पहाड़ी चित्रकला शैली Notes in Hindi Class 12 Fine Art Chapter-5 Book-1
0Eklavya Study Pointजून 24, 2025
पहाड़ी चित्रकला शैली सत्रहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी के बीच बसोहली, गुलेर, काँगड़ा, चंबा, मंडी जैसे हिमालयी क्षेत्रों में विकसित हुई। इसकी शुरुआत चमकीली और अलंकृत बसोहली शैली से हुई, जो बाद में काँगड़ा शैली के रूप में अत्यंत परिष्कृत और भावनात्मक बन गई। यद्यपि इसमें मुगल, दक्कनी और राजस्थानी प्रभाव दिखाई देते हैं, फिर भी यह एक स्वतंत्र क्षेत्रीय शैली के रूप में उभरी। परंतु दिनांकित सामग्री और सीमाओं की अस्पष्टता के कारण इसे स्पष्ट रूप से वर्गीकृत करना कठिन है। बी.एन. गोस्वामी ने इसके विकास का श्रेय पंडित सिऊ के कलाकार परिवार को दिया, जिन्होंने बसोहली से काँगड़ा शैली तक इसे रूपांतरित किया। उनके अनुसार, राजनीतिक सीमाओं की बजाय कलाकारों के परिवारों को शैली के वाहक मानना अधिक उचित है। इस शैली में नैसर्गिक सौंदर्य, आदर्श स्त्री चेहरे, और राजसी जीवन के दृश्य प्रमुख हैं, जो काँगड़ा शैली के साथ परिपक्व हुए।
बसोहली शैली
1. बसोहली चित्रकला की शुरुआत:
बसोहली (एक पहाड़ी राज्य) को पहाड़ी चित्रकला की पहली प्रभावशाली शैली के रूप में माना जाता है। यह शैली राजा कृपाल पाल (1678–1695) के शासनकाल में विकसित हुई। बसोहली चित्रकला ने अपनी विशिष्ट रंग योजना, भावनात्मक अभिव्यक्ति और धार्मिक-साहित्यिक विषयों के चित्रण से पहाड़ी चित्रकला परंपरा की नींव रखी और आगे चलकर कांगड़ा, गढ़वाल आदि शैलियों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी।
2. बसोहली शैली की विशेषताएँ:
बसोहली चित्रकला की विशेषताएँ इसे अन्य पहाड़ी शैलियों से अलग बनाती हैं। इसमें तेज़ प्राथमिक रंगों (जैसे लाल, पीला, नीला) का प्रयोग होता है और अक्सर पीली पृष्ठभूमि दी जाती है। चित्रों में ऊँचा क्षितिज और शैलीगत (stylized) प्राकृतिक दृश्यांकन देखने को मिलता है। एक खास तकनीक है उभरे हुए सफेद रंग का प्रयोग, जिससे गहनों में मोती दिखाए जाते हैं। साथ ही, हरे कीट-पंखों और पन्ना जैसे प्रभावों से जेवरों को अलंकृत किया जाता है, जो इस शैली की अद्वितीय सजावटी विशेषता है। इसकी सौंदर्य दृष्टि पश्चिम भारतीय चौरपंचाशिका शैली से साम्यता रखती है, जिससे इसकी कलात्मक परंपरा की गहराई स्पष्ट होती है।
3. प्रमुख विषय और कलाकार:
बसोहली चित्रकला में प्रमुख धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों जैसे रासमंजरी (भानुदत्त), भागवत पुराण और रागमाला को चित्रित किया गया। प्रसिद्ध चित्रकार देवीदास ने 1694–95 में रासमंजरी की एक सुंदर चित्रमाला बनाई, जो इस शैली की उत्कृष्ट कृतियों में गिनी जाती है। इन चित्रों में केवल राधा-कृष्ण या धार्मिक प्रसंग ही नहीं, बल्कि राजाओं, उनकी पत्नियों, दरबारियों, गणिकाओं, ज्योतिषियों आदि का भी छवि चित्रण हुआ, जिससे बसोहली शैली का सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम भी सामने आता है।
4. शैली का विस्तार:
बसोहली शैली का प्रभाव धीरे-धीरे चंबा, कुल्लू, नूरपुर, मनकोट, गुलेर और काँगड़ा जैसे पहाड़ी क्षेत्रों तक फैल गया। विशेष रूप से 1690 से 1730 के बीच गुलेर-काँगड़ा शैली का विकास हुआ, जिसे बसोहली शैली का परिष्कृत और विकसित रूप माना जाता है। इसमें रंग संयोजन, आकृति सौंदर्य और भाव-प्रकाशन में और अधिक निखार आया, जो आगे चलकर पहाड़ी चित्रकला की सबसे परिष्कृत धारा बन गई।
5. कुल्लू की रामायण चित्र श्रृंखला – 'शांगरी':
कुल्लू के कलाकारों द्वारा बनाए गए चित्रों में रामायण को प्रमुख विषय के रूप में चित्रित किया गया। इनमें विशेष रूप से राम के वनगमन और दान के दृश्यों को सुंदर और भावपूर्ण तरीके से दर्शाया गया है। चित्रों में भावनात्मक गहराई, रंगों की सजीवता और पात्रों की मुद्रा के माध्यम से कथा के मार्मिक क्षणों को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो कुल्लू क्षेत्र की चित्रकला परंपरा की संवेदनशीलता और धार्मिक भावना को दर्शाता है।
6. राम वनगमन वाला चित्र:
राम, सीता और लक्ष्मण वनवास के लिए तैयार खड़े हैं। राम दानस्वरूप गायें, आभूषण, वस्त्र और सोने के सिक्के दे रहे हैं। चित्र में ब्राह्मण, बैरागी, आम लोग और सेवक सभी अपने-अपने भावों के साथ दिखाई देते हैं। राम के चेहरे पर शांत मुस्कान है, लक्ष्मण आतुर हैं, सीता आशंकित दिखती हैं, जबकि जनता कृतज्ञ, अविश्वासी और प्रसन्न नहीं दिखाई जाती—जो उनके गहरे भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता है।
7. गुरू विश्वामित्र के साथ वन गमन चित्र:
एक चित्र में राम और लक्ष्मण राक्षसों के विनाश हेतु गुरु के साथ प्रस्थान करते हुए दिखाए गए हैं। मार्ग में पेड़ों के पीछे छिपे जानवर, जैसे लोमड़ी और शेर, दिखाई देते हैं। ये जानवर खतरे और साहस के प्रतीक हैं। चित्रकार ने इन प्रतीकों के माध्यम से कपटी राक्षसों के छिपे हुए रहस्य को संकेतात्मक रूप में दर्शाया है, जिससे कथा में गहराई और प्रतीकात्मकता जुड़ती है।
8. मुख्य बिंदु सारांश:
बसोहली शैली से शुरू हुई पहाड़ी चित्रकला का विस्तार धीरे-धीरे कुल्लू और काँगड़ा तक हुआ। इस परंपरा में कला, साहित्य, भक्ति और भाव का सुंदर समावेश देखने को मिलता है। चित्रों में प्राकृतिक विवरण, मानवीय भावनाएँ और प्रतीकात्मकता अत्यंत स्पष्ट रूप से झलकती हैं, जो इन्हें केवल दृश्य कला नहीं, बल्कि एक गहन सांस्कृतिक और भावनात्मक अनुभव बनाती हैं।
गुलेर शैली
अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में बसोहली शैली में परिवर्तन के साथ ही गुलेर-काँगड़ा शैली का उदय हुआ, जिसका श्रेय पंडित सिऊ और उनके पुत्रों मनकु (मानक) और नैनसुख को जाता है। राजा गोवर्धन चंद (1744–73) के संरक्षण में इस शैली का विकास पहले गुलेर में हुआ और बाद में यह काँगड़ा, चंबा और कुल्लू तक फैली। नैनसुख, जसरोटा के राजा बलवंत सिंह के दरबारी चित्रकार थे और उन्होंने उनके जीवन के दृश्य अत्यंत यथार्थ रूप में चित्रित किए। उनके चित्रों में हल्के, कोमल रंग, विशेष रूप से श्वेत और धूसर का सुंदर प्रयोग मिलता है। मनकु ने भी गोवर्धन चंद और उनके परिवार के छवि चित्र बनाए, जिनमें गीत गोविंद श्रृंखला (1730) विशेष रूप से प्रसिद्ध है। गोवर्धन चंद के पुत्र प्रकाश चंद ने भी कला को प्रोत्साहित किया और मनकु व नैनसुख के पुत्र कौशल, फत्तू और गोधू उनके दरबारी कलाकार रहे। गुलेर शैली, सभी पहाड़ी चित्रशैलियों में सबसे दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ने वाली शैली रही।
काँगड़ा शैली
काँगड़ा चित्रकला का विकास
राजा संसार चंद (1775–1823) के संरक्षण में काँगड़ा चित्रकला ने अभूतपूर्व विकास किया और अपने उत्कर्ष को प्राप्त किया। गुलेर के प्रसिद्ध कलाकार मनकू और नैनसुख के काँगड़ा आने से इस शैली को नई ऊँचाई मिली। संसार चंद का शासनकाल वास्तव में कला और संस्कृति का स्वर्ण युग माना जाता है। काँगड़ा चित्रकला के प्रारंभिक चित्र मुख्यतः आलमपुर में बनाए गए, जबकि इसकी परिपक्व कृतियाँ और उच्च स्तर की कलाकृतियाँ नादौन में निर्मित हुईं।
चित्रकला की विशेषताएँ
काँगड़ा चित्रकला को भारतीय चित्रशैलियों में सबसे काव्यात्मक और गीतात्मक शैली माना जाता है। इसकी विशेषताएँ हैं — महीन रेखाएँ, चटक और सौम्य रंगों का संयोजन, तथा अलंकरण में अत्यंत बारीकी। महिला चेहरों में माथे से नाक तक सीधी रेखा काँगड़ा शैली की विशिष्ट पहचान है। इसके मुख्य विषय हैं: भागवत पुराण, गीत गोविंद, बिहारी सतसई, रागमाला और बारहमासा, जिनमें भक्ति, प्रेम और प्रकृति का सुंदर समन्वय दिखाई देता है।
प्रसिद्ध कलाकार
नैनसुख राजा बलवंत सिंह के दरबारी चित्रकार थे और अपने यथार्थवादी जीवन चित्रण के लिए प्रसिद्ध थे। उनके भाई मनकू गीत गोविंद पर आधारित चित्र श्रृंखला के कारण प्रसिद्धि पाए। उनके पुत्र कौशल, फत्तू और गोधू ने राजा संसार चंद के दरबार में चित्रकार के रूप में कार्य किया और काँगड़ा चित्रकला की परंपरा को आगे बढ़ाया।
विशेष चित्रण – भागवत पुराण और रस पंचध्यायी
काँगड़ा चित्रकला में गोपियों द्वारा कृष्ण की लीलाओं जैसे पूतना वध, गोवर्धन उठाना, और कालिया नाग मर्दन का अभिनयात्मक चित्रण किया गया है। इन चित्रों में भावनात्मकता और नाटकीयता का सुंदर संयोजन देखने को मिलता है, जो भक्ति, प्रेम और नाट्य भाव को एक साथ जीवंत करता है।
अष्ट नायिका चित्रण
काँगड़ा चित्रकला में प्रेम की आठ अवस्थाओं को दर्शाने वाली एक विशेष चित्रण श्रृंखला बनाई गई है। इसमें अभिसारिका (प्रिय से मिलने जाने वाली), कलहांतरिता (झगड़े के बाद विरह में डूबी नायिका), स्वाधीनभर्तृका (प्रिय को वश में रखने वाली) जैसी नायिकाओं की भावनात्मक स्थितियाँ दर्शाई गई हैं। ये चित्र प्रेम की सूक्ष्म अनुभूतियों को सुंदर और भावपूर्ण रूप में प्रस्तुत करते हैं।
बारहमासा चित्रण
बारहमासा श्रृंखला में 12 महीनों के अनुसार प्रेम के भावों और मौसम के प्रभावों को 12 चित्रों में दर्शाया गया है। विशेष रूप से ज्येष्ठ माह (गर्मियों का समय) के चित्रण में केशवदास की कविप्रिया के वर्णनों का उपयोग किया गया है, जिसमें गर्म मौसम की तीव्रता और प्रेम में विरह की पीड़ा को सुंदर और भावनात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है।
अन्य पहाड़ी केंद्रों का योगदान
प्रतीक्षारत कृष्ण और संशयशील राधा
पंडित सिऊ और उनके पुत्रों का योगदान
पंडित सिऊ के दो पुत्र — मानक (या मनकू) और नैनसुख — ने बसोहली शैली को परिष्कृत करते हुए उसे काँगड़ा शैली तक विकसित किया। इन दोनों कलाकारों की कला ने पहाड़ी चित्रकला को नई दिशा दी। बाद में उनके पुत्रों — कौशल, फत्तू, गोधू आदि — ने काँगड़ा चित्रकला के स्वर्णिम युग का नेतृत्व किया और इस परंपरा को ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
गीत गोविंद चित्रमाला (मनकू द्वारा)
गीत गोविंद जयदेव द्वारा रचित एक प्रसिद्ध संस्कृत काव्य है, जिसका मुख्य विषय राधा-कृष्ण की प्रेम लीला है। इस काव्य की भावनात्मक गहराई और भक्ति रस को मनकू ने गुलेर-काँगड़ा शैली में अत्यंत सुंदर और भावपूर्ण चित्रों के रूप में प्रस्तुत किया, जो इस शैली की कोमलता, सौंदर्य और भक्ति भाव को दर्शाते हैं।
राधा-कृष्ण की कथा (सारांश)
गीत गोविंद की कथा में कृष्ण जब गोपियों के साथ रास रचाते हैं, तो राधा दुखी होकर उदास बैठ जाती हैं। कृष्ण को अपने व्यवहार पर पछतावा होता है और वे राधा को ढूँढ़ते हैं। इस बीच एक सखी संदेशवाहक बनकर राधा को कृष्ण की प्रेम-व्यथा सुनाती है। अंततः राधा मान जाती हैं और दोनों के बीच प्रेममिलन होता है। यह श्रृंखला विरह से मिलन की ओर यात्रा का सुंदर और भावनात्मक चित्रण प्रस्तुत करती है।
आध्यात्मिक प्रतीक
राधा = आत्मा / भक्त
कृष्ण = परमात्मा
मिलन = आध्यात्मिक एकात्मता
चित्र की कल्पना
चित्र में राधा संकोचवश झाड़ियों में जाने से हिचकिचा रही हैं।
कृष्ण बेसब्री से उनकी राह देख रहे हैं। चित्र के पीछे जयदेव की पंक्तियाँ उद्धृत हैं:
"राधा! संकोच छोड़ो, चूड़ियाँ खनकने दो और प्रेमी से मिलने चलो।"
बलवंत सिंह नैनसुख के साथ एक चित्र देखते हुए
यह चित्र जसरोटा के राजकुमार बलवंत सिंह को दर्शाता है, जो अपने हाथों में पकड़े कृष्ण के चित्र को ध्यानपूर्वक देख रहे हैं। उनके सामने सिर झुकाए खड़ा व्यक्ति कोई और नहीं, बल्कि स्वयं कलाकार नैनसुख हैं, जिन्होंने शायद पहली बार स्वयं को अपने संरक्षक के साथ चित्रित किया है। बलवंत सिंह अपने महल में संध्या के शांत वातावरण में हुक्का पीते हुए चित्र में वैराग्य और स्थिरता का प्रतीक बने हैं। पास में संगीतज्ञों को पृष्ठभूमि में हल्की धुन के लिए चित्रित किया गया है, जो वातावरण को और भी शांत और गंभीर बनाता है। यह चित्र नैनसुख की संयोजन क्षमता और राजा के शांत स्वभाव को सुंदरता से प्रस्तुत करता है।
नंद, यशोदा और कृष्ण
यह चित्र भागवत पुराण के उस दृश्य को दर्शाता है जिसमें नंद बाबा अपने परिवार और रिश्तेदारों के साथ गोकुल छोड़कर वृंदावन की ओर यात्रा कर रहे हैं, क्योंकि गोकुल में राक्षसों का संकट बढ़ गया था। चित्र में नंद बाबा बैलगाड़ी में आगे, और पीछे की गाड़ी में कृष्ण, बलराम, यशोदा और रोहिणी बैठे हैं। स्त्री-पुरुष अपने साथ सामान और बच्चों को लेकर चल रहे हैं। उनके हाव-भाव, जैसे सिर का झुकना, आंखों की थकान, और हाथों की पकड़ — सभी को बहुत बारीकी और यथार्थता से चित्रित किया गया है। यह चित्र काँगड़ा शैली की विशेषताओं जैसे प्राकृतिक दृश्य का सूक्ष्म अवलोकन और छायाचित्र जैसी सजीवता का उत्कृष्ट उदाहरण है।