दक्कनी चित्रकला शैली Notes in Hindi Class 12 Fine Art Chapter-4 Book-1
0Eklavya Study Pointजून 24, 2025
दक्कनी चित्रकला का विकास मुख्य रूप से 16वीं शताब्दी के अंत से 17वीं शताब्दी के अंत तक हुआ, जब मुगलों ने दक्कन पर अधिकार किया। इस शैली का प्रभाव आगे चलकर असफिया वंश, हैदराबाद के निज़ाम, और अन्य प्रांतीय शासकों की कला में भी देखा गया। पहले इसे सिर्फ़ इंडो-पर्शियन शैली माना गया, लेकिन वास्तव में यह एक स्वतंत्र और विशिष्ट चित्रकला शैली रही है। इसे सफ़ाविद, फ़ारसी, तुर्की और मुग़ल शैलियों से प्रेरणा मिली, लेकिन दक्कनी शासकों ने इसे अपनी राजनैतिक और सांस्कृतिक दृष्टि के अनुसार विकसित किया। बीजापुर, गोलकुंडा और अहमदनगर जैसे राज्यों में इस शैली ने मधुर रंगों, प्रणय दृश्य, और सौंदर्य की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के माध्यम से एक अलग पहचान बनाई। यह शैली सशक्त, आकर्षक और भावनात्मक चित्रों के लिए जानी जाती है।
अहमदनगर चित्रकला शैली
1. अहमदनगर के आरंभिक उदाहरण
दक्कन की प्रारंभिक चित्रकला के उदाहरण हुसैन निज़ामशाह प्रथम (1553–1565) के कविता संग्रह में मिलते हैं। इस संग्रह में कुल 12 लघु चित्र शामिल हैं, जिनमें अधिकांश युद्ध दृश्य दर्शाए गए हैं। इन चित्रों में कलात्मकता की तुलना में वर्णनात्मकता अधिक है, और चित्रकला का स्तर उस समय प्रारंभिक अवस्था में था।
2. रानी के विवाह का चित्रण
इन प्रारंभिक दक्कनी चित्रों में रंगों की भव्यता, रेखाओं की मधुरता, और चित्रण में संतोषजनक सौंदर्य दिखाई देता है। यद्यपि इनका विषय युद्ध और दरबारी घटनाएँ थीं, फिर भी इनमें एक सहज कलात्मक आकर्षण और सौंदर्यबोध की झलक मिलती है, जो दक्कनी चित्रकला की भविष्य की समृद्धि का संकेत देती है।
3. नारी चित्रण की विशेषताएँ
दक्कनी चित्रकला में वेशभूषा की शैली उत्तर और दक्षिण भारतीय परंपराओं का सुंदर मेल प्रस्तुत करती है। इसमें चोली, लंबी चोटी और फूंदने जैसी वस्तुएँ उत्तर भारतीय प्रभाव को दर्शाती हैं। वहीं, दक्षिण भारतीय प्रभाव लेपाक्षी भित्तिचित्रों की तरह स्पष्ट है, जहाँ दुपट्टा नितंब तक लटकता है और बालों का जूड़ा गर्दन पर टिका हुआ दिखाया जाता है। यह शैली क्षेत्रीय संस्कृति के मिश्रण और कलात्मक अभिव्यक्ति का अनूठा उदाहरण है।
4. रंग योजना
दक्कनी चित्रकला उत्तर भारतीय पांडुलिपियों से भिन्न है। इसकी रंग योजना अधिक चटख, समृद्ध और जीवंत होती है, जो कई मामलों में मुगल शैली से मेल खाती है। हालांकि विषय और चित्रण शैली क्षेत्रीय रूप से भिन्न होती है, लेकिन रंगों की भव्यता दक्कनी चित्रकला की एक प्रमुख विशेषता है।
5. फ़ारसी प्रभाव
दक्कनी चित्रकला में ऊँचा उठा हुआ गोल क्षितिज और सुनहरा आकाश एक प्रमुख विशेषता है, जो स्पष्ट रूप से फ़ारसी चित्रकला की शैली से प्रभावित है। यह परिदृश्य शैली सभी दक्कनी राज्यों के चित्रों में समान रूप से दिखाई देती है, जो इस क्षेत्रीय कला में फारसी प्रभाव के गहरे समावेश को दर्शाती है।
6. रागमाला चित्रों में विशेषताएँ
दक्कनी चित्रकला के विकसित चरणों में महिलाओं की वेशभूषा और पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिलते हैं। अब चित्रों में क्षितिज लुप्त हो गया है, और उसकी जगह फीकी या एकरंगी पृष्ठभूमि ने ले ली है। साथ ही, चित्रों में छोटे-छोटे पौधे या गुंबदनुमा आकृतियाँ दिखाई देने लगीं, जो पृष्ठभूमि को सजावटी और प्रतीकात्मक बनाते हैं। यह बदलाव शैली की परिपक्वता और सौंदर्यबोध के नए दृष्टिकोण को दर्शाता है।
7. पुरुष चित्रण
दक्कनी चित्रकला में पुरुषों के वस्त्र भी विशेष शैली में दर्शाए गए हैं। वे अक्सर लंबा, नुकीला जामा पहनते हैं, जो प्राक-अकबरी लघु चित्रकला से प्रभावित प्रतीत होता है। साथ ही, पुरुषों की छोटी पगड़ी भी उल्लेखनीय है, जो प्रारंभिक अकबरी चित्रों (जैसे 1567 की गुलिस्तान) से प्रेरणा लेती है। यह मिश्रण दक्कनी चित्रकला में मुगल प्रभावों की उपस्थिति को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
8. बुखारा शैली का प्रभाव
गुलिस्तान चित्र बुखारा के कुशल चित्रकारों द्वारा बनाए गए थे, जिनकी शैली में फ़ारसी परंपरा की गहरी छाप थी। यह संभावना जताई जाती है कि इन्हीं चित्रकारों या उनके शिष्यों ने बाद में दक्कन में आकर भी चित्रण कार्य किया। इससे दक्कनी चित्रकला में फ़ारसी-बुखारी प्रभाव का समावेश हुआ, जो उसकी रंग योजना, परिदृश्य शैली और आकृतियों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
9. महत्वपूर्ण पांडुलिपि
बांकीपुर लाइब्रेरी, पटना में संग्रहित एक महत्वपूर्ण पांडुलिपि में चित्रकार युसुफ का नाम मिलता है। यह पांडुलिपि 1569 की है और इसे इब्राहीम आदिलशाह को समर्पित किया गया था। इसमें कुल 7 लघु चित्र हैं, जो पूरी तरह से बुखारा शैली में बनाए गए हैं। यह पांडुलिपि दक्कनी चित्रकला में फ़ारसी-बुखारी प्रभाव और विदेशी चित्रकारों की भागीदारी का ठोस प्रमाण मानी जाती है।
बीजापुर चित्रकला शैली
1. नुजूम-अल-उलूम (1570 ई.)
यह पांडुलिपि एक चित्रित विश्वकोश (एनसाइक्लोपीडिया) है, जिसमें कुल 876 लघु चित्र शामिल हैं। इसके विषयों में बरतन, अस्त्र-शस्त्र, और नक्षत्रों से संबंधित विविध चित्र शामिल हैं। इसमें नारी चित्रण की शैली भी विशेष है—महिलाओं को लंबी, पतली आकृति में दर्शाया गया है, जो दक्षिण भारतीय पोशाक में हैं। यह ग्रंथ दक्कनी चित्रकला की विविधता, ज्ञानपरक दृष्टिकोण और सांस्कृतिक मिश्रण का उत्कृष्ट उदाहरण है।
2. संरक्षक शासक
अली आदिलशाह प्रथम (1558–1580) के उत्तराधिकारी इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय (1580–1627) बीजापुर के एक कला, साहित्य और संगीत प्रेमी शासक थे। उन्होंने भारतीय संगीत पर आधारित प्रसिद्ध ग्रंथ "नौरस-नामा" की रचना की, जिसमें राग-रागिनियों और भावनात्मक सौंदर्य को सराहा गया है। इसके अलावा, उन्हें "नुजूम-अल-उलूम" (ज्ञान के नक्षत्र) नामक एक चित्रित विश्वकोश का संभावित लेखक भी माना जाता है। इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय के संरक्षण में बीजापुर चित्रकला और संगीत दोनों ने नई ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं।
3. रागमाला श्रृंखला (लगभग 1590 ई.)
नुजूम-अल-उलूम जैसे ग्रंथों में चित्रण का स्वरूप गहराई से आध्यात्मिक और भावनात्मक होता है, जो स्पष्ट रूप से भारतीय चित्रकला शैली से प्रभावित है। इसमें तुर्की प्रभाव मुख्यतः अंतरिक्ष संबंधी चित्रण (नक्षत्र, ग्रह आदि) में दिखाई देता है। साथ ही, चित्रों में लेपाक्षी शैली की भी झलक मिलती है—विशेषकर आकृतियों की बनावट, पोशाक, और सजावट में। यह मिश्रित शैली दक्कनी चित्रकला की बहुसांस्कृतिक प्रकृति को दर्शाती है।
4. चित्रण की विशेषताएँ
नुजूम-अल-उलूम और दक्कनी चित्रकला की अन्य कृतियों में तीखे और समृद्ध रंगों का प्रभावशाली प्रयोग किया गया है। चित्रों की रेखाएँ वेगपूर्ण होती हैं, जो गति और जीवन का आभास देती हैं, और उनका सौंदर्यपूर्ण संयोजन देखने योग्य होता है।
एक विशेष चित्र “समृद्धि का सिंहासन” प्रतीकात्मक रूप से 7 खंडों में विभाजित है, जो जीवन और ऐश्वर्य के विभिन्न पहलुओं को दर्शाता है। इन खंडों में हाथी, शेर, खजूर के वृक्ष, तोते और जनजातीय लोगों का चित्रण किया गया है, जो दक्कन की सांस्कृतिक विविधता और प्रतीकात्मक सोच को उजागर करते हैं।
5. चित्रों की शैली
दक्कनी चित्रकला के कुछ चित्र गुजरात के घरों के काष्ठ पैनलों और दक्कन के मंदिरों की सजावट की याद दिलाते हैं, जो शिल्पकला और चित्रण की समृद्ध परंपरा को दर्शाते हैं। पेड़-पौधों का चित्रण विशेष रूप से फ़ारसी शैली में किया गया है, जहाँ उन्हें नीली पृष्ठभूमि पर सजावटी रूप में दर्शाया जाता है। यह शैली गुजराती पांडुलिपियों के हाशियों से मिलती-जुलती है, जो दक्कनी चित्रकला में फारसी और पश्चिम भारतीय प्रभावों के सुंदर संगम को दर्शाती है।
6. महत्वपूर्ण चित्र – "योगिनी"
योगिनी साधना करने वाली, आत्मिक और बौद्धिक जीवन जीने वाली स्त्री होती है। एक अज्ञात चित्रकार द्वारा बनाए गए इस चित्र में लंबी आकृति और लंबवत संयोजन है। सिर पर ऊँचा जूड़ा, पक्षियों के साथ क्रीड़ा, वृत्ताकार उड़ता दुपट्टा और सुंदर फूल-पौधे चित्र को अत्यंत आकर्षक बनाते हैं। यह चित्र उसकी निजी शैली के विकास को दर्शाता है।
गोलकुंडा चित्रकला शैली
1. गोलकुंडा राज्य की पृष्ठभूमि:
गोलकुंडा 1512 से एक स्वतंत्र राज्य था और 16वीं सदी के अंत तक यह दक्कन का सबसे समृद्ध राज्य बन चुका था। इसकी समृद्धि के दो प्रमुख कारण थे—पहला, समुद्री व्यापार, जिसके अंतर्गत लोहे और सूती वस्त्रों का विशेष रूप से फ़ारस और पश्चिमी यूरोप में निर्यात होता था। दूसरा, 17वीं सदी की शुरुआत में हीरों की खोज, जिसने इसे आय का एक बड़ा और स्थायी स्रोत प्रदान किया।
2. गोलकुंडा दरबार का वैभव:
गोलकुंडा दरबार में नर्तक-नर्तकियों और दरबारियों के आभूषणों के माध्यम से राज्य की अपार समृद्धि झलकती थी। 17वीं सदी में डच व्यापारियों ने वहाँ के सुल्तानों की छवियाँ यूरोप भेजीं, जिससे गोलकुंडा कला की ख्याति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलने लगी और यह शैली यूरोपीय जगत में भी प्रसिद्ध हुई।
3. चित्रों की विशेषताएँ:
गोलकुंडा चित्रकला में चित्रों का उपयोग विशेष रूप से दीवारों पर लटकाने के लिए किया जाता था, जिनमें कई बार 8 फ़ुट लंबे पट होते थे। इनमें राजदरबार के दृश्य, वास्तु संरचनाएँ, और आकृतियों का संयोजन प्रमुख होता था।
