Editor Posts footer ads

आत्म एवं व्यक्तित्व Notes in Hindi Class 12 Psychology Chapter-2 Book-1

आत्म एवं व्यक्तित्व Notes in Hindi Class 12 Psychology Chapter-2 Book-1


परिचय

आत्म (Self) और व्यक्तित्व (Personality) हमारे व्यवहार, प्रतिक्रियाओं और दूसरों से संबंधों को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हम अक्सर खुद और दूसरों के व्यवहार का विश्लेषण करते हैं और सोचते हैं कि समान स्थितियों में हम अलग प्रतिक्रिया क्यों देते हैं। इस भिन्नता को समझने के लिए आत्म और व्यक्तित्व की अवधारणाओं का उपयोग किया जाता है। आत्म, व्यक्तित्व का मूल होता है और यह हमारी पहचान, अनन्यता और दूसरों से समानताओं को समझने में मदद करता है। विभिन्न विचारकों ने आत्म और व्यक्तित्व की संरचना, कार्य और मूल्यांकन के लिए अनेक सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं। यह अध्याय इन्हीं आधारभूत पहलुओं, प्रमुख सैद्धांतिक दृष्टिकोणों और मूल्यांकन की विधियों से आपको परिचित कराएगा।


आत्म एवं व्यक्तित्व

आत्म और व्यक्तित्व वे विशेष तरीके हैं जिनसे हम अपने अस्तित्व को परिभाषित करते हैं और अनुभवों को व्यवस्थित कर व्यवहार में व्यक्त करते हैं। हर व्यक्ति अपने बारे में अलग-अलग सोचता है, जो उसके आत्म (self) को दर्शाता है। वहीं, किसी व्यक्ति का व्यवहार स्थिति अनुसार बदल सकता है, लेकिन आमतौर पर उसमें एक स्थिरता होती है यही स्थिर और संगठित व्यवहार का पैटर्न उसके व्यक्तित्व (personality) को दर्शाता है। इसलिए, अलग-अलग लोग अलग व्यक्तित्व वाले होते हैं और यह विभिन्न परिस्थितियों में उनके व्यवहार में दिखाई देता है।


आत्म का संप्रत्यय

आत्म (Self) का तात्पर्य व्यक्ति की उस धारणा से है जिसके माध्यम से वह यह समझता है कि "मैं कौन हूँ" और "मैं दूसरों से कैसे भिन्न हूँ।" यह धारणा बाल्यावस्था से धीरे-धीरे विकसित होती है और इसमें माता-पिता, शिक्षक, मित्रों और सामाजिक अनुभवों की अहम भूमिका होती है। आत्म की समझ दो स्तरों पर होती है: व्यक्तिगत अनन्यता, जिसमें व्यक्ति अपने नाम, गुण, क्षमताएँ या विश्वासों के आधार पर स्वयं को परिभाषित करता है; और सामाजिक अनन्यता, जिसमें वह अपने धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र या सांस्कृतिक समूह से अपनी पहचान जोड़ता है। आत्म का निर्माण हमारे अनुभवों, दूसरों से अंतःक्रिया और उन पर आधारित अर्थों के आधार पर होता है। इसलिए आत्म हमारे विचारों, भावनाओं और चिंतन की वह समग्रता है जो हमारे अस्तित्व को व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर परिभाषित करती है।


आत्मगत रूप में आत्म एवं वस्तुगत रूप में आत्म

आत्म (Self) को दो रूपों में समझा जा सकता है: आत्मगत (subjective) और वस्तुगत (objective)। जब कोई कहता है "मैं एक नर्तक हूँ," तो वह आत्म को एक कर्ता या सक्रिय सत्ता के रूप में प्रस्तुत करता है, जबकि "मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जिसे आसानी से चोट पहुँचती है," यह आत्म को एक प्रभावित होने वाली वस्तु के रूप में दर्शाता है। यानी आत्म कभी जानने वाला होता है, तो कभी जिसे जाना जा सकता है। यह आत्म की द्वैध प्रकृति है वह स्वयं को पहचानने की प्रक्रिया में सक्रिय भी रहता है और साथ ही एक विश्लेषण योग्य वस्तु भी होता है। यह द्वैधता आत्म को पूरी तरह समझने के लिए आवश्यक है।


आत्म के प्रकार

आत्म (Self) के विभिन्न रूप होते हैं, जो हमारे भौतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण से अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं। शुरुआत जैविक आत्म से होती है, जैसे नवजात शिशु का भूख लगने पर रोना, जो बाद में "मैं भूखा हूँ" जैसी आत्म-जागरूकता में बदलता है। आगे चलकर आत्म दो प्रमुख रूपों में विकसित होता है: व्यक्तिगत आत्म (Personal Self) और सामाजिक आत्म (Social Self)। व्यक्तिगत आत्म व्यक्ति की स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, उपलब्धियों और सुख-सुविधाओं से जुड़ा होता है। इसके विपरीत, सामाजिक आत्म सहयोग, संबंध, त्याग, समर्थन और सामूहिकता जैसे मूल्यों पर आधारित होता है, और इसे पारिवारिक या संबंधात्मक आत्म भी कहा जाता है।


आत्म के संज्ञानात्मक एवं व्यवहारात्मक पक्ष

विश्वभर के मनोवैज्ञानिकों ने आत्म के अध्ययन में गहरी रुचि ली है, जिससे यह समझने में मदद मिली कि हम कौन हैं और दूसरों से कैसे भिन्न हैं। हम अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक पहचान से जुड़े रहते हैं, और इनकी स्थिरता हमें सुरक्षा का अनुभव कराती है। हम अपने गुणों और क्षमताओं को जिस तरह समझते हैं, उसी को आत्म-संप्रत्यय (Self-Concept) कहा जाता है। यह धारणा समग्र रूप से सकारात्मक या नकारात्मक हो सकती है, और अलग-अलग क्षेत्रों (जैसे शिक्षा, खेल, गणित या पढ़ाई) में व्यक्ति की आत्म-धारणा भिन्न हो सकती है। आत्म-संप्रत्यय को जानना आसान नहीं होता, इसलिए आमतौर पर व्यक्ति से सीधे सवाल पूछकर उसकी धारणा जानी जाती है।


आत्म-सम्मान

आत्म-सम्मान (Self-Esteem) आत्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष है, जो व्यक्ति द्वारा अपने मूल्य और योग्यता का किया गया आकलन होता है। यह उच्च या निम्न स्तर का हो सकता है, और इसे मापने के लिए व्यक्ति से संबंधित कथनों पर उसकी सहमति पूछी जाती है, जैसे: "मैं गृहकार्य में अच्छा हूँ" या "मुझे खेलों में चुना जाता है।" उच्च सहमति = उच्च आत्म-सम्मान। 67 वर्ष की उम्र तक बच्चों में आत्म-सम्मान के चार क्षेत्र विकसित हो जाते हैं: शैक्षिक, सामाजिक, शारीरिक क्षमता और शारीरिक रूप, जो उम्र के साथ परिष्कृत होते हैं। आत्म-सम्मान का प्रभाव व्यक्ति के शैक्षिक प्रदर्शन, सामाजिक स्वीकृति और व्यवहार में देखा जाता है। उच्च आत्म-सम्मान वाले बच्चे अधिक सफल और लोकप्रिय होते हैं, जबकि निम्न आत्म-सम्मान वाले बच्चे दुश्चिंता, अवसाद और समाज-विरोधी व्यवहार दिखाते हैं। सकारात्मक और स्नेहपूर्ण पालन-पोषण से बच्चों में उच्च आत्म-सम्मान विकसित होता है, जबकि अत्यधिक नियंत्रण से इसका स्तर घट सकता है।


