वन्य-समाज और उपनिवेशवाद Notes in Hindi Bharat Aur Samkalin Vishwa-I Class 9 Chapter-4 Book 4 Wildlife and Colonialism vanya-samaj aur upniveshwad
0Team Eklavyaजनवरी 17, 2025
हमारे आसपास की कई चीजें जंगलों से आती हैं, जैसे किताब का कागज, मेज-कुर्सियां, दरवाजे-खिड़कियां, कपड़ों के रंग, मसाले, शहद, चाय, कॉफी, गोंद, रबर, चॉकलेट का तेल, और दवाओं में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियां। इसके अलावा, बाँस, जलावन की लकड़ी, घास, फल-फूल, और जानवर भी जंगलों से जुड़े हैं। जंगलों की यह विविधता, जैसे ऐमेज़ॉन और पश्चिमी घाटों में मिलने वाले सैकड़ों पौधों की प्रजातियां, तेजी से खत्म हो रही है। 1700 से 1995 के बीच, औद्योगिकरण, खेती, चरागाह और ईंधन के लिए दुनिया का 9.3% जंगल साफ कर दिया गया।
1 वनों का विनाश क्यों?
वनों का लुप्त होना, जिसे वन-विनाश कहते हैं, नई समस्या नहीं है। यह सदियों से हो रहा था, लेकिन औपनिवेशिक शासन के दौरान यह अधिक संगठित और व्यापक हो गया। भारत में वन विनाश के कारणों को समझना महत्वपूर्ण है।
1.1 ज़मीन की बेहतरी
सन् 1600 में भारत के केवल छठे हिस्से पर खेती होती थी, जो अब बढ़कर आधे तक पहुँच गई है। जनसंख्या वृद्धि और खाद्य माँग के कारण जंगल साफ़ कर खेती का विस्तार हुआ। औपनिवेशिक काल में खेती तेजी से बढ़ी। अंग्रेजों ने व्यावसायिक फ़सलों जैसे पटसन, गन्ना, गेहूँ, और कपास को बढ़ावा दिया, ताकि यूरोप की ज़रूरतें पूरी हो सकें। उन्होंने जंगलों को अनुत्पादक मानकर खेती के लिए उपयोग किया, जिससे 1880-1920 के बीच 67 लाख हेक्टेयर भूमि खेती योग्य बनी। खेती के विस्तार को विकास समझा गया, लेकिन इसके लिए बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हुई।
1.2 पटरी पर स्लीपर
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक इंग्लैंड में बलूत (ओक) के जंगल लुप्त हो गए, जिससे शाही नौसेना के लिए लकड़ी की आपूर्ति में कठिनाई हुई। 1820 के दशक में भारत की वन-संपदा का अन्वेषण शुरू हुआ, और बड़े पैमाने पर लकड़ी का निर्यात होने लगा।
1850 के दशक में रेल लाइनों के विस्तार ने लकड़ी की माँग बढ़ा दी। रेल इंजनों के ईंधन और पटरियों के स्लीपरों के लिए भारी मात्रा में लकड़ी की जरूरत थी। एक मील पटरी के लिए 1760-2000 स्लीपर लगते थे।
1860 के बाद रेल नेटवर्क तेजी से बढ़ा, 1890 तक 25,500 कि.मी. और 1946 तक 7,65,000 कि.मी. लंबी लाइनें बिछाई गईं। इसके लिए बड़े पैमाने पर पेड़ काटे गए। मद्रास प्रेसीडेंसी में हर साल 35,000 पेड़ काटे जाते थे। निजी ठेकेदारों ने अनियंत्रित कटाई की, जिससे रेल लाइनों के आसपास जंगल तेजी से खत्म हो गए।
1.3 बागान
यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक वनों का बड़ा हिस्सा साफ किया गया। औपनिवेशिक सरकार ने जंगलों को अपने कब्जे में लेकर सस्ती दरों पर यूरोपीय बागान मालिकों को दिया। इन इलाकों की बाड़ाबंदी कर चाय और कॉफी की खेती शुरू की गई।
2 व्यावसायिक वानिकी की शुरुआत
अंग्रेजों को जहाज और रेल की पटरियाँ बनाने के लिए जंगलों की जरूरत थी, लेकिन उन्हें जंगलों के खत्म होने का डर भी था। इसके लिए उन्होंने जर्मन विशेषज्ञ डायट्रिच ब्रैडिस को भारत बुलाया और उन्हें पहला वन महानिदेशक नियुक्त किया।
ब्रैडिस की पहल:
लोगों को संरक्षण विज्ञान और जंगल प्रबंधन सिखाने की व्यवस्था की।
1864 में भारतीय वन सेवा शुरू की और 1865 में भारतीय वन अधिनियम बनाया।
1906 में देहरादून में इम्पीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट स्थापित किया।
'वैज्ञानिक वानिकी' पद्धति के तहत विविध प्राकृतिक जंगल काटकर उनकी जगह एक ही प्रजाति के पेड़ों के बागान लगाए गए।
वन अधिनियम (संशोधन):
1878 और 1927 में अधिनियम संशोधित हुआ।
जंगलों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया:
आरक्षित वन: गाँव वालों को इनमें प्रवेश या उपयोग की अनुमति नहीं थी।
सुरक्षित और ग्रामीण वन: ईंधन और घर बनाने के लिए उपयोग की सीमित अनुमति।
ब्रैडिस की नीति ने जंगल प्रबंधन को संगठित किया, लेकिन प्राकृतिक वनों को नुकसान पहुँचाया।
2.1 लोगों का जीवन कैसे प्रभावित हुआ?
ग्रामीण और वनपाल अच्छे जंगल की परिभाषा पर अलग विचार रखते थे। ग्रामीण ईंधन, चारा और खाद्य सामग्री के लिए विभिन्न पेड़ चाहते थे, जबकि वन विभाग इमारती लकड़ी (सागौन और साल) के पेड़ों को प्राथमिकता देता था।
जंगल ग्रामीणों के लिए कंद-मूल, फल, दवाइयाँ, बाँस, लकड़ी, और महुआ जैसे आवश्यक संसाधनों का स्रोत थे। वन अधिनियम ने उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों, जैसे लकड़ी काटना और फल इकट्ठा करना, गैरकानूनी बना दिया। इससे ग्रामीणों को लकड़ी चुराने और वन रक्षकों की घूसखोरी का शिकार होना पड़ा। विशेष रूप से महिलाएँ, जो जलावनी लकड़ी इकट्ठा करती थीं, सबसे अधिक परेशान होती थीं।
2.2 वनों के नियमन से खेती कैसे प्रभावित हुई?
घुमंतू खेती, एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में पारंपरिक खेती का तरीका है, जिसमें जंगल काटकर जलाया जाता है और राख में बीज बोए जाते हैं। कुछ साल खेती के बाद भूमि को परती छोड़ दिया जाता है ताकि जंगल फिर से उग सकें। भारत में इसे झूम, पोडू, या कुमरी जैसे नामों से जाना जाता है।
यूरोपीय वन रक्षकों ने इसे जंगलों के लिए हानिकारक माना, क्योंकि यह इमारती लकड़ी के पेड़ों और सरकार के लगान प्रबंधन में बाधा डालती थी। घुमंतू खेती पर रोक लगाकर सरकार ने समुदायों को जंगलों से विस्थापित किया, जिससे कई ने आजीविका बदली, जबकि कुछ ने विद्रोह कर विरोध किया।
2.3 शिकार की आज़ादी किसे थी?
जंगल कानूनों के कारण वनवासियों को शिकार के परंपरागत अधिकार से वंचित कर दिया गया, और शिकार गैर-कानूनी बना। वहीं, औपनिवेशिक काल में बाघ, भेड़िये और तेंदुओं जैसे बड़े जानवरों का शिकार खेल बन गया। अंग्रेज़ों ने इन्हें खतरनाक जानवर बताकर मारने पर इनाम दिए, जिससे 1875-1925 के बीच 80,000 बाघ, 1,50,000 तेंदुए और 2,00,000 भेड़िये मारे गए। शिकार को ट्रॉफी के रूप में देखा जाने लगा, जैसे अफसर जॉर्ज यूल ने अकेले 400 बाघ मारे। बाद में पर्यावरणविदों ने इन प्रजातियों की सुरक्षा की मांग की।
2.4 नए व्यापार, नए रोजगार और नई सेवाएँ।
वन विभाग का नियंत्रण स्थापित होने से स्थानीय लोगों को कई नुकसान हुए, लेकिन कुछ को व्यापार के नए अवसर भी मिले।
जंगलों और व्यापार पर प्रभाव
ब्राजील का उदाहरण:
19वीं सदी में ऐमेजॉन के मुनदुरुकु समुदाय ने जंगली रबड़ से 'लेटेक्स' इकट्ठा करना शुरू किया।
वे व्यापार चौकियों पर निर्भर हो गए और पारंपरिक जीवनशैली छोड़ दी।
भारत में वन-उत्पादों का व्यापार:
मध्यकाल से आदिवासी और बंजारा समुदाय खाल, सींग, रेशम, गोंद, और मसालों का व्यापार करते थे।
अंग्रेज़ों ने वन-उत्पाद व्यापार पर नियंत्रण किया और इसे यूरोपीय कंपनियों को सौंप दिया।
शिकार और चराई पर प्रतिबंध से चरवाहे और घुमंतू समुदाय जैसे कोरावा और येरुकुला अपनी आजीविका खो बैठे।
नए अवसर और कठिनाइयाँ
झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे क्षेत्रों से आदिवासियों को असम के चाय बागानों में काम पर लाया गया।
मजदूरी बहुत कम थी और कार्य परिस्थितियाँ बेहद खराब थीं।
गाँव छोड़ने के बाद उनकी वापसी मुश्किल थी।
3 वन-विद्रोह
भारत और दुनिया भर में वन्य समुदायों ने थोपे गए बदलावों के खिलाफ बगावत की। संथाल परगना में सीधू-कानू, छोटा नागपुर में बिरसा मुंडा और आंध्र प्रदेश में अल्लूरी सीताराम राजू जैसे नायक अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलनों के प्रतीक बने। अब हम 1910 में बस्तर रियासत के ऐसे ही एक विद्रोह का अध्ययन करेंगे।
3.1 बस्तर के लोग
बस्तर, छत्तीसगढ़ के दक्षिणी हिस्से में स्थित एक पठारी क्षेत्र है, जो आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और महाराष्ट्र की सीमाओं से जुड़ा है। यहाँ मरिया, मुरिया गोंड, धुरवा, भतरा, हलबा जैसे आदिवासी समुदाय रहते हैं। ये लोग अपनी धरती, नदी, जंगल और पहाड़ों को देवी-देवता मानते हैं। प्रत्येक गाँव अपनी सीमाओं के भीतर प्राकृतिक संसाधनों की देखभाल करता है, और एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के जंगल से लकड़ी लेने पर शुल्क देते हैं। गाँवों में चौकीदार होते हैं जो जंगलों की रक्षा करते हैं, और हर वर्ष एक सभा में गाँवों के मुखिया जंगलों और अन्य मुद्दों पर चर्चा करते हैं।
3.2 लोगों के भय
1905 में औपनिवेशिक सरकार ने बस्तर में जंगलों के दो-तिहाई हिस्से को आरक्षित करने, घुमंतू खेती और शिकार पर पाबंदी लगाने का प्रस्ताव रखा। इस वजह से लोग परेशान हो गए। कुछ गाँवों को जंगल में रहने दिया गया, लेकिन उन्हें वन विभाग के लिए मुफ्त काम करना पड़ा। बाकी गाँवों को बिना मुआवजा दिए हटा दिया गया।
लोग बढ़े हुए लगान, बेगार, और अकाल (1899-1900 और 1907-1908) से पहले ही परेशान थे। जंगल आरक्षण ने विरोध भड़काया। गाँवों में मुखिया और पुजारी मिलकर इस पर चर्चा करने लगे। काँगेर वनों के धुरवा समुदाय ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया।
1910 में, गाँवों में आम की टहनियाँ, मिट्टी, मिर्च, और तीर भेजे गए, जो बगावत का संकेत थे। लोगों ने बाजारों और सरकारी संपत्तियों पर हमला किया। अंग्रेजों ने बगावत को दबाने के लिए सैनिक भेजे। बातचीत की कोशिशें नाकाम रहीं, और कई गाँव खाली हो गए।
तीन महीने बाद अंग्रेजों ने नियंत्रण पा लिया, लेकिन आंदोलन का असर यह रहा कि आरक्षण की योजना आधी कर दी गई। आज़ादी के बाद भी जंगलों पर अधिकार को लेकर संघर्ष जारी रहा। 1970 में एक परियोजना के तहत प्राकृतिक साल के जंगलों को खत्म कर देवदार लगाने की योजना भी विरोध के कारण रद्द कर दी गई।
अब, इंडोनेशिया की घटनाओं को देखें, जहाँ इस समय कुछ ऐसा ही हो रहा था।
4 जावा के जंगलों में हुए बदलाव
जावा, जिसे आज इंडोनेशिया के चावल उत्पादक द्वीप के रूप में जाना जाता है, एक समय घने जंगलों से ढका था। डचों ने इसे उपनिवेश बनाकर वन-प्रबंधन की शुरुआत की, जैसे भारत में अंग्रेजों ने किया था। वे जहाज निर्माण के लिए जावा की लकड़ी का इस्तेमाल करना चाहते थे। 1600 में जावा की आबादी लगभग 34 लाख थी, जिसमें उपजाऊ मैदानों में गाँव और पहाड़ों में घुमंतू खेती करने वाले समुदाय बसे थे।
4.1 जावा के लकड़हारे
जावा के कलांग समुदाय कुशल लकड़हारे और घुमंतू किसान थे। 1755 में माताराम रियासत के बँटवारे के समय 6,000 कलांग परिवारों को भी दोनों हिस्सों में बाँटा गया। इनके बिना सागौन की कटाई और महल निर्माण संभव नहीं था। 18वीं सदी में डचों ने वनों पर नियंत्रण पाकर कलांगों को काम पर लगाना चाहा। 1770 में कलांगों ने डच किले पर हमला कर विद्रोह किया, जिसे डचों ने दबा दिया।
4.2 डच वैज्ञानिक वानिकी
19वीं सदी में डचों ने जावा में वन-कानून लागू कर ग्रामीणों की जंगल तक पहुँच पर पाबंदी लगा दी। नाव या घर बनाने के लिए केवल चुने हुए जंगलों से, कड़ी निगरानी में लकड़ी काटने की अनुमति थी। मवेशी चराने, बिना परमिट लकड़ी ले जाने, या जंगल की सड़कों पर जानवरों का इस्तेमाल करने पर दंड दिया जाता था।
भारत की तरह यहाँ भी जहाज और रेल-लाइन निर्माण ने वन-प्रबंधन की जरूरत बढ़ाई। 1882 में जावा से 2,80,000 स्लीपर निर्यात किए गए। डचों ने जंगलों की जमीनों पर लगान लगाया, लेकिन कुछ गाँवों को इस शर्त पर मुक्त किया कि वे मुफ्त में पेड़ काटने और लकड़ी ढोने का काम करेंगे। इसे "ब्लैन्डाँगडिएन्स्टेन" कहा गया। बाद में थोड़ी मजदूरी दी गई, लेकिन जंगलों पर ग्रामीणों के अधिकार सीमित रहे।
4.3 सामिन की चुनौती
1890 के आसपास, रान्दुब्लातुंग गाँव के सुरोन्तिको सामिन ने सागौन के जंगलों पर सरकारी अधिकार को चुनौती दी। उनका तर्क था कि हवा, पानी, जमीन और लकड़ी पर राज्य का अधिकार नहीं हो सकता। उनका आंदोलन तेजी से फैल गया, और 1907 तक 3,000 परिवार उनके विचारों का समर्थन करने लगे। सामिनवादियों ने जमीन के सर्वेक्षण का विरोध किया, लगान व जुर्माना देने और बेगार करने से इनकार कर दिया।
4.4 युद्ध और वन-विनाश।
पहले और दूसरे विश्वयुद्ध ने जंगलों पर गहरा प्रभाव डाला। भारत में अंग्रेज़ों ने अपनी जंगी जरूरतों के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ काटे। जावा में डचों ने जापानियों से बचाने के लिए "भस्म कर भागो नीति" के तहत आरा मशीनें और सागौन के लट्ठे जला दिए। बाद में जापानियों ने वनवासियों से जंगल काटने का काम करवाया। इस दौरान गाँववालों ने जंगलों में खेती का विस्तार किया। युद्ध के बाद इंडोनेशियाई वन सेवा के लिए इन जमीनों को वापस लेना मुश्किल हो गया। खेती और वन विभाग के नियंत्रण की जिद के बीच टकराव जारी रहा।
4.5 वानिकी में नए बदलाव
अस्सी के दशक से एशिया और अफ्रीका में वैज्ञानिक वानिकी और वन समुदायों को जंगलों से बाहर रखने की नीतियों से टकराव बढ़ा। इसके बाद वनों का संरक्षण प्राथमिकता बन गया, और सरकारों ने माना कि वन संरक्षण के लिए स्थानीय समुदायों की मदद जरूरी है। भारत में मिजोरम से केरल तक ग्रामीणों ने पवित्र बगीचों (सरना, देवराकुडु, आदि) के रूप में जंगलों की रक्षा की। कई गाँव अपने जंगलों की सुरक्षा खुद करते हैं, जिसमें हर परिवार बारी-बारी से योगदान देता है। अब वैकल्पिक वन-प्रबंधन पर विचार हो रहा है।