राजस्थानी चित्रकला शैली Notes in Hindi Class 12 Fine Art Chapter-2 Book-1
0Eklavya Study Pointजून 24, 2025
राजस्थानी चित्रकला शैली
1. स्थान और क्षेत्र
राजस्थानी चित्रकला मुख्य रूप से राजस्थान और मध्य प्रदेश के कुछ भागों में विकसित हुई। इसके प्रमुख केंद्रों में मेवाड़, बूंदी, कोटा, जयपुर, बीकानेर, किशनगढ़, जोधपुर, मालवा और सिरोही शामिल हैं, जहाँ इस शैली की अलग-अलग विशेषताएँ देखने को मिलती हैं।
2. समय और विकास
16वीं शताब्दी के मध्य से 19वीं शताब्दी की शुरुआत तक इस शैली का विकास हुआ।
3. नामकरण और शोध
आनंद कुमारस्वामी ने 1916 में इस चित्रकला को "राजपूत चित्रकला" नाम दिया, ताकि इसे मुगल शैली से अलग पहचाना जा सके। वर्तमान में इसे दो भागों में बाँटा जाता है—राजस्थानी शैली, जो मैदानी क्षेत्रों में विकसित हुई, और पहाड़ी शैली, जो उत्तर-पश्चिम हिमालय क्षेत्र में पनपी।
4. चित्रशैली की विशेषताएँ
राजस्थानी चित्रकला में रेखांकन सशक्त और स्पष्ट होता है, जिसमें चमकदार और सौम्य रंगों का सुंदर संयोजन देखने को मिलता है। चित्रों में मानव आकृतियाँ, वास्तुकला, प्रकृति, पशु-पक्षी और भू-दृश्य जैसे तत्व प्रमुख होते हैं। विभिन्न राज्यों में इसकी वर्णन विधि भिन्न होती है, लेकिन सभी में स्थानीय लोक परंपरा की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
5. वसली पर चित्रण
राजस्थानी चित्र वसली नामक मोटे हस्तनिर्मित कागज़ पर बनाए जाते थे। वसली तैयार करने की प्रक्रिया में पतले कागजों को गोंद की सहायता से आपस में चिपकाकर मोटा किया जाता था। पहले काले या भूरे रंग से रेखांकन किया जाता, फिर उसमें रंग भरे जाते थे। ये रंग प्राकृतिक खनिजों, तथा सोना-चाँदी जैसे मूल्यवान तत्वों से तैयार किए जाते थे।
6. उपकरण
राजस्थानी चित्रों में ब्रश ऊँट या गिलहरी के बालों से बनाए जाते थे, जिससे बारीक रेखाएँ खींची जा सकें। चित्र पूर्ण होने के बाद उन्हें अगेट पत्थर से घिसा जाता था, जिससे उन्हें एक चमकदार और परिष्कृत रूप मिल जाता था।
7. सामूहिक कार्य
चित्र बनाने की प्रक्रिया में कई कलाकार मिलकर कार्य करते थे। प्रधान कलाकार रेखांकन करता और चित्र को अंतिम रूप देता था। अन्य कलाकार रंग भरने, आकृतियाँ बनाने और पशु-पक्षियों जैसे विवरण जोड़ने का कार्य करते थे। साथ ही, एक सुलेखक भी होता था, जो चित्र के नीचे श्लोक या पद को सुंदर लेखन में लिखता था।
चित्रकला के विषय - एक समीक्षा
1. भक्ति आंदोलन और कृष्ण उपासना
16वीं शताब्दी तक राम और कृष्ण से जुड़ा वैष्णव भक्ति आंदोलन पश्चिम, उत्तर और मध्य भारत में व्यापक रूप से फैल चुका था। इस दौर में कृष्ण को केवल भगवान के रूप में नहीं, बल्कि एक आदर्श प्रेमी के रूप में भी पूजा गया। राधा-कृष्ण की भक्ति में प्रेम और रहस्यवाद का सुंदर और गहन मेल देखने को मिलता है, जो चित्रकला में भी स्पष्ट रूप से झलकता है।
2. गीत गोविंद (जयदेव)
गीत गोविंद की रचना 12वीं शताब्दी में कवि जयदेव ने की थी, जो बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के दरबारी कवि थे। यह ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें राधा-कृष्ण के प्रेम को केवल सांसारिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। चित्रों में आत्मा (राधा) का परमात्मा (कृष्ण) में विलय बहुत सुंदर रूप में दर्शाया गया है।
3. रसमंजरी (भानुदत्त)
रसिकप्रिया की रचना 14वीं शताब्दी में भानुदत्त नामक बिहार के एक ब्राह्मण द्वारा की गई थी। इसका अर्थ है "आनंद का गुलदस्ता"। इस ग्रंथ में विभिन्न रसों का वर्णन किया गया है, साथ ही नायक-नायिका को उम्र, शरीर और भाव के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। यद्यपि ग्रंथ में कृष्ण का नाम नहीं लिया गया है, फिर भी चित्रकारों ने इसमें कृष्ण को आदर्श प्रेमी के रूप में चित्रित किया है।
