आधुनिक विश्व में चरवाहे Notes in Hindi Bharat Aur Samkalin Vishwa-I Class 9 Chapter-5 Book 4 Shepherds in the modern world adhunik vishv mein charvahe
0Team Eklavyaजनवरी 17, 2025
घुमंतू चरवाहों के जीवन, उनकी रोज़ी-रोटी के साधनों और उनके इतिहास के बारे में जानेंगे। घुमंतू चरवाहे एक जगह पर नहीं टिकते, बल्कि अपने जानवरों के साथ घूमते रहते हैं। अक्सर इनकी जिंदगी को इतिहास और अर्थव्यवस्था में अनदेखा कर दिया जाता है। इस पाठ में हम भारत और अफ्रीका में चरवाही के महत्व, उपनिवेशवाद के प्रभाव, और आधुनिक समाज के दबावों के बीच उनके संघर्षों का अध्ययन करेंगे।
1 घुमंतू चरवाहे और उनकी आवाजाही
1.1 पहाड़ों में
जम्मू और कश्मीर के गुज्जर-बकरवाल समुदाय भेड़-बकरियाँ पालते हैं और चरागाहों की तलाश में सर्दी-गर्मी के अनुसार जगह बदलते हैं। सर्दियों में वे शिवालिक की निचली पहाड़ियों में रहते, जहाँ सूखी झाड़ियाँ उनके जानवरों का चारा बनतीं। गर्मियों में वे पीर पंजाल पार कर कश्मीर घाटी के हरे-भरे चरागाहों में पहुँचते। सितंबर में वे वापस शिवालिक की ओर लौट जाते।
हिमाचल प्रदेश के गद्दी समुदाय भी इसी तरह सर्दियों में निचले इलाकों और गर्मियों में लाहौल-स्पीति के ऊपरी चरागाहों में जाते। लौटते समय वे फसल काटते और सर्दियों की बुवाई करते।
गढ़वाल और कुमाऊँ के गुज्जर सर्दियों में भाबर के जंगलों और गर्मियों में ऊँचे बुग्यालों में जाते थे। भोटिया, शेरपा, और किन्नौरी जैसे हिमालयी समुदाय भी इसी तरह मौसम के अनुसार चरागाह बदलते थे। इस तरह चरागाहों का उपयोग संतुलित रहता और वे दोबारा हरे-भरे हो जाते।
1.2 पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में
चरवाहा समुदाय केवल पहाड़ों तक सीमित नहीं थे; वे पठारों, मैदानों और रेगिस्तानों में भी पाए जाते थे। इनके जीवन और आजीविका के तरीके मौसम, क्षेत्र और जरूरतों के अनुसार बदलते रहते थे। आइए, उनके जीवन को सरल भाषा में समझें।
महाराष्ट्र के धंगर समुदाय
कौन थे धंगर?
महाराष्ट्र के चरवाहा समुदाय, धंगर, भेड़ पालने और कम्बल बनाने का काम करते थे।
जीवनशैली:
बरसात में वे महाराष्ट्र के पठारी इलाकों में रहते थे, जहां कंटीली झाड़ियाँ और बाजरे की फसल होती थी।
अक्तूबर के बाद, चरागाहों की तलाश में वे कोंकण क्षेत्र की ओर बढ़ते थे।
कोंकण में:
किसान उनका स्वागत करते थे, क्योंकि उनके मवेशी खेतों की बची हुई फसल खाकर उन्हें उपजाऊ बना देते थे।
बदले में, किसानों से चावल लेकर वे वापस पठारों में लौट जाते थे।
कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के चरवाहे
जीवन का आधार:
सूखे पठारी इलाके, जहां घास और पत्थर मुख्य रूप से मिलते थे।
समुदाय:
गोल्ला: गाय-भैंस पालते थे।
कुरुमा और कुरुबा: भेड़-बकरियाँ पालते और कम्बल बनाते थे।
मौसमी बदलाव:
बारिश के मौसम में वे तटीय इलाकों से दूर पठारों पर चले जाते थे।
बंजारा समुदाय
कहाँ रहते थे?
उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, और महाराष्ट्र में।
क्या करते थे?
दूर-दराज़ तक यात्रा करते, अनाज और चारे के बदले गाँव वालों को जानवर और जरूरी चीजें बेचते।
राजस्थान के राइका समुदाय
इलाका:
राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र जैसे बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, बीकानेर।
जीवनशैली:
बरसात में गाँवों में रहते थे, लेकिन अक्तूबर के बाद चरागाह सूखने पर नए चरागाहों की तलाश में निकल जाते।
क्या पालते थे?
कुछ ऊँट पालते, तो कुछ भेड़-बकरियाँ।
चरवाहों की रणनीति
चरागाह का चयन:
कब और कहाँ जाना है, इसका ध्यान रखना पड़ता था।
स्थानीय किसानों से संबंध:
गाँव के किसानों से दोस्ती करना जरूरी था ताकि उनके मवेशी खेतों में घास चर सकें।
मल्टी-टास्किंग:
खेती, व्यापार और चरवाही, सब कुछ करना पड़ता था।
अंग्रेजों के शासन के दौरान परिवर्तन
औपनिवेशिक शासन ने चरवाहा समुदायों की परंपराओं और जीवनशैली पर गहरा असर डाला। उनके चरागाह और घूमने की स्वतंत्रता सीमित कर दी गई।
2 औपनिवेशिक शासन और चरवाहों का जीवन
अंग्रेजों के शासनकाल में चरवाहा समुदायों की जिंदगी में बड़े बदलाव आए। उनके चरागाह सिमट गए, स्वतंत्रता खत्म हो गई, और आर्थिक बोझ बढ़ता गया। आइए, इसे सरल भाषा में समझें।
1. चरागाहों का सिमटना
क्यों हुआ?
अंग्रेज सरकार ज्यादा से ज्यादा जमीन खेती के लिए इस्तेमाल करना चाहती थी, ताकि लगान से उनकी आय बढ़े।
परिणाम:
चरवाहों की चरने की जमीन खेती में बदल दी गई। परती भूमि सुधार कानूनों के तहत, चरागाह की जमीन को मