पांडुलिपि चित्रकला की परंपरा Notes in Hindi Class 12 Fine Art Chapter-1 Book-1
0Eklavya Study Pointजून 24, 2025
भारतीय चित्रकला की परंपरा – सरल रूप में
1. चित्रसूत्र : चित्रकला का पहला ग्रंथ
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के तीसरे खंड में पाँचवीं शताब्दी में रचित ‘चित्रसूत्र’ अध्याय को भारतीय चित्रकला की मूल और आधारभूत किताब माना जाता है। इसमें चित्र बनाने की विधियाँ, आकृति के नियम (प्रतिमा लक्षण), उपकरण, रंग, सतह और मानव आकृति की बनावट का विस्तृत वर्णन है। कलाकार सदियों से इसे पढ़ते और मानते आए हैं, और यह सभी भारतीय चित्रकला शैलियों का आधार माना जाता है।
2. लघु चित्रकारी (Miniature Painting)
मध्यकाल की चित्रकला को छोटे आकार के कारण लघु चित्रकारी कहा गया, जिसे हाथ में लेकर करीब से देखा जाता था, न कि दीवारों पर लगाया जाता था। वहीं, महलों की दीवारों पर बने चित्र भित्तिचित्र कहलाते थे, लघु चित्रकारी नहीं।
3. पांडुलिपि चित्रण (Manuscript Illustration)
लघु चित्रों का एक बड़ा हिस्सा पांडुलिपियों में मिलता है, जैसे रामायण, महाभारत और गीत गोविंद। इनमें छंदों के ऊपर या पीछे चित्र बनाए जाते थे, जो अक्सर धार्मिक, साहित्यिक या संगीत संबंधी ग्रंथों में होते थे।
4. चित्रों का संग्रह और पोटली प्रणाली
इन लघु चित्रों को पर्ण या फोलियो कहा जाता था, यानी एक चित्र वाला पृष्ठ, जिन्हें कपड़े में लपेटकर राजा या संरक्षक के पुस्तकालय में पोटली के रूप में रखा जाता था। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पुष्पिका पृष्ठ होता था, जिसमें लेखक, कलाकार, तारीख और स्थान की जानकारी होती थी, लेकिन समय के साथ ये पृष्ठ नष्ट हो गए हैं।
5. चित्रों की संवेदनशीलता और उपयोग
चित्रकला नमी, आग आदि से जल्दी नष्ट हो जाती थी, इसलिए इन्हें कीमती माना जाता था। ये चित्र राजकुमारियों की शादी में उपहार के रूप में दिए जाते, राजाओं के बीच आदान-प्रदान में इस्तेमाल होते और तीर्थयात्रियों, साधुओं व व्यापारियों के साथ दूर-दूर तक ले जाए जाते थे। जैसे, बूंदी के राजा के पास मेवाड़ के और मेवाड़ के राजा के पास बूंदी के चित्र मिल सकते हैं।
6. चित्र इतिहास का पुनर्निर्माण
बहुत कम चित्रों पर दिनांक अंकित होती है, जिससे उनका सही काल निर्धारण कठिन हो जाता है। ये चित्र आज विभिन्न संग्रहालयों और निजी संग्रहों में बिखरे हुए हैं। विद्वान इनकी शैली और अन्य साक्ष्यों के आधार पर उन्हें पहचानकर सही कालक्रम में रखने का प्रयास करते हैं।
पश्चिम भारतीय चित्रकला शैली
1. स्थान और विकास
यह चित्रकला भारत के पश्चिमी भाग में विकसित हुई, खासकर गुजरात, दक्षिण राजस्थान और पश्चिम मध्य भारत में। गुजरात में बंदरगाहों और व्यापार मार्गों की भरमार के कारण यहाँ धनी व्यापारी और सामंत बने, जिन्होंने कला को संरक्षण दिया, विशेषकर जैन समुदाय के व्यापारियों ने इसमें अहम भूमिका निभाई।
2. जैन चित्रकला
