बंगाल स्कूल और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद Notes in Hindi Class 12 Fine Art Chapter-6 Book-1
0Eklavya Study Pointजून 24, 2025
कंपनी चित्रकला
अंग्रेजों के भारत आने से पहले कला का निर्माण धार्मिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों से होता था—जैसे मंदिरों की दीवारों पर मूर्तियाँ, झोपड़ियों का अलंकरण, या पांडुलिपियों में लघुचित्र। अठारहवीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के बाद, अंग्रेज भारतीय जीवनशैली, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से प्रभावित हुए और उन्होंने मुर्शिदाबाद, लखनऊ और दिल्ली के कलाकारों को कमीशन पर रखकर चित्र बनवाए। इन कलाकारों ने अपने परंपरागत कौशल को यथार्थवादी यूरोपीय शैली से मिलाकर नई शैली विकसित की, जिसे ‘कंपनी शैली’ कहा जाता है। इस शैली की चित्रकला भारत और ब्रिटेन दोनों में लोकप्रिय रही।
राजा रवि वर्मा
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में भारत में फोटोग्राफी के आगमन से चित्रकला की गुणवत्ता प्रभावित हुई, क्योंकि कैमरे से अधिक यथार्थवादी दस्तावेज़ बनने लगे। ब्रिटिशों द्वारा स्थापित कला विद्यालयों में तैलीय रंगों का प्रयोग हुआ, जिससे भारतीय विषयों को यूरोपीय अकादमिक शैली में चित्रित किया गया। इस शैली के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण राजा रवि वर्मा के चित्रों में मिलते हैं, जिन्होंने रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्यों के दृश्यों को यथार्थवादी रूप में चित्रित किया। उनके चित्र इतने लोकप्रिय हुए कि उनकी ओलियोग्राफ़ी और कैलेंडर आम जनता के घरों तक पहुँचने लगे। परंतु उन्नीसवीं सदी के अंत में राष्ट्रवाद के उदय के साथ इस शैली को पश्चिमी और विदेशी माना गया। इसी विचारधारा के बीच बीसवीं सदी के प्रारंभ में 'बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट' की स्थापना हुई।
बंगाल स्कूल
आधुनिक और राष्ट्रवादी कला आंदोलन की शुरुआत सबसे पहले बंगाल में हुई, जो सिर्फ़ एक क्षेत्रीय शैली नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय कला आंदोलन था। यह कलकत्ता से शुरू हुआ और जल्द ही देशभर में फैल गया, जिसमें शांतिनिकेतन भी शामिल था जहाँ भारत का पहला कला विद्यालय स्थापित हुआ। यह आंदोलन स्वदेशी आंदोलन से जुड़ा था और इसकी अगुवाई अवनीन्द्रनाथ टैगोर (1871–1951) ने की। उन्हें ब्रिटिश प्रशासन और कलकत्ता स्कूल ऑफ आर्ट के प्रधानाचार्य ई.बी. हैवेल का सहयोग मिला। दोनों ही कंपनी शैली के आलोचक थे और एक ऐसी भारतीय शैली के पक्षधर थे जो विषय और तकनीक दोनों में देशी हो। उनके लिए मुगल और पहाड़ी लघु चित्रकला प्रमुख प्रेरणा स्रोत थे।
अवनीन्द्रनाथ टैगोर और ई. बी. हवेल
वर्ष 1896 भारतीय दृश्य कला के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जब ई.बी. हैवेल और अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने भारतीय शैली की विशेषताओं को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से गवर्मेंट कॉलेज ऑफ आर्ट (अब कोलकाता) की स्थापना की। जबकि बंबई, लाहौर और मद्रास के कला विद्यालयों का झुकाव शिल्पों की ओर था, कलकत्ता का विद्यालय ललित कला पर केंद्रित था। टैगोर और हैवेल ने भारतीय परंपरा और तकनीक को पाठ्यक्रम में शामिल किया। टैगोर के चित्र ‘जर्नीस एंड’ में मुगल और पहाड़ी शैली का प्रभाव दिखता है, जिससे एक नई भारतीय शैली का उद्भव हुआ। टैगोर ‘इंडियन सोसायटी ऑफ़ ओरियंटल आर्ट’ के मुख्य कलाकार और विचारक थे, जिन्होंने आधुनिक भारतीय कला को स्वदेशी भावना से जोड़ा। उनके प्रयासों से बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट की नींव रखी गई, जिससे आगे क्षितिंद्रनाथ मजुमदार और चुगतई जैसे कलाकार उभरे।
शांतिनिकेतन- प्रारंभिक आधुनिकतावाद
शांतिनिकेतन और कला भवन
शांतिनिकेतन की स्थापना रवींद्रनाथ टैगोर ने की थी, जहाँ उन्होंने कला, संस्कृति और शिक्षा को एक साथ जोड़ा। इसके अंतर्गत एक विशेष कला विभाग "कला भवन" की स्थापना की गई, जो विश्वभारती विश्वविद्यालय का हिस्सा बना। कला भवन को भारत का पहला राष्ट्रीय कला विद्यालय माना जाता है, जिसने भारतीय परंपरा और आधुनिक दृष्टिकोण के समन्वय से कला शिक्षा को एक नई दिशा दी।
नंदलाल बोस का योगदान
नंदलाल बोस, प्रसिद्ध कलाकार अवनींद्रनाथ टैगोर के शिष्य थे। रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें कला भवन का नेतृत्व सौंपा। नंदलाल बोस के चित्रों में भारतीय पारंपरिक शैली, बौद्धिकता, और लोक कला का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है। उन्होंने वुडकट (woodcut) तकनीक का प्रयोग कर शिक्षाप्रद पुस्तिकाएँ तैयार कीं, जो कला के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता का भी माध्यम बनीं।
हरिपुरा पोस्टर
1937 में महात्मा गांधी ने नंदलाल बोस से हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के लिए चित्र बनाने को कहा। ये चित्र, जिन्हें 'हरिपुरा पोस्टर' कहा गया, जैसे—ढोल बजाता कलाकार, हल जोतता किसान, और दूध मंथती महिला—भारतीय गाँधीवादी विचार, ग्रामीण जीवन, और समाजवादी दृष्टिकोण को दर्शाते हैं।
कला शिक्षा और राष्ट्रवाद
नंदलाल बोस ने राष्ट्र निर्माण में कला की भूमिका को विशेष महत्व दिया। उनकी शिक्षा पद्धति ऐसी थी कि उससे युवा कलाकार राष्ट्रवादी सोच से प्रेरित हुए। इसी विचारधारा से प्रभावित होकर दक्षिण भारत में के. वेंकटप्पा जैसे कलाकारों ने कला केंद्रों की स्थापना की और कला को सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय पहचान से जोड़ने का कार्य किया।
जामिनी रॉय का योगदान
जामिनी रॉय ने पारंपरिक अकादमिक शैली को छोड़कर गाँव की सरल, रंगीन और लोकप्रेरित शैली को अपनाया। उन्होंने अपने चित्रों में मुख्यतः महिलाओं और बच्चों को विषय बनाया। उनका उद्देश्य था कि कला आम जनता तक पहुँचे, और वह केवल अभिजनों तक सीमित न रहे। उनकी कला भारतीय लोक जीवन की आत्मा को सादगी और भाव से चित्रित करती है।
ब्रिटिश काल में कला संघर्ष
बंबई स्कूल ऑफ आर्ट ने यथार्थवादी शैली को बढ़ावा दिया, जिसके प्रमुख आचार्य ग्लेडस्टोन सोलोमन थे। इस स्कूल के कलाकारों ने लुटियन द्वारा निर्मित दिल्ली की इमारतों का अलंकरण भी किया। वहीं, बंगाल स्कूल के कुछ कलाकारों को लंदन स्थित भारतीय भवन (India House) की सजावट का कार्य भी सौंपा गया, हालांकि यह कार्य ब्रिटिश निरीक्षण और दिशा-निर्देशों के अंतर्गत संपन्न हुआ। यह घटनाएँ दिखाती हैं कि औपनिवेशिक काल में कला शिक्षा और सार्वजनिक कला दोनों पर ब्रिटिश प्रभाव बना रहा, साथ ही भारतीय कलाकारों को सीमित स्वतंत्रता दी गई।