4. रसिकप्रिया (केशवदास)
रसिकप्रिया की एक और प्रसिद्ध रचना 1591 में केशवदास ने ब्रजभाषा में की थी। वे ओरछा के राजा मधुकर शाह के दरबारी कवि थे। इस ग्रंथ में प्रेम की विभिन्न अवस्थाओं—मिलन, वियोग, ईर्ष्या, रूठना, मनाना आदि—का सुंदर वर्णन है। राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंगों के माध्यम से भावनाओं और मनोभावों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया गया है।
5. कविप्रिया (केशवदास)
रसिकप्रिया में राय परबीन, जो एक प्रसिद्ध नर्तकी थीं, के सम्मान में एक सुंदर प्रेम कथा प्रस्तुत की गई है। इसमें एक विशेष अध्याय 'बारहमासा' शामिल है, जिसमें वर्ष के 12 महीनों के मौसम, जीवन के विभिन्न भावों और त्योहारों का भावनात्मक और सांस्कृतिक वर्णन किया गया है।
6. बिहारी सतसई (बिहारीलाल)
बिहारी सतसई * की रचना लगभग 1667 ई. में हुई थी, और इसके रचयिता बिहारीलाल जयपुर दरबार में कार्यरत थे। इसमें कुल 700 दोहे (सतसई) हैं, जो सूक्ति, नीति और चतुर व्यंग्य से भरपूर हैं। इस ग्रंथ के चित्रण मुख्यतः मेवाड़ और पहाड़ी शैली में किए गए, जिनमें भावनाओं और प्रतीकों को सुंदरता से दर्शाया गया है।
7. रागमाला चित्रकला
राजस्थानी चित्रकला में रागों और रागिनियों को चित्रों के माध्यम से दर्शाया जाता था, जिसे संगीत को दृश्य रूप देने की कला कहा जाता है। इन चित्रों में संगीत के भाव, समय और वातावरण को रंगों और आकृतियों के माध्यम से जीवंत किया जाता था।
8. अन्य साहित्यिक चित्र विषय
राजस्थानी चित्रकला में अनेक प्रसिद्ध प्रेम कथाएँ जैसे ढोलामारू, सोनी-महिवाल, मृगावत, चौरपंचाशिका और लौरचंदा को चित्रित किया गया। साथ ही, धार्मिक ग्रंथों में रामायण, भागवत पुराण, महाभारत और देवी महात्म्य जैसे ग्रंथों पर आधारित चित्र भी बनाए गए, जिनमें भक्ति, नायक-नायिका भाव और सांस्कृतिक तत्वों का सुंदर संयोजन देखने को मिलता है।
9. राजसी और लोक जीवन के चित्र
दरबार दृश्य, युद्ध, उत्सव, शिकार, संगीत, नृत्य, शादी समारोह, राजाओं की छवियाँ, शहरी जीवन, पशु-पक्षी आदि भी चित्रों में दर्शाए जाते थे।
मालवा चित्रकला शैली
मालवा शैली सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में मध्य भारत के मांडू, नुसरतगढ़ और नरस्यंग जैसे क्षेत्रों में विकसित हुई। इसका विकास जैन पांडुलिपियों की परंपरा से होकर चौरपंचाशिका तक पहुँचा। इसकी प्रमुख कृतियाँ अमरू शतक (1652 ई.) और माधो दास द्वारा रचित मेघा राग चित्र (1680 ई.) हैं। यह शैली द्वि-आयामी, सपाट, स्वदेशी और सादी चित्रण के लिए जानी जाती है, जिसमें शाही संरक्षण का अभाव दिखाई देता है। रामायण, भागवत, रसिकप्रिया, रागमाला और बारहमासा इसके प्रमुख विषय हैं। दतिया महल में इस शैली के चित्र संग्रहित हैं, जिनमें कुछ पर मुगल प्रभाव भी देखा जा सकता है। संभवतः ये चित्र घुमंतू कलाकारों द्वारा जन-सामान्य की रुचि के अनुरूप बनाए गए थे, जो लोक परंपरा और सरल चित्रण शैली के माध्यम से धार्मिक और काव्यात्मक विषयों को दर्शाते हैं।
मेवाड़ चित्रकला शैली
राजस्थान की समृद्ध चित्रकला परंपरा में मेवाड़ को एक प्रमुख और प्रारंभिक केंद्र माना जाता है। यहाँ से जो चित्रकला शैली विकसित हुई, उसने न केवल क्षेत्रीय बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी एक खास पहचान बनाई।
शुरुआती दौर की झलक
17वीं शताब्दी से पहले मेवाड़ में एक स्पष्ट और स्वदेशी चित्रकला शैली देखने को मिलती है। यह शैली करण सिंह के मुगल दरबार से संपर्क के बाद और अधिक परिष्कृत हो गई। लेकिन मुगलों के साथ युद्धों के चलते प्रारंभिक चित्रों का बहुत नुकसान हुआ।
रागमाला से शुरुआत (1605 ई.)