आत्म-सक्षमता

आत्म-सक्षमता (Self-Efficacy) आत्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष है, जो यह दर्शाती है कि व्यक्ति को अपनी योग्यता और क्षमताओं पर कितना विश्वास है कि वह जीवन की चुनौतियों को नियंत्रित कर सकता है। जिन लोगों को लगता है कि वे स्वयं अपने परिणाम तय कर सकते हैं, उनमें उच्च आत्म-सक्षमता होती है, जबकि जो लोग परिणामों को भाग्य या बाहरी कारकों पर छोड़ते हैं, उनमें यह कम होती है। यह संप्रत्यय बंदूरा के सामाजिक अधिगम सिद्धांत पर आधारित है, जिसके अनुसार लोग दूसरों का प्रेक्षण और अनुकरण कर व्यवहार सीखते हैं। आत्म-सक्षमता व्यक्ति के जोखिम उठाने, प्रयास करने, और डर को नियंत्रित करने की क्षमता को प्रभावित करती है। इसे प्रशिक्षण, सकारात्मक अनुभव और प्रेरणादायक रोल मॉडल्स के माध्यम से विकसित किया जा सकता है। उच्च आत्म-सक्षमता वाले लोग जीवन में अधिक सक्रिय, आत्मविश्वासी और निर्णायक होते हैं।


आत्म-नियमन

आत्म-नियमन (Self-Regulation) का अर्थ है अपनी भावनाओं, व्यवहारों और कार्यों को नियंत्रित और मॉनिटर करने की क्षमता। जिन लोगों में बाह्य परिस्थितियों के अनुसार अपने व्यवहार को ढालने की क्षमता होती है, वे आत्म-नियमन में अधिक सक्षम होते हैं। यह क्षमता हमें संकल्प शक्ति के रूप में जीवन की चुनौतियों से जूझने, आवश्यकताओं की पूर्ति को विलंबित (delayed gratification) करने और दीर्घकालिक लक्ष्यों की प्राप्ति में मदद करती है। भारतीय परंपराओं में व्रत, उपवास, और अनासक्ति जैसे अभ्यास आत्म-नियंत्रण के विकास में सहायक माने जाते हैं। आत्म-नियमन के लिए तीन प्रमुख मनोवैज्ञानिक तकनीकें हैं:

  • आत्म-प्रेक्षण अपने व्यवहार को ध्यानपूर्वक देखना,
  • आत्म-अनुदेशन स्वयं को दिशा देने वाले सकारात्मक संदेश देना,
  • आत्म-प्रबलन वांछित व्यवहार के लिए स्वयं को इनाम देना।

ये तकनीकें व्यक्ति को अपने व्यवहार में सुधार लाने और आत्म-नियंत्रण विकसित करने में अत्यंत प्रभावी होती हैं।


संस्कृति एवं आत्म

भारतीय और पाश्चात्य संस्कृतियों में आत्म (Self) की अवधारणा में महत्वपूर्ण भिन्नता पाई जाती है। पाश्चात्य संस्कृति में आत्म और दूसरों के बीच एक स्थिर और स्पष्ट सीमा मानी जाती है, जहाँ व्यक्ति की पहचान समूह से अलग रहती है और आत्म को स्वतंत्र इकाई के रूप में देखा जाता है। इसके विपरीत, भारतीय संस्कृति में आत्म की सीमाएँ परिवर्तनीय होती हैं कभी आत्म सम्पूर्ण ब्रह्मांड से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है, तो कभी पूरी तरह व्यक्तिगत आवश्यकताओं और लक्ष्यों पर केंद्रित होता है। भारतीय दृष्टिकोण में आत्म और समूह एक-दूसरे से पृथक न होकर सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व में होते हैं। इसी कारण पाश्चात्य संस्कृतियाँ आमतौर पर व्यक्तिवादी (individualistic), जबकि एशियाई और विशेष रूप से भारतीय संस्कृति को सामूहिकतावादी (collectivistic) कहा जाता है।


व्यक्तित्व का संप्रत्यय

1. व्यक्तित्व का शाब्दिक अर्थ:

‘व्यक्तित्व’ शब्द लैटिन शब्द ‘Personaसे लिया गया है, जिसका अर्थ है मुखौटा। रोमन नाटकों में अभिनेता अपनी भूमिका के अनुसार यह मुखौटा पहनते थे, जो उनके वास्तविक गुणों को नहीं, बल्कि केवल निभाई जा रही भूमिका को दर्शाता था।

2. आम धारणा बनाम वैज्ञानिक दृष्टिकोण:

3. व्यक्तित्व की मनोवैज्ञानिक परिभाषा:

व्यक्तित्व व्यक्ति के उन स्थायी गुणों का समूह है, जो उसके विचार, व्यवहार और भावनाओं को विभिन्न परिस्थितियों में विशिष्ट बनाते हैं। जैसे शर्मीला, गंभीर, स्फूर्त और संवेदनशील जैसे शब्द व्यक्तित्व के संकेतक माने जाते हैं।

4. व्यवहार और व्यक्तित्व का संबंध:

कोई भी व्यक्ति हर समय एक जैसा व्यवहार नहीं करता, लेकिन यदि कोई गुण लगातार और विभिन्न परिस्थितियों में दिखाई दे, तो वही उसका व्यक्तित्व माना जाता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति हर स्थिति में ईमानदार रहता है, तो ईमानदारी उसका व्यक्तित्व गुण कहलाएगा।

5. व्यक्तित्व की मुख्य विशेषताएँ:

व्यक्तित्व में शारीरिक और मानसिक दोनों घटक शामिल होते हैं, जो व्यक्ति को दूसरों से अलग बनाते हैं। यह आमतौर पर समय के साथ स्थिर रहता है, लेकिन गत्यात्मक भी होता है, यानी परिस्थितियों के अनुसार थोड़ा बहुत बदल सकता है और अनुकूलन दिखा सकता है।

6. व्यक्तित्व की समझ का उपयोग:

यदि हम किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को जान लें, तो उसके व्यवहार की भविष्यवाणी करना आसान हो जाता है। इससे सामाजिक व्यवहार को बेहतर बनाया जा सकता है और अनुकूल शिक्षण विधियाँ अपनाई जा सकती हैं। जैसे, यदि कोई बच्चा आदेश पसंद नहीं करता, तो उसे विकल्प दिए जाएँ, और यदि किसी बच्चे में हीन भावना हो, तो उसके साथ संवेदनशील और सहायक व्यवहार किया जाए।

7. व्यक्तित्व से जुड़े समानार्थी शब्द:

स्वभाव, प्रवृत्ति, रुचि, आदि शब्द कभी-कभी व्यक्तित्व के रूप में प्रयोग होते हैं, लेकिन ये सभी थोड़े अलग अर्थ रखते हैं।


व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागम

व्यक्तित्व के अध्ययन में मनोवैज्ञानिकों ने यह समझने का प्रयास किया है कि लोग एक जैसी परिस्थितियों में भी अलग-अलग व्यवहार क्यों करते हैं। एक ही परिवार में दो बच्चों का व्यक्तित्व अलग हो सकता है, जिससे यह प्रश्न उठता है कि ये भिन्नताएँ स्थायी हैं या अस्थायी। इन व्यवहारिक भिन्नताओं की व्याख्या के लिए तीन प्रमुख उपागम हैं:

  • प्ररूप उपागम (Type Approach) यह व्यक्ति के व्यवहार के कुछ विशिष्ट पैटर्न को पहचानकर उन्हें श्रेणियों में बाँटता है
  • विशेषक उपागम (Trait Approach) यह स्थायी गुणों जैसे शर्मीलापन या मैत्रीपूर्णता पर बल देता है, जिनसे व्यक्ति के व्यवहार में संगति देखी जाती है।
  • अंतःक्रियात्मक उपागम (Interactional Approach) यह मानता है कि व्यक्ति का व्यवहार केवल उसके आंतरिक गुणों पर नहीं, बल्कि स्थिति के अनुसार बाह्य पुरस्कार या खतरे पर भी निर्भर करता है। इसलिए व्यक्ति बाजार, मंदिर या अदालत जैसी भिन्न-भिन्न जगहों पर अलग तरह से व्यवहार करता है। हर उपागम व्यक्तित्व के कुछ पक्षों को उजागर करता है, पर सभी पहलुओं को नहीं।


प्ररूप उपागम

1. व्यक्तित्व के प्ररूप क्या हैं?

व्यक्तित्व के प्ररूप (Types) उन लोगों के समूह होते हैं जो समान प्रकार का व्यवहार करते हैं। इसका उद्देश्य लोगों को उनके व्यवहार के आधार पर वर्गीकृत करना होता है, ताकि उनके व्यक्तित्व को समझना और विश्लेषित करना आसान हो सके।

2. प्राचीन विचार हिप्पोक्रेट्स (Hippocrates):

4 प्रकार के व्यक्तित्व ह्यूमर (शारीरिक तरल) के आधार पर:

  • उत्साही (Sanguine) खुशमिजाज, मिलनसार
  • श्लैष्मिक (Phlegmatic) शांत, स्थिर
  • विवादी (Choleric) गुस्सैल, नेतृत्वकर्ता
  • कोपशील (Melancholic) गंभीर, चिंतनशील

3. भारतीय दृष्टिकोण:

चरक संहिता के अनुसार, त्रिदोष सिद्धांत में शरीर और स्वभाव को वात, पित्त और कफ तीन प्रकारों में बाँटा गया है। वहीं त्रिगुण सिद्धांत के अनुसार, हर व्यक्ति में सत्त्व (शुद्धता, अनुशासन), रजस (इच्छाएँ, असंतोष), और तमस (आलस्य, क्रोध) गुण होते हैं, लेकिन किसी एक गुण का प्रभाव अन्य की तुलना में अधिक होता है।

4. शेल्डन (Sheldon) शरीर के आधार पर व्यक्तित्व:

व्यक्तित्व के शारीरिक आधार पर एंडोमार्फ, मेसोमार्फ और एक्टोमार्फ तीन प्रकार होते हैं।

  • एंडोमार्फ व्यक्ति मोटे, मृदुभाषी और मिलनसार होते हैं;
  • मेसोमार्फ व्यक्ति मजबूत, ऊर्जावान और साहसी होते हैं;

जबकि एक्टोमार्फ व्यक्ति पतले, संवेदनशील और अंतर्मुखी स्वभाव के होते हैं।

नोट: ये केवल सामान्यीकरण हैं व्यवहार की पूरी भविष्यवाणी नहीं कर सकते।

5. युंग (Jung) अंतर्मुखी vs बहिर्मुखी:

व्यक्तित्व को सामाजिक व्यवहार के आधार पर दो प्रकारों में बाँटा गया है: अंतर्मुखी और बहिर्मुखी। अंतर्मुखी व्यक्ति अकेले रहना पसंद करते हैं, शांत और शर्मीले होते हैं, जबकि बहिर्मुखी व्यक्ति सामाजिक, बातचीत पसंद करने वाले और सक्रिय स्वभाव के होते हैं।

6. फ्रीडमैन और रोजेनमैन टाइप A & B व्यक्तित्व:

व्यक्तित्व को व्यवहारिक ढंग से Type A और Type B में बाँटा गया हैType A व्यक्तित्व वाले लोग हमेशा जल्दी में रहते हैं, समय के दबाव में रहते हैं और तनावग्रस्त होते हैं, जिससे उन्हें हृदय रोग की संभावना अधिक होती हैवहीं Type B व्यक्तित्व वाले लोग शांत, सहज होते हैं और तनाव को बेहतर ढंग से संभाल लेते हैं

7. अन्य आधुनिक प्ररूप:

व्यक्तित्व के अन्य प्रकारों में Type C और Type D शामिल हैंType C व्यक्तित्व वाले लोग अत्यधिक सहनशील होते हैं, अपने गुस्से को दबाते हैं और इन्हें कैंसर के प्रति संवेदनशील माना जाता हैवहीं Type D व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अवसाद प्रवृत्ति, नकारात्मक सोच और अधिक चिंता करने की प्रवृत्ति रखते हैं

8. सीमाएँ (Limitations):

व्यक्तित्व के ये प्ररूप सरल होते हैं, जबकि मानव व्यवहार अत्यंत जटिल होता है। इसलिए हर व्यक्ति को किसी एक प्ररूप में स्पष्ट रूप से वर्गीकृत करना कठिन होता है। ये वर्गीकरण व्यक्ति को समझने में सहायक तो होते हैं, लेकिन पूरी तरह से सटीक या पूर्ण नहीं माने जा सकते।


विशेषक उपागम

विशेषक उपागम (Trait Approach) व्यक्तित्व के उन मूलभूत गुणों की पहचान करता है जो व्यक्ति को दूसरों से अलग बनाते हैं। यह उपागम मानता है कि व्यक्ति के व्यवहार में दिखने वाली विविधता को कुछ स्थायी और सामान्य विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है। जैसे, यदि कोई व्यक्ति "सामाजिक" है, तो हम मान लेते हैं कि वह सहयोगी, मैत्रीपूर्ण और दूसरों की मदद करने वाला भी होगा। विशेषक अपेक्षाकृत स्थायी गुण होते हैं, जो समय के साथ स्थिर रहते हैं, विभिन्न परिस्थितियों में संगत व्यवहार उत्पन्न करते हैं, और प्रत्येक व्यक्ति में इनकी मात्रा व संयोजन अलग-अलग होता हैइसी कारण व्यक्तित्व में भिन्नताएँ पाई जाती हैं। कई मनोवैज्ञानिकों ने अपने सिद्धांतों को विकसित करने के लिए इन्हीं विशेषकों का उपयोग किया है।


ऑलपोर्ट का विशेषक सिद्धांत

गॉर्डन ऑलपोर्ट को विशेषक उपागम (Trait Approach) का अग्रणी माना जाता है। उन्होंने बताया कि व्यक्ति में कई गत्यात्मक विशेषक होते हैं जो विभिन्न परिस्थितियों में व्यवहार की एकरूपता बनाए रखते हैं। ऑलपोर्ट ने भाषा में प्रयुक्त व्यक्तित्व संबंधी शब्दों का विश्लेषण कर विशेषकों को तीन वर्गों में बाँटा:

  • प्रमुख विशेषक (Cardinal Traits) ये अत्यंत प्रभावशाली होते हैं और व्यक्ति के पूरे जीवन को निर्देशित करते हैं, जैसे गांधी की अहिंसा या हिटलर का नाजीवाद
  • केंद्रीय विशेषक (Central Traits) ये सामान्य पर महत्वपूर्ण गुण होते हैं जैसे ईमानदारी, मेहनती होना आदि।
  • गौण विशेषक (Secondary Traits) ये कम सामान्य गुण होते हैं, जैसे किसी का पसंदीदा भोजन या पहनावा।

हालाँकि ऑलपोर्ट ने परिस्थितियों के प्रभाव को स्वीकारा, फिर भी वे मानते थे कि व्यक्ति की प्रतिक्रिया उसके विशेषकों पर निर्भर करती है। समान विशेषक होने पर भी लोग उन्हें अलग-अलग तरीकों से व्यक्त कर सकते हैं, क्योंकि विशेषक उद्दीपक और अनुक्रिया के बीच मध्यवर्ती भूमिका निभाते हैं, जिससे अलग-अलग व्यवहार उत्पन्न हो सकते हैं।

कैटेल व्यक्तित्व कारक -

रेमंड कैटेल का मानना था कि व्यक्तियों में एक सामान्य संरचना होती है जिससे वे एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, और इसे इंद्रियानुभव पर आधारित तरीके से मापा जा सकता है। उन्होंने भाषा में प्रयुक्त विशेषणों का विश्लेषण कर प्राथमिक विशेषकों की पहचान के लिए कारक विश्लेषण (Factor Analysis) नामक सांख्यिकीय तकनीक का उपयोग किया। इसके आधार पर उन्होंने 16 मूल (source) विशेषकों की पहचान की, जो स्थायी होते हैं और व्यक्तित्व की बुनियादी संरचना बनाते हैं। इसके अलावा, पृष्ठ (surface) विशेषक भी होते हैं जो मूल विशेषकों की अंतःक्रिया से उत्पन्न होते हैं। कैटेल ने इन विशेषकों को विलोमी प्रवृत्तियों के रूप में समझाया (जैसे मिलनसार बनाम अंतर्मुखी)। उन्होंने इन विशेषकों के मूल्यांकन के लिए 16PF (Sixteen Personality Factor Questionnaire) नामक एक प्रसिद्ध परीक्षण विकसित किया, जिसका व्यापक उपयोग मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन में किया जाता है।


आइजेंक का सिद्धांत

एच. जे. आइजेंक ने व्यक्तित्व को जैविक और आनुवंशिक आधार पर दो मुख्य आयामों में विभाजित किया:

  • तंत्रिकातापिता बनाम सांवेगिक स्थिरता यह दर्शाता है कि व्यक्ति अपनी भावनाओं को कितना नियंत्रित कर सकता है। एक छोर पर चिड़चिड़े, बेचैन और अतिसंवेदनशील लोग होते हैं, जबकि दूसरे छोर पर शांत, संयत और आत्म-नियंत्रित व्यक्ति।
  • बहिर्मुखता बनाम अंतर्मुखता यह दर्शाता है कि व्यक्ति कितना सामाजिक है। बहिर्मुखी व्यक्ति सक्रिय, मिलनसार और रोमांचप्रिय होते हैं, जबकि अंतर्मुखी व्यक्ति शांत, सतर्क और आत्म-केंद्रित।

बाद में आइजेंक ने एक तीसरा आयाम भी जोड़ा: मनस्तापिता बनाम सामाजिकता, जिसमें उच्च स्कोर करने वाले व्यक्ति आक्रामक, स्वार्थी और समाजविरोधी हो सकते हैं। इन आयामों को मापने के लिए उन्होंने Eysenck Personality Questionnaire (EPQ) विकसित किया, जिसका व्यापक रूप से उपयोग होता है। यह विश्लेषण विशेषक उपागम को और अधिक व्यवस्थित और वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है।


मनोगतिक उपागम

व्यक्तित्व के मनोविश्लेषणात्मक उपागम का आधार सिगमंड फ्रायड के कार्यों पर है, जो इस क्षेत्र के प्रमुख विचारक थे। फ्रायड एक चिकित्सक थे और उन्होंने अपने नैदानिक अनुभवों के आधार पर यह सिद्धांत विकसित किया। उन्होंने देखा कि उनके रोगी जब अपनी समस्याओं को खुलकर व्यक्त करते हैं, तो उन्हें राहत मिलती है। इस अनुभव के आधार पर उन्होंने व्यक्तित्व के अवचेतन पक्ष को समझने के लिए सम्मोहन, मुक्त साहचर्य (free association), स्वप्न विश्लेषण और त्रुटियों के विश्लेषण जैसी विधियों का प्रयोग किया। इन विधियों के माध्यम से उन्होंने यह सिद्ध किया कि व्यक्ति के व्यवहार के पीछे गहरे मानसिक और भावनात्मक कारण होते हैं, जो सामान्यतः अवचेतन मन में छिपे होते हैं।


चेतना के स्तर

सिगमंड फ्रायड के अनुसार, व्यक्तित्व का आधार सांवेगिक द्वंद्व और उनकी प्रतिक्रिया में निहित होता है। उन्होंने मानव मन को तीन स्तरों में विभाजित किया:

  • चेतन (Conscious) जहाँ व्यक्ति अपने विचारों और भावनाओं के प्रति जागरूक होता है,
  • पूर्वचेतन (Preconscious) जहाँ विचार तब सामने आते हैं जब उन पर ध्यान केंद्रित किया जाए,
  • अचेतन (Unconscious) जहाँ दबी हुई इच्छाएँ, कामेच्छाएँ और पाशविक प्रवृत्तियाँ होती हैं।

फ्रायड ने बताया कि अचेतन मन में दबी इच्छाएँ अक्सर सामाजिक रूप से अस्वीकार्य होती हैं, इसलिए उन्हें दबा दिया जाता है। यह दमन आंतरिक संघर्ष पैदा करता है, जो यदि संतुलित न हो सके तो अपसामान्य व्यवहार उत्पन्न हो सकते हैं। स्वप्न, मज़ाक, भूलें और अशुद्ध उच्चारण अचेतन की झलक देते हैं। फ्रायड ने इन समस्याओं के उपचार के लिए मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) नामक चिकित्सा पद्धति विकसित की, जिसका उद्देश्य अचेतन विचारों को चेतन स्तर पर लाकर व्यक्ति को आत्म-जागरूक और अधिक समाकलित जीवन जीने में मदद करना है।


व्यक्तित्व की संरचना

सिगमंड फ्रायड के अनुसार, व्यक्तित्व की संरचना तीन मुख्य तत्वों इड (Id), अहं (Ego) और पराहम् (Superego) से मिलकर बनी होती है, जो अचेतन में ऊर्जा के रूप में विद्यमान होते हैं।

इड व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक इच्छाओं (जैसे कामेच्छा, आक्रोश) का स्रोत है और यह सुखेप्सा सिद्धांत पर कार्य करता है यानी तुरंत सुख पाना चाहता है, बिना नैतिक या सामाजिक विचार किए।

अहं, इड से विकसित होता है और वास्तविकता-सिद्धांत पर आधारित होता है। यह इड की इच्छाओं को सामाजिक रूप से उपयुक्त तरीके से संतुष्ट करने का मार्ग सुझाता है, जैसे बालक आइसक्रीम खाने से पहले अनुमति लेने की समझ विकसित करता है।

पराहम्, नैतिकता का प्रतिनिधि है, जो सही और गलत का निर्णय करता है और समाजीकरण के दौरान माता-पिता और समाज से सीखे गए मूल्यों के अनुसार कार्य करता है।

फ्रायड के अनुसार ये तीनों तत्त्व व्यक्ति के भीतर आंतरिक द्वंद्व में रहते हैं, और इनकी आपसी संतुलित शक्ति किसी व्यक्ति के मानसिक स्थायित्व को निर्धारित करती है। इड को ऊर्जा कामशक्ति या लिबिडो (libido) से मिलती है, जो जीवन-प्रवृत्ति (life instinct) पर आधारित होती है, और फ्रायड ने इसे मृत्यु-प्रवृत्ति की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण माना।


अहं रक्षा युक्तियाँ

फ्रायड के अनुसार, मनुष्य के कई व्यवहार दुश्चिता (anxiety) से बचने या उसका सामना करने की प्रक्रिया को दर्शाते हैं। जब अहं किसी दुश्चिताजनक स्थिति से जूझता है, तो वह रक्षा युक्तियाँ (defence mechanisms) अपनाता है ताकि मूलप्रवृत्तिक इच्छाओं की चेतना से रक्षा की जा सकेये युक्तियाँ वास्तविकता को विकृत करके दुश्चिता को कम करती हैं।

मुख्य रक्षा युक्तियों में दमन (repression) सबसे प्रमुख है, जिसमें व्यक्ति किसी असहज भावना या विचार को पूरी तरह चेतना से बाहर कर देता है। अन्य युक्तियाँ हैं:

  • प्रक्षेपण: अपनी नकारात्मक प्रवृत्तियों को दूसरों पर थोपना,
  • अस्वीकरण: स्पष्ट सत्य को नकारना,
  • प्रतिक्रिया निर्माण: असली भावना के विपरीत व्यवहार करना,
  • युक्तिकरण: तर्कहीन कार्यों को तर्कपूर्ण दिखाना।

ये युक्तियाँ आमतौर पर व्यक्ति को ज्ञात नहीं होतीं और दुश्चिता से अस्थायी राहत देती हैं, लेकिन इनका अत्यधिक उपयोग वास्तविकता की विकृति और कुसमायोजक व्यवहारों की ओर ले जा सकता है। हालांकि, फ्रायड के विचारों पर कई शोधों में प्रश्न भी उठाए गए हैं।


व्यक्तित्व विकास की अवस्थाएँ

परिचय:

फ्रायड के अनुसार, व्यक्तित्व का विकास जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही हो जाता है। उन्होंने इसे मनोलैंगिक विकास सिद्धांत (Psychosexual Theory) कहा और पाँच अवस्थाओं में बाँटा। यदि किसी अवस्था में कोई समस्या आ जाए, तो व्यक्ति उस स्तर पर अटक सकता है, जिसे स्थिरण (Fixation) कहते हैं।

1. मौखिक अवस्था (Oral Stage):

मनोलैंगिक विकास की पहली अवस्था मौखिक अवस्था होती है, जो जन्म से लगभग 1 वर्ष तक होती है। इसमें सुख का केंद्र मुख (mouth) होता है और गतिविधियों में दूध पीना, अंगूठा चूसना, या चीजें चबाना शामिल है। इस अवस्था में मिले अनुभव व्यक्ति के जीवनभर के नजरिए को प्रभावित करते हैं। यदि बच्चा संतुष्ट नहीं होता, तो वह वयस्क होकर चीजें चबाने, गुस्से या शंका जैसी आदतें विकसित कर सकता है।

2. गुदीय अवस्था (Anal Stage):

मनोलैंगिक विकास की दूसरी अवस्था गुदा अवस्था (Anal Stage) होती है, जो 1 से 3 वर्ष की उम्र में होती है। इसमें सुख का केंद्र मलत्याग और टॉयलेट प्रशिक्षण होता है। इस दौरान मुख्य संघर्ष माता-पिता के नियंत्रण और बच्चे की स्वतंत्र इच्छा के बीच होता है। यदि प्रशिक्षण बहुत कठोर हो, तो बच्चा ज़्यादा अनुशासनप्रिय या जिद्दी बन सकता है, जबकि बहुत ढीलापन गंदे या असंगठित व्यक्तित्व का कारण बन सकता है।

3. लैंगिक अवस्था (Phallic Stage):

मनोलैंगिक विकास की तीसरी अवस्था फलिक अवस्था (Phallic Stage) होती है, जो 3 से 6 वर्ष की उम्र में आती है। इस दौरान सुख का केंद्र जननांग होते हैं। इसमें प्रमुख अवधारणाएँ इडिपस ग्रंथि (Oedipus Complex) जहाँ लड़का माँ की ओर आकर्षित होता है और पिता से ईर्ष्या करता है और इलेक्ट्रा ग्रंथि (Electra Complex) जहाँ लड़की पिता से प्रेम करती है और माँ से ईर्ष्या करती है शामिल हैं। इस संघर्ष का समाधान समान लिंग वाले माता-पिता से तादात्म्य (Identification) स्थापित करके होता है

4. कामप्रसुप्ति अवस्था (Latency Stage):

6 से 12 वर्ष की उम्र (या यौवनारंभ तक) की अवधि को फ्रायड ने गुप्त अवस्था (Latency Stage) कहाइस दौरान बच्चे की कामेच्छा दब जाती है और वह पढ़ाई, खेल, सामाजिक व्यवहार और मित्रता जैसी गतिविधियों में व्यस्त रहता हैइस अवस्था में सामाजिक विकास प्रमुख होता है

5. जननांगीय अवस्था (Genital Stage):

मनोलैंगिक विकास की अंतिम अवस्था गुप्तांग अवस्था (Genital Stage) होती है, जो किशोरावस्था से वयस्कता तक चलती है। इसमें कामेच्छा परिपक्व रूप में पुनः प्रकट होती है। इस चरण की मुख्य विशेषताएँ हैंविपरीत लिंग के प्रति आकर्षण, परिपक्व संबंधों की स्थापना और सामाजिक व यौन परिपक्वता। यदि पूर्व की किसी अवस्था में समस्या रही हो, तो इस अवस्था में व्यक्तित्व संबंधी समस्याएँ बनी रह सकती हैं।

महत्वपूर्ण अवधारणाएँ:

स्थिरण (Fixation) तब होता है जब किसी मनोलैंगिक अवस्था में अधूरी संतुष्टि के कारण व्यक्ति उसी स्तर पर अटक जाता है, जैसे मौखिक अवस्था में अटका व्यक्ति अधिक बोलने या चबाने की आदत विकसित कर सकता है। प्रतिगमन (Regression) वह स्थिति है जब व्यक्ति तनाव में पहले की कम परिपक्व अवस्था के व्यवहार को दोहराने लगता है, जैसे कोई वयस्क तनाव में रोने या अंगूठा चूसने लगे।


पश्च-फ्रायडवादी उपागम

फ्रायड के पश्चात कई मनोवैज्ञानिकों ने उनके विचारों को आगे बढ़ाया और संशोधित किया। इन्हें नव-विश्लेषणवादी या पश्च-फ्रायडवादी कहा जाता है। इन्होंने फ्रायड के इड, लैंगिकता और आक्रामकता पर अत्यधिक ज़ोर को कम करके, मानवीय गुणों जैसे सर्जनात्मकता, क्षमता और समस्या सुलझाने की योग्यता पर अधिक बल दिया। इन सिद्धांतकारों ने मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को एक अधिक सकारात्मक और सामाजिक संदर्भ में पुनः परिभाषित किया।


कार्ल युग उद्देश्य एवं आकांक्षाएँ

युंग ने फ्रायड से अलग होकर विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान का विकास किया, जिसमें उन्होंने माना कि मनुष्य काम-भावना और आक्रामकता की बजाय उद्देश्यों और आत्म-साक्षात्कार द्वारा संचालित होता है। उन्होंने व्यक्तित्व में संतुलन पर ज़ोर दिया और “सामूहिक अचेतन” (collective unconscious) की अवधारणा दी, जिसमें वंशानुगत आद्य प्ररूप (archetypes) मौजूद होते हैं, जैसे ईश्वर, धरती माता आदि। ये आद्य प्ररूप स्वप्नों, मिथकों और कलाओं में प्रकट होते हैं। युंग के अनुसार, आत्म एकता की ओर बढ़ना मनुष्य की मौलिक आकांक्षा है, और इसके लिए व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत और सामूहिक अचेतन से जुड़े ज्ञान को पहचानकर संतुलित जीवन जीना चाहिए


कैरेन हार्नी आशावाद

कारेन हार्नी ने फ्रायड के सिद्धांतों से भिन्न एक आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने मानव संवृद्धि और आत्मसिद्धि पर बल दिया। उन्होंने फ्रायड के इस विचार को चुनौती दी कि महिलाएँ हीन होती हैं, और कहा कि लिंग की श्रेष्ठता नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक कारक अधिक प्रभावशाली होते हैं। हार्नी के अनुसार, मनोवैज्ञानिक विकारों की जड़ें बचपन में विक्षुब्ध अंतर्वैयक्तिक संबंधों में होती हैं। यदि माता-पिता का व्यवहार उदासीन या असंगत होता है, तो बच्चे में मूल दुश्चिता (basic anxiety) और गहरी आक्रामकता विकसित हो सकती है, जिससे वह एकाकीपन और असहायता का अनुभव करता है और उसका स्वस्थ विकास प्रभावित होता है।


अल्फ्रेड एडलर जीवन शैली एवं सामाजिक अभिरुचि

एडलर के सिद्धांत को वैयक्तिक मनोविज्ञान (Individual Psychology) कहा जाता है। उन्होंने माना कि व्यक्ति का व्यवहार लक्ष्य-निर्देशित और उद्देश्यपूर्ण होता है, और हर व्यक्ति में चयन करने व सृजन करने की क्षमता होती है। उनके अनुसार, व्यक्तिगत लक्ष्य हमारी अभिप्रेरणा के स्त्रोत होते हैं, जो हमें सुरक्षा देते हैं और हीनता की भावना (Inferiority Complex) पर विजय पाने में मदद करते हैं। यह हीनता भाव बाल्यावस्था में उत्पन्न होती है, और उस पर काबू पाकर ही व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्तित्व विकास संभव होता है।


एरिक फ्रॉम मानवीय महत्त्व

फ्रॉम (Fromm) ने फ्रायड की जैविक उन्मुखता के विपरीत सामाजिक उन्मुखता पर बल दिया। उन्होंने मनुष्य को मूलतः सामाजिक प्राणी माना, जिसे उसके दूसरों से संबंधों के माध्यम से समझा जा सकता है। उनके अनुसार, स्वतंत्रता की इच्छा और न्याय व सत्य के लिए संघर्ष के परिणामस्वरूप व्यक्ति में संवृद्धि और क्षमताएँ विकसित होती हैं। फ्रॉम ने यह भी बताया कि किसी समाज की रीतियाँ और संस्कृति लोगों के चरित्र विशेषकों (personality traits) को प्रभावित करती हैं। उन्होंने कोमलता और प्रेम जैसे सकारात्मक गुणों को व्यक्तित्व विकास में अहम माना।