चित्रण में सुनहरे रंग का भरपूर प्रयोग किया जाता था, साथ ही बैंगनी और नीले रंग का भी खुलकर उपयोग होता था। संयोजन में अक्सर एक ही वास्तु तत्व जैसे पट्टियाँ (architectural bands) को बार-बार दोहराया जाता था, जिससे चित्रों में सजावटी लय और भव्यता बनी रहती थी।
4. प्रारंभिक चित्रकला स्रोत:
गोलकुंडा शैली के सबसे पुराने चित्र 1463 ई. के हाफ़िज़ के दीवान में प्राप्त हुए हैं। एक उल्लेखनीय चित्र में एक युवा शासक सिंहासन पर विराजमान है, जिसके हाथ में दक्कनी तलवार है। वह मलमल का कोट पहने हुए है, जिसमें लंबवत कढ़ाई दिखाई देती है—जो उस काल की विशिष्ट वेशभूषा को दर्शाता है। चित्र में नर्तकियों की कलाबाजियाँ और भव्य कालीन का दृश्य भी शामिल है, जो दरबार की सांस्कृतिक समृद्धि और सौंदर्यबोध को प्रकट करता है।
5. प्रमुख उदाहरण:
मोहम्मद कुतुब शाह (1611–1620) का एक चित्र उन्हें दीवान पर बैठे हुए दर्शाता है। उनकी टोपी और पोशाक में ठेठ गोलकुंडा शैली की विशेषताएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं—जैसे सजावटी डिज़ाइन और क्षेत्रीय वस्त्र शैली। इस चित्र के संयोजन में पहले की तुलना में अधिक तकनीकी कुशलता और पॉलिशिंग (चमक व परिष्कार) देखने को मिलती है, जो गोलकुंडा चित्रकला की परिपक्वता और उच्च कलात्मक स्तर को दर्शाता है।
6. सूफ़ी काव्य की चित्रित पांडुलिपि:
इस चित्रमाला में लगभग 20 लघु चित्र शामिल हैं, जो गोलकुंडा शैली की परिपक्वता को दर्शाते हैं। इसकी रंग योजना में विशेष रूप से नीला और सुनहरा रंग प्रमुख हैं, जो चित्रों को भव्यता और गहराई प्रदान करते हैं। एक विशिष्ट विशेषता है बादलों का दो परतों में चित्रण—ऊपरी परत नीली, और निचली परत सुनहरी, जिससे आकाश और वातावरण को अलंकृत व प्रतीकात्मक रूप दिया गया है।
7. चित्रकला की शैलीगत विशेषताएँ:
गोलकुंडा चित्रकला में वेशभूषा अक्सर बीजापुर की शैली से मिलती-जुलती दिखाई देती है—विशेषकर वस्त्रों की बनावट और आभूषणों में। पेड़-पौधों का चित्रण दक्कनी शैली में किया गया है, जिनमें घनी पत्तियों और सजावटी स्वरूप की विशेषता होती है। एक खास चित्र में एक स्त्री को चिड़िया से बातचीत करते हुए दिखाया गया है, जो दक्कनी चित्रकला की एक विशिष्ट और लोकप्रिय शैलीगत विशेषता मानी जाती है, जिसमें मानवीय भाव और प्रकृति के सौंदर्य का सुंदर समन्वय होता है।
संयोजित घोड़ा
17वीं शताब्दी की इस चित्रकला में मानव, पशु-पक्षी और प्रकृति के तत्वों का अद्भुत और कल्पनाशील मिश्रण है। चित्र में संयोजित घोड़ा मुख्य केंद्र में है, जिसे सरपट दौड़ते हुए दिखाया गया है, जबकि उसके चारों ओर उड़ते पक्षी, सिंह, चीनी शैली के बादल, वृक्ष और पौधे अलंकृत पृष्ठभूमि में मौजूद हैं। चित्र की अग्रभूमि में चट्टानों का चित्रण और सभी आकृतियों की गतिशीलता इसे खास बनाती है। पूरे दृश्य को नीले और भूरे रंगों की सीमित रंग योजना में दर्शाया गया है, जिससे इसमें यथार्थवाद और कल्पना का सुंदर संतुलन दिखाई देता है।
सुल्तान इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय हॉकिंग