मेवाड़ चित्रकला की एक महत्वपूर्ण शुरुआत निसारदीन द्वारा चुनार में बनाए गए रागमाला चित्रों से मानी जाती है। इन चित्रों के आखिरी पन्नों पर लिखी गई जानकारी से इनके सौंदर्य और समय की पुष्टि होती है।
साहिबदीन और मनोहर: दो चमकते सितारे
राजा जगत सिंह (1628–1652) के शासनकाल में मेवाड़ चित्रकला को नए आयाम मिले। इस दौर में दो महान चित्रकार, साहिबदीन और मनोहर, ने कला को जीवंत बना दिया। साहिबदीन ने रागमाला (1628), रसिकप्रिया, भागवत पुराण (1648) और रामायण के युद्धकांड (1652) का चित्रण किया। उन्होंने युद्ध की भयावहता को दर्शाने के लिए तिर्यक रेखीय परिप्रेक्ष्य (angled perspective) का उपयोग किया। वहीं, मनोहर ने रामायण का बालकांड (1649) चित्रित किया। इन दोनों कलाकारों की एक खास विशेषता यह थी कि उन्होंने एक ही चित्र में कई कथाएँ या एक ही कथा के कई दृश्य दिखाने की तकनीक अपनाई, जिससे चित्र अधिक जीवंत और कथात्मक बन गए।
अन्य ग्रंथों का चित्रण
इसके बाद हरिवंश, सूरसागर, और बिहारी सतसई (1719) जैसे साहित्यिक ग्रंथों को भी चित्रों के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह काम चित्रकार जगन्नाथ ने किया जो मेवाड़ चित्रकला में विशिष्ट स्थान रखते हैं।
नाथद्वारा और श्रीनाथ जी की पिछवाई
17वीं शताब्दी के अंत में नाथद्वारा (उदयपुर के पास) एक धार्मिक चित्रकला केंद्र बन गया। यहाँ श्रीनाथ जी के विशाल चित्र कपड़े पर बनाए गए जिन्हें पिछवाई कहा गया।
अठारहवीं शताब्दी: दरबारी जीवन और धर्मनिरपेक्षता
समय के साथ मेवाड़ चित्रकला का विषय धार्मिक घटनाओं से हटकर दरबारी जीवन की ओर बढ़ने लगा। अब चित्रों में शिकार के दृश्य, दरबारी उत्सव, अंतःपुर की झलकियाँ और खेलकूद के पल प्रमुख रूप से दिखाई देने लगे। एक प्रसिद्ध चित्र में महाराजा जगत सिंह द्वितीय (1734–1752) को बाज का शिकार करते हुए दर्शाया गया है। इस चित्र में परिदृश्य को तिरछे कोण (angled perspective) में दर्शाया गया है, जिससे सामने से देखने पर दृश्य अंतहीन प्रतीत होता है, जो इस शैली की एक खास कलात्मक विशेषता बन गई।
बूँदी चित्रकला शैली
राजस्थान की धरोहरों में बूँदी चित्रकला एक ऐसी कला परंपरा है, जो अपने जीवंत रंगों, प्रकृति के चित्रण, सुंदर स्त्री आकृतियों और दरबारी जीवन के दृश्य चित्रों के लिए प्रसिद्ध है। यह शैली न केवल एक कला है, बल्कि इतिहास, साहित्य और संस्कृति की जीवित दस्तावेज़ भी है।
बूँदी चित्रकला की शुरुआत
बूँदी चित्रकला का आरंभ 16वीं शताब्दी में हुआ, और इसे एक स्पष्ट पहचान 1591 ई. की रागमाला पेंटिंग्स से मिलती है, जो चुनार में हाड़ा राजपूत शासक भोज सिंह के शासन में चित्रित हुईं। इस चित्रण के कलाकार थे: शेख हसन, शेख अली और शेख हातिम, जो मुगल चित्रकारों के शिष्य रहे।
संरक्षण और विकास
बूँदी चित्रकला को राजाओं का भरपूर संरक्षण प्राप्त हुआ। विशेष रूप से राव छत्रसाल (1631–1659), जो मुगल वज़ीर रहे और दक्कन विजय में सहभागी थे, तथा राव भाऊ सिंह (1659–1682), जो कला प्रेमी और जीवन के रसिक संरक्षक थे, का योगदान अत्यंत उल्लेखनीय रहा। बाद के शासकों जैसे बुध सिंह, उनके पुत्र उमेद सिंह (1749–1771) और बिशन सिंह (1771–1821) ने भी इस चित्रकला शैली को आगे बढ़ाया और उसे और अधिक निखार प्रदान किया।
विषय और विशेषताएँ
बूँदी चित्रकला में विविध विषयों पर सुंदर चित्र बनाए गए, जिनमें रागमाला, रामायण, भागवत, बारहमासा, दरबारी जीवन, शिकार, त्योहार और कृष्ण लीला प्रमुख हैं। इस शैली की विशेषता इसका प्राकृतिक दृश्यों का अत्यंत मनोहारी चित्रण है—पेड़-पौधे, झरने, पहाड़ियाँ और पशु-पक्षी बड़ी सुंदरता से दर्शाए जाते हैं। स्त्रियों की आकृति में भी बूँदी शैली की विशिष्टता स्पष्ट दिखती है—गोल चेहरा, पतली कमर, ढलुआ माथा और तीखी नाक जैसी विशेषताएँ इस चित्रकला की पहचान बन चुकी हैं।
दीपक राग: भाव और प्रकाश का संगम
एक खास उदाहरण है – दीपक राग की पेंटिंग, जिसमें युगल को रात्रि में चार दीपकों की रोशनी में बैठा दिखाया गया है। आकाश तारों से भरा है, चाँद पीला है – यह सब प्रेम की गहराई और समय के बीतने का संकेत देता है। दीपकों के आधार को मानव आकृतियों की तरह सजाया गया है – एक नवाचार!