एरिक एरिक्सन - अनन्यता की खोज

एरिक एरिक्सन का सिद्धांत व्यक्तित्व विकास को एक जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया मानता है और इसमें तर्कयुक्त, सचेतन अहं की भूमिका को केंद्र में रखता है। उन्होंने किशोरावस्था के पहचान संकट (identity crisis) की अवधारणा दी, जिसमें युवाओं को अपने जीवन के लिए दिशा और उद्देश्य तय करने की आवश्यकता होती है। हालांकि, मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांतों की आलोचना भी हुई है। इनकी प्रमुख आलोचनाएँ हैं ये ज़्यादातर व्यक्तिगत केस स्टडीज़ पर आधारित हैं, वैज्ञानिक प्रमाणों की कमी है, संप्रत्यय अस्पष्ट और अवैज्ञानिक परीक्षण योग्य नहीं हैं, और फ्रायड ने केवल पुरुषों को मानव विकास का आधार माना, जिससे महिलाओं के अनुभवों की उपेक्षा हुई।


व्यवहारवादी उपागम

व्यवहारवादी उपागम व्यक्तित्व को आंतरिक मानसिक प्रक्रियाओं के बजाय केवल प्रेक्षणीय और मापन योग्य व्यवहार के आधार पर समझता है। इसके अनुसार, व्यक्ति का व्यवहार पर्यावरणीय उद्दीपनों और उनके प्रबलन (reinforcement) के माध्यम से सीखा और बदला जा सकता है। व्यवहार की मूल इकाई "अनुक्रिया" है, जो किसी जैविक या सामाजिक आवश्यकता को संतुष्ट करने के लिए होती है। प्राचीन अनुबंधन (पावलव), नैमित्तिक अनुबंधन (स्किनर) और प्रेक्षणात्मक अधिगम (बंदूरा) जैसे सिद्धांतों ने इस उपागम को मजबूत आधार दिया है। विशेषतः बंदूरा ने सामाजिक अधिगम और आत्म-नियमन पर बल दिया, जबकि अन्य दो चिंतन प्रक्रियाओं की उपेक्षा करते हैं।


सांस्कृतिक उपागम

यह उपागम व्यक्तित्व को पारिस्थितिक और सांस्कृतिक परिवेश के संदर्भ में समझने का प्रयास करता है। किसी समाज की आर्थिक प्रणाली, जलवायु, भोजन की उपलब्धता, सामाजिक संरचना और बाल-पोषण की रीति व्यक्ति के अधिगम वातावरण और व्यवहार पर गहरा प्रभाव डालती है। उदाहरणतः झारखंड के बिरहोर जनजाति के बच्चे शिकार और संग्रह आधारित जीवन के कारण स्वतंत्र, स्वायत्त और जोखिम उठाने वाले बनते हैं, जबकि कृषक समाजों में बच्चे आज्ञापालन, उत्तरदायित्व और सहयोग जैसे गुण सीखते हैं। इस प्रकार, संस्कृति और पारिस्थितिकी के अनुसार भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व विकसित होते हैं।


मानवतावादी उपागम

परिचय:

मानवतावादी सिद्धांत फ्रायड के मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत की प्रतिक्रिया में विकसित हुआ, जो मनुष्य की अच्छाई, स्वतंत्रता और आत्म-विकास की क्षमता में विश्वास करता है।

मुख्य सिद्धांतकार:

1. कार्ल रोजर्स (Carl Rogers)

2. अब्राहम मैस्लो (Abraham Maslow)

1. कार्ल रोजर्स का सिद्धांत:

मानवतावादी सिद्धांत का मुख्य विचार है कि हर व्यक्ति में श्रेष्ठ बनने की प्रवृत्ति होती है, जिसे Self-Actualisation कहा जाता है। कार्ल रोजर्स के अनुसार, पूर्णतः प्रकार्यशील व्यक्ति वह होता है जो स्वयं को पूरी तरह पहचानता, स्वीकारता और नए अनुभवों के लिए लचीला होता है। इसमें Self (वास्तविक आत्म) और Ideal Self (आदर्श आत्म) का मेल संतोष लाता है, जबकि अंतर दुःख का कारण बनता है। रोजर्स ने Unconditional Positive Regard यानी बिना शर्त स्वीकृति और सम्मान पर बल दिया, जिससे व्यक्ति का Self-Concept और Self-Esteem मजबूत होता है। इसी सिद्धांत पर आधारित Client-Centered Therapy में सहानुभूति और स्वीकृति के माध्यम से रोगी की सहायता की जाती है।

2. अब्राहम मैस्लो का सिद्धांत:

मानवतावादी दृष्टिकोण के अंतर्गत अब्राहम मैस्लो ने आवश्यकताओं का पदानुक्रम (Hierarchy of Needs) प्रस्तुत किया, जिसमें व्यक्ति की आवश्यकताएँ पाँच स्तरों में होती हैं:

1. शारीरिक आवश्यकताएँ (भोजन, पानी),

2. सुरक्षा,

3. प्रेम और संबंध,

4. आत्म-सम्मान, और

5. आत्म-सिद्धि।

Self-Actualisation इस पदानुक्रम का सर्वोच्च स्तर है, जहाँ व्यक्ति अपनी पूर्ण क्षमताओं को पहचानकर उन्हें विकसित करता हैजैसे रचनात्मक बनना या सच्चाई की खोज। मानवतावादी दृष्टिकोण मानता है कि व्यक्ति मूलतः अच्छा होता है, वह स्वतंत्र रूप से अपनी राह चुन सकता है, और उसमें प्रेम व सृजनात्मकता की क्षमता होती है। उसका लक्ष्य केवल जीना नहीं, बल्कि श्रेष्ठ बनना है।


व्यक्तित्व का मूल्यांकन

हर व्यक्ति अपने जीवन में दूसरों को समझने और उनका आकलन करने की कोशिश करता है, लेकिन यह प्रक्रिया कई बार पूर्वाग्रहों से प्रभावित होती है। इसलिए व्यक्तित्व को समझने के लिए एक संगठित और उद्देश्यपूर्ण प्रयास जरूरी होता है, जिसे व्यक्तित्व मूल्यांकन कहते हैं। इसका उद्देश्य लोगों के व्यवहार को अधिक सटीकता और कम से कम त्रुटि के साथ समझना और भविष्यवाणी करना होता है। यह मूल्यांकन निदान, प्रशिक्षण, परामर्श आदि के लिए उपयोगी होता है। इसके लिए मनोवैज्ञानिक विभिन्न तकनीकों का प्रयोग करते हैं जैसे मनोमितिक परीक्षण, आत्म-प्रतिवेदन माप, प्रक्षेपी तकनीकें और व्यवहार विश्लेषण, जो व्यक्तित्व के अलग-अलग पहलुओं को उजागर करती हैं।


आत्म-प्रतिवेदन माप

ऑलपोर्ट के अनुसार किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने का सबसे अच्छा तरीका है उससे स्वयं पूछना। इसी विचार पर आधारित आत्म-प्रतिवेदन माप बनाए गए हैं, जिनमें व्यक्ति को कुछ कथनों के आधार पर अपनी भावनाओं या अनुभवों की जानकारी देनी होती है। इन प्रतिक्रियाओं को स्कोर देकर मानक मापदंडों से तुलना की जाती है। सबसे प्रसिद्ध आत्म-प्रतिवेदन परीक्षण है एम.एम.पी.आई. (Minnesota Multiphasic Personality Inventory) जिसे हाथवे और मैकिन्ले ने मानसिक रोगों की पहचान के लिए विकसित किया था। इसके 567 कथनों के उत्तर ‘सही’ या ‘गलत’ में दिए जाते हैं और यह अवसाद, हिस्टीरिया, व्यामोह, मनोदौर्बल्य आदि जैसे 10 मनोवैज्ञानिक पहलुओं का आकलन करता है। भारत में मल्लिक और जोशी द्वारा इसी पर आधारित जोधपुर बहुपक्षीय व्यक्तित्व सूची (JMPI) विकसित की गई है।


आइजेंक व्यक्तित्व प्रश्नावली (ई.पी.क्यू.)

आइजेंक द्वारा विकसित व्यक्तित्व परीक्षण में प्रारंभ में दो मुख्य आयामों अंतर्मुखता-बहिर्मुखता और सांवेगिक स्थिरता-अस्थिरता का मूल्यांकन किया जाता था, जिनके अंतर्गत 32 व्यक्तित्व विशेषताएँ शामिल थीं। बाद में उन्होंने तीसरा आयाम मनस्तापिता (Psychoticism) जोड़ा, जो व्यक्ति की सामाजिक व्यवहार में कठोरता, सहानुभूति की कमी और परंपराओं की अवहेलना को दर्शाता है। इस आयाम पर उच्च स्कोर वाले व्यक्ति आमतौर पर आक्रामक, आत्मकेंद्रित और समाजविरोधी होते हैं। यह परीक्षण व्यक्तित्व मूल्यांकन में व्यापक रूप से प्रयुक्त होता है।


सोलह व्यक्तित्व कारक प्रश्नावली (16 पी.एफ.)

यह परीक्षण रे कैटेल द्वारा विकसित किया गया था, जिसमें उन्होंने व्यक्तित्व के कई कारकों की पहचान की और कारक विश्लेषण जैसी सांख्यिकीय तकनीक का उपयोग किया। इस आत्म-प्रतिवेदन परीक्षण में प्रयोज्य को कथनों पर प्रतिक्रिया देनी होती है और यह विशेष रूप से विद्यार्थियों और वयस्कों के लिए उपयोगी है, खासकर व्यावसायिक निर्देशन में। हालांकि, आत्म-प्रतिवेदन विधियों में कुछ समस्याएँ होती हैं, जैसे सामाजिक वांछनीयता (प्रयोज्य समाज की अपेक्षाओं के अनुसार उत्तर देता है) और अनुमनन प्रवृत्ति (बिना सोचे सभी कथनों से सहमत होना)। इसलिए ऐसे परीक्षणों के सही उपयोग और व्याख्या के लिए प्रशिक्षित विशेषज्ञ की देखरेख जरूरी होती है।


प्रक्षेपी तकनीक

1. परिचय:

प्रत्यक्ष तकनीकों में व्यक्ति से सीधे सवाल पूछे जाते हैं और वह जानता है कि उसका मूल्यांकन किया जा रहा है। इसलिए कई बार लोग सामाजिक रूप से स्वीकार्य उत्तर देने की कोशिश करते हैं और अपनी सच्ची भावनाएँ या विचार छुपा लेते हैं, जिससे परिणाम पूरी तरह विश्वसनीय नहीं रहते।

2. समस्या क्या है?

हमारे व्यवहार को कई बार अचेतन (Unconscious) विचार और अभिप्रेरणाएँ नियंत्रित करती हैं, जिन्हें हम स्वयं भी स्पष्ट रूप से नहीं जानते। प्रत्यक्ष विधियाँ इन गहरे अचेतन तत्वों को समझने में असमर्थ होती हैं, क्योंकि ये व्यक्त नहीं किए जाते बल्कि छिपे रहते हैं।

3. समाधान: प्रक्षेपी तकनीकें (Projective Techniques)

अप्रत्यक्ष विधियाँ व्यक्ति के भीतर छिपे विचारों, भावनाओं, इच्छाओं और अभिप्रेरणाओं को उजागर करने का प्रयास करती हैंइनका आधार यह है कि जब व्यक्ति असंरचित (unstructured) स्थितियों में होता है, तो वह अनजाने में अपनी आंतरिक भावनाओं और इच्छाओं को उन स्थितियों पर प्रक्षिप्त (project) कर देता है।

4. प्रमुख विशेषताएँ:

अप्रत्यक्ष तकनीकों की विशेषताएँ यह हैं कि इनमें दिए गए उद्दीपक (जैसे स्याही के धब्बे या अधूरी कहानियाँ) असंरचित होते हैंव्यक्ति को मूल्यांकन का उद्देश्य नहीं बताया जाता और यह कहा जाता है कि कोई उत्तर सही या गलत नहीं हैप्रत्येक प्रतिक्रिया को व्यक्ति के व्यक्तित्व का संकेत माना जाता हैहालांकि, इन प्रतिक्रियाओं का मूल्यांकन और व्याख्या करना कठिन और समय लेने वाला होता है

5. प्रक्षेपी तकनीकें कैसे भिन्न होती हैं?

ये अप्रत्यक्ष विधियाँ मनोमितिक (psychometric) परीक्षणों से अलग होती हैं, क्योंकि इनमें वस्तुनिष्ठ स्कोरिंग संभव नहीं होतीइनका मूल्यांकन गुणात्मक विश्लेषण के माध्यम से किया जाता है, जिसे केवल विशेषज्ञ प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति ही सही ढंग से कर सकता है

6. प्रक्षेपी तकनीकों के प्रकार (संक्षेप में):


रोर्शा मसिलक्ष्म परीक्षण

रोर्शा स्याही-धब्बा परीक्षण हर्मन रोर्शा द्वारा विकसित एक प्रक्षेपी तकनीक है, जिसमें प्रयोज्य को 10 सममितीय स्याही-धब्बों वाले कार्ड दिखाए जाते हैं पाँच काले-सफेद, दो लाल और तीन रंगीन। पहले चरण में प्रयोज्य से पूछा जाता है कि वह प्रत्येक धब्बे में क्या देखता है (निष्पादन मुख्य), और दूसरे चरण में उनसे उनकी प्रतिक्रियाओं के कारण पूछे जाते हैं (पूछताछ)। यह परीक्षण व्यक्ति के आंतरिक विचारों, भावनाओं और व्यक्तित्व की गहराई को जानने में मदद करता है। इसके विश्लेषण के लिए विशेष प्रशिक्षण और कभी-कभी कंप्यूटर तकनीक का भी सहारा लिया जाता है।


कथानक संप्रत्यक्षण परीक्षण (टी.ए.टी.)

थीमैटिक एपरसेप्शन टेस्ट (TAT) मॉर्गन और मरे द्वारा विकसित एक प्रक्षेपी तकनीक है, जिसमें 30 सचित्र काले-सफेद कार्ड और एक खाली कार्ड होते हैं। हर कार्ड पर एक या अधिक पात्रों को किसी स्थिति में दर्शाया गया है। प्रयोज्य से प्रत्येक चित्र पर एक कहानी बनाने को कहा जाता है जैसे कि स्थिति क्यों बनी, क्या हो रहा है, पात्र क्या सोच रहे हैं, और आगे क्या होगा। यह परीक्षण व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं, इच्छाओं और संघर्षों को जानने में मदद करता है। बच्चों और वृद्धों के लिए इसके विशेष संस्करण तथा उमा चौधरी द्वारा भारतीय अनुकूलन भी उपलब्ध हैं।


रोजेनज्विग का चित्रगत कुंठा अध्ययन (पी. एफ. अध्ययन)

रोजेनज्विग कुंठा आक्रामकता परीक्षण रोजेनज्विग द्वारा विकसित एक प्रक्षेपी तकनीक है, जो यह जानने के लिए प्रयोग होता है कि व्यक्ति कुंठा उत्पन्न करने वाली स्थिति में किस प्रकार आक्रामक प्रतिक्रिया देता है। इसमें व्यंग्य चित्रों द्वारा ऐसी स्थितियाँ प्रस्तुत की जाती हैं जहाँ एक पात्र दूसरे को कुंठित करता है। प्रयोज्य से पूछा जाता है कि वह दूसरा (कुंठित) व्यक्ति क्या कहेगा या करेगा। अनुक्रियाओं का विश्लेषण आक्रामकता की दिशा (स्वयं पर, दूसरों पर या समस्या के समाधान की ओर) के आधार पर किया जाता है। पारीक ने इसका भारतीय संस्करण भी विकसित किया है।


