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आधुनिक भारतीय कला Notes in Hindi Class 12 Fine Art Chapter-7 Book-1

आधुनिक भारतीय कला Notes in Hindi Class 12 Fine Art Chapter-7 Book-1



भारतीय कला में आधुनिकता का परिचय

अंग्रेज़ों ने भारत में ललित कला को यूरोपीय दृष्टिकोण से देखा और भारतीयों को इसमें अयोग्य माना, जिससे उन्नीसवीं सदी में लाहौर, कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में कला विद्यालय स्थापित हुए जहाँ अकादमिक और प्रकृतिवादी शैली को बढ़ावा मिला। इसके विरोध में 'बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट' का उदय हुआ, जिसकी स्थापना अवनीन्द्रनाथ टैगोर और ई.बी. हैवेल ने की। बाद में 1919 में शांतिनिकेतन के 'कला भवन' की स्थापना रवींद्रनाथ टैगोर ने की, जिसने भारतीय समाज में कला को सार्थक बनाने का प्रयास किया। गगनेंद्रनाथ टैगोर ने घनवाद, और रवींद्रनाथ टैगोर ने भावनात्मक अमूर्त चित्रों से नई दिशा दी। नंदलाल बोस, उनके शिष्य बिनोद बिहारी मुखर्जी और रामकिंकर बैज ने ग्रामीण जीवन और भारतीय महाकाव्यों को अपनी शैली में चित्रित किया। रामकिंकर की मूर्ति ‘संथाल परिवार’ उनके सामाजिक सरोकारों की मिसाल है। जैमिनी रॉय ने लोककला से प्रेरणा लेकर अपनी सरल लेकिन विशिष्ट शैली बनाई और ग्रामीण संस्कृति को उभारते हुए आधुनिकता से जोड़ा। वहीं अमृता शेरगिल, जिन्होंने पेरिस में शिक्षा प्राप्त की, ने यूरोपीय आधुनिकता और भारतीय पारंपरिक विषयों का अद्वितीय संयोजन किया और भारतीय आधुनिक कला को नई दिशा दी।


भारत में आधुनिक विचारधारा और राजनीतिक कला

पृष्ठभूमि:

अमृता शेरगिल की मृत्यु के बाद भी भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। इसी दौरान द्वितीय विश्व युद्ध और 1943 का बंगाल अकाल जैसी भयावह घटनाओं ने भारतीय समाज को गहराई से प्रभावित किया। बंगाल अकाल में लाखों ग्रामीण भूख से मारे गए और जीविका की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर गए। इस त्रासदी ने कला जगत को भी झकझोर दिया और कई कलाकारों ने सामाजिक यथार्थ को अपने चित्रों का विषय बनाया।

कलकत्ता समूह का गठन (1943)

कैलकत्ता ग्रुप की स्थापना मूर्तिकार प्रोदोष दास गुप्ता के नेतृत्व में हुई, जिसमें निरोध मञ्जूमदार, परितोष सेन, गोपाल घोष और रथिन मोइत्रा प्रमुख सदस्य थे। इस समूह का उद्देश्य ऐसी आधुनिक कला का विकास करना था जो समय की सच्चाई को दर्शाए, भावुकता से मुक्त हो और बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट की पारंपरिक शैली से भिन्न हो।

कला की शैली और विशेषताएँ:

कैलकत्ता ग्रुप और उस दौर के आधुनिक कलाकारों ने पुराने प्रतीकों और परंपराओं को त्याग दिया। उनके चित्रों में विस्तृत विवरण की बजाय, रूप-रंग, बनावट और छाया जैसे तत्वों पर अधिक ज़ोर दिया गया। साथ ही, कला को केवल सौंदर्य तक सीमित न रखकर उसे समाज से जोड़ने और सामाजिक संदर्भ में देखने का गंभीर प्रयास किया गया।

विचारधारा और समाजवाद:

बंगाल के युवा कलाकार उस समय मार्क्सवादी विचारधारा से गहराई से प्रभावित हुए। उन्होंने कला को केवल सौंदर्य के लिए नहीं, बल्कि वर्ग संघर्ष और सामाजिक असमानता को उजागर करने का सशक्त माध्यम बनाया। उनके चित्रों में श्रमिक वर्ग, भूख, पीड़ा और सामाजिक अन्याय जैसे विषय प्रमुख रूप से दिखाई देने लगे, जिससे कला एक सामाजिक परिवर्तन का उपकरण बन गई।

प्रिंटमेकिंग (मुद्रण कला) का विकास:

कलाकारों ने प्रिंटमेकिंग को अपनाया ताकि कला सस्ती बने और ज़्यादा लोगों तक पहुँच सके। इस क्षेत्र के प्रमुख कलाकारों में चित्तप्रसाद, जो एचिंग, लीनोकट और शिलामुद्रण में माहिर थे, और सोमनाथ होरे, जिन्होंने सामाजिक पीड़ा को अत्यंत प्रभावशाली रूप में चित्रित किया, शामिल हैं।

'हंग्री बंगाल' पैम्फलेट:

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने चित्तप्रसाद को 1943 के बंगाल अकाल से प्रभावित गाँवों में भेजा। वहाँ उन्होंने स्केच और चित्रों के माध्यम से जनता की पीड़ा का सजीव दस्तावेज़ तैयार किया। ये चित्र बाद में 'Hungry Bengal' नामक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुए, जो उस समय की भयावह स्थिति का ऐतिहासिक और भावनात्मक प्रमाण बन गई।


प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप ऑफ़ बॉम्बे और बहुमुखी भारतीय कला

1947 में स्वतंत्रता के आसपास, भारतीय युवा कलाकारों में राजनीतिक और कलात्मक स्वतंत्रता की लहर फैल गई। 1946 में बॉम्बे में 'प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप' का गठन हुआ, जिसमें फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा, एम.एफ. हुसैन, एस.एच. रज़ा जैसे कलाकार शामिल थे। सूज़ा ने परंपरागत कला शिक्षण को चुनौती दी और महिलाओं के विषय में प्रयोग कर सौंदर्य की पारंपरिक धारणाओं को तोड़ा। एम.एफ. हुसैन ने भारतीय पौराणिक कथाओं, लघुचित्रों और लोककला से प्रेरणा लेकर आधुनिक शैली और भारतीय तत्वों का समन्वय किया। उनकी कला, जैसे ‘मदर टेरेसा’, भारतीय और वैश्विक दर्शकों के बीच भारतीय आधुनिकता का प्रतिनिधित्व करने लगी।


अमूर्तन - एक नई अवधारणा

एम.एफ. हुसैन और एस.एच. रजा का भिन्न मार्ग:

एम.एफ. हुसैन ने आकृतिमूलक शैली अपनाई और भारतीय विषयों को आधुनिक आकृतियों और रंगों के माध्यम से चित्रित किया, जिससे पारंपरिक विषयों को समकालीन दृष्टिकोण मिला। वहीं, एस.एच. रजा ने अमूर्तन (Abstract) की दिशा में कार्य किया और विशेष रूप से अपने 'भू-दृश्य' (landscape) चित्रों के लिए प्रसिद्ध हुए। रजा ने बाद में ‘बिंदु’ को अपनी कला का केंद्रीय तत्व बनाया, जो भारतीय दर्शन में एकात्मकता और सृजन की मूल चेतना का प्रतीक है।

अन्य कलाकारों की शैली:

गायतोंडे भारत के पहले पूर्णतः अमूर्त चित्रकार माने जाते हैं, जिन्होंने रंग, बनावट और रूप के माध्यम से गहन आंतरिक अनुभूतियों को व्यक्त किया। के.के. हेब्बार, अकबर पदमसी, तैयब मेहता और कृष्ण खन्ना जैसे कलाकार आकृति और अमूर्तन के बीच संतुलन बनाते हुए कार्य करते रहे, जहाँ मानव आकृति भी थी और अमूर्त संकेत भी। वहीं पिलो पोचखानवाला और कृष्ण रेड्डी ने प्रिंटमेकिंग और मूर्तिकला में अमूर्तन का सृजनात्मक प्रयोग किया, जिससे भारतीय आधुनिक कला की अभिव्यक्ति और भी विस्तृत हुई।

चोलमंडलम और अमूर्तन का विस्तार:

के.सी.एस. पणिकर ने चोलमंडलम कलाकार गाँव की स्थापना मद्रास के पास की, जो भारत का पहला स्वायत्त कलाकार समुदाय बना। उन्होंने अमूर्तन (Abstract) को केवल पाश्चात्य प्रभाव तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे भारतीय परंपरा से जोड़ा। उनके चित्रों में तमिल और देवनागरी लिपि, फ़र्श की पारंपरिक सजावट, और ग्रामीण शिल्प जैसे तत्वों का समावेश देखने को मिलता है। पणिकर की यह दृष्टि आधुनिकता को जड़ों से जोड़ने का एक सृजनात्मक प्रयास थी।

अंतर्राष्ट्रीयता बनाम स्वदेशी कला (1970 के बाद):

भारतीय आधुनिक कला में दो प्रवृत्तियाँ समानांतर रूप से विकसित हुईं—एक ओर अंतर्राष्ट्रीयता, जिसमें कलाकारों ने पश्चिमी शैलियाँ जैसे घनवाद और अमूर्तन को अपनाया; दूसरी ओर स्वदेशी कला, जिसमें वे भारतीय परंपराओं की ओर लौटने लगे। अमरनाथ सहगल ने मूर्तिकला में तार (metal wire) का प्रयोग करते हुए सामाजिक विषयों पर कार्य किया, जिनमें उनकी प्रसिद्ध कृति Cries Unheard उल्लेखनीय है। मृणालिनी मुखर्जी ने ‘वनश्री’ जैसी कृतियों में सुतली और प्राकृतिक रेशों का उपयोग कर अमूर्तन में नया योगदान दिया, जो लोक शिल्प और आधुनिक अभिव्यक्ति का सुंदर समन्वय है।

नव-तांत्रिक कला की अवधारणा:

बीरेन डे, जी.आर. संतोष और पणिकर ने भारतीय अमूर्तन को विकसित किया, जिसे यद्यपि पश्चिमी हिप्पी आंदोलन से प्रेरणा मिली, पर इसकी जड़ें भारतीय तांत्रिक दर्शन में थीं। इनके चित्रों में मंडल, यंत्र, और पुरुष-स्त्री ऊर्जा जैसे तांत्रिक प्रतीकों का प्रयोग हुआ। यह शैली न केवल संग्रहालयों में सराही गई, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कला बाजार में भी सफल रही।

संकलनवाद (Eclecticism) – विविध स्रोतों से विचार ग्रहण:

रामकुमार, सतीश गुजराल, ए. रामचंद्रन और मीरा मुखर्जी जैसे प्रमुख कलाकारों ने भारतीय कला में पारंपरिक, आधुनिक और विदेशी शैलियों का सृजनात्मक मिश्रण प्रस्तुत किया। इनकी कृतियाँ भारतीय संस्कृति की गहराई को आधुनिक दृष्टिकोण और वैश्विक कलात्मक प्रवृत्तियों के साथ जोड़ती हैं, जिससे एक समृद्ध और विविधतापूर्ण कला भाषा विकसित हुई।

समूह 1890 (Group 1890) – स्वतंत्र कला की पहल:

जे. स्वामीनाथन के नेतृत्व में 1963 में एक कला आंदोलन की शुरुआत हुई, जिसका घोषणापत्र यह घोषित करता था कि इसकी कोई पूर्वनिर्धारित विचारधारा नहीं होगी। इसमें चित्रों की बनावट, सतह और प्रयोगशीलता पर विशेष ज़ोर दिया गया। गुलाम मोहम्मद शेख, ज्योति भट्ट, हिम्मत शाह, अंबादास और जेराम पटेल जैसे प्रमुख कलाकार इससे जुड़े। यद्यपि यह आंदोलन अल्पकालिक रहा, लेकिन इसने चोलमंडलम स्कूल जैसे कई संस्थानों को गहरा प्रभाव डाला।


आधुनिक भारतीय कला का विश्लेषण (ट्रेसिंग)

भारतीय आधुनिक कला ने भले ही कुछ विचार पश्चिम से ग्रहण किए हों, लेकिन उसकी पहचान और दिशा विशिष्ट भारतीय रही। भारत में आधुनिकतावाद ब्रिटिश उपनिवेश काल में आया, जब कलाकारों ने परंपरागत अकादमिक यथार्थवाद को चुनौती दी। गगनेंद्रनाथ टैगोर, जैमिनी रॉय, अमृता शेरगिल जैसे कलाकारों को 1930 के दशक में आधुनिक माना गया। यूरोप में आधुनिकता औद्योगिक क्रांति और तकनीकी विकास के बाद पनपी, जबकि भारत में यह राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ी थी। एफ.एन. सूज़ा और स्वामीनाथन जैसे कलाकारों ने विद्रोही दृष्टिकोण अपनाया। आनंद कुमारस्वामी ने स्वदेशी विचारों को बढ़ावा दिया। बंगाल स्कूल के माध्यम से अवनीन्द्रनाथ टैगोर, और बाद में शांतिनिकेतन में नंदलाल बोस व अन्य शिष्यों ने भारतीय परंपराओं से प्रेरणा लेकर आधुनिक कला की भारतीय पहचान गढ़ी। इस प्रकार, भारत में आधुनिक कला पश्चिम की नकल नहीं, बल्कि चयनित सांस्कृतिक पुनराविष्कार का परिणाम थी।


नवीन कला आकृतियाँ और 1980 के दशक की आधुनिक कला

सामाजिक सरोकार और चित्रकला का विषय:

1971 के भारत-पाक युद्ध और बांग्लादेश की आज़ादी के बाद भारतीय कलाकारों ने सामाजिक समस्याओं की ओर अधिक ध्यान देना शुरू किया। इस दौर की कला में अब कथानक (narrative) और पहचान योग्य आकृतियाँ उभरने लगीं, जो आम जनता, संघर्ष, और सामाजिक यथार्थ को सीधे तौर पर दर्शाती थीं। कला अब केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि सामाजिक संवेदना का माध्यम भी बन गई।

प्रमुख कलाकार और उनके योगदान:

बड़ौदा स्कूल के कलाकार के.जी. सुब्रमण्यन, गुलाम मोहम्मद शेख और भूपेन खक्कर ने अपने चित्रों में सामाजिक कहानियाँ और शहरी अनुभवों को स्थान दिया। वहीं बंगाल के कलाकार जैसे जोगन चौधरी, बिकाश भट्टाचार्जी और गणेश पाइन ने लोककला, कैलेंडर और लघु चित्रों की शैली को अपनाया। छापाकारों में ज्योति भट्ट, लक्ष्मा गौड़ और अनुपम सूद ने मानव और पशु आकृतियों के माध्यम से लिंग असमानता और सामाजिक समस्याओं को उजागर किया।

शहरी पलायन और नए विषय:

अर्पिता सिंह, नलिनी मालानी और सुधीर पटवर्धन जैसे कलाकारों ने अपने चित्रों में शहरों में रहने वाले आम लोगों की कठिनाइयाँ, पलायन, और गरीबी को दर्शाया। इनकी कला का उद्देश्य था शोषितों की दृष्टि से दुनिया को दिखाना, ताकि सामाजिक अन्याय और असमानता को सामने लाया जा सके।

बड़ौदा स्कूल और परिवर्तन:

1980 के दशक में बड़ौदा स्कूल में कलाकारों का रुझान स्थानीय विषयों की ओर बढ़ा। उन्होंने तथ्य, कल्पना और आत्मकथा को मिलाकर चित्रों की रचना की। इस दौर में गुलाम मोहम्मद शेख ने अपने चित्रों में पुराने बाज़ारों, गलियों और इटली की सिएना शैली से प्रेरित दृश्य संयोजन को अपनाया, जिससे उनके कार्यों में सांस्कृतिक विविधता और व्यक्तिगत अनुभूति का सुंदर मेल दिखाई देता है।

के. जी. सुब्रमण्यन और सार्वजनिक कला:

इस कलाकार ने शांतिनिकेतन से शिक्षा प्राप्त की और भित्ति चित्रण तथा सार्वजनिक कला (public art) के प्रबल समर्थक रहे। उन्होंने राजस्थानी कलाकारों से सीखी गई सैंड कास्टिंग तकनीक का उपयोग कर कई भित्ति चित्र बनाए। इसका प्रमुख उदाहरण है – कला भवन की दीवार पर स्थित उनका भित्तिचित्र, जो परंपरा, तकनीक और आधुनिक दृष्टिकोण का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करता है।

'प्लेस फॉर पीपल' (1981) प्रदर्शनी:

दिल्ली और बॉम्बे में लगी एक ऐतिहासिक प्रदर्शनी में छह प्रमुख कलाकार—भूपेन खक्कर, गुलाम शेख, विवान सुंदरम, नलिनी मालानी, सुधीर पटवर्धन और जोगन चौधरी—के कार्यों को प्रदर्शित किया गया। इस प्रदर्शनी की व्याख्या प्रसिद्ध कला समीक्षक गीता कपूर ने की, जिन्होंने इसे भारतीय समकालीन कला में सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण का महत्वपूर्ण उदाहरण बताया।

भूपेन खक्कर की विशिष्टता:

कुछ समकालीन कलाकारों ने आम लोगों की ज़िंदगी को अपनी कला का केंद्र बनाया—जैसे नाई, घड़ीसाज़ जैसे रोज़मर्रा के पात्रों को चित्रों में स्थान दिया। इसके साथ ही उन्होंने समलैंगिकता और मध्यवर्गीय नैतिकता जैसे संवेदनशील और सामाजिक रूप से उपेक्षित विषयों को भी अपनी कला में उठाया, जिससे उनकी कृतियाँ व्यक्तिगत अनुभवों और सामाजिक सवालों का गहरा चित्रण बन गईं।

लोककला और लोकप्रिय कला की वापसी:

बड़ौदा के कलाकारों ने अपनी कला में लोकशिल्प, ट्रक कला और कैलेंडर चित्रों जैसी लोकप्रिय शैलियों को अपनाकर जनसंस्कृति से जुड़ाव स्थापित किया। वहीं, मुंबई के कलाकारों ने फिल्म होर्डिंग्स, विज्ञापन और फोटोग्राफी से प्रेरणा लेकर अपनी कला को अधिक शहरी, दृश्यात्मक और सामयिक संदर्भों से जोड़ा। यह प्रवृत्ति कला को आम जीवन और आधुनिक मीडिया से जोड़ने का प्रयास थी।

नई तकनीक और शैली:

इस शैली में कलाकारों ने जलरंग का उपयोग कर फोटोग्राफ जैसी सजीव आकृतियाँ बनाई, जो देखने में यथार्थ के बहुत करीब थीं। यह दृष्टिकोण पारंपरिक "आधुनिक कला" से अलग था, क्योंकि इसमें अधिक प्रयोगात्मकता और द्विअर्थी (ambiguous) अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। इस शैली ने चित्र और यथार्थ के बीच की सीमाओं को धुंधला कर दिया, जिससे दर्शक के लिए अर्थ की कई परतें खुलती हैं।


न्यू मीडिया आर्ट - 1990 के दशक से

1990 के दशक के बाद का समय:

उदारीकरण और वैश्वीकरण के प्रभाव सबसे पहले बड़े शहरों जैसे मुंबई और दिल्ली में दिखाई देने लगे। इस दौर में एक ओर जहां सूचना तकनीक का तेजी से विकास हुआ, वहीं दूसरी ओर सामाजिक और पारिवारिक संरचनाओं में बदलाव आने लगे। इन परिवर्तनों ने कलाकारों को भी प्रभावित किया, जिससे कला में नई प्रतिक्रियाएँ, आधुनिक विषय, और वैश्विक संदर्भों का समावेश बढ़ा।

पारंपरिक माध्यमों में बदलाव:

उदारीकरण के दौर में पारंपरिक चित्रकला और मूर्तिकला का आकर्षण धीरे-धीरे कम होने लगा। इसके स्थान पर कलाकारों ने वीडियो आर्ट, फोटोग्राफी और संस्थापन कला (Installation Art) जैसे नए माध्यमों की ओर रुख किया, जिससे कला अधिक प्रयोगात्मक और समकालीन बन गई।

संस्थापन कला की विशेषताएँ:

संस्थापन कला (Installation Art) एक मल्टीमीडिया कला है, जिसमें वीडियो, पेंटिंग, मूर्तियाँ, फोटोग्राफी और टेलीविज़न जैसे विभिन्न माध्यमों को एक साथ जोड़ा जाता है। यह कला अक्सर पूरे हॉल या स्थान में फैली होती है और इसका उद्देश्य होता है कि दर्शक की पाँचों इंद्रियों—दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, गंध और कभी-कभी स्वाद—को सामूहिक अनुभव कराया जाए। यह कला दर्शक को केवल देखने नहीं, बल्कि भाग लेने और महसूस करने का अवसर देती है।

प्रमुख संस्थापन कलाकार:

नलिनी मलानी (मुंबई) और विवान सुंदरम (दिल्ली) जैसे समकालीन कलाकारों की कृतियाँ गंभीर और विचारोत्तेजक विषयों पर आधारित थीं। उन्होंने सामाजिक अन्याय, स्त्री विमर्श, युद्ध, विस्थापन और राजनीतिक अस्थिरता जैसे मुद्दों को अपनी कला के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया, जिससे दर्शकों को न केवल दृश्य अनुभव, बल्कि विचारात्मक मंथन का भी अवसर मिला।

फोटोग्राफी और 'फ़ोटोयथार्थवाद':

पहले फोटोग्राफी को चित्रकला का प्रतिद्वंद्वी माना जाता था, लेकिन समय के साथ इसे समाज के यथार्थ को दिखाने के एक प्रभावशाली माध्यम के रूप में स्वीकार किया गया। इसी से जुड़ी एक शैली है 'फोटोयथार्थवाद', जिसमें कलाकार तैल या ऐक्रिलिक रंगों से ऐसी पेंटिंग बनाते हैं जो फोटोग्राफ जैसी सटीक दिखती हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण है अतुल डोडिया की कृति "बापू", जो रेने ब्लॉक गैलरी, न्यूयॉर्क में प्रदर्शित हुई थी।

प्रमुख फोटोयथार्थवादी कलाकार:

टी.वी. संतोष और शिबू नटसन जैसे समकालीन कलाकारों ने अपनी कला में सांप्रदायिक हिंसा और शहरी बदलावों जैसे समाज के ज्वलंत मुद्दों को चित्रित किया। उनकी कृतियाँ न केवल दृश्य रूप से प्रभावशाली हैं, बल्कि वे दर्शकों को राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ पर विचार करने के लिए प्रेरित भी करती हैं।

समाज के हाशिए पर मौजूद समूहों को चित्रित करने वाले कलाकार:

शीबा चाची, रवि अग्रवाल और अतुल भल्ला जैसे समकालीन कलाकारों ने अपनी कृतियों में महिला साध्वी, LGBTQ समुदाय, प्रदूषित नदियाँ, और भीड़-भाड़ वाले शहरों जैसे समकालीन सामाजिक और पर्यावरणीय मुद्दों को उठाया। इन कलाकारों की रचनाएँ न केवल विचारोत्तेजक हैं, बल्कि वे दर्शकों को प्रश्न पूछने और संवेदनशीलता विकसित करने के लिए प्रेरित भी करती हैं।

समकालीन कला की विशेषताएँ:

समकालीन भारतीय कला आज लगातार परिवर्तनशील और तकनीकी रूप से सशक्त होती जा रही है। कलाकार अब नई मीडिया जैसे डिजिटल पेंटिंग, वीडियो आर्ट, और सोशल मीडिया का प्रभावी उपयोग कर रहे हैं। इससे न केवल अभिव्यक्ति के नए माध्यम खुले हैं, बल्कि कला अधिक इंटरएक्टिव, ग्लोबल, और दर्शकों से जुड़ने वाली बन गई है।

भारत में समकालीन कला का विकास:

आज भारत के सभी बड़े शहरों में कला दीर्घाएँ (Art Galleries) और कलाकार समुदाय सक्रिय रूप से कार्य कर रहे हैं। कलाकारों की कृतियाँ कैटलॉग्स (सूचीपत्रों) में दर्ज की जाती हैं, जिससे उनका दस्तावेजीकरण, प्रदर्शन और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान आसान हो जाती है। यह व्यवस्था भारतीय कला को वैश्विक मंच पर पहुँचाने में अहम भूमिका निभा रही है।

छात्र के लिए सुझाव:

अपने शहर के कलाकारों और उनके कार्यों की जानकारी जुटाकर हम उनकी कला यात्रा, उनके द्वारा दौरे किए गए शहरों, और समाज पर उनके कलात्मक प्रभाव को समझ सकते हैं। कला दीर्घाओं का भ्रमण करके हमें यह जानने का अवसर मिलता है कि कला केवल सौंदर्य का माध्यम नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता और परिवर्तन का भी सशक्त साधन है।


प्रोजेक्ट

विद्यार्थियों को राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय (एन.जी.एम.ए.) या अन्य संग्रहालयों की वेबसाइट पर जाकर 1947 के बाद आधुनिक भारतीय कला के विभिन्न रूपों का अध्ययन करना चाहिए, खासकर अंतर्राष्ट्रीय और स्वदेशी प्रभावों के संदर्भ में। उन्हें यह भी देखना है कि समय सीमा कहाँ समाप्त होती है। शिक्षकों को संग्रहाध्यक्षों और कला समीक्षकों की भूमिका पर चर्चा करनी चाहिए, क्योंकि वे कला के अर्थ को जनता तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण होते हैं। विद्यार्थियों को यह नोट करना चाहिए कि किस कलाकार ने कौन सा सामग्री या माध्यम (जैसे जलरंग, तैलरंग, मूर्तिकला आदि) प्रयोग किया। 


मध्यकालीन संतों का जीवन

'मध्यकालीन संतों का जीवन' एक भित्ति चित्र है, जिसे बिनोद बिहारी मुखर्जी ने 1946-47 में फ्रेस्को बूनो पद्धति से बनाया। यह चित्र हिंदी भवन की तीन दीवारों पर लगभग 23 मीटर क्षेत्र में स्थित है, जो रामानुज, कबीर, तुलसीदास, सूरदास जैसे महान संतों की शिक्षाओं को दर्शाता है। मुखर्जी ने कम रेखाओं का प्रयोग करते हुए मध्यकालीन संतों का जीवन आधुनिक शैली में चित्रित किया, जिसमें प्रत्येक आकृति लयात्मक रूप से एक-दूसरे से जुड़ी है। यह चित्र भारतीय जीवन की सहिष्णुता और सामंजस्य की परंपरा को व्यक्त करता है।


मदर टेरेसा

एम.एफ. हुसैन द्वारा मदर टेरेसा का चित्र 1980 के दशक का है, जिसमें उन्होंने मदर की संत जैसी छवि को चित्रित किया। चित्र में मदर टेरेसा को एक शिशु को हाथों में पकड़े हुए दिखाया गया है, जिसमें हाथों के चित्रण पर विशेष ध्यान दिया गया है। यह दृश्य माइकल एंजेलो की कृति 'पिएटा' से प्रेरित है, जिसमें एक युवक क्षैतिज रूप से मदर की गोद में लेटा है। चित्र की सपाट आकार आधुनिकता को दर्शाते हैं, और कलाकार ने संकेतों का उपयोग किया है ताकि दर्शक स्वयं कहानी का सार समझ सकें। यह चित्र मदर टेरेसा के जीवन के असहायों के उपचार और पोषण की ओर इशारा करता है।


हल्दी ग्राइंडर

अमृता शेरगिल ने 1940 में 'हल्दी ग्राइंडर' चित्रित किया, जिसमें भारतीय महिलाओं को पारंपरिक रूप से हल्दी पीसते हुए दिखाया गया है। इस चित्र में उन्होंने चमकदार और नम रंगों का उपयोग किया, जो उनकी यूरोपीय आधुनिक कला और उत्तर भारत के लघुचित्र शैली से प्रेरित थे। शेरगिल ने रंग विरोधी संयोजन से आकृतियों को उकेरा, जो बसोहली चित्र शैली की याद दिलाते हैं। उन्होंने अर्द्ध-अमूर्त स्वरूप को पसंद करते हुए भू-दृश्य की गहराई बनाने की बजाय सपाट आकार का चित्रण किया।


फेयरी टेल्स फ्रॉम पूर्व पल्ली

के. जी. सुब्रमण्यन द्वारा 1986 में एक्रेलिक शीट पर बनाई गई इस चित्रकला में जल और तैलीय रंगों का प्रयोग किया गया है। यह चित्र एक कल्पनिक भू-दृश्य को दर्शाता है, जहाँ पक्षी और जानवर मनुष्यों से कंधे मिलाते हैं और असामान्य पेड़ पत्तियों की बजाय पंख उगाते हैं। चित्र की शैली रेखीय है और रंगों का संयोजन प्राकृतिक है, जिसमें धूसर, हरे और भूरे रंगों का प्रयोग किया गया है। महिला और पुरुष की आकृतियाँ कालीघाट लोक कला की याद दिलाती हैं, और आकृतियाँ सपाट धरातल पर व्यवस्थित की गई हैं, जो आधुनिक कला का प्रतिनिधित्व करती हैं।


व्हर्लपूल

कृष्णा रेड्डी द्वारा 1963 में बनाया गया यह छापाचित्र विस्कोसिटी प्रिंटिंग पद्धति का एक उदाहरण है, जिसे उन्होंने प्रसिद्ध छापाकार स्टेनले विलियम हेटर के साथ विकसित किया था। इस छापाचित्र में नीले रंग के विभिन्न तानों से एक आकर्षक संयोजन बनाया गया है, जिसमें रंग एक-दूसरे में मिश्रित नहीं होते। यह चित्र जल की तरंगों और जल-तेल की परस्पर अंतर्क्रिया को दर्शाता है। इस तकनीक में विभिन्न रंगों को अलसी के तेल के साथ मिलाया जाता है, ताकि रंग अलग-अलग बने रहें। यह छापाचित्र न्यूयॉर्क के मेट्रोपॉलिटन म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट में संग्रहित है।


चिल्ड्रन

सोमनाथ होर द्वारा 1958 में तैयार किया गया यह ग्राफ़िक प्रिंट 1943 के बंगाल अकाल के प्रभाव को दर्शाता है। इस एचिंग में अकाल से त्रस्त बच्चों की त्रासदी को दिखाया गया है, जिनकी कुपोषित आकृतियाँ गहरी पीड़ा और मलेरिया के लक्षणों को दर्शाती हैं। आकृतियाँ बिना पृष्ठभूमि या परिवेश के रेखाओं में सजीव रूप से प्रस्तुत की गई हैं, जिनमें हड्डियाँ और शरीर की संरचना स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। यह चित्र समाज के सबसे कमजोर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, और होर की कलाकृतियाँ जैसे पीजेंट्स मीटिंग और मदर विद चाइल्ड में भी इसी तरह के भावनात्मक और संवेदनशील विषयों का चित्रण है।


देवी

ज्योतिभट्ट द्वारा 1970 में बनाया गया यह एचिंग देवी की छवि को लोक परंपरा और तांत्रिक दर्शन के माध्यम से पुनः संदर्भित करता है। इसमें देवी की आवक्ष छवि को एक प्रतिमा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें रेखीय अंकन और लोक अभिप्राय का स्पष्ट चित्रण है। भट्ट ने पारंपरिक कलाओं और आधुनिकता के बीच कोमल संबंध को दिखाया, जिसमें गतिशीलता और स्थायित्व के सिद्धांत के रूप में शक्ति को चित्रित किया गया है। उनके अन्य प्रसिद्ध चित्रों में कल्पवृक्ष, सीता का तोता और स्केटर्ड इमेज अंडर द वार्म स्काई शामिल हैं।


ऑफ़ वाल्स

यह एचिंग चित्र 1982 में अनुपम सूद द्वारा रचित है, जो ज़िंक प्लेट से कागज़ पर छापा गया है। अनुपम सूद ने स्लेड स्कूल ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स में छापाचित्र कला का अध्ययन किया और बाद में भारत लौटकर समाज के हाशिये पर रह रहे लोगों की समस्याओं को कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया। इस चित्र में एक स्त्री की रिक्त मुखाकृति के माध्यम से दुख और विषाद को दर्शाया गया है। चित्र में एक नारी फुटपाथ पर अकेली बैठी है, जबकि अग्रभूमि में एक सोते हुए गरीब व्यक्ति को दिखाया गया है। यह संयोजन चित्र में विषाद की गहरी भावना को व्यक्त करता है।


रूरल साउथ इंडियन मेन-वुमन

यह एचिंग चित्र लक्ष्मा गौड़ द्वारा 2017 में बनाई गई है, जो एम.एस. विश्वविद्यालय बड़ौदा से भित्ति चित्र और छापाचित्र की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। उन्हें उनके शिक्षक के.जी. सुब्रमण्यन की प्रयोगधर्मी दृश्य परंपराओं और शास्त्रीय लोक संस्कृति से प्रेरणा मिली। इस चित्र में मानवाकृतियाँ पृष्ठभूमि में पेड़ के साथ अंकित की गई हैं, जो उनके ग्रामीण जीवन की स्मृतियों को दर्शाती हैं। चित्र में ग्रामीण जीवन को शहरी शालीनता के साथ प्रस्तुत किया गया है, जिसमें मनोवैज्ञानिक आभा और कल्पना के मिश्रण से यथार्थवादी अवयवों को खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है। इस चित्र में ग्राम्य गीतों को कृषक पुरुषों और स्त्रियों द्वारा चित्रित किया गया है। इसके माध्यम से कलाकार ने कठपुतली जैसी आकृतियाँ, शैलीगत सौम्यता और यथार्थवाद को दर्शाया है। लक्ष्मा गौड़ की अन्य प्रमुख कलाकृतियाँ "वुमन," "मेन," "लैंडस्कैप ऑफ़ टर्की," और "शियान चाइना" हैं।