कोटा-बूँदी की शैलीगत सुंदरता
बूँदी और कोटा चित्रकला की विशेष पहचान उनके सजीव और मनोहारी प्राकृतिक चित्रण में दिखाई देती है। इन चित्रों में सघन वनस्पति और जीवंत पशु-पक्षियों का अत्यंत सुंदर चित्रण किया जाता है। घोड़ों और हाथियों को भी अत्यधिक जीवंतता के साथ दर्शाया जाता है। परिदृश्य को तिर्यक रेखीय रचना (angled perspective) में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे चित्रों में गहराई और दृश्य विस्तार की अनुभूति होती है।
भित्तिचित्र और राजसी दृश्य
राजा राम सिंह (1821–1889) के शासनकाल में बूँदी महल को भव्य भित्ति चित्रों से सजाया गया, जिनमें दरबारी जुलूस, शिकार के दृश्य और कृष्ण कथाओं को विशेष रूप से चित्रित किया गया। ये भित्तिचित्र बूँदी शैली के अंतिम चरण की कला-समृद्धि और सौंदर्य का शानदार उदाहरण हैं, जो आज भी महल की दीवारों पर देखे जा सकते हैं।
साहित्य और चित्रकला का मेल
बूँदी चित्रकला केवल दृश्य प्रस्तुतियाँ नहीं, बल्कि साहित्यिक भावनाओं की सजीव अभिव्यक्ति भी है। इसमें बारहमासा जैसे विषयों के माध्यम से साल के 12 महीनों का वातावरणीय और भावनात्मक चित्रण किया गया है, जो केशवदास की कविप्रिया से प्रेरित है। साथ ही, कृष्ण, राधा और अन्य प्रेम कथाओं में भक्ति और श्रृंगार रस का सुंदर संगम देखने को मिलता है, जिससे ये चित्रकला शैली और भी भावपूर्ण बन जाती है।
कोटा चित्रकला शैली
बूँदी की पारंपरिक चित्रकला ने राजस्थानी शैली की एक नई शाखा कोटा शैली को जन्म दिया, जो खासतौर पर शिकार के दृश्यों को चित्रित करने में प्रसिद्ध रही। यह शैली वन्य जीवों के शिकार में राजा और दरबारियों के उत्साह और जुनून को बहुत प्रभावशाली ढंग से दर्शाती है। 1625 ई. तक बूँदी और कोटा एक ही राज्य थे, लेकिन मुगल सम्राट जहाँगीर ने इस राज्य को विभाजित करके एक भाग मधु सिंह को दे दिया, जिन्होंने शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) के विद्रोह को दबाने में बहादुरी दिखाई थी। कोटा शैली की शुरुआत 1660 ई. में जगत सिंह के शासनकाल में हुई। शुरुआत में कोटा की चित्रकला पर बूँदी की गहरी छाप थी, लेकिन धीरे-धीरे कोटा के कलाकारों ने अपनी अलग पहचान बना ली, खासकर मानव आकृति और वास्तुकला के चित्रण में। राम सिंह प्रथम (1686–1708) के समय विषयों की विविधता बढ़ी और वन दृश्य को पहली बार प्रमुख चित्र-विषय बनाया गया। बाद में, राजा उमेद सिंह (1770–1819) के शासन में शिकार और शतरंज जैसे विषयों को चित्रों में प्रमुखता दी गई। उनके लिए शिकार की विशेष व्यवस्थाएँ राज्याधिकारी ज़ालिम सिंह द्वारा की जाती थीं। उस दौर के चित्र दरबार की स्त्रियों द्वारा शतरंज खेलना और राजा की वीरता को दर्शाते हैं। कोटा चित्रों की खासियत है इनकी सहजता, सुंदर रेखांकन, दोहरे नयनपट, और पशु तथा युद्ध दृश्यों का जीवंत चित्रण, जिससे इस शैली ने राजस्थानी चित्रकला में अपना खास स्थान बना लिया।
बीकानेर चित्रकला शैली
स्थापना और विकास
राव बीका राठौर ने 1488 में बीकानेर राज्य की स्थापना की। बाद में राजा अनूप सिंह (1669–1698) के शासनकाल में एक महत्वपूर्ण पुस्तकालय की स्थापना हुई, जो पांडुलिपियों और चित्रकलाओं के समृद्ध संग्रह का केंद्र बन गया। इसने बीकानेर में चित्रकला के विकास और संरक्षण में अहम भूमिका निभाई।
मुगल प्रभाव और शुरुआत
मुगलों के संपर्क में रहने के कारण बीकानेर चित्रकला शैली पर मुगल कला और रंगों का गहरा प्रभाव पड़ा। राजा करण सिंह ने दिल्ली के प्रसिद्ध कलाकार उस्ताद अली रज़ा को लगभग 1650 में नियुक्त किया, जिन्होंने बीकानेर शैली की आधारशिला रखी और इसे एक विशिष्ट रूप प्रदान किया।
प्रमुख कलाकार और चित्रशालाएँ
