिकला

5. लक्षणा देवी मंदिर, चम्बा (7वीं सदी)

इन मंदिरों में प्रमुख मूर्तियाँ महिषासुरमर्दिनी और नरसिंह की हैं, जो गुप्तोत्तर काल की सौंदर्यशैली और स्थानीय कश्मीरी धातु परंपरा का सुंदर मेल दर्शाती हैं। इन मूर्तियों के निर्माण में पीतल, तांबा और जस्ता जैसी मिश्र धातुओं का उपयोग किया गया था, जो उन्हें टिकाऊ और कलात्मक रूप से प्रभावशाली बनाता है।

उत्तराखंड (कुमाऊँ और गढ़वाल) के मंदिर

6. जगेश्वर (अल्मोड़ा) और चंपावत मंदिर

ये मंदिर नागर शैली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिनमें ऊँची वेदी, शिखर और गर्भगृह जैसे तत्व प्रमुख हैं। ये विशेषताएँ उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य की विशिष्ट पहचान को दर्शाती हैं।

दक्षिण भारतीय मंदिर स्थापत्य (द्रविड़ शैली)

7. विशेषताएँ:

द्रविड़ शैली के इन मंदिरों की प्रमुख विशेषता है चारों ओर बनी चहारदीवारी और भव्य प्रवेश द्वार जिसे 'गोपुरम्' कहा जाता है। मंदिर का शिखर 'विमान' कहलाता है, जो पिरामिड की तरह ऊपर की ओर चढ़ता है। मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही भयानक रूप वाले द्वारपालों की मूर्तियाँ दिखाई देती हैं, जो मंदिर की रक्षा के प्रतीक माने जाते हैं।

8. गर्भगृह = सबसे छोटा और सबसे पुराना भाग:

मंदिर विस्तार के साथ नई चहारदीवारियाँ और ऊँचे गोपुरम् बनते रहे।

9. दक्षिण की उप-श्रेणियाँ (5 आकृतियाँ):

पल्लव वंश (तमिलनाडु) – प्रारंभिक द्रविड़ शैली

10. महाबलीपुरम् / मामल्लपुरम्

  • नरसिंहवर्मन प्रथम (640 ई.) → मामल्ल नाम से।
  • तटीय मंदिर (शिव + विष्णु) = 3 देवालय एक साथ।

11. विशेषताएँ:

इस तटीय मंदिर परिसर में एक मंदिर पूर्वमुखी है, दूसरा पश्चिममुखी, और उनके बीच में विष्णु का मंदिर स्थित है। परिसर में एक जलाशय, भव्य गोपुरम् (प्रवेश द्वार), और कई सुंदर प्रतिमाएँ हैं। समुद्र के निकट होने के कारण समय के साथ कुछ मूर्तियाँ और आकृतियाँ क्षरण से क्षतिग्रस्त हो गई हैं, फिर भी यह मंदिर स्थापत्य का अनमोल उदाहरण बना हुआ है।

चोल वंश और बृहदेश्वर मंदिर (1009 ई.)

12. राजराज चोल द्वारा निर्माण

यह मंदिर भारत का सबसे ऊँचा मंदिर माना जाता है, जिसका विमान लगभग 70 मीटर ऊँचा है। इसमें एक विशाल शिवलिंग स्थापित है और गर्भगृह दो मंजिला है, जो इसे विशेष बनाता है। इस मंदिर में पहली बार दो बड़े गोपुरम् (प्रवेश द्वार) एक साथ बनाए गए, जो द्रविड़ शैली की भव्यता और स्थापत्य कौशल का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

13. अन्य विशेषताएँ:

इस मंदिर का शिखर अष्टभुजीय (आठ कोणों वाला) है और परिसर में विशाल नंदी मूर्तियाँ स्थापित हैं। गोपुरों (प्रवेश द्वारों) पर सुंदर मूर्तियाँ उकेरी गई हैं, जिनमें से कुछ मराठा काल की हैं। मंदिर की दीवारों पर बने चित्रों में विभिन्न पौराणिक कथाओं का चित्रण किया गया है, जो धार्मिक भावना और कलात्मकता का सुंदर समन्वय दर्शाते हैं।


दक्कन की वास्तुकला

1. वेसर शैली (Vesara Style) – मिश्रित शैली

वेसर शैली नागर (उत्तर भारत) और द्रविड़ (दक्षिण भारत) स्थापत्य शैलियों का एक सुंदर संकरण है। कुछ ग्रंथों में इसे "वेसर" नाम से उल्लेखित किया गया है। यह शैली मुख्य रूप से कर्नाटक, विशेषकर दक्कन क्षेत्र में विकसित हुई। इसका प्रारंभ 7वीं शताब्दी से हुआ और 8वीं शताब्दी में यह शैली विशेष रूप से लोकप्रिय हुई, जो उत्तर और दक्षिण भारतीय वास्तुकला के मेल का प्रतीक बनी।

2. एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर (750 ई.)