वाक्य-समापन परीक्षण

इस परीक्षण में अनेक अपूर्ण वाक्यों का उपयोग किया जाता है। वाक्य का आरंभिक भाग पहले प्रयोज्य के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और उसके बाद प्रयोज्य को वाक्य के अंतिम भाग को समाप्त करना होता है। ऐसा अभिगृहीत है कि वाक्य के अंतिम भाग को प्रयोज्य जिस तरह समाप्त करता है, वह उसकी अभिवृत्तियों, अभिप्रेरणाओं और द्वंद्वों को प्रतिबिंबित करता है। यह परीक्षण प्रयोज्यों को अनेक ऐसे अवसर प्रदान करता है कि वे अपनी अंतर्निहित अचेतन अभिप्रेरणाओं को अभिव्यक्त कर सकें। वाक्य समापन परीक्षण के कुछ प्रतिदर्श एकांशों को नीचे दिया गया है-

1. मेरे पिता _____________|

2. मुझे सबसे अधिक भय ____________|

3. मेरी माँ के बारे में सबसे अच्छी बात है कि ________

4. मुझे इस बात पर गर्व है कि ___________|


व्यक्तंकन परीक्षण

यह एक सरल प्रक्षेपी परीक्षण है जिसमें प्रयोज्य से एक पुरुष और एक विपरीत लिंग के व्यक्ति का चित्र बनाने और फिर उनके बारे में एक कहानी लिखने को कहा जाता है। चित्र के विश्लेषण से व्यक्ति की अचेतन प्रेरणाएँ और आंतरिक द्वंद्व समझे जाते हैं। जैसेचेहरे का न बनाना संबंधों से बचाव, गर्दन पर ज़ोर देना आवेग नियंत्रण की कमी, और बड़ा सिर मानसिक तनाव की ओर संकेत करता है। हालांकि ये तकनीकें गहरी समझ देती हैं, लेकिन इनकी व्याख्या के लिए विशेषज्ञ प्रशिक्षण और उच्च कौशल की आवश्यकता होती है, साथ ही स्कोरिंग और वैधता की कुछ सीमाएँ भी होती हैं। फिर भी, ये परीक्षण पेशेवरों के लिए उपयोगी माने गए हैं।


व्यवहारपरक विश्लेषण

विभिन्न स्थितियों में व्यक्ति का व्यवहार उसके व्यक्तित्व की जानकारी देता है। व्यवहारपरक विश्लेषण में साक्षात्कार, प्रेक्षण, निर्धारण, नाम निर्देशन और स्थितिपरक परीक्षणों जैसे तरीकों से सूचना एकत्र की जाती है। इन प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रेक्षक व्यक्ति के व्यवहार का विश्लेषण करता है और व्यक्तित्व की समझ विकसित की जाती है।


साक्षात्कार

व्यक्तित्व मूल्यांकन में साक्षात्कार एक प्रमुख विधि है जिसमें व्यक्ति से बातचीत कर जानकारी जुटाई जाती है। साक्षात्कार संरचित (structured) या असंरचित (unstructured) हो सकते हैं। असंरचित साक्षात्कारों में साक्षात्कारकर्ता खुले प्रश्नों के माध्यम से व्यक्ति की छवि बनाता है, जबकि संरचित साक्षात्कारों में निर्धारित प्रश्नों और प्रक्रिया का पालन किया जाता है ताकि मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ हो सके। नैदानिक साक्षात्कार गहराई से लिए जाते हैं और उत्तरों के पीछे छिपे भावों को भी समझने की कोशिश की जाती है।


प्रेक्षण

व्यवहारपरक प्रेक्षण व्यक्तित्व मूल्यांकन की एक परिष्कृत विधि है, जिसमें प्रशिक्षित प्रेक्षक व्यक्ति के व्यवहार का विश्लेषण करता है। जैसे नैदानिक मनोवैज्ञानिक परिवार या सामाजिक संदर्भ में व्यक्ति की प्रतिक्रियाएँ देखकर उसकी अंतर्दृष्टि विकसित करता है। हालांकि, यह विधि कठिन प्रशिक्षण, प्रेक्षक की परिपक्वता और निष्पक्षता की माँग करती हैसाथ ही, प्रेक्षक की उपस्थिति से व्यक्ति का व्यवहार बदल सकता है, जिससे परिणामों की वैधता प्रभावित हो सकती है।


व्यवहारपरक निर्धारण

शैक्षिक और औद्योगिक क्षेत्रों में व्यक्तित्व के मूल्यांकन के लिए अक्सर व्यवहारपरक निर्धारण विधि का उपयोग किया जाता है, जिसमें व्यक्ति का मूल्यांकन ऐसे लोग करते हैं जो उसे लंबे समय से जानते हैं या जिनके पास उसे देखने का अनुभव रहा हो। मूल्यांकनकर्ता व्यक्ति के व्यवहार के आधार पर उसे कुछ श्रेणियों (संख्यात्मक या वर्णनात्मक) में रखते हैं, लेकिन इन मापनियों में अस्पष्टता या विशेषकों की स्पष्ट परिभाषा न होने से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इस विधि की मुख्य सीमाएँ हैं: (1) परिवेश प्रभाव (halo effect) जब मूल्यांकनकर्ता किसी एक गुण से अत्यधिक प्रभावित होकर पूरे व्यक्तित्व का निर्णय करता है, और (2) अनुक्रिया अभिनति मूल्यांकनकर्ता सभी को औसत में रखने की प्रवृत्ति या केवल छोरों पर निर्णय देने की प्रवृत्ति रखते हैं। इन समस्याओं को मूल्यांकनकर्ताओं के उचित प्रशिक्षण और स्पष्ट मापनियों के विकास से कम किया जा सकता है।


नाम निर्देशन

नाम निर्देशन विधि का उपयोग सामान्यतः समकक्षी मूल्यांकन के लिए किया जाता है, जहाँ व्यक्ति से यह पूछा जाता है कि वह समूह में किन एक या अधिक व्यक्तियों के साथ कार्य, पढ़ाई, खेल आदि करना पसंद करेगा। यह विधि उन्हीं व्यक्तियों पर लागू होती है जो एक-दूसरे को लंबे समय से जानते हों। चयन के कारण भी पूछे जा सकते हैं, जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहारिक गुणों का विश्लेषण किया जा सकता है। यह तकनीक विश्वसनीय मानी जाती है, हालांकि इसमें व्यक्तिगत पक्षपात (bias) की संभावना होती है।


स्थितिपरक परीक्षण

स्थितिपरक परीक्षण व्यक्तित्व के मूल्यांकन की एक विधि है जिसमें व्यक्ति को किसी दबावपूर्ण स्थिति में रखकर यह देखा जाता है कि वह कैसे प्रतिक्रिया देता है। सबसे सामान्य रूप से उपयोग में आने वाला परीक्षण है स्थितिपरक दबाव परीक्षण (Situational Stress Test)। इसमें व्यक्ति को कुछ ऐसे लोगों के साथ कोई कार्य करना होता है जिन्हें पहले से निर्देशित किया गया होता है कि वे उसके साथ सहयोग न करें और कार्य में बाधा डालें। इस प्रक्रिया में भूमिका निर्वाह (role play) भी शामिल होता है, और व्यक्ति की प्रतिक्रिया का शाब्दिक प्रतिवेदन भी लिया जाता है। यह स्थिति वास्तविक हो सकती है या वीडियो गेम के माध्यम से कृत्रिम रूप से भी तैयार की जा सकती है


प्रमुख पद

गुदीय अवस्था, आद्य प्ररूप, प्रमुख विशेषक, केंद्रीय विशेषक, सेवार्थी केंद्रित चिकित्सा, सामूहिक अचेतन, रक्षा युक्तियाँ, अहं, बहिर्मुखता, मानवतावादी उपागम, इदम् (इड), आदर्श अहं या आत्म, हीनता मनोग्रंथि, अंतर्मुखता, कामप्रसुप्ति काल, लिबिडो, इडिपस मनोग्रथि, व्यक्तिगत अनन्यता, लैंगिक अवस्था, प्रक्षेपी तकनीकें, मनोगतिक उपागम, प्रक्षेपण, युक्तिकरण, प्रतिक्रिया निर्माण, प्रतिगमन, दमन, आत्म-सक्षमता, आत्म सम्मान, आत्म-नियमन, सामाजिक अनन्यता, पराहम्, विशेषक उपागम, प्ररूप उपागम, अचेतन।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Ok, Go it!