बीकानेर शैली के प्रसिद्ध चित्रकार रुकनुद्दीन ने मुगल, दक्कनी और देशज शैलियों का सुंदर मेल प्रस्तुत किया। उन्होंने रामायण, रसिकप्रिया और दुर्गा सप्तशती जैसे ग्रंथों का चित्रण किया। अन्य प्रमुख कलाकारों में इब्राहिम, नाथू, साहिबदीन और ईसा शामिल थे। उस समय चित्रशालाओं को मंडी कहा जाता था, जहाँ कलाकार समूह में मिलकर चित्र बनाते थे, जिससे सहयोगात्मक रचनात्मकता को बढ़ावा मिला।
चित्र निर्माण प्रक्रिया
बीकानेर शैली की परंपरा के अनुसार, चित्र पूर्ण होने पर कलाकार का नाम और तिथि चित्र के पीछे लिखी जाती थी। कई बार शिष्यों द्वारा बनाए गए चित्रों पर उनके गुरु का नाम लिखा जाता था, जिससे गुरु की प्रतिष्ठा बनी रहे। चित्र में अंतिम सुधार को "गुदराई" कहा जाता था। साथ ही, मंडियों में चित्रों की मरम्मत और दोबारा रंग भरने का कार्य भी किया जाता था, जिससे वे लंबे समय तक संरक्षित रह सकें।
शैली की विशेषताएँ
बीकानेर चित्रकला में छवि चित्रण के माध्यम से राजाओं और दरबारियों की वंशावली की जानकारी भी दी जाती थी। प्रमुख कलाकार रुकनुद्दीन कोमल रंगों के प्रयोग से सुंदर और भावपूर्ण चित्र बनाते थे, जबकि इब्राहिम के चित्रों में स्वप्न जैसे धुंधले प्रभाव और सुडौल चेहरों की विशेषता दिखाई देती है। इस शैली के प्रमुख विषयों में बारहमासा, रागमाला और रसिकप्रिया शामिल हैं, जिन्हें भावनात्मक और कलात्मक रूप में दर्शाया गया।
ऐतिहासिक प्रमाण
बीकानेर चित्रों की एक खास विशेषता यह है कि इनमें अक्सर कलाकारों के नाम, निर्माण की तारीख, स्थान और चित्र बनाए जाने के अवसर का उल्लेख मिलता है। यह जानकारी प्रायः मारवाड़ी और कारसी लेखों (हस्तलिखित लिपियों) के माध्यम से चित्रों के पीछे या किनारों पर दर्ज की जाती थी, जिससे चित्रों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मूल्य और अधिक बढ़ जाता है।
किशनगढ़ चित्रकला शैली
किशनगढ़ चित्रकला राजस्थान की सभी लघु चित्र शैलियों में सबसे विशिष्ट मानी जाती है। इसकी पहचान होती है – धनुषाकार भौहें, गुलाबी कमल जैसी आँखें, झुकी पलकें, नुकीली नाक और पतले होंठ। इस शैली की शुरुआत 1609 ई. में किशन सिंह द्वारा स्थापित किशनगढ़ राज्य से हुई। राजा मानसिंह (1658–1706) के समय कलाकार दरबार में सक्रिय हो गए थे, लेकिन असली विकास राज सिंह (1706–1748) के काल में हुआ, जब चित्रों में लंबी आकृतियाँ, हरे रंग का भरपूर प्रयोग और सुंदर प्राकृतिक दृश्य दिखने लगे। वल्लभाचार्य के पुष्टि मार्ग से प्रेरित होकर कृष्ण लीला प्रमुख विषय बन गई। इस काल के सबसे प्रसिद्ध चित्रकार निहालचंद थे, जिन्होंने सावंत सिंह (1735–1757) की रचनाओं पर आधारित राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम दृश्यों को सुंदर दृश्यों के साथ चित्रित किया। किशनगढ़ चित्रों में स्पष्ट रंगों और बारीक चित्रण की विशेषता होती है।
जोधपुर चित्रकला शैली
1. मुगल प्रभाव और स्वदेशी परंपरा
16वीं शताब्दी में मुगलों का प्रभाव बीकानेर सहित कई चित्रकला शैलियों में विशेषकर छवि चित्रण और दरबारी दृश्यों में स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। हालांकि, भारतीय स्वदेशी लोक संस्कृति इतनी मजबूत और गहराई से जुड़ी हुई थी कि उसने मुगल प्रभाव को पूरी तरह हावी नहीं होने दिया, बल्कि उसे अपने ढंग से आत्मसात कर एक विशिष्ट शैली का निर्माण किया।
2. प्रारंभिक चित्र – रागमाला
1623 ई. में कलाकार वीरजी द्वारा पाली में रागमाला का चित्रण किया गया, जो जोधपुर चित्रकला का एक प्रारंभिक और महत्वपूर्ण उदाहरण माना जाता है। यह रचना जोधपुर शैली के विकास की शुरुआती दिशा और सौंदर्य दृष्टि को दर्शाती है।
3. जसवंत सिंह (1638–78) का योगदान