ट्राइम्फ़ ऑफ़ लेबर

यह विशालकाय कांस्य मूर्तिशिल्प देवी प्रसाद राय चौधरी द्वारा निर्मित है, जिसे 1959 में चेन्नई के मरीना तट पर गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्थापित किया गया था। इस शिल्प में चार पुरुष आकृतियाँ एक चट्टान को हिलाने का प्रयास करते हुए दिखाए गए हैं, जो राष्ट्र निर्माण में मानवीय श्रम के महत्व और योगदान को दर्शाता है। मूर्तिशिल्प में अजेय पुरुष कठिन और दृढ़संकल्प से प्राकृतिक शक्ति से संघर्ष कर रहे हैं। देवी प्रसाद को श्रम की प्रकृति और मांसपेशियों के प्रति विशेष आकर्षण था, इसलिए उन्होंने शारीरिक श्रम की कठिनता को प्रस्तुत किया। इस शिल्प में श्रमिकों की मजबूत मांसपेशियाँ, नसें और मांसलता का सटीक चित्रण किया गया है। आकृतियाँ इस प्रकार से संयोजित की गई हैं कि दर्शक शिल्प को चारों ओर से घूमकर देख सकते हैं, जो इस कला के संवादात्मक रूप को बढ़ाता है। यह शिल्प श्रमिकों के योगदान को एक सार्वजनिक स्थान पर ऊँचे अधिष्ठान पर प्रतिष्ठित कर दिखाता है, जो परंपरागत राजा या ब्रिटिश गणमान्यों की प्रतिमाओं से विपरीत है।


संथाल फैमिली

रामकिंकर बैज ने 1937 में "संथाल परिवार" नामक यह विशालकाय मूर्तिशिल्प निर्मित किया। इस शिल्प में एक संथाल पुरुष अपने बच्चों को एक डंडे से जोड़ी गई दोहरी टोकरी में ले जाता हुआ दिखाया गया है, साथ ही उसकी पत्नी और एक कुत्ता भी साथ में है। यह शिल्प पलायन यात्रा को दर्शाता है, जहाँ परिवार अपनी समस्त संपत्ति लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर जा रहा है। इसे शांतिनिकेतन के कलाभवन प्रांगण में रखा गया है, और यह भारत का पहला आधुनिक जनमूर्ति शिल्प है। मूर्तिशिल्प को दर्शक चारों ओर से देख सकते हैं, जिससे यह एक स्मारकीय प्रभाव उत्पन्न करता है। इसे बनाने में सीमेंट का प्रयोग किया गया, जो पारंपरिक सामग्री जैसे संगमरमर, लकड़ी, या पत्थर से अलग है और आधुनिकीकरण का प्रतीक है।


क्राइज़ अन हर्ड

अमरनाथ सहगल द्वारा 1958 में निर्मित यह कांस्य मूर्तिशिल्प तीन अमूर्त आकृतियों को दर्शाता है, जो छड़ी जैसी और सपाट लयबद्ध समतल दिखाई देती हैं। इन्हें एक परिवार—पति, पत्नी और बच्चे—के रूप में समझा जा सकता है, जो अपनी बाहों को ऊपर उठाए और सहायता के लिए चीखते हुए दिखाए गए हैं। इस मूर्तिशिल्प के माध्यम से, सहगल ने सहायता की आवश्यकता और विवशता को स्थायी आकार में बदला है। इसे समाजवादी दृष्टिकोण से देखा जा सकता है, जिसमें कलाकार उन लाखों निस्सहाय परिवारों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है जिनकी चीखें बहरे कानों में नहीं सुनाई देतीं। यह कलाकृति अब राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, नई दिल्ली में संग्रहित है।


गणेश

पी. वी. जानकीराम द्वारा 1970 में निर्मित यह ऑक्सीकृत ताँबे का मूर्तिशिल्प एन.जी.एम.ए., दिल्ली में संग्रहित है। मूर्तिशिल्प में गणेश की आकृति को संगीत वाद्ययंत्र वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। जानकीराम ने ताँबे की धातुशीट का उपयोग किया और उसे पीटकर अवतल सतह बनाई, फिर रैखिक विवरणों को वेल्ड किया। उनका यह कार्य दक्षिण भारत के प्राचीन मंदिरों के मूर्तिशिल्प से प्रेरित है। गणेश की आकृति पारंपरिक शास्त्रों और विषयों के अनुसार तैयार की गई है, जिसमें रैखीय और अलंकारिक तत्व धार्मिक चिंतन को आमंत्रित करते हैं। यह मूर्तिशिल्प लोक और पारंपरिक शिल्प कौशल का एक उत्तम मिश्रण है।


वनश्री

मृणालिनी मुखर्जी द्वारा 1994 में निर्मित 'वनश्री' (जंगल की देवी) नामक यह शिल्प कार्य असामान्य सामग्रियों, विशेष रूप से सुतली के रेशों और जूट के रेशों से बनाया गया है। उन्होंने जटिल गाँठों और बुने हुए आकार के माध्यम से इसे एक स्मारकीय रूप दिया। इस शिल्प में, चेहरे और आंतरिक अभिव्यक्ति के साथ शक्तिशाली प्राकृतिक देवत्व की उपस्थिति को उकेरा गया है। उनके रेशों से बने कार्यों ने हाल ही में उनकी कला की मौलिकता और साहस को विशेष पहचान दिलाई है, जो पहले कार्य शिल्प के रूप में खारिज किए गए थे।

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