अखिल एशियावाद और आधुनिकतावाद
कंपनी शैली और बंगाल विभाजन
कंपनी शैली ने एक ओर जहाँ यूरोपीय तकनीक को भारत में लोकप्रिय किया, वहीं इसने भारतीय और यूरोपीय कला प्रेमियों के बीच विभाजन भी उत्पन्न किया। विशेष रूप से 1905 के बंगाल विभाजन के बाद, जब स्वदेशी आंदोलन ने जोर पकड़ा, तो इसका प्रभाव कला क्षेत्र में भी दिखाई देने लगा। कलाकारों की रचनाओं में देशभक्ति, भारतीय परंपरा, और संस्कृति के गौरव की भावना झलकने लगी, जिससे कला एक राष्ट्रीय चेतना का माध्यम बन गई।
आनंद कुमारस्वामी और अखिल-एशियावाद
आनंद कुमारस्वामी ने भारतीय स्वदेशी कला के पक्ष में सक्रिय रूप से लेखन किया और उसके सांस्कृतिक महत्व को उजागर किया। उन्होंने जापानी कलाकार काकुजो ओकाकुरा के विचारों का समर्थन किया, जो अखिल-एशियाई एकता के पक्षधर थे। इन दोनों विचारकों की सोच पाश्चात्य साम्राज्यवाद के विरोध में थी, और उन्होंने एशियाई देशों की सांस्कृतिक पहचान, आत्मनिर्भरता और कला परंपरा को पुनः स्थापित करने पर बल दिया।
जापानी कलाकारों का योगदान
दो जापानी कलाकार शांतिनिकेतन आए और वहाँ के छात्रों को वॉश पेंटिंग की तकनीक सिखाई। यह शैली तैल चित्रों का एक पूर्वी विकल्प थी, जो अधिक सहज, पारदर्शी और भावप्रधान होती है। समय के साथ यह तकनीक भारत में लोकप्रिय हो गई और कई भारतीय कलाकारों ने इसे अपनाकर अपनी कला को नया रूप दिया, जिससे भारतीय चित्रकला में एक नई सौंदर्य दृष्टि का विकास हुआ।
यूरोपीय आधुनिक कला का प्रभाव (1922)
1922 में पॉल क्ली, कैंडिन्स्की जैसे प्रसिद्ध आधुनिक जर्मन कलाकारों की एक महत्वपूर्ण प्रदर्शनी कलकत्ता में आयोजित हुई। इन कलाकारों ने पारंपरिक यथार्थवादी शैली को छोड़कर अमूर्त (Abstract) कला को अपनाया। उनके चित्रों में ज्यामितीय आकारों जैसे वृत्त, रेखा और वर्ग का रचनात्मक और प्रतीकात्मक उपयोग किया गया, जिससे भारतीय कलाकारों को भी नवीन दृष्टिकोण और आधुनिक कलात्मक अभिव्यक्ति की प्रेरणा मिली।
गगनेंद्रनाथ टैगोर का योगदान
गगनेंद्रनाथ टैगोर, प्रसिद्ध कलाकार अवनींद्रनाथ टैगोर के भाई थे। उन्होंने भारतीय कला में ज्यामितीय अमूर्त शैली को अपनाया और ऐसे चित्र बनाए जिनमें भवनों के अंदरूनी भाग और स्थानिक संरचना को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया। इसके साथ ही उन्होंने कार्टून (कैरीकेचर) भी बनाए, जिनमें उन्होंने पश्चिमी जीवनशैली की नकल करने वाले बंगाल के अमीर वर्ग को हास्य और व्यंग्य के माध्यम से चित्रित किया। उनके ये चित्र सामाजिक आलोचना और आधुनिकता के प्रति चिंतन का माध्यम बने।
आधुनिकतावाद की विभिन्न अवधारणाएँ- पश्चिमी और भारतीय