लगभग 1640 ई. में जोधपुर में छवि चित्रण और दरबारी चित्रों की परंपरा की शुरुआत हुई। इस काल में श्रीनाथजी और भागवत पुराण से जुड़े कृष्ण विषयों को विशेष संरक्षण और महत्त्व प्राप्त हुआ, जिससे जोधपुर चित्रकला में धार्मिक भक्ति और दरबारी भव्यता का सुंदर मेल देखने को मिलता है।
4. अजीत सिंह (1679–1724) और दुर्गादास
राजा अजीत सिंह ने मुगलों, विशेष रूप से औरंगज़ेब के साथ लगभग 25 वर्षों तक संघर्ष करने के बाद जोधपुर की राजगद्दी संभाली। इस वीरता भरे दौर की स्मृति में वीर दुर्गादास की घुड़सवारी और बहादुरी से जुड़े चित्र अत्यंत लोकप्रिय हुए, जो जोधपुर चित्रकला में शौर्य और राष्ट्रभक्ति के प्रतीक बनकर उभरे।
5. मानसिंह (1803–43) के समय की चित्रकला
इस काल को जोधपुर चित्रकला का अंतिम रचनात्मक चरण माना जाता है। इस समय बनाए गए प्रमुख चित्र संग्रहों में रामायण (1804) विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिसमें राम की अयोध्या को जोधपुर की वास्तुकला के रूप में चित्रित किया गया है। अन्य प्रमुख विषयों में ढोला-मारू, पंचतंत्र (1804), और शिवपुराण शामिल हैं, जो धार्मिक, साहित्यिक और लोक कथाओं को चित्रों के माध्यम से जीवंत करते हैं।
6. नाथ संप्रदाय और चित्रकला
राजा मानसिंह नाथ संप्रदाय के अनुयायी थे, और इसका प्रभाव जोधपुर चित्रकला में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनके काल में बनाए गए चित्रों में नाथ गुरुओं तथा नाथ चरित (1824) जैसे ग्रंथों का चित्रण प्रमुख रूप से मिलता है, जो धार्मिक आस्था और स्थानीय आध्यात्मिक परंपराओं को दर्शाते हैं।
7. चित्रों के अभिलेख (टिप्पणी)
19वीं शताब्दी तक आते-आते जोधपुर चित्रकला में एक महत्वपूर्ण बदलाव देखा गया—अब चित्रों के पीछे विषय की जानकारी सीमित होने लगी। साथ ही, तिथि, कलाकार का नाम और स्थान जैसी सूचनाएँ बहुत कम चित्रों में ही दर्ज की जाती थीं, जिससे उनके स्रोत और काल निर्धारण में कठिनाई होती है।
जयपुर चित्रकला शैली
1. उत्पत्ति और स्थान
जयपुर शैली की शुरुआत आमेर में हुई, जो उस समय दिल्ली और आगरा जैसी मुगल राजधानियों के निकट स्थित था। इस भौगोलिक निकटता के कारण जयपुर चित्रकला पर मुगल कला का स्पष्ट प्रभाव पड़ा, जो इसकी रचना शैली, रंग संयोजन और छवि चित्रण में दिखाई देता है।
2. मुगलों से संबंध
राजा भारमल (1548–1575) ने अपनी बेटी का विवाह अकबर से किया था, जिससे आमेर और मुगल दरबार के बीच संबंध मजबूत हुए। उनके पुत्र भगवंत दास और पौत्र मानसिंह अकबर के निकट सहयोगी थे। इस कारण आमेर (बाद में जयपुर) के शासकों ने मुगल सम्राटों से सौहार्दपूर्ण और सहयोगात्मक संबंध बनाए रखे, जिसका प्रभाव वहां की चित्रकला पर भी स्पष्ट रूप से पड़ा।
3. जयपुर की स्थापना
सवाई जय सिंह (1699–1743) ने 1727 में योजनाबद्ध रूप से जयपुर शहर की स्थापना की। उनके शासनकाल में जयपुर चित्रकला ने मुगल प्रभावों से आगे बढ़ते हुए एक स्वतंत्र और विशिष्ट शैली के रूप में विकास किया, जिसमें स्थानीय परंपराओं और दरबारी जीवन के चित्रण को प्रमुखता मिली।
4. कलाकार और विषय
जयपुर चित्रकला के विकास में दिल्ली से मुगल कलाकारों को आमंत्रित किया गया, जिनकी कलात्मक दक्षता ने इस शैली को समृद्ध किया। इन कलाकारों ने वैष्णव संप्रदाय से प्रेरणा लेकर राधा-कृष्ण विषयक चित्रों का निर्माण किया। चित्रों के प्रमुख विषयों में रसिकप्रिया, गीत गोविंद, रागमाला और बारहमासा शामिल थे। एक विशेष बात यह थी कि इन चित्रों में नायक की आकृति अक्सर राजा से मिलती-जुलती बनाई जाती थी, जिससे शासक को ईश्वर-समान या आदर्श पुरुष रूप में प्रस्तुत किया जा सके।
5. प्रमुख कलाकार
साहिबराम और मुहम्मद शाह जैसे चित्रकारों ने छवि चित्रण में विशेष योगदान दिया।
6. शासकों का योगदान
सवाई इश्वरी सिंह (1743–1750) के शासनकाल में चित्रकला में धार्मिक विषयों, शिकार, और हाथी युद्ध जैसे व्यक्तिगत और वीरता से जुड़े क्षणों को प्रमुखता से चित्रित किया गया। वहीं, उनके उत्तराधिकारी सवाई माधो सिंह (1750–1767) ने दरबारी जीवन, उत्सवों और शाही शान-ओ-शौकत से जुड़े दृश्यों में विशेष रुचि ली, जिससे जयपुर चित्रकला में दरबारी भव्यता का चित्रण और अधिक समृद्ध हुआ।
7. सवाई प्रताप सिंह (1779–1803) का स्वर्णकाल
सवाई माधो सिंह (1750–1767) ने जयपुर चित्रकला को संरक्षित और समृद्ध करने के लिए लगभग 50 कलाकारों की नियुक्ति की। वे स्वयं कवि, लेखक और कृष्ण भक्त थे, जिससे उनकी कला में आध्यात्मिक और साहित्यिक भावनाओं का गहरा प्रभाव दिखता है। उनके काल में मुगल और स्वदेशी शैलियों का सुंदर मिश्रण हुआ। गीत गोविंद, भागवत पुराण और रागमाला जैसे धार्मिक और साहित्यिक विषयों को नया प्रोत्साहन मिला, जिससे जयपुर शैली ने एक विशिष्ट पहचान प्राप्त की।
8. चित्र निर्माण की विशेषताएँ
19वीं शताब्दी की शुरुआत में जयपुर चित्रकला में कई प्रसिद्ध चित्रों की प्रतिकृतियाँ (कॉपी) भी बनाई गईं, ताकि उनका प्रचार-प्रसार हो सके। इस काल में सोने का भरपूर प्रयोग होने लगा, जिससे चित्र अधिक भव्य और आकर्षक दिखते थे। साथ ही, बड़े आकार की आकृतियाँ और जीवंत छवि चित्रण जयपुर शैली की एक विशिष्ट पहचान बन गई, जिसने इसे अन्य राजस्थानी शैलियों से अलग स्थान दिलाया।
भागवत पुराण
मध्ययुगीन समय में कलाकार भगवान कृष्ण की लीलाओं को बहुत पसंद करते थे और उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं को चित्रों में दिखाते थे। ऐसा ही एक चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखा है, जो 1680-90 के बीच बनाया गया था। यह चित्र मालवा चित्रकला शैली का अच्छा उदाहरण है। इसमें पूरी कहानी को छोटे-छोटे भागों में बाँटकर दिखाया गया है। एक हिस्से में कृष्ण के जन्म के बाद नंद और यशोदा के घर में उत्सव मनाया जा रहा है। लोग गाना-बजाना और नाच रहे हैं। नंद और यशोदा गाय और बछड़ा दान कर रहे हैं, और स्वादिष्ट भोजन बनाया जा रहा है। कुछ महिलाएँ बाल कृष्ण की नज़र उतार रही हैं। आखिरी भाग में कृष्ण अपने पैरों से दानव शक्तासुर का वध कर उसे मुक्ति देते हैं। यह चित्र धार्मिक कहानी के साथ-साथ उस समय की कला को भी सुंदर तरीके से दिखाता है।
मारू रागिनी
मेवाड़ के रागमाला चित्रों का विशेष महत्व है, जिनमें से एक प्रसिद्ध चित्र मारू रागिनी का है, जो राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित है। इस चित्र पर मौजूद अभिलेख में कलाकार का नाम साहिबदीन, संरक्षक राणा जगत सिंह, स्थान उदयपुर, और तिथि संवत 1685 (1628 ई.) दर्ज है। इसमें साहिबदीन को ‘चितारा’ (चित्रकार) कहा गया है और चित्रण को ‘लिखितम’ कहा गया है, जिसका अर्थ है—कविता की तरह चित्र बनाना। मारू रागिनी को राग श्री की रागिनी और सहचरी राग के रूप में जाना जाता है। इसका संबंध लोककथा डोला-मारू से है, जिसमें राजकुमार डोला और राजकुमारी मारू के प्रेम और संघर्ष की कहानी है। चित्र में उन्हें ऊँट पर भागते हुए दिखाया गया है, जो उनके संघर्षपूर्ण प्रेम को दर्शाता है।
राजा अनिरुद्ध सिंह हाड़ा
अनिरुद्ध सिंह (1682–1702), भाऊ सिंह का उत्तराधिकारी था और उसके समय की चित्रकला के कुछ महत्वपूर्ण प्रमाण मिले हैं। 1680 ई. में कलाकार तुलची राम द्वारा बनाया गया एक प्रसिद्ध चित्र अश्वारोही अनिरुद्ध सिंह का है, जिसमें घोड़े को इतनी तेज़ गति से दौड़ते हुए दिखाया गया है कि ज़मीन ही नजर नहीं आती। यह चित्र गति और ऊर्जा का प्रतीक है, और अग्रभूमि (foreground) की उपेक्षा कर केवल गति पर जोर दिया गया है। चित्र के पीछे तुलची राम और अनिरुद्ध सिंह का नाम लिखा है, जबकि सामने भरन सिंह (राव छत्रसाल के पुत्र) का नाम है। कुछ विद्वान इसे भरत सिंह का चित्र मानते हैं, लेकिन अधिकतर लोग इसे युवराज अनिरुद्ध सिंह का चित्र मानते हैं। यह चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखा गया है।