यह चित्रकला सुल्तान इब्राहिम आदिल शाह द्वितीय को दर्शाती है और इसमें ऊर्जा, गति और संवेदना का अद्भुत समावेश है। घोड़े के पैरों और पूँछ पर लाल रंग, सुल्तान के लहराते वस्त्र, और तराशा हुआ चेहरा चित्र को विशेष बनाते हैं। पृष्ठभूमि में हरे जंगल, नीला आकाश, सुनहरी धूप, और संभोगरत पक्षियों का जोड़ा एक आकर्षक दृश्यात्मक अनुभव देते हैं। चित्र का घोड़ा और चट्टानें फ़ारसी प्रभाव को दर्शाते हैं, जबकि पेड़-पौधे और घना परिदृश्य देसी शैली को उजागर करते हैं। बीच में चमकता सफ़ेद बाज़ और दौड़ते घोड़े की गति पूरे चित्र में जीवंतता और शक्ति भर देते हैं। यह चित्र आज इंस्टिट्यूट ऑफ़ द पीपल्स ऑफ एशिया, लेनिनग्राद (रूस) में संग्रहित है।
राग हिंडोल की रागिनी पथमासिका
राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित राग हिंडोला की रागिनी पथमासिका शीर्षक वाली यह चित्रकला लगभग 1590–95 की मानी जाती है और कुछ विद्वान इसे दक्कन के बीजापुर राज्य से संबंधित मानते हैं। यह चित्र रागमाला संगीत परंपरा का हिस्सा है और इसमें फारसी प्रभाव दो सजे हुए गुंबदों व बेलबूटों की सजावट में स्पष्ट दिखता है। चित्र में एक मंडप में दो सजी-संवरी महिलाएँ हैं और केंद्र में बैठी महिला वीणा जैसा वाद्य बजा रही है, जबकि अन्य महिलाएँ लय में झूमती प्रतीत होती हैं। चित्र में लाल और हरे रंगों का सुंदर संयोजन है। आकृतियाँ सूत्रात्मक रेखांकन पर आधारित हैं, जैसा कि अजंता चित्रों में भी देखा जाता है। चित्र के बाएँ कोने में सूँड उठाए एक छोटा हाथी स्वागत का संकेत देता है और स्थापत्य को रोचक बनाता है।
सुल्तान अब्दुल्ला कुतुब शाह
बीजापुर के सुल्तान अब्दुल्ला का यह छवि चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित है। चित्र के ऊपरी भाग में फ़ारसी अभिलेख है। सुल्तान कुतुब शाह दक्कन के एक प्रभावशाली शासक थे, जिन्होंने कई देशों के शासकों और कलाकारों को आकर्षित किया। चित्र में वे सिंहासन पर बैठे हैं, हाथ में तलवार है जो उनके राजनीतिक शक्ति का प्रतीक है, और उनके सिर के चारों ओर प्रभामंडल देवत्व और सम्मान का संकेत देता है।
हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो
राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित यह प्रांतीय दक्कनी चित्र हैदराबाद से संबंधित है और इसमें तेरहवीं शताब्दी के सूफी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया को उनके शिष्य अमीर खुसरो का संगीत सुनते हुए दर्शाया गया है। यह चित्र सरल शैली में बिना तकनीकी परिष्करण के बनाया गया है, फिर भी इसमें भारतीय संस्कृति और लोकप्रिय सूफी विषय का आकर्षक और विवरणात्मक चित्रण है। आज भी दिल्ली स्थित हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर अमीर खुसरो की कव्वालियाँ गाई जाती हैं, जिन्हें देखने-सुनने देश-विदेश से लोग आते हैं।
पोलो खेलते हुए चाँद बीबी
यह चित्र दक्कन के समृद्ध बीजापुर राज्य की रानी चाँद बीबी को दर्शाता है, जो एक सम्माननीय, निपुण शासक और कुशल खिलाड़ी थीं। उन्होंने अकबर के राजनीतिक हस्तक्षेप का साहसपूर्वक विरोध किया था। चित्र में उन्हें चौगान (पोलो) खेलते हुए दिखाया गया है, जो उस समय का लोकप्रिय शाही खेल था। यह चित्र बाद की अवधि की प्रांतीय शैली में बना है और आज राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित है।