जैन विषयों और पांडुलिपियों पर आधारित चित्रकला को "जैन चित्रकला" कहा जाता है। उस समय शास्त्र दान की परंपरा थी, जिसमें सचित्र पांडुलिपियों को मठों के पुस्तकालय (भंडार) में दान करना एक पुण्य कार्य माना जाता था।
3. प्रमुख चित्रित ग्रंथ
जैन चित्रकला में कई प्रमुख ग्रंथों पर आधारित पांडुलिपियाँ चित्रित की गई थीं। इनमें कल्पसूत्र सबसे प्रसिद्ध है, जो 24 तीर्थंकरों के जीवन की प्रमुख घटनाओं जैसे गर्भाधान, जन्म, गृहत्याग, ज्ञान, उपदेश और निर्वाण का चित्रण करता है। कालकाचार्यकथा आचार्य कालक की बहन को बचाने की एक रोमांचक कथा पर आधारित है। उत्तराध्ययन सूत्र में भिक्षुओं के आचार नियमों का विवरण मिलता है, जबकि संग्राहिणी सूत्र (12वीं शताब्दी) ब्रह्मांड और अंतरिक्ष संबंधी ज्ञान प्रदान करता है।
4. पांडुलिपि संरचना
चित्रों को पोथियों या पर्णों (फोलियो) के रूप में बनाया जाता था और इन्हें लकड़ी के पटलिस (आवरण) से ढककर डोरी से सुरक्षित रखा जाता था। प्रारंभ में ये चित्र ताड़ के पत्तों पर बनाए जाते थे, जो 11वीं शताब्दी में प्रचलित था, जबकि 14वीं शताब्दी से कागज़ के उपयोग की शुरुआत हुई।
5. चित्र शैली की विशेषताएँ
इन चित्रों में चमकीले रंगों के साथ सोना और लाजवर्त (नीला पत्थर) का उपयोग किया जाता था, जिससे वे अत्यंत आकर्षक बनते थे। चित्रों को वर्गों में बाँटा जाता था ताकि एक ही चित्र में कई घटनाएँ दिखाई जा सकें। पतली और लहरदार रेखाएँ, चेहरे पर तीसरी आँख का चित्रण, सल्तनत काल की गुंबद और मेहराब जैसी वास्तुकला तथा लोक जीवन, वेशभूषा और वस्तुओं में स्थानीय प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।
6. प्रकृति और सामाजिक जीवन
जैन चित्रकला में भू-दृश्य (प्रकृति) का चित्रण प्रतीकात्मक रूप में किया जाता था। चित्रों के किनारों पर देवी-देवताओं, नृत्य करती नायिकाओं और संगीतकारों को सजावटी रूप में दर्शाया जाता था। 1350 से 1450 ईस्वी का समय जैन चित्रकला का स्वर्णकाल माना जाता है, जब यह कला अपनी ऊँचाई पर थी।
7. धार्मिक से इतर विषय
जैन धार्मिक ग्रंथों के अलावा तीर्थपट, मंडल और गैर-धार्मिक कहानियों को भी चित्रित किया जाता था। इन चित्रों का निर्माण और संरक्षण मुख्यतः धनी व्यापारी और भक्तों द्वारा किया जाता था, जो कला के संरक्षक बनकर कार्य करते थे।
8. पूर्व-मुगल / स्वदेशी शैली
यह चित्रकला राजस्थानी दरबार और मुगल प्रभाव से पहले की मानी जाती है। इसके प्रमुख विषयों में महापुराण, चौरपंचाशिका, महाभारत, भागवत पुराण और गीत गोविंद शामिल हैं। इस शैली को पूर्व-राजस्थानी या स्वदेशी शैली के नाम से जाना जाता है।
9. मानव आकृति और वस्त्र
इस चित्रकला में मानव शरीर को एक विशेष शैली में दर्शाया गया है। नायिकाओं की ओढ़नी गुब्बारे जैसी दिखाई देती है, जिसके किनारे नुकीले होते हैं। वस्त्र पारदर्शी रूप में चित्रित किए जाते हैं, जबकि जल, वनस्पति और जीव-जंतुओं को बारीक रेखाओं के माध्यम से दर्शाया जाता है।