भारत में आधुनिक कला का विकास पश्चिमी और पारंपरिक भारतीय कलाओं के बीच चल रहे संघर्ष से हुआ। बंगाली बुद्धिजीवी बिनॉय सरकार ने अपनी रचना ‘The Futurism of Young Asia’ में यूरोपीय आधुनिकता को महत्व दिया और बंगाल स्कूल को समकालीनता का विरोधी बताया। वहीं, अंग्रेज़ ई.बी. हैवेल ने भारतीय कला में लोक कला और परंपरा की वापसी का समर्थन किया और अवनीन्द्रनाथ टैगोर का सहयोग किया। इन दोनों दृष्टिकोणों का सुंदर संतुलन अमृता शेरगिल की कला में दिखाई देता है, जो भारतीय विषयों को आधुनिक दृष्टिकोण से चित्रित करती थीं। भारत में कंपनी शैली ने कला स्कूल, प्रदर्शनी दीर्घाएँ, पत्रिकाएँ और कला संस्थानों की नींव रखी। आगे चलकर राष्ट्रवादी कलाकारों ने इन बदलावों को अपनाते हुए कला में भारतीयता को समाहित किया और इसे एशियाई पहचान दी। इस विरासत ने आधुनिक भारतीय कला के इतिहास पर गहरा प्रभाव डाला और इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थान दिलाया।
टिलर ऑफ़ द सॉयल
यह चित्र 1938 के हरिपुरा कांग्रेस सम्मेलन के लिए नंदलाल बोस द्वारा बनाए गए पैनलों में से एक है, जिसमें एक किसान को खेत जोतते हुए दिखाया गया है। बोस ने गाँव के आम लोगों के जीवन को दर्शाने के लिए लोक शैली और 'पटुआ' परंपरा से प्रेरित कलम और स्याही की तकनीक अपनाई। चौड़े ब्रश से खींची गई तिरछी रेखाएँ और गहरे टेम्परा रंग चित्र को प्रभावशाली बनाते हैं। यह चित्र गाँधी के ग्रामीण आदर्शों को भी प्रस्तुत करता है। अजंता कला से प्रभावित पृष्ठभूमि में मेहराब, अलंकरण और रंग संयोजन देखे जा सकते हैं। बोस की देखरेख में ऐसे 400 से अधिक पोस्टर बनाए गए, जो आम लोगों को राष्ट्र निर्माण के पात्र के रूप में दर्शाते हैं और कला के माध्यम से देश के नैतिक चरित्र को सशक्त करते हैं।
रास-लीला
यह जलरंग चित्र प्रसिद्ध चित्रकार क्षितिंद्रनाथ मजूमदार (1891–1975) द्वारा बनाया गया है, जो अवनीन्द्रनाथ टैगोर के शुरुआती शिष्यों में से थे। उन्होंने वॉश तकनीक को नए ढंग से प्रयोग किया, जिसमें कोमल रेखाएँ, दुबली-पतली ग्रामीण आकृतियाँ और सादगीपूर्ण भाव-भंगिमाएँ उनकी शैली की खासियत हैं। यह चित्र श्रीकृष्ण, राधा और सखियों के नृत्य को दर्शाता है, जिसकी पृष्ठभूमि एक सरल ग्रामीण दृश्य है। उन्होंने पौराणिक और धार्मिक विषयों को कोमलता से चित्रित किया और पात्रों को मानव और ईश्वर के बीच कोई भेद नहीं रखते हुए एक समान अनुपात में दर्शाया है। उनकी कृतियाँ भक्ति भावना, सौंदर्यबोध और भावात्मक गहराई से भरपूर हैं।
राधिका
मुहम्मद अब्दुल रहमान चुगतई (1898–1975) द्वारा बनाए गए इस चित्र में उन्होंने वॉश और टेम्परा तकनीक का उपयोग किया है। वह उस्ताद अहमद के वंशज थे और अवनीन्द्रनाथ टैगोर, गगनेंद्रनाथ टैगोर व नंदलाल बोस से प्रभावित थे। चुगतई ने मुगल और फ़ारसी पांडुलिपियों से प्रेरणा लेकर सुलेख की रेखाओं और हल्के-फुल्के रंग संयोजन से नाजुक और भावनात्मक वातावरण रचा। इस चित्र में राधिका को दीपक से दूर जाती दिखाया गया है, जो उदासी और सौंदर्य का प्रतीक है। उनका यह चित्र हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित है और काव्यात्मक, संगीतमय भावों से भरपूर है। चुगतई के अन्य चित्र जैसे उदास राधिका, स्वप्न, हिरामन तोता, दीपक जलाती महिला आदि भी भावनात्मक गहराई और सौंदर्यबोध के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
सिटी इन द नाइट