चौगन खेलती राजकुमारियाँ
1810 में बनी यह चित्रकला, कलाकार दाना द्वारा बनाई गई है और इसमें एक राजकुमारी को अपनी सखियों के साथ चौगन (पोलो) खेलते हुए दिखाया गया है। यह चित्र मानसिंह के शासनकाल की जोधपुरी चित्रकला का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें मुगल शैली का असर स्त्रियों के चित्रण में, दक्कनी प्रभाव घोड़े की आकृति में, तथा बूँदी और किशनगढ़ शैली का प्रभाव चेहरों में दिखाई देता है। हरी सपाट पृष्ठभूमि स्वदेशी परंपरा को दर्शाती है। चित्र के ऊपर लिखा है: "घोड़े पर सवार युवतियों का खेल"। यह सुंदर चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित है।
झूले पर कृष्ण एवं उदास राधा
यह सुंदर रसिकप्रिया चित्रकला वर्ष 1683 ई. में कलाकार नूरूद्दीन द्वारा बनाई गई, जो 1674 से 1698 तक बीकानेर दरबार में कार्यरत थे। यह चित्र सरलता और सांकेतिकता के साथ घर के भीतर और बाहर की गतिविधियों को दर्शाता है। चित्र को दो भागों में बाँटने के लिए बीच में हल्का सा टीला बनाया गया है, जो शहरी और ग्रामीण क्षेत्र को जोड़ता है। ऊपर के भाग में कृष्ण एक गोपी के साथ झूले पर बैठे हैं, जबकि दूसरी ओर राधा कृष्ण के इस व्यवहार से दुःखी होकर अकेली एक पेड़ के नीचे बैठी है। कृष्ण को जब यह पता चलता है, तो वे राधा के पास आते हैं लेकिन संधि नहीं हो पाती। तब राधा की सखी संदेशवाहक बनकर कृष्ण से विनती करती है कि वह राधा को मना लें। यह भावनात्मक और कलात्मक चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित है।
बनी ठनी
सावंत सिंह, जो नागरी दास नाम से ब्रजभाषा में राधा-कृष्ण पर भक्तिपूर्ण कविताएँ लिखते थे, एक युवा गायिका बनी ठनी के प्रेम में थे। बनी ठनी न केवल सुंदर और शालीन थीं, बल्कि प्रतिभाशाली कवयित्री, गायिका और नर्तकी भी थीं। वह सावंत सिंह की कविता की प्रेरणा बनीं। उनकी कविता ‘बिहारी जस चंदिका’ में बनी ठनी का उल्लेख है, जिसे कलाकार निहालचंद ने चित्र में रूपांतरित किया। यह चित्र राधा-कृष्ण के रूप में सावंत सिंह और बनी ठनी को दर्शाता है। 1757 में सावंत सिंह ने राजपाट छोड़कर बनी ठनी के साथ वृंदावन चले गए। किशनगढ़ शैली में बने अतिरंजित चेहरे — जैसे लंबी घुमावदार आँखें, धनुषाकार भौंहें, नुकीली नाक, पतले होंठ — इन्हीं की विशेषताएँ बनीं। यह प्रसिद्ध चित्र आज राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित है।
चित्रकूट में राम और उनके परिवार का मिलन
गुमान द्वारा 1740–50 के बीच चित्रित रामायण चित्रकला कथा की निरंतरता का सुंदर उदाहरण है। यह चित्र एक झोपड़ीनुमा ग्रामीण दृश्य में बना है, जहाँ रामायण की कथा चित्रकूट के प्रसंग पर आधारित है। कलाकार ने बाएं से कथा शुरू की है और दाएं ओर अंत तक ले जाया है। भरत, जो राम के वनवास के समय मौजूद नहीं थे, राजा दशरथ की मृत्यु के बाद तीनों माताओं, ऋषियों और दरबारियों के साथ राम को मनाने आते हैं। चित्र में राम, लक्ष्मण और सीता माताओं को देखकर झुकते हैं, कौशल्या राम को गले लगाती हैं, और राम सुमित्रा व कैकेयी को प्रणाम करते हैं। वे ऋषियों से मिलते हैं और दशरथ की मृत्यु का समाचार सुनकर दुःख से गिर पड़ते हैं। अंत में, सभी पात्रों को दर्शाते हुए कथा एक समूह के दाएं ओर चित्र की सीमा से बाहर जाते दृश्य के साथ समाप्त होती है। यह चित्र आज राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है।