10. सल्तनत और फारसी प्रभाव
12वीं शताब्दी के अंत से चित्रकला में फारसी, तुर्क और अफगानी प्रभाव दिखाई देने लगे। मालवा, गुजरात और जौनपुर जैसे क्षेत्रों में सल्तनत काल की चित्रकला का विकास हुआ। इस दौर में स्वदेशी और फारसी शैली के मिश्रण से एक नई चित्रण पद्धति का जन्म हुआ।
11. निमतनामा – खास उदाहरण
मांडू में नासिर शाह खिलजी (1500–1510 ई.) के काल में निमतनामा की रचना हुई, जो व्यंजनों की एक चित्रमय पुस्तक है। इसमें न केवल खानपान, बल्कि दवाओं, सौंदर्य प्रसाधनों, शिकार आदि का भी चित्रात्मक वर्णन किया गया है।
12. सूफी और लोक कथाएँ
सूफी विचारों पर आधारित कहानियाँ और लौराचंदा चित्रकला इस शैली की उदाहरण हैं।
पाल वित्रकला शैली
1. काल और स्थान
पाल काल (750 ई.–12वीं शताब्दी) को बौद्ध कला का अंतिम स्वर्णिम युग माना जाता है। इस काल की चित्रकला मुख्य रूप से पूर्वी भारत, विशेषकर बिहार और बंगाल में विकसित और समृद्ध हुई।
2. महत्वपूर्ण केंद्र
नालंदा और विक्रमशिला जैसे महाविहार उस समय ज्ञान, धर्म और कला के प्रमुख केंद्र थे। यहाँ बौद्ध धर्म और बज्रयान परंपरा से जुड़ी सचित्र पांडुलिपियाँ ताड़पत्र पर बनाई जाती थीं, जो उस काल की समृद्ध बौद्ध चित्रकला को दर्शाती हैं।
3. पाल चित्रकला की विशेषताएँ
पाल काल की चित्रकला में रेखाएँ लयात्मक और प्रवाहपूर्ण होती थीं, जो जैन चित्रकला की तीखी रेखाओं से अलग थीं। इसमें हल्के और शांत रंगों का प्रयोग किया जाता था। चित्रों और मूर्तियों में एक जैसी कला शैली देखने को मिलती है, जैसा कि अजन्ता की कला में भी देखा गया है।
4. महत्वपूर्ण पांडुलिपि: अष्टसहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता
अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता का अर्थ है "आठ हजार श्लोकों वाली बुद्ध की ज्ञान परंपरा"। यह ताड़पत्र पर चित्रित एक उत्कृष्ट बौद्ध पांडुलिपि का उदाहरण है। इसका चित्रण नालंदा विश्वविद्यालय में हुआ था और यह पाल शासक रामपाल के शासनकाल में, 11वीं शताब्दी के अंतिम चरण की रचना मानी जाती है।
5. संरचना और संग्रहण
इस पांडुलिपि में 6 चित्रित पृष्ठ और दोनों ओर चित्रित लकड़ी के आवरण (कवर) थे। इन्हें फीते से बाँधकर सुरक्षित रखा जाता था, ताकि चित्र और पाठ दोनों सुरक्षित रहें।
6. विदेशों में प्रसार
दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों जैसे नेपाल, तिब्बत, बर्मा, श्रीलंका और जावा से छात्र और तीर्थयात्री नालंदा और विक्रमशिला जैसे महाविहारों में शिक्षा प्राप्त करने आते थे। वे पाल कला की प्रतियाँ अपने साथ अपने देशों में ले गए, जिससे यह कला विदेशों में भी फैल गई और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हुई।
7. अंत और विनाश
13वीं शताब्दी के प्रारंभ में मुस्लिम आक्रमणों के चलते नालंदा और विक्रमशिला जैसे बौद्ध विहार और महाविहार नष्ट हो गए। इसके साथ ही पाल चित्रकला और ताड़पत्र पर आधारित पांडुलिपि परंपरा का भी अंत हो गया।