गगनेंद्रनाथ टैगोर (1869–1938) द्वारा 1922 में बनाए गए इस जलरंग चित्र में उनकी विशिष्ट विश्लेषणात्मक घनवाद शैली दिखाई देती है, जिससे वह भारत के पहले ऐसे कलाकार बने जिन्होंने भारतीय कला की दिशा ही बदल दी। उन्होंने मानव आकृतियों और रूपरेखाओं को ज्यामितीय आकारों में ढालकर भीतरी भावनाओं की अभिव्यक्ति की। उनके चित्रों में द्वारका और स्वर्णपुरी जैसे काल्पनिक नगरों, शहरों और पर्वतों को हीरे जैसे चमकते रंगों और कृत्रिम रोशनी के साथ दिखाया गया है। उनकी कला में रवींद्रनाथ टैगोर के नाटकों से प्रभावित रंगमंचीय तत्व जैसे पर्दे, रोशनियाँ, गलियारे, और सीढ़ियाँ एक जादुई दुनिया का अनुभव कराते हैं, जो उन्हें एक अद्वितीय आधुनिक कलाकार बनाता है।
राम वैक्विशिंग द प्राइड ऑफ़ द ओशन
यह चित्र राजा रवि वर्मा द्वारा बनाया गया है, जो पौराणिक विषयों पर आधारित उनकी कला का प्रतिनिधित्व करता है। वह भारत के पहले कलाकार थे जिन्होंने तैल रंग और लिथोग्राफ़ी तकनीक का उपयोग कर महाकाव्यों और धार्मिक ग्रंथों के नाटकीय क्षणों को चित्रित किया। यह दृश्य वाल्मीकि रामायण से लिया गया है, जहाँ राम समुद्र देव वरुण से मार्ग देने की प्रार्थना करते हैं और उत्तर न मिलने पर धनुष-बाण उठाकर उन्हें भयभीत कर देते हैं। चित्र में भावनात्मकता और नाटकीयता का सुंदर समन्वय है। यह चित्र एक श्रृंखला का हिस्सा है, जिसमें राम-सीता से जुड़े प्रमुख प्रसंगों को दर्शाया गया है, जैसे अहिल्या की मुक्ति, सीता हरण, अशोक वाटिका, राम का तिलक आदि। रवि वर्मा की कला ने भारतीय पौराणिक चरित्रों को जनसामान्य के बीच लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई।
वुमन विद चाइल्ड
जामिनी रॉय (1887–1972) द्वारा 1940 में बनाए गए इस गॉश तकनीक वाले चित्र में उन्होंने भारतीय लोककला को आधुनिक कला में विशेष पहचान दी, जिसके कारण उन्हें लोककला पुनर्जागरण का पिता कहा जाता है। उन्होंने बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों से लोककला सीखी और चित्र ‘मदर एंड चाइल्ड’ में सरल रंगों, गतिशील रेखाओं और भावनात्मक अभिव्यक्ति का प्रयोग किया। उन्होंने गेरू जैसे धुँधले पीले और ईंट-लाल रंग, जो बाँकुरा मूर्तियों से प्रेरित थे, का उपयोग किया। उनके चित्र द्वि-आयामी, संगीतात्मक और लयात्मक होते थे। उन्होंने टेम्परा शैली में जैविक रंगों (हल्दी, नील, मिट्टी, पारा आदि) का प्रयोग किया और कैनवास भी घर पर ही तैयार किए। रॉय ने ग्रामीण सौंदर्यबोध के माध्यम से औपनिवेशिक प्रभाव का विरोध किया और स्थानीय कला को सशक्त रूप से प्रस्तुत किया।
जर्नीस एंड
अवनीन्द्रनाथ टैगोर (1871–1951) द्वारा 1913 में बनाए गए इस जलरंग चित्र में उन्होंने वॉश तकनीक का प्रयोग किया, जो उनके द्वारा विकसित एक कोमल, धुँधली और प्रभाववादी शैली है। इस चित्र में सूर्यास्त की पृष्ठभूमि में थका हुआ ऊँट बैठा है, जो यात्रा के अंत और जीवन के शांत समापन का प्रतीक है। टैगोर ने अनुभव और प्रतीकात्मकता को जोड़ते हुए सौंदर्य और साहित्य का समन्वय किया है। ऊँट की आकृति को सटीक रेखाओं और कोमल रंगों से चित्रित किया गया है। उन्हें राष्ट्रवादी और आधुनिक भारतीय कला का जनक माना जाता है। उनके अन्य प्रमुख चित्रों में द फ़ॉरेस्ट, कमिंग ऑफ़ नाइट, माउंटेन ट्रैवलर, क्वीन ऑफ़ द फ़ॉरेस्ट, और अरेबियन नाइट्स पर आधारित 45 चित्रों की श्रृंखला शामिल है।