यह भव्य मंदिर राष्ट्रकूट वंश द्वारा निर्मित किया गया था और इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे एक ही शैलखण्ड (पत्थर की चट्टान) को काटकर बनाया गया है। यह पूर्णतः द्रविड़ शैली में निर्मित है और भगवान शिव को समर्पित है। इसका प्रवेशद्वार गोपुरम् के समान भव्य है, जिसकी ऊँचाई लगभग 30 मीटर है। मंदिर परिसर में नंदी मंडप, उपासना कक्ष और कई सहायक देवालय भी शामिल हैं, जो इसकी स्थापत्य महानता को दर्शाते हैं।

3. चालुक्य वंश की वास्तुकला

पुलकेशिन I ने 543 ई. में बादामी क्षेत्र से अपने शासन की शुरुआत की। प्रारंभ में यहाँ शैलकृत गुफाओं का निर्माण हुआ, जिसके बाद संरचनात्मक मंदिर बनाए गए। इन मंदिरों की मूर्तियों की विशेषता है – पतली आकृतियाँ, लंबे चेहरे और अलंकृत वस्त्र, जो वाकाटक शैली से भिन्न और विशिष्ट कलात्मक पहचान को दर्शाते हैं।

महत्वपूर्ण स्थल:

पट्टडकल का विरूपाक्ष मंदिर 733–744 ई. के बीच विक्रमादित्य द्वितीय की रानी लोका महादेवी द्वारा बनवाया गया था और यह द्रविड़ शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। पापनाथ मंदिर भी प्रारंभिक द्रविड़ शैली में निर्मित है। वहीं, महाकूट और आलमपुर के मंदिरों में नागर शैली की झलक मिलती है। ऐहोल का दुर्गा मंदिर गजपृष्ठीय चैत्यों से प्रेरित है, जो बरामदे से घिरा हुआ है और इसका शिखर नागर शैली में है। लाडखान मंदिर लकड़ी के ढलवा छत वाले मंदिरों से प्रेरित होकर पत्थर में निर्मित किया गया है, जो शैली का अनूठा प्रयोग दर्शाता है।

4. मंदिरों की विविधता – कारण

एक ही स्थान पर विभिन्न स्थापत्य शैलियों का दिखाई देना उस काल की जिज्ञासा, रचनात्मक प्रतिस्पर्धा और कलात्मक विविधता का प्रतीक है। यह कारीगरों की सर्जनात्मक आकांक्षा और अन्य क्षेत्रों से उनके संपर्क को दर्शाता है, जिससे स्थापत्य में नवाचार और शैलीगत समन्वय संभव हुआ।

5. होयसल वंश (12वीं सदी)

प्रमुख स्थल: बेलूर, हलेबिड, सोमनाथपुर

होयसल शैली के ये मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से अत्यंत विशिष्ट हैं। इनकी योजना पारंपरिक वर्गाकार मंदिरों से हटकर तारकीय (स्टार-आकार) रूप में बनाई गई है। निर्माण में घिया पत्थर (Soapstone) का उपयोग किया गया, जो अपनी मुलायम प्रकृति के कारण अत्यंत बारीक नक्काशी को संभव बनाता है। मंदिरों में आभूषणों और आकृतियों पर अत्यंत जटिल उत्कीर्णन दिखाई देता है। शिव को नटराज रूप में समर्पित इन मंदिरों में दोहरी संरचना पाई जाती है—जैसे दो नंदी मंडप और एक नृत्य या संगीत मंडप।

हलेबिड मंदिर (होयसलेश्वर मंदिर): इसका निर्माण 1150 ई. के आसपास हुआ था। मंदिर की दीवारों पर सैकड़ों हाथियों की एक सुंदर कतार बनी हुई है, जिनमें प्रत्येक हाथी अलग-अलग मुद्रा में अंकित है, जो कारीगरों की अद्भुत कलात्मकता को दर्शाता है।

6. विजयनगर कालीन वास्तुकला (1336 ई. के बाद)

विशेषताएँ:

विजयनगर साम्राज्य की स्थापत्य शैली में द्रविड़ परंपरा का आधार रहते हुए इस्लामी प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जो सल्तनतों के संपर्क के कारण संभव हुआ। इस शैली को “संकलनवाद” या मिश्रित स्थापत्य शैली कहा जाता है, जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक और स्थापत्य तत्वों का सुंदर समन्वय होता है। विदेशी यात्रियों जैसे निकोलो डि कंटी, अब्द अल-रज्जाक और डोमिंगो पेइस ने भी विजयनगर की भव्यता और स्थापत्य की प्रशंसा की है।

महत्त्व:

यह काल समृद्धि और सांस्कृतिक उत्कर्ष का समय था। यहाँ की मूर्तियाँ चोल परंपरा से प्रेरित थीं, लेकिन उनमें नई कलात्मक दृष्टि और नवीनता भी देखी जाती है, जो विजयनगर स्थापत्य को विशिष्ट बनाती है।

7. कर्नाटक क्षेत्र की स्थापत्य शैलियों की तुलना



बौद्ध और जैन वास्तुकला की प्रगति

1. हिंदू वास्तुकला के साथ-साथ बौद्ध और जैन वास्तुकला की समान प्रगति

5वीं से 14वीं शताब्दी के बीच बौद्ध और जैन कला, हिंदू कला के साथ समानांतर रूप से विकसित हुई। इस धार्मिक सह-अस्तित्व का प्रमाण एलोरा, बादामी, खजुराहो और कन्नौज जैसे प्रमुख स्थलों पर देखने को मिलता है, जहाँ एक ही परिसर में विभिन्न धर्मों से संबंधित स्मारक और स्थापत्य संरचनाएँ मौजूद हैं। यह विविधता भारत की सांस्कृतिक सहिष्णुता और कलात्मक समृद्धि को दर्शाती है।

2. पाल वंश और बौद्ध केंद्र

8वीं सदी में पाल शासकों ने पूर्वी भारत, विशेष रूप से मगध, बिहार और बंगाल में बौद्ध धर्म को सक्रिय संरक्षण प्रदान किया। इनमें धर्मपाल विशेष रूप से उल्लेखनीय थे, जिन्होंने गंगा घाटी क्षेत्र में कृषि और व्यापार को प्रोत्साहित कर एक सुदृढ़ और समृद्ध साम्राज्य की नींव रखी। उनके शासनकाल में बौद्ध कला, शिक्षा और वास्तुकला को नया उत्कर्ष प्राप्त हुआ।

3. बोधगया और महाबोधि मंदिर

महाबोधि मंदिर वह स्थल है जहाँ सिद्धार्थ को बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसका निर्माण संभवतः सम्राट अशोक द्वारा कराया गया था। वर्तमान मंदिर का स्वरूप औपनिवेशिक काल में पुनर्निर्मित किया गया। इसकी स्थापत्य शैली नागर और द्रविड़ दोनों से भिन्न है, क्योंकि यह सीधे ऊपर उठती हुई सरल और प्रभावशाली संरचना के रूप में निर्मित है, जो इसे विशेष बनाती है।

4. नालंदा विश्वविद्यालय – एक महाविहार

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं सदी में गुप्त शासक कुमारगुप्त I द्वारा की गई थी। यह एक प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र था जहाँ बौद्ध धर्म के तीनों प्रमुख संप्रदाय – थेरवाद, महायान और वज्रयान – का अध्ययन और शिक्षण किया जाता था। नालंदा का अंतरराष्ट्रीय महत्त्व इतना था कि चीन, तिब्बत, श्रीलंका और बर्मा जैसे देशों से भिक्षु और छात्र यहाँ अध्ययन के लिए आते थे, जिससे यह प्राचीन भारत का एक प्रमुख वैश्विक ज्ञान केंद्र बन गया था।

5. नालंदा कला शैली

नालंदा शैली (7वीं–12वीं सदी) की मूर्तिकला का स्रोत सारनाथ की गुप्त शैली और बिहार-मध्य भारत की स्थानीय कलात्मक परंपराओं में निहित है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं त्रिआयामी मूर्तियाँ, सुंदर व जटिल आभूषण, और बड़ी पटिया (आधार पट्टिका) पर निर्मित आकृतियाँ। इस शैली में उत्कृष्ट गुणवत्ता और शिल्पकला का उच्च स्तर दिखाई देता है, जो इसे बौद्ध कला की एक विशिष्ट और परिष्कृत धारा बनाता है।

6. नालंदा की कांस्य मूर्तियाँ

7वीं से 12वीं सदी के बीच नालंदा शैली की मूर्तियाँ सर्वाधिक संख्या में प्राप्त हुई हैं। प्रारंभिक चरण में इनमें महायान परंपरा की मूर्तियाँ प्रमुख थीं, जैसे बुद्ध, मंजुश्री और अवलोकितेश्वर की प्रतिमाएँ। बाद के समय में वज्रयान परंपरा का प्रभाव स्पष्ट हुआ, जिसमें वज्रशारदा, खसर्पण और मुकुटधारी बुद्ध जैसी मूर्तियाँ निर्मित की गईं, जो इस शैली के विकास और विविधता को दर्शाती हैं।

7. बौद्ध मठों के अन्य केंद्र

सीरपुर (छत्तीसगढ़) में ओडिशी शैली की स्थापत्य परंपरा दिखाई देती है, और यहाँ की मूर्तियाँ नालंदा शैली से काफी मिलती-जुलती हैं। ओडिशा में ललितगिरि, वज्रगिरि और रत्नागिरि जैसे स्थल उस काल के प्रमुख बौद्ध केंद्र रहे हैं, जहाँ वज्रयान परंपरा का विशेष प्रभाव था। वहीं, नागपट्टनम् (तमिलनाडु) चोल काल में एक महत्वपूर्ण बौद्ध तीर्थ स्थल था, जहाँ श्रीलंका से व्यापार और धार्मिक संपर्क सक्रिय थे, जो समुद्री मार्ग से जुड़ी बौद्ध गतिविधियों का प्रमाण देते हैं।

8. जैन वास्तुकला की विशेषताएँ

जैन कला और स्थापत्य भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में फैली हुई है। दक्कन क्षेत्र में एलोरा और ऐहोल, मध्य भारत में देवगढ़, खजुराहो और ग्वालियर इसके प्रमुख केंद्र हैं। कर्नाटक के श्रवण बेलगोला में बाहुबली की 57 फुट ऊँची ग्रेनाइट से बनी एकाश्म मूर्ति स्थित है, जो विश्व की सबसे ऊँची ऐसी मूर्ति मानी जाती है। राजस्थान के माउंट आबू में विमल शाह द्वारा निर्मित संगमरमर का मंदिर अंदर से अत्यंत भव्य और कलात्मक है, जबकि बाहर से सादा रखा गया है। गुजरात के पालिताना में शत्रुंजय की पहाड़ियों पर अनेक सुंदर जैन मंदिर स्थित हैं, जो जैन धर्म की आस्था और स्थापत्य वैभव का प्रतीक हैं।

9. कला और माध्यम

जैन मूर्तियाँ विभिन्न माध्यमों—पत्थर, मिट्टी और कांस्य में बनाई गई थीं। कुछ मूर्तियाँ लकड़ी और हाथी दांत में भी निर्मित हुई थीं, लेकिन वे समय के साथ नष्ट हो गईं। कांस्य की मूर्तियाँ आज भी बड़ी संख्या में सुरक्षित पाई जाती हैं। चित्रकला के रूप में जैन कला सीमित रूप से धार्मिक भवनों की दीवारों पर भित्तिचित्रों के रूप में बची है, जो उस समय की कलात्मक अभिव्यक्ति और धार्मिक भावना का प्रमाण हैं।

10. सांस्कृतिक और सामाजिक महत्त्व

प्राचीन मंदिर निर्माण परियोजनाओं में अनेक स्थापतियों, शिल्पकारों और मूर्तिकारों ने मिलकर कार्य किया, जिससे यह सामूहिक रचनात्मकता का अद्भुत उदाहरण बन गए। इन कलाकृतियों के माध्यम से उस युग की वास्तुकला, वेशभूषा, धार्मिक विश्वासों और समाज की जीवनशैली की झलक मिलती है। मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं थे, बल्कि वे नृत्य, संगीत, शैक्षणिक गतिविधियों और कभी-कभी प्रशासनिक कार्यों के भी प्रमुख केंद्र के रूप में कार्य करते थे, जिससे उनका सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व और भी बढ़ जाता है।


परियोजना कार्य

अपने नगर के भीतर या आस-पास किसी मंदिर या मठ का पता लगाएँ और इसकी महत्वपूर्ण विशेषताओं, जैसे- भिन्न-भिन्न वास्तुकलात्मक लक्षण, मूर्तिकलात्मक शैली, प्रतिमाओं की पहचान, राजवंश से संबंध और संरक्षण के बारे में लिखें। यह बताएँ कि आप जिस मंदिर या मठ का अध्ययन कर रहे हैं, क्या वह राज्य या केंद्रीय सरकार द्वारा संरक्षित है? उस स्मारक की रक्षा के लिए या उसके बारे में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए अपने महत्वपूर्ण सुझाव दें।

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