चिकित्सा उपागम Notes in Hindi Class 12 Psychology Chapter-5 Book-1
0Team Eklavyaजुलाई 30, 2025
परिचय
पिछले अध्याय में आपने प्रमुख मानसिक विकारों और उनके कारण रोगी तथा अन्य लोगों को होने वाली कठिनाइयों के बारे में जाना। इस अध्याय में हम यह जानेंगे कि मनोवैज्ञानिक रोगों के इलाज के लिए कौन-कौन सी चिकित्सा विधियाँ अपनाई जाती हैं। कुछ उपचार विधियाँ रोगी की आत्म-समझ को बढ़ाने पर जोर देती हैं, जबकि कुछ व्यवहार में बदलाव लाने पर ध्यान केंद्रित करती हैं। रोगी की स्थिति, समस्या की गंभीरता, समय, संसाधन और अन्य लोगों की मदद जैसे कई कारकों के आधार पर अलग-अलग विधियाँ प्रभावी होती हैं। इन सभी विधियों में चिकित्सक और रोगी के बीच एक सकारात्मक संबंध होता है। कुछ उपचारों में चिकित्सक सीधे निर्देश देते हैं (जैसे मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा), जबकि कुछ में रोगी को खुद निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है (जैसे व्यक्ति-केंद्रित चिकित्सा)। इस अध्याय में हम ऐसी प्रमुख मनोचिकित्सात्मक विधियों को संक्षेप में समझेंगे।
मनश्चिकित्सा की प्रकृति एवं प्रक्रिया
1. मनश्चिकित्सा क्या है?
मनोचिकित्सा एक ऐसा ऐच्छिक (voluntary) संबंध होता है जो सेवार्थी (मरीज) और चिकित्सक (मनोचिकित्सक या परामर्शदाता) के बीच स्थापित होता है। इसका उद्देश्य सेवार्थी की मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान करना होता है। यह संबंध आपसी विश्वास पर आधारित होता है, जिससे सेवार्थी अपनी भावनाओं और चिंताओं को खुलकर व्यक्त कर सके।
2. मनश्चिकित्सा का उद्देश्य:
मनोचिकित्सा का उद्देश्य दुरनुकूलक (maladaptive) व्यवहार को सुधारना, व्यक्ति की आंतरिक पीड़ा को कम करना, सामाजिक, वैवाहिक और व्यावसायिक जीवन में बेहतर अनुकूलन में सहायता देना, और पर्यावरण के अनुसार स्वयं को ढालने की क्षमता विकसित करना होता है।
3. मनश्चिकित्सा की आवश्यक विशेषताएँ:
मनोचिकित्सा एक संगठित और सिद्धांत-आधारित प्रक्रिया होती है, जिसमें हर उपचार एक निश्चित ढांचे और सिद्धांत के अंतर्गत किया जाता है। इसे केवल प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है, क्योंकि बिना प्रशिक्षण के किया गया हस्तक्षेप हानिकारक हो सकता है। इसमें दो मुख्य भूमिकाएँ होती हैं: चिकित्सक, जो सहायता प्रदान करता है, और सेवार्थी, जो मदद प्राप्त करता है। चिकित्सक-सेवार्थी संबंध गोपनीय, अंतवैयक्तिक और गत्यात्मक होता है, और यही संबंध मनोवैज्ञानिक परिवर्तन का मुख्य माध्यम बनता है।
4. मनश्चिकित्सा के मुख्य लक्ष्य (Objectives):
क्रमउद्देश्य
1. सेवार्थी के सुधार की इच्छा को मजबूत करना
2. मानसिक तनाव और भावनात्मक दबाव को कम करना
3. सकारात्मक विकास की संभावनाओं को जगाना
4. अनुचित आदतों में बदलाव लाना
5. सोचने के तरीकों में सुधार करना
6. आत्म-जागरूकता बढ़ाना
7. संबंधों और संप्रेषण में सुधार लाना
8. निर्णय लेना आसान बनाना
9. सामाजिक जीवन में सक्रिय और रचनात्मक रूप से भाग लेना
चिकित्सात्मक संबंध
चिकित्सात्मक संबंध या चिकित्सात्मक मैत्री एक विशिष्ट, सीमित अवधि वाला, विश्वास पर आधारित व्यावसायिक संबंध होता है, जिसमें चिकित्सक और सेवार्थी मिलकर सेवार्थी की समस्याओं के समाधान की दिशा में कार्य करते हैं। यह संबंध दो मुख्य घटकों पर आधारित होता है: संविदात्मक प्रकृति (साझेदारी) और सीमित अवधि। चिकित्सक अपनी स्वीकृति, तदनुभूति (empathy), सच्चाई और अशर्त सकारात्मक आदर (unconditional positive regard) से इस संबंध को मजबूत बनाता है। तदनुभूति का अर्थ है – स्वयं को सेवार्थी की स्थिति में रखकर उसकी भावनाओं को समझना। यह संबंध गोपनीयता और नैतिकता की माँग करता है, जिसमें चिकित्सक सेवार्थी के विश्वास का कभी अनुचित लाभ नहीं उठाता।
चिकित्सा के प्रकार
1. मनश्चिकित्सा के तीन मुख्य प्रकार:
मनोचिकित्सा की प्रमुख विधियों में शामिल हैं:
मनोगतिक चिकित्सा (Psychodynamic Therapy) – यह फ्रायड के सिद्धांतों पर आधारित होती है और अचेतन संघर्षों व बचपन के अनुभवों को समझकर समस्या का समाधान करने का प्रयास करती है।
व्यवहार चिकित्सा (Behaviour Therapy) – यह मानती है कि व्यवहार सीखा जाता है और इसे बदला भी जा सकता है। इसमें अनुबंधन और अधिगम सिद्धांतों का उपयोग किया जाता है।
अस्तित्वपरक या मानवतावादी चिकित्सा (Existential/Humanistic Therapy) – इसे "तीसरी शक्ति" भी कहा जाता है। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता, आत्मविकास और जीवन के अर्थ पर केंद्रित होती है, तथा सहानुभूति, स्वीकृति और आत्म-अभिव्यक्ति को बढ़ावा देती है।
प्रमुख तुलना:
सभी मनश्चिकित्साओं की समानताएँ:
मनोचिकित्सा का मुख्य उद्देश्य मानव कष्ट को कम करना और सकारात्मक व्यवहार को बढ़ावा देना होता है। इसमें सेवार्थी और चिकित्सक के बीच परस्पर संवाद और सहयोग होता है, जहाँ चिकित्सात्मक संबंध ही परिवर्तन का प्रमुख माध्यम बनता है।
मनश्चिकित्सा की प्रक्रिया:
मनोचिकित्सा में सबसे पहले समस्या की पहचान की जाती है, फिर उसके अनुसार उपयुक्त चिकित्सा विधि का चयन किया जाता है। इसके बाद चिकित्सक और सेवार्थी के सहयोग से उपचार शुरू होता है, और पूरी प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे सुधार लाया जाता है।
व्यवहार चिकित्सा
व्यवहार चिकित्सा इस सिद्धांत पर आधारित है कि मनोवैज्ञानिक समस्याएँ दोषपूर्ण व्यवहारों या सोच के प्रतिरूपों से उत्पन्न होती हैं। इसलिए इसका ध्यान अतीत पर नहीं, बल्कि वर्तमान में मौजूद गलत व्यवहारों और विचारों में सुधार पर होता है। यह अधिगम (learning) के सिद्धांतों पर आधारित एक नैदानिक प्रक्रिया है, जिसमें विभिन्न तकनीकों और उपचारों का चयन सेवार्थी के लक्षणों और निदान के आधार पर किया जाता है। उदाहरणतः, भय या दुर्भीति के लिए एक प्रकार की तकनीकें प्रयोग में लाई जाती हैं, जबकि क्रोध या अवसाद के लिए अलग। इसका मुख्य उद्देश्य है – गलत व्यवहारों की पहचान करना, उन्हें बनाए रखने वाले कारणों को समझना और प्रभावी तरीकों से उन्हें बदलना।
उपचार की विधि
जब कोई सेवार्थी मानसिक कष्ट या शारीरिक लक्षणों से परेशान होता है जिनका कोई शारीरिक कारण नहीं होता, तो उसके व्यवहार का विश्लेषण किया जाता है। इसमें देखा जाता है कि कौन-से अपक्रियात्मक (हानिकारक) व्यवहार उसे कष्ट दे रहे हैं, वे व्यवहार किस कारण (पूर्ववर्ती कारक) से शुरू हुए और किस कारण (संपोषण कारक) से बने हुए हैं। जैसे एक युवक ने परीक्षा के तनाव में धूम्रपान शुरू किया और उसे आराम मिला, तो तनाव पूर्ववर्ती और आराम संपोषण कारक हुआ। उपचार में इन व्यवहारों को अनुकूल व्यवहार से बदलने के लिए दो तरीके अपनाए जाते हैं –
पूर्ववर्ती संक्रिया, जिसमें व्यवहार के पहले की स्थिति बदली जाती है (जैसे बच्चे को रात में भूख लगे, इसलिए चाय के समय कम खाना), और अनुवर्ती संक्रिया, जिसमें सही व्यवहार पर प्रोत्साहन दिया जाता है (जैसे भोजन पर बच्चे की प्रशंसा)। इस तरह व्यवहार को समझकर और नियंत्रित कर सकारात्मक बदलाव लाया जाता है।
व्यवहारात्मक तकनीक
मुख्य उद्देश्य:
मनोचिकित्सा का उद्देश्य सेवार्थी के भावनात्मक तनाव को कम करना, गलत व्यवहार को बदलना और सकारात्मक व्यवहार को बढ़ावा देना होता है। आवश्यकता होने पर प्रतिस्थानिक (vicarious) अधिगम का भी उपयोग किया जाता है, जिसमें व्यक्ति दूसरों को देखकर सीखता है।
1. निषेधात्मक प्रबलन (Negative Reinforcement)
जब व्यक्ति किसी पीड़ादायक या असुविधाजनक स्थिति से बचने के लिए कोई व्यवहार सीखता है, तो इसे बचाव अधिगम (Avoidance Learning) कहा जाता है। उदाहरण: ठंड से बचने के लिए स्वेटर पहनना या हीटर चलाना।
2. विमुखी अनुबंधन (Aversive Conditioning)
जब किसी अवांछित व्यवहार को कष्टदायक अनुभव से जोड़ा जाता है ताकि उस व्यवहार में कमी आए, तो इसे विकर्षण उपचार (Aversion Therapy) कहा जाता है। उदाहरण: शराब की गंध के साथ बिजली का हल्का झटका देना, जिससे शराब से अरुचि हो जाती है।
3. सकारात्मक प्रबलन (Positive Reinforcement)
जब अच्छे व्यवहार पर इनाम दिया जाता है ताकि वह व्यवहार दोहराया जाए, तो इसे सुदृढीकरण (Reinforcement) कहा जाता है। उदाहरण: बच्चे को गृहकार्य पूरा करने पर उसका पसंदीदा भोजन देना, जिससे वह भविष्य में भी गृहकार्य करता रहे।
4. टोकन अर्थव्यवस्था (Token Economy)
जब हर बार अच्छे व्यवहार पर व्यक्ति को टोकन दिया जाता है, जिसे वह बाद में किसी इनाम से बदल सकता है, तो इसे टोकन अर्थव्यवस्था (Token Economy) कहा जाता है। उदाहरण: बच्चा अगर अच्छा व्यवहार करता है तो उसे टोकन दिया जाता है, और तय संख्या में टोकन मिलने पर उसे बाहर खाना खिलाया जाता है।
5. विभेदक प्रबलन (Differential Reinforcement)
इसमें दो प्रमुख विधियाँ होती हैं:
1. अच्छे व्यवहार पर इनाम और बुरे व्यवहार पर दंड देना।
2. अच्छे व्यवहार पर इनाम और बुरे व्यवहार की उपेक्षा करना।
उदाहरण: यदि लड़की शांति से बात करती है तो उसे सिनेमा ले जाना (इनाम), लेकिन यदि वह रोती या रूठती है तो उस पर ध्यान न देना (उपेक्षा)। यह व्यवहार सुधारने की एक प्रभावी तकनीक है।
व्यवस्थित संवेदी विमोचन (Systematic Desensitization) वोल्प (Wolpe) द्वारा विकसित एक तकनीक है, जिसका उद्देश्य डर और घबराहट को धीरे-धीरे कम करना है। इस प्रक्रिया में पहले डर की स्थितियों को कम से अधिक डरावनी क्रम में सूचीबद्ध किया जाता है, फिर व्यक्ति को विश्रांति (Relaxation) सिखाई जाती है। इसके बाद कल्पना के माध्यम से हर डरावनी स्थिति को विश्रांति की अवस्था में झेलने का अभ्यास कराया जाता है। यह अन्योन्य प्रावरोध (Reciprocal Inhibition) सिद्धांत पर आधारित है, जो मानता है कि विश्रांति और डर एक साथ टिक नहीं सकते।
7. मॉडलिंग (Modelling) / प्रतिरूपण
इस तकनीक में सेवार्थी दूसरों का व्यवहार देखकर सीखता है, जिसे प्रतिस्थानिक अधिगम (Vicarious Learning) या मॉडलिंग कहा जाता है। चिकित्सक स्वयं रोल मॉडल बनकर सही व्यवहार प्रदर्शित करता है, और सेवार्थी को उस व्यवहार की नकल करने के लिए प्रेरित किया जाता है। छोटे-छोटे सुधारों पर इनाम देकर अच्छे व्यवहार को सुदृढ़ किया जाता है।
8. चिकित्सक की भूमिका:
व्यवहार चिकित्सा में सबसे पहले सेवार्थी के व्यवहार का विश्लेषण किया जाता है, फिर उसकी समस्या के अनुसार उपयुक्त तकनीकों का उपचार पैकेज तैयार किया जाता है। उपचार के दौरान चिकित्सक सेवार्थी को निरंतर प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करता है ताकि व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन आ सके।
संज्ञानात्मक चिकित्सा
संज्ञानात्मक चिकित्सा यह मानती है कि मनोवैज्ञानिक कष्ट अविवेकी विचारों और विश्वासों से उत्पन्न होते हैं। अल्बर्ट एलिस द्वारा विकसित संवेग तर्क चिकित्सा (RET) में बताया गया कि व्यक्ति की समस्याएँ उसके "चाहिए" और "अनिवार्य" जैसे कठोर विश्वासों से जुड़ी होती हैं, जो वास्तविकता को विकृत कर देते हैं। RET में पहले "पूर्ववर्ती-विश्वास-परिणाम (पू.वि.प.)" विश्लेषण किया जाता है, फिर सौम्य और विचारोत्तेजक प्रश्नों द्वारा इन अविवेकी विश्वासों को चुनौती दी जाती है, जिससे व्यक्ति धीरे-धीरे विवेकी दृष्टिकोण अपनाता है और कष्ट कम होता है।
आरन बेक की संज्ञानात्मक चिकित्सा के अनुसार, बाल्यावस्था के अनुभव से बने "मूल स्कीमा" जैसे “मैं वांछित नहीं हूँ” जीवन की किसी घटना से सक्रिय होकर नकारात्मक स्वचालित विचार उत्पन्न करते हैं — जैसे “मैं असफल हूँ”, “कोई मुझे पसंद नहीं करता”। ये विचार वास्तविकता को विकृत करते हैं और अवसाद या दुश्चिता को जन्म देते हैं। चिकित्सा में सौम्य प्रश्नों द्वारा इन नकारात्मक विचारों को चुनौती दी जाती है, जिससे व्यक्ति को अंतर्दृष्टि मिलती है और उसकी सोच सकारात्मक रूप से पुनःसंरचित होती है।
संज्ञानात्मक चिकित्सा लक्ष्य-केन्द्रित, अल्पकालिक (10–20 सत्र), और सहभागी शैली वाली होती है, जिसमें चिकित्सक और सेवार्थी खुलकर विचार-विमर्श करते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य है — नकारात्मक विचारों को सकारात्मक, यथार्थवादी विश्वासों से प्रतिस्थापित करना।
संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा
संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (CBT) आज की सबसे प्रभावशाली और व्यापक रूप से प्रयुक्त मानसिक चिकित्सा पद्धति है। यह संज्ञानात्मक चिकित्सा और व्यवहार चिकित्सा का संयोजन है, जो मनोवैज्ञानिक विकारों जैसे दुश्चिता, अवसाद, आतंक दौरा और सीमावर्ती व्यक्तित्व के लिए एक संक्षिप्त और प्रभावी उपचार प्रदान करती है। इसका आधार जैव-मनोसामाजिक उपागम है, जिसमें जैविक समस्याओं को विश्रांति तकनीकों, मनोवैज्ञानिक समस्याओं को संज्ञानात्मक-व्यवहार तकनीकों और सामाजिक समस्याओं को पर्यावरणीय परिवर्तनों से संबोधित किया जाता है। इसकी उपयोगिता सरल, व्यापक और वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है।
मानवतावादी अस्तित्वपरक चिकित्सा
मानवतावादी-अस्तित्वपरक चिकित्सा का मानना है कि मनोवैज्ञानिक कष्ट का मूल कारण व्यक्ति की अकेलेपन, जीवन के अर्थ की कमी और आत्मसंतोष न मिलने की भावना होती है। यह चिकित्सा आत्मसिद्धि की स्वाभाविक आवश्यकता को केंद्र में रखती है, जो व्यक्ति को अधिक संपूर्ण, संतुलित और विकसित बनने के लिए प्रेरित करती है। जब समाज या परिवार इस प्रक्रिया में बाधा डालते हैं, तो व्यक्ति मानसिक कष्ट अनुभव करता है। चिकित्सा का उद्देश्य सेवार्थी को एक सुरक्षित, स्वीकारात्मक वातावरण देना होता है जहाँ वह अपने संवेगों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सके और आत्मबोध प्राप्त कर सके। इसमें चिकित्सक मार्गदर्शक होता है, लेकिन असली ज़िम्मेदारी सेवार्थी की होती है। जैसे-जैसे सेवार्थी अपनी भावनाओं और अनुभवों को समझने लगता है, वह आत्म-संवृद्धि की ओर बढ़ता है और मानसिक रूप से स्वस्थ होता है।
अस्तित्वपरक चिकित्सा
उद्बोधक चिकित्सा (Logotherapy) विक्टर फ्रेंकल द्वारा प्रतिपादित एक ऐसी मनोचिकित्सात्मक विधि है, जिसका उद्देश्य व्यक्ति को अपने जीवन में अर्थ और उत्तरदायित्व की भावना खोजने में सहायता करना है। "लॉगोस" शब्द आत्मा को दर्शाता है, और यह चिकित्सा आत्मा के उपचार पर केंद्रित होती है। फ्रेंकल के अनुसार, जैसे मन में अचेतन होता है, वैसे ही एक आध्यात्मिक अचेतन भी होता है, जिसमें प्रेम, सौंदर्य और जीवन-मूल्य छिपे होते हैं। जब जीवन में अर्थहीनता महसूस होती है, तो अस्तित्व दुश्चिता (existential anxiety) उत्पन्न होती है। उद्बोधक चिकित्सा व्यक्ति को सिखाती है कि वह कठिन परिस्थितियों के बावजूद अपने जीवन में अर्थ पा सकता है। चिकित्सक निष्कपट होकर सेवार्थी से 'आज और अभी' पर केंद्रित बातचीत करता है और उसे प्रेरित करता है कि वह अपने अस्तित्व की विशेषताओं को पहचानकर अपने जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करे।
सेवार्थी-केंद्रित चिकित्सा
सेवार्थी-केंद्रित चिकित्सा कार्ल रोजर्स द्वारा विकसित एक मानवीय उपचार पद्धति है, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता, चयन और आत्मस्वीकृति को केंद्र में रखा गया है। इस चिकित्सा में चिकित्सक तदनुभूति (empathy), अशर्त सकारात्मक आदर और सहानुभूतिपूर्ण समझ द्वारा सेवार्थी के अनुभवों को उसी की तरह समझने का प्रयास करता है। चिकित्सक सेवार्थी को बिना किसी निर्णय के पूरी स्वीकृति देता है, जिससे सेवार्थी अपने विघटित भावों को पहचानकर खुद को बेहतर समझ पाता है। चिकित्सक सेवार्थी के विचारों का परावर्तन करता है यानी उसके कथनों को सरल और स्पष्ट रूप में दोहराकर उसे समझने में मदद करता है। इस प्रक्रिया से सेवार्थी में आत्मबोध, संतुलन और भावनात्मक समाकलन बढ़ता है। यह चिकित्सा सेवार्थी को अपने वास्तविक स्व को खोजने और अपनाने में सहायता करती है, जिसमें चिकित्सक एक मार्गदर्शक या सुगमकर्ता की भूमिका निभाता है।
गेस्टाल्ट चिकित्सा
गेस्टाल्ट चिकित्सा, जिसे फ्रिट्ज और लॉरा पर्ल्स ने विकसित किया, का उद्देश्य व्यक्ति की आत्म-जागरूकता और आत्म-स्वीकृति को बढ़ाना है। इसमें सेवार्थी को अपनी शारीरिक प्रतिक्रियाओं और संवेगों को पहचानना सिखाया जाता है जो उसकी जागरूकता को रोकते हैं। चिकित्सक कल्पनात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से सेवार्थी की भावनाओं और द्वंद्वों को सामने लाने के लिए प्रेरित करता है। यह चिकित्सा व्यक्तिगत और समूह दोनों रूपों में अपनाई जाती है।
मनश्चिकित्सा में स्वास्थ्य लाभ कई कारकों पर निर्भर करता है — जैसे सही तकनीकों का प्रयोग (जैसे CBT, विश्रांति विधियाँ), चिकित्सक और सेवार्थी के बीच तद्नुभूति और विश्वास से भरा संबंध, तथा प्रारंभिक सत्रों में भावनात्मक विसर्जन (कैथार्सिस)। इसके अलावा, कुछ अविशिष्ट कारक भी होते हैं जैसे रोगी की बदलाव के लिए प्रेरणा और चिकित्सक की सकारात्मक सोच, भावनात्मक संतुलन आदि। ये सभी मिलकर उपचार को प्रभावशाली बनाते हैं।
मनश्चिकित्सा के नैतिक सिद्धांत
कुछ नैतिक मानक जिनका व्यवसायी मनश्चिकित्सकों द्वारा प्रयोग किया जाना चाहिए, वे हैं
1. सेवार्थी से सुविज्ञ सहमति लेनी चाहिए।
2. सेवार्थी की गोपनीयता बनाए रखनी चाहिए।
3. व्यक्तिगत कष्ट और व्यथा को कम करना मनश्चिकित्सक के प्रत्येक प्रयासों का लक्ष्य होना चाहिए।
4. चिकित्सक सेवार्थी संबंध की अखंडता महत्वपूर्ण है।
5. मानव अधिकार एवं गरिमा के लिए आदर।
6. व्यावसायिक सक्षमता एवं कौशल आवश्यक हैं।
वैकल्पिक चिकित्सा
वैकल्पिक चिकित्सा वे उपचार पद्धतियाँ हैं जो पारंपरिक औषधीय या मनोचिकित्सकीय उपचारों के विकल्प के रूप में प्रयोग की जाती हैं, जैसे योग, ध्यान, एक्यूपंक्चर और वनौषधियाँ। योग और ध्यान विशेष रूप से मानसिक कष्टों के उपचार में लोकप्रिय हुए हैं। योग में मुख्यतः शारीरिक मुद्राएँ (आसन) और श्वसन क्रियाएँ (प्राणायाम) शामिल होती हैं, जबकि ध्यान में मन को किसी वस्तु, विचार या मंत्र पर केंद्रित किया जाता है। विपश्यना ध्यान में बिना किसी एकाग्रता के केवल अपने विचारों और संवेदनाओं का निष्क्रिय प्रेक्षण किया जाता है। सुदर्शन क्रिया योग एक तीव्र श्वसन तकनीक है, जो अवसाद, तनाव, PTSD, मादक द्रव्य सेवन और अपराधियों के पुनर्वास में उपयोगी है। NIMHANS जैसे संस्थानों के शोध बताते हैं कि योग अवसाद, अनिद्रा और तनाव में राहत देता है। अमेरिका में कुंडलिनी योग, जिसमें प्राणायाम और मंत्रों का प्रयोग होता है, OCD जैसे मानसिक विकारों में सहायक पाया गया है। सतर्कता-आधारित ध्यान अवसाद की पुनरावृत्ति रोकने में सहायक होता है और संवेगों को बेहतर तरीके से समझने में मदद करता है।
मानसिक रोगियों का पुनःस्थापन
मनोवैज्ञानिक विकारों के उपचार में दो मुख्य उद्देश्य होते हैं — लक्षणों में कमी लाना और जीवन की गुणवत्ता को सुधारना। हल्के विकारों जैसे सामान्य दुश्चिंता या डर में ये दोनों पहलू जुड़े होते हैं, जबकि गंभीर मानसिक रोगों जैसे मनोविदलता में केवल लक्षण कम होना पर्याप्त नहीं होता। ऐसे रोगियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पुनःस्थापना की आवश्यकता होती है। इसमें उन्हें मोमबत्ती बनाना, कपड़ा बुनना जैसे काम सिखाकर कार्य अनुशासन सिखाया जाता है (व्यावसायिक चिकित्सा), सामाजिक व्यवहार सिखाया जाता है (सामाजिक कौशल प्रशिक्षण), और ध्यान, स्मृति जैसे मानसिक कार्यों को सुधारने के लिए अभ्यास कराए जाते हैं (संज्ञानात्मक पुनःप्रशिक्षण)। जब सुधार हो जाता है, तो उन्हें रोजगार योग्य कौशलों का प्रशिक्षण भी दिया जाता है ताकि वे समाज के उपयोगी सदस्य बन सकें।