मनोवैज्ञानिक विकार Notes in Hindi Class 12 Psychology Chapter-4 Book-1
0Team Eklavyaजुलाई 30, 2025
परिचय
कई लोग जीवन में दुख, बेचैनी और तनाव से भरे होते हैं और उन्हें लगता है कि वे आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल युंग ने कहा कि पूर्णता के लिए अपने भीतर की छाया को स्वीकारना ज़रूरी है। हम सभी कभी न कभी परीक्षा, भविष्य या किसी प्रियजन की बीमारी को लेकर तनावग्रस्त होते हैं। लेकिन कुछ लोग इन दबावों पर तीव्र प्रतिक्रिया देते हैं जिससे मनोवैज्ञानिक समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं। मानसिक विकार या अपसामान्य व्यवहार वह स्थिति है जब व्यक्ति बदलती परिस्थितियों के अनुसार अपने व्यवहार को अनुकूलित नहीं कर पाता। यह "दुरनुकूलक व्यवहार" कहलाता है। अपसामान्य मनोविज्ञान इसी तरह के व्यवहारों, उनके कारणों, परिणामों और उपचार का अध्ययन करता है।
अपसामान्यता तथा मनोवैज्ञानिक विकार के संप्रत्यय
1. परिभाषा की कठिनाई
मनोवैज्ञानिक अपसामान्यता की कोई एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं है, लेकिन अधिकतर परिभाषाओं में चार सामान्य लक्षण पाए जाते हैं: विसामान्यता यानी सामान्य व्यवहार से अलग होना, कष्ट जिसमें व्यक्ति या दूसरों को परेशानी होती है, अपक्रिया जिससे रोज़मर्रा के कार्यों में बाधा आती है, और खतरा यानी व्यक्ति खुद या दूसरों के लिए हानिकारक हो सकता है।
2. 'अपसामान्य' शब्द का अर्थ
"अपसामान्य" का अर्थ है ऐसा व्यवहार जो सामान्य से हटकर हो। हालांकि, मनोविज्ञान में कोई एक निश्चित 'सामान्य व्यवहार मॉडल' नहीं है, जिससे हर व्यवहार की तुलना की जा सके, इसलिए अपसामान्यता को पहचानना संदर्भ और स्थिति पर निर्भर करता है।
3. दो प्रमुख दृष्टिकोण (Approaches) – अपसामान्यता को समझने के लिए
(A) सामाजिक मानकों से विचलन का दृष्टिकोण (Deviation from Social Norms)
जो व्यवहार सामाजिक नियमों या मानकों से हटता है, उसे अपसामान्य माना जाता है। हर समाज में कुछ लिखित या अनलिखित नियम होते हैं जो यह तय करते हैं कि कौन-सा व्यवहार स्वीकार्य है। उदाहरण के रूप में, पश्चिमी देशों में आक्रामकता को सामान्य माना जा सकता है, जबकि भारत जैसे सहयोगी समाज में वही आक्रामकता अस्वीकार्य मानी जाती है। लेकिन इसकी सीमा यह है कि सामाजिक मानदंड समय, संस्कृति और संदर्भ के अनुसार बदलते रहते हैं, इसलिए केवल सामाजिक स्वीकृति के आधार पर किसी व्यवहार को सामान्य या अपसामान्य कहना उचित नहीं है।
(B) दुरनुकूलक व्यवहार का दृष्टिकोण (Maladaptive Behaviour)
यदि कोई व्यवहार व्यक्ति के विकास, संतोष या जीवन के सामान्य कार्यों में बाधा डालता है, तो वह अपसामान्य माना जाता है। यानी, चाहे वह समाज में स्वीकार्य हो, यदि वह व्यवहार व्यक्ति के लिए नुकसानदायक है, तो वह दुरनुकूलक (maladaptive) कहलाता है। जैसे—एक छात्र कक्षा में सवाल पूछना चाहता है लेकिन डर के कारण चुप रहता है, यह दुरनुकूलक व्यवहार है। यह विचार मैस्लो के आवश्यकता सिद्धांत से जुड़ा है, जो केवल जीवित रहने से आगे बढ़कर आत्मविकास और संतोष को भी ज़रूरी मानता है।
4. सामाजिक सोच और मानसिक रोग
समाज में मानसिक रोगों को लेकर कई भ्रम, अंधविश्वास और डर पाए जाते हैं, और अक्सर इन्हें शर्म की बात माना जाता है। इसी कारण लोग मनोवैज्ञानिक मदद लेने से हिचकते हैं। जबकि सच यह है कि मानसिक रोग भी अन्य शारीरिक बीमारियों की तरह होते हैं, जो अक्सर व्यक्ति के मानसिक अनुकूलन (adaptation) में असफलता के कारण उत्पन्न होते हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1. प्रारंभिक अवधारणाएँ (प्राचीन काल)
अलौकिक दृष्टिकोण (Supernatural View) के अनुसार मानसिक विकारों को भूत-प्रेत, शैतान या जादुई शक्तियों का प्रभाव माना जाता था। ऐसे मामलों में इलाज के रूप में झाड़-फूँक, प्रार्थना और ओझा द्वारा आत्मा को निकालने जैसी विधियाँ अपनाई जाती थीं।
जैविक दृष्टिकोण (Biological View) मानता है कि मानसिक विकारों का कारण शरीर और मस्तिष्क की खराब कार्यप्रणाली होती है। आधुनिक चिकित्सा में इन विकारों का इलाज दवाओं और शारीरिक उपचारों से संभव माना जाता है, और यह दृष्टिकोण आज भी व्यापक रूप से प्रचलित है।
3. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण (Psychological View)
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण (Psychological View) के अनुसार मानसिक समस्याएँ व्यक्ति के विचारों, भावनाओं और दृष्टिकोण से जुड़ी होती हैं। ये समस्याएँ मुख्यतः सोचने के तरीकों, नकारात्मक धारणाओं और आंतरिक भावनात्मक संघर्षों के कारण उत्पन्न होती हैं।
4. प्रमुख ऐतिहासिक चरण
(A) प्राचीन यूनानी काल
प्राचीन विद्वानों जैसे हिपोक्रेट्स, प्लेटो और ग्लेन ने मानसिक विकारों के कारणों में जैविक तत्वों और संवेग-तर्क के संघर्ष को महत्वपूर्ण माना। ग्लेन का प्रसिद्ध चार द्रव सिद्धांत (Four Humours) — रक्त, काला पित्त, पीला पित्त और श्लेष्मा — यह बताता है कि इन द्रवों का असंतुलन मानसिक विकारों का कारण बनता है। यह सिद्धांत भारतीय "त्रिदोष" (वात, पित्त, कफ) की धारणा से मेल खाता है।
(B) मध्य युग (Middle Ages)
मध्ययुग में पुनः भूत-प्रेत और अंधविश्वास की धारणाएँ हावी हो गईं। मानसिक रोगों को शैतान की पकड़ माना जाने लगा और 'चुड़ैलों' को दंडित किया गया। हालांकि इसी समय संत ऑगस्टीन ने भावनाओं और मानसिक द्वंद्व के महत्व पर भी विचार प्रस्तुत किए।
(C) पुनर्जागरण काल (Renaissance Period)
पुनर्जागरण काल में मानवतावाद (Humanism) और वैज्ञानिक जिज्ञासा में वृद्धि हुई। योहान वेयर (Johann Weyer) ने मानसिक रोगों को मनोवैज्ञानिक कारणों से जोड़कर देखा और यह कहा कि "डाइनें" भी मानसिक रोगी हो सकती हैं, जिन्हें दंड नहीं, बल्कि चिकित्सा की आवश्यकता है।
(D) तर्क और प्रबोधन युग (Age of Reason and Enlightenment – 17वीं-18वीं सदी)
धार्मिक आस्था की जगह आधुनिक काल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने ली, और मानसिक रोगों को सहानुभूति के साथ देखने की शुरुआत हुई। सुधार आंदोलन (Reform Movement) के तहत मानसिक रोगियों के लिए बेहतर आश्रय गृह बनाए गए और इलाज के बाद उन्हें समाज में वापस लाने के लिए सामुदायिक देखभाल (Deinstitutionalisation) पर ज़ोर दिया गया।
(E) आधुनिक युग: अभिसरण दृष्टिकोण (Integration Approach)
जैव-मनो-सामाजिक दृष्टिकोण (Bio-Psycho-Social Approach) यह मानता है कि मानसिक रोग केवल जैविक नहीं होते, बल्कि इनमें मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारणों की भी मिलीजुली भूमिका होती है। आज के समय में यही दृष्टिकोण सबसे अधिक स्वीकृत और वैज्ञानिक रूप से मान्य माना जाता है।
मनोवैज्ञानिक विकारों का वर्गीकरण
मनोवैज्ञानिक विकारों को बेहतर समझने और उनका सही उपचार करने के लिए उनका वर्गीकरण आवश्यक होता है। वर्गीकरण की प्रक्रिया में समान लक्षणों वाले विकारों को अलग-अलग श्रेणियों में बाँटा जाता है। यह व्यवस्था मनोवैज्ञानिकों, डॉक्टरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को आपस में संवाद और निदान में सहायता देती है। अमेरिका में मनोवैज्ञानिक विकारों के वर्गीकरण के लिए डीएसएम-5 (DSM-5) पुस्तिका का प्रयोग होता है, जिसे अमेरिकी मनोरोग संघ ने प्रकाशित किया है। इसमें हर विकार के लिए स्पष्ट नैदानिक मानदंड होते हैं। भारत सहित कई देशों में आईसीडी-10 (ICD-10) का प्रयोग होता है, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने विकसित किया है। यह व्यवहार और मानसिक विकारों का अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण है जिसमें हर विकार के लक्षणों और निदान की विधियों का विस्तार से वर्णन होता है।
अपसामान्य व्यवहार के अंतर्निहित कारक
अपसामान्य व्यवहार को समझने के लिए विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए हैं। ये उपागम जैविक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों पर आधारित होते हैं और हर एक विशेष कारण पर जोर देते हैं। जैविक दृष्टिकोण मानता है कि अपसामान्य व्यवहार का आधार शारीरिक या रासायनिक गड़बड़ियों में होता है। दोषपूर्ण जीन, हार्मोन असंतुलन, पोषण की कमी, मस्तिष्क की चोट आदि इससे जुड़े कारण हो सकते हैं। जैविक शोध बताते हैं कि तंत्रिका कोशिकाओं में संदेशों के आदान-प्रदान में आने वाली बाधाएँ मानसिक विकारों का कारण बन सकती हैं। न्यूरोट्रांसमीटर जैसे रसायन — उदाहरणतः, गामा एमिनोब्यूटिरिक एसिड (GABA) की कमी से चिंता (anxiety), डोपामाइन की अधिकता से मनोविदलता (schizophrenia), और सैरोटोनिन की कमी से अवसाद (depression) जुड़ा हुआ पाया गया है। इन जैविक असंतुलनों को समझना मानसिक विकारों के उपचार के लिए जरूरी होता है।
आनुवंशिक कारकों (genetic factors) का संबंध
1. आनुवंशिक और जैविक कारक (Genetic & Biological Factors)
मानसिक विकारों में जैविक और आनुवंशिक (जेनेटिक) कारणों की महत्वपूर्ण भूमिका पाई गई है, जैसे मनोविदलता, अवसाद और द्विध्रुवीय विकार। ये विकार किसी एक विशेष जीन से नहीं, बल्कि कई जीनों के सम्मिलित प्रभाव से उत्पन्न होते हैं। हालांकि, केवल जैविक कारण ही पर्याप्त नहीं होते—अन्य मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारक भी इन विकारों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।
2. मनोवैज्ञानिक मॉडल्स (Psychological Models)
(i) मनोगतिक मॉडल (Psychodynamic Model)
मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण के प्रतिपादक सिगमंड फ्रॉयड थे। इस दृष्टिकोण के अनुसार, हमारा व्यवहार अचेतन मानसिक शक्तियों का परिणाम होता है। इसमें तीन मुख्य घटक होते हैं: इड (Id) – जो मूल प्रवृत्तियाँ और इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है, ईगो (Ego) – जो तर्कशील सोच को दर्शाता है, और सुपरईगो (Superego) – जो नैतिक मानदंडों और आदर्शों का पालन करता है। जब इन तीनों के बीच आंतरिक मानसिक द्वंद्व उत्पन्न होता है, तो वह अपसामान्य व्यवहार का कारण बन सकता है।
(ii) व्यवहारात्मक मॉडल (Behavioural Model)
व्यवहारवादी दृष्टिकोण के अनुसार, सभी व्यवहार — चाहे सामान्य हों या अपसामान्य — सीखे जाते हैं। यह सीखने की प्रक्रिया तीन प्रकार की होती है: प्राचीन अनुबंधन (Classical Conditioning), जिसमें दो घटनाओं का साथ होना सीख का कारण बनता है; क्रियाप्रसूत अनुबंधन (Operant Conditioning), जिसमें व्यवहार पुरस्कार या दंड के आधार पर सीखा जाता है; और सामाजिक अधिगम (Observational Learning), जिसमें व्यक्ति दूसरों को देखकर व्यवहार सीखता है।
(iii) संज्ञानात्मक मॉडल (Cognitive Model)
संज्ञानात्मक दृष्टिकोण (Cognitive Approach) मानता है कि मानसिक विकारों का मुख्य कारण व्यक्ति के गलत सोचने के तरीके होते हैं। लोग अक्सर एक ही अनुभव के आधार पर बड़े और नकारात्मक निष्कर्ष निकाल लेते हैं। ऐसी अविवेकशील धारणाएँ और अतार्किक सोच मानसिक विकारों को जन्म देती हैं।
मानवतावादी दृष्टिकोण मानता है कि मनुष्य मूलतः रचनात्मक, अच्छा और आत्मविकास की प्रवृत्ति से प्रेरित होता है। वहीं, अस्तित्ववादी दृष्टिकोण के अनुसार, जीवन को अर्थ देने की जिम्मेदारी स्वयं व्यक्ति की होती है। यदि वह इस जिम्मेदारी से भागता है, तो उसमें खालीपन, उद्देश्यहीनता और अपसामान्य व्यवहार उत्पन्न हो सकता है।
3. सामाजिक-सांस्कृतिक मॉडल (Socio-Cultural Model)
सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण के अनुसार, मानसिक विकारों के पीछे समाज और संस्कृति की शक्तियाँ भी ज़िम्मेदार होती हैं, जैसे युद्ध, हिंसा, भेदभाव, गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक अलगाव। पारिवारिक संरचना, सामाजिक भूमिकाएँ और समाज द्वारा दी गई संज्ञाएँ व्यक्ति के व्यवहार को गहराई से प्रभावित करती हैं। यदि किसी को बार-बार 'पागल' या 'विसामान्य' कहा जाए, तो वह व्यक्ति अंततः उस भूमिका को स्वीकार कर लेता है।
4. रोगोन्मुखता-दबाव मॉडल (Diathesis-Stress Model)
दीअथेसिस-स्ट्रेस मॉडल (Diathesis-Stress Model) के अनुसार, मानसिक विकार तब उत्पन्न होते हैं जब पूर्ववृत्ति (Genetic vulnerability) और तनावपूर्ण अनुभव साथ मिलते हैं। इसके तीन मुख्य घटक हैं: रोगोन्मुखता (Diathesis) – जैविक या आनुवंशिक प्रवृत्ति, पूर्ववृत्त अवस्था (Vulnerability) – विकार विकसित होने की संभावना, और दबावकारी कारक (Stressors) – जैसे परीक्षा का तनाव या नौकरी का छूटना। यह मॉडल अवसाद, दुश्चिंता, मनोविदलता जैसे विकारों को समझने में सहायक है।
प्रमुख मनोवैज्ञानिक विकार
दुश्चिता विकार
1. सामान्य दुश्चिता (Normal Anxiety)
जैसे परीक्षा से पहले, डॉक्टर के पास जाने या स्टेज पर बोलने से पहले घबराहट महसूस होना एक सामान्य अनुभव है। यह सामान्य चिंता होती है, जो हमें सतर्क बनाकर बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित कर सकती है।
2. जब दुश्चिता विकार बन जाए
जब दुश्चिंता (Anxiety) अत्यधिक तीव्र हो, बार-बार हो और व्यक्ति के दैनिक जीवन को बाधित करने लगे, तब उसे एक मनोवैज्ञानिक विकार (Disorder) के रूप में माना जाता है।
दुश्चिंता विकार (Anxiety Disorder) के लक्षणों में शामिल हैं: लगातार और अस्पष्ट भय, भविष्य की चिंता, अत्यधिक सतर्कता, मांसपेशियों में तनाव, नींद में बाधा, थकान और बेचैनी। ऐसा व्यक्ति हमेशा अपने आसपास संभावित खतरे की जाँच करता रहता है, चाहे कोई वास्तविक कारण न हो।
2. आतंक विकार (Panic Disorder)
पैनिक विकार (Panic Disorder) में व्यक्ति को अचानक और तीव्र भय के दौरे (Panic Attacks) आते हैं। इसके लक्षणों में साँस रुकना, तेज़ दिल धड़कना, पसीना आना, चक्कर, बेहोशी, छाती में दर्द और मरने या पागल होने का डर शामिल हैं। ये दौरे अचानक और बार-बार आते हैं। उदाहरण: जैसे "देब" नामक व्यक्ति को कार चलाते समय बार-बार आतंक के दौरे आए, जिससे वह इतना डर गया कि उसने घर से बाहर निकलना ही बंद कर दिया।
3. दुर्भीति (Phobia)
दुर्भीति (Phobia) एक विशेष वस्तु, स्थिति या व्यक्ति से अत्यधिक, अविवेकी और अतार्किक डर होता है। 🟢 इसके प्रमुख प्रकार हैं:
विशिष्ट दुर्भीति: जैसे छिपकली, ऊँचाई या पानी से डर।
सामाजिक दुर्भीति: लोगों के सामने बोलने या मिलने से डर, जिससे शर्म और उलझन महसूस होती है।
विवृतिभीति (Agoraphobia): खुली या अपरिचित जगहों पर जाने का डर; कई लोग इससे प्रभावित होकर घर से बाहर निकलने से भी डरते हैं।
अलगाव चिंता विकार (Separation Anxiety Disorder) अक्सर बच्चों में पाया जाता है, जिसमें उन्हें माता-पिता या प्रियजनों से अलग होने पर अत्यधिक भय और चिंता होती है। ऐसे बच्चे अकेले स्कूल जाने या कमरे में रहने से डरते हैं। कभी-कभी वे चीखते हैं, झल्लाते हैं, व्यवहार में गड़बड़ी करते हैं, और गंभीर मामलों में आत्मघातक संकेत भी दे सकते हैं।
मनोग्रस्ति बाध्यता तथा संबंधित विकार
मनोग्रस्ति-बाध्यता विकार (Obsessive-Compulsive Disorder - OCD) में व्यक्ति बार-बार किसी विचार को सोचता रहता है (मनोग्रस्ति) और उसे दूर करने के लिए कोई क्रिया बार-बार करता है (बाध्यता), जैसे – बार-बार हाथ धोना या चीज़ों को गिनना। ये विचार और व्यवहार उसकी दिनचर्या में बाधा डालते हैं और व्यक्ति को परेशान करते हैं। OCD से पीड़ित व्यक्ति अक्सर अपने विचारों को अनुचित मानता है, लेकिन फिर भी उन्हें रोक नहीं पाता। इस श्रेणी में जमाखोरी, बाल खींचना और त्वचा नोचना जैसे विकार भी शामिल हैं।
अभिघात तथा दबावकारक संबंधित विकार
अभिघातज उत्तर दबाव विकार (Post-Traumatic Stress Disorder - PTSD) एक ऐसा मानसिक विकार है जो किसी गंभीर आघात, जैसे – सुनामी, बम विस्फोट, दुर्घटना या युद्ध जैसी स्थितियों के बाद हो सकता है। इससे पीड़ित व्यक्ति को बार-बार उस घटना के बुरे सपने आते हैं, वह बार-बार उस अनुभव को याद करता है (अतीतावलोकन), एकाग्रता में कठिनाई होती है और भावनात्मक रूप से सुन्न महसूस करता है। इस श्रेणी में समायोजन विकार और तीव्र दबाव विकार भी शामिल हैं।
कायिक अभिलक्षण तथा संबंधित विकार
कायिक विकार वे मानसिक दशाएँ हैं जिनमें व्यक्ति मानसिक तनाव को शारीरिक लक्षणों के रूप में प्रकट करता है, लेकिन इन लक्षणों का कोई जैविक कारण नहीं होता। इसमें तीन प्रमुख प्रकार हैं:
कायिक अभिलक्षण विकार – व्यक्ति को लगातार शारीरिक लक्षणों की शिकायत रहती है और वह बार-बार डॉक्टर के पास जाता है, हालांकि कोई गंभीर बीमारी नहीं होती।
बीमारी दुश्चिता विकार – व्यक्ति को यह लगातार चिंता सताती रहती है कि उसे कोई गंभीर बीमारी हो गई है, और वह बार-बार जाँच करवाता है, जबकि डॉक्टर उसे आश्वस्त करते हैं।
परिवर्तन विकार (Conversion Disorder) – व्यक्ति को अचानक पक्षाघात, अंधापन, बहरापन या चलने में कठिनाई जैसे लक्षण होते हैं, जो किसी मानसिक आघात या दबाव के बाद सामने आते हैं।
इन विकारों में मानसिक चिंता का प्रभाव शारीरिक रूप में दिखता है, लेकिन इनकी जड़ें मनोवैज्ञानिक होती हैं।
विच्छेदी विकार
विच्छेदी विकार (Dissociative Disorders) वे मानसिक स्थितियाँ हैं जिनमें व्यक्ति के विचारों, संवेगों और पहचान के बीच तालमेल टूट जाता है। इसमें व्यक्ति को अवास्तविकता, विरक्ति, और अस्मिता लोप जैसे अनुभव होते हैं। प्रमुख विकारों में विच्छेदी स्मृतिलोप शामिल है, जिसमें व्यक्ति कुछ घटनाओं या लोगों को याद नहीं रख पाता; विच्छेदी आत्मविस्मृति, जिसमें व्यक्ति नई पहचान लेकर कहीं चला जाता है और पुरानी पहचान भूल जाता है; विच्छेदी पहचान विकार, जिसमें एक ही व्यक्ति में कई व्यक्तित्व विकसित हो जाते हैं, प्रायः बाल्यावस्था के आघात से; और व्यक्तित्व-लोप/स्वअनुभूति लोप विकार, जिसमें व्यक्ति को ऐसा लगता है जैसे वह खुद से या वास्तविकता से अलग हो गया है। ये सभी विकार सामान्यतः तीव्र मानसिक दबाव से जुड़े होते हैं।
अवसादी विकार
अवसाद (Depression) सबसे आम और व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त मानसिक विकारों में से एक है। यह न केवल एक भावना हो सकती है बल्कि एक गंभीर मानसिक विकार भी बन सकता है। अवसाद में व्यक्ति लगातार उदासी, नकारात्मक सोच, आनंद की कमी, और ऊर्जा की कमी जैसे लक्षण अनुभव करता है। मुख्य अवसादी विकार (Major Depressive Disorder) में व्यक्ति को अधिकांश समय उदासी, अरुचि, थकान, नींद और वजन में परिवर्तन, आत्महत्या के विचार, और आत्म-दोष की भावना हो सकती है।
अवसाद के कारणों में आनुवंशिकता, उम्र, और लिंग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उदाहरणतः – स्त्रियों को यह खतरा प्रारंभिक वयस्कता में और पुरुषों को मध्य वयस्कता में अधिक होता है। साथ ही, जीवन की नकारात्मक घटनाएँ, जैसे किसी प्रियजन की मृत्यु या नौकरी का नुकसान, और सामाजिक सहयोग की कमी भी अवसाद को बढ़ा सकती है।
द्विध्रुवीय तथा संबंधित विकार
1. द्विध्रुवीय विकार (Bipolar Disorder)
द्विध्रुवी विकार (Bipolar Disorder) में व्यक्ति के मूड में उन्माद (Mania) और अवसाद (Depression) की अवस्थाएँ बारी-बारी से आती हैं। पहले इसे उन्माद-अवसाद विकार कहा जाता था। उन्माद के एपिसोड अक्सर अवसाद के साथ मिलकर आते हैं। इसके प्रमुख प्रकार हैं: Bipolar I Disorder – प्रमुख उन्माद और कभी-कभी अवसाद, Bipolar II Disorder – हल्का उन्माद (Hypomania) और गंभीर अवसाद, तथा Cyclothymic Disorder – लंबे समय तक मूड का हल्का उतार-चढ़ाव।
2. आत्महत्या (Suicide): एक जटिल समस्या
आत्महत्या के पीछे जैविक, आनुवंशिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय कारकों का संयुक्त प्रभाव होता है। इसके जोखिम कारकों में अवसाद, नशे की लत, प्राकृतिक आपदाएँ, हिंसा, अकेलापन, पहले आत्महत्या का प्रयास, और भावनाएँ व्यक्त करने व समस्या सुलझाने में कठिनाई शामिल हैं। आत्महत्या के संकेतों में यह महसूस होना कि कोई रास्ता नहीं बचा या मृत्यु ही एकमात्र समाधान है, शामिल होते हैं।
3. आत्महत्या रोकथाम के उपाय (WHO द्वारा सुझाए गए):
आत्महत्या रोकथाम के लिए कई प्रभावी उपाय अपनाए जा सकते हैं। इसमें आत्महत्या के साधनों की पहुँच को सीमित करना शामिल है ताकि अचानक फैसलों को रोका जा सके। मीडिया को जिम्मेदारी से रिपोर्टिंग करनी चाहिए ताकि नकारात्मक प्रभाव न फैले। मद्य और नशे पर नियंत्रण की नीति से जोखिम कम किया जा सकता है। संभावित व्यक्तियों की पहचान और समय पर इलाज से बड़ी मदद मिलती है। स्वास्थ्यकर्मियों को उचित प्रशिक्षण देकर वे सही प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन दे सकते हैं। आत्महत्या का प्रयास कर चुके लोगों की देखभाल से पुनः प्रयास को रोका जा सकता है। अंततः, समुदाय का सहयोग और समर्थन सामाजिक सुरक्षा जाल तैयार करने में सहायक होता है।
4. विद्यार्थियों में आत्महत्या के संकेतों की पहचान:
जब किसी व्यक्ति में सामान्य गतिविधियों या पढ़ाई में रुचि की कमी, कक्षा में दुर्व्यवहार, बार-बार या रहस्यमयी अनुपस्थिति, और धूम्रपान, शराब या अन्य नशे का प्रयोग जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं, तो ये मानसिक तनाव या किसी गहरी समस्या के संकेत हो सकते हैं। ऐसे संकेतों को नज़रअंदाज़ करने की बजाय समय रहते उचित सहायता लेना ज़रूरी होता है।
5. विद्यार्थियों में आत्म-सम्मान (Self-Esteem) बढ़ाने के उपाय:
जीवन के सकारात्मक अनुभवों को साझा करने से आत्मविश्वास बढ़ता है, जबकि शारीरिक, सामाजिक और व्यावसायिक कौशल सिखाने से व्यक्ति आत्मनिर्भर बनता है। अगर विश्वसनीय बातचीत का माहौल हो, तो भावनात्मक सुरक्षा मिलती है। साथ ही, SMART (Specific, Measurable, Achievable, Relevant, Time-bound) लक्ष्य बनाने से जीवन को स्पष्ट उद्देश्य और दिशा मिलती है, जिससे व्यक्ति बेहतर निर्णय ले सकता है और मानसिक रूप से भी मजबूत बनता है।
मनोविदलता वर्णक्रम तथा अन्य मनोविक्षिप्ति विकार
मनोविदलता (schizophrenia) एक ऐसा वर्णनात्मक शब्द है जो मनस्तापी विकारों के एक समूह के लिए उपयोग किया जाता है जिसमें व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया में बाधा, विचित्र प्रत्यक्षण, अस्वाभाविक सांवेगिक स्थितियाँ तथा पेशीय अपसामान्यता के परिणामस्वरूप उसकी व्यक्तिगत, सामाजिक और व्यावसायिक गतिविधियों में अवनति हो जाती है। यह एक अशक्तता या दुर्बलता का विकार है। मनोविदलता के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दुष्परिणाम रोगी और उसके परिवार तथा समाज दोनों के लिए घातक होते हैं।
मनोविदलता के लक्षण
मनोविदलता (Schizophrenia) के लक्षणों को तीन श्रेणियों में बाँटा जाता है: सकारात्मक, नकारात्मक और मनःचालित लक्षण। सकारात्मक लक्षणों में भ्रमासक्ति (जैसे – उत्पीड़न, संदर्भ, अत्यहंमन्यता), असंगठित विचार और भाषा, तथा विभ्रांति (श्रवण, दैहिक, रस, घ्राण आदि) शामिल हैं। रोगी अक्सर तर्कहीन सोच, नव शब्दों का प्रयोग और अनुचित भावनाओं को प्रकट करता है। नकारात्मक लक्षणों में वाक्-अयोग्यता (अलोगिया), संवेदनहीनता (कुंठित/विसंगत भाव), इच्छा शक्ति की कमी (एवोलिशन) और सामाजिक अलगाव होता है। मनःचालित लक्षणों में रोगी असामान्य चाल-ढाल, विचित्र शारीरिक मुद्राएँ और गतिहीनता या कैटाटोनिया जैसी अवस्थाएँ प्रदर्शित करता है। ये लक्षण रोगी की दैनिक, सामाजिक और व्यावसायिक कार्यक्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं।
तंत्रिकाजन्य विकार
तंत्रिकाजन्य विकार प्रायः बचपन में प्रारंभ होते हैं और व्यक्ति के सामाजिक, शैक्षिक व व्यक्तिगत विकास को प्रभावित करते हैं। इन विकारों में प्रमुख हैं – ADHD (अवधान-न्यूनता अतिक्रिया विकार), स्वलीनता वर्णक्रम विकार, बौद्धिक अशक्तता, और विशिष्ट अधिगम विकार।
ADHD में दो प्रमुख लक्षण होते हैं: अनवधान (जैसे – ध्यान न लगना, भूल जाना, कार्य अधूरा छोड़ना) और अतिक्रियाशीलता-आवेगशीलता (जैसे – बिना सोचे बोलना, बारी का इंतजार न करना, हर समय सक्रिय रहना)।
स्वलीनता वर्णक्रम विकार (Autism) में बच्चे सामाजिक संपर्क, संप्रेषण और संबंधों को निभाने में कठिनाई महसूस करते हैं। इनमें भाषा-विकास में बाधा, संवेगहीनता, सीमित अभिरुचियाँ, और दोहराए जाने वाले व्यवहार जैसे शरीर हिलाना या वस्तुओं को पंक्ति में सजाना प्रमुख लक्षण होते हैं। लगभग 70% स्वलीन बच्चे बौद्धिक अशक्तता से भी ग्रसित होते हैं। इन विकारों का समय रहते उपचार न हो तो ये दीर्घकालिक समस्याओं का कारण बन सकते हैं।
बौद्धिक अशक्तता
बौद्धिक अशक्तता का तात्पर्य उस स्थिति से है जहाँ व्यक्ति की बुद्धिलब्धि (IQ) औसत से कम (70 या उससे नीचे) होती है और उसके अनुकूली व्यवहार (जैसे – बोलचाल, आत्म-देखभाल, सामाजिक कौशल, शैक्षिक व व्यावसायिक दक्षता) में भी कमी पाई जाती है। यह स्थिति सामान्यतः 18 वर्ष की आयु से पहले प्रकट होती है।
विशिष्ट अधिगम विकार (Specific Learning Disorder) से पीड़ित बच्चों को जानकारी समझने, याद रखने और उसे आगे प्रयोग करने में कठिनाई होती है। यह विकार पठन, लेखन या गणित से संबंधित कौशलों को प्रभावित करता है और विद्यालयी जीवन की प्रारंभिक अवस्था में दिखाई देता है। हालाँकि, अतिरिक्त सहयोग और अभ्यास से बच्चे कुछ हद तक सुधार कर सकते हैं, लेकिन यह विकार शैक्षिक और व्यावसायिक प्रदर्शन को लंबे समय तक प्रभावित कर सकता है।
हानिकारक/विघटनकारी, आवेग नियंत्रण तथा आचरण विकार
इस श्रेणी में प्रमुख रूप से विरुद्धक अवज्ञाकारी विकार (ODD) और आचरण विकार (Conduct Disorder) शामिल हैं।
ODD से ग्रसित बच्चे ज़िद्दी, चिड़चिड़े, दुराग्रही और अवज्ञाकारी होते हैं। वे अपने व्यवहार को गलत नहीं मानते बल्कि परिस्थितियों की प्रतिक्रिया मानते हैं, जिससे उनका दूसरों से टकराव बढ़ जाता है।
आचरण विकार में बच्चे ऐसे आक्रामक या नियम तोड़ने वाले व्यवहार करते हैं जो उम्र के अनुरूप नहीं होते, जैसे—लड़ाई करना, झूठ बोलना, चोरी, संपत्ति को नुकसान पहुँचाना आदि। वे सामाजिक मानदंडों और दूसरों के अधिकारों की अनदेखी करते हैं।
इसमें आक्रामकता के कई रूप शामिल होते हैं:
शाब्दिक आक्रामकता: गाली देना
शारीरिक आक्रामकता: मारपीट
शत्रुतापूर्ण आक्रामकता: जानबूझकर चोट पहुँचाना
अग्रलक्षी आक्रामकता: बिना उकसावे के धमकाना या डराना।
पोषण तथा भोजन विकार
भोजन विकार (Eating Disorders) ऐसे मानसिक विकार हैं जिनमें व्यक्ति का खाने से जुड़ा व्यवहार असामान्य हो जाता है। इनमें मुख्यतः तीन प्रकार शामिल होते हैं:
क्षुधा-अभाव (Anorexia Nervosa): इस स्थिति में व्यक्ति खुद को मोटा समझता है, भले ही उसका वजन सामान्य से कम हो। वह जानबूझकर भूखा रह सकता है, अधिक व्यायाम करता है और दूसरों के सामने खाने से बचता है। इससे उसका वजन अत्यधिक घट जाता है, जो कभी-कभी जानलेवा भी हो सकता है।
क्षुधतिशयता (Bulimia Nervosa): इसमें व्यक्ति बहुत अधिक खा लेता है (bingeing) और फिर रेचक दवाओं, उल्टी या अत्यधिक व्यायाम के माध्यम से खाए गए भोजन को बाहर निकालने की कोशिश करता है। यह व्यवहार व्यक्ति को अस्थायी रूप से तनाव से राहत देता है।
अनियंत्रित भोजन (Binge Eating Disorder): इस विकार में व्यक्ति बार-बार बहुत अधिक मात्रा में खाना खाता है, भले ही भूख न हो। वह तेजी से खाता है और तब तक खाता है जब तक पेट अत्यधिक भर न जाए। बाद में उसे अपराधबोध या शर्म महसूस हो सकती है।
ये विकार मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक स्वास्थ्य और सामाजिक जीवन को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं।
मादक द्रव्य से संबंधित तथा व्यसनकारी विकार
व्यसनात्मक व्यवहार जैसे अत्यधिक भोजन करना या शराब, कोकीन, तंबाकू और ओपिऑयड जैसे मादक द्रव्यों का दुरुपयोग आज समाज की गंभीर समस्याओं में से एक है। इन पदार्थों के लगातार सेवन से व्यक्ति के सोचने, महसूस करने और व्यवहार में हानिकारक परिवर्तन आते हैं। जब ये व्यवहार व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करने लगते हैं, तो उन्हें मादक द्रव्य संबंधित और व्यसनकारी विकार कहा जाता है। ऐसे विकारों में व्यक्ति पदार्थों पर निर्भर हो जाता है और उन्हें छोड़ पाना मुश्किल हो जाता है, जिससे शारीरिक, मानसिक और सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
मद्य
शराब का दुरुपयोग करने वाले लोग धीरे-धीरे उस पर निर्भर हो जाते हैं और तनाव या कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए इसका सहारा लेते हैं। इससे उनका सामाजिक व्यवहार, सोचने और कार्य करने की क्षमता प्रभावित होती है। शराब की आदत बढ़ने पर शरीर उसमें सहनशीलता विकसित कर लेता है, जिससे पहले जैसा प्रभाव पाने के लिए अधिक मात्रा में पीना पड़ता है। शराब छोड़ने पर विनिवर्तन (withdrawal) लक्षण भी उभर सकते हैं। मद्यव्यसनता न केवल व्यक्ति के स्वास्थ्य और जीवन को नुकसान पहुँचाती है, बल्कि उसके परिवार, रिश्तों और सामाजिक जीवन को भी बर्बाद कर सकती है। इससे सड़क दुर्घटनाओं की संभावना बढ़ती है और बच्चों में मानसिक विकारों का खतरा भी अधिक हो जाता है।
हेरोइन
हेरोइन का दुरुपयोग व्यक्ति के सामाजिक और व्यावसायिक जीवन में गंभीर बाधाएँ उत्पन्न करता है। इसके लगातार सेवन से व्यक्ति इसमें निर्भरता और सहिष्णुता विकसित कर लेता है और जब सेवन बंद किया जाता है तो उसे विनिवर्तन लक्षणों का सामना करना पड़ता है। हेरोइन का सबसे बड़ा खतरा इसकी अधिक मात्रा का सेवन है, जो मस्तिष्क के श्वसन केंद्र को धीमा कर देता है और इससे मृत्यु तक हो सकती है।
कोकीन
कोकीन का लगातार सेवन व्यक्ति के व्यवहार, कार्यक्षमता और सामाजिक संबंधों पर बुरा असर डालता है। यह अल्पकालिक स्मृति और ध्यान में समस्या उत्पन्न करता है। इसके प्रति निर्भरता बढ़ने पर व्यक्ति को इच्छित प्रभाव के लिए अधिक मात्रा में सेवन करना पड़ता है। सेवन बंद करने पर अवसाद, थकावट, नींद में परेशानी, चिड़चिड़ापन और चिंता जैसी समस्याएँ होती हैं। कोकीन मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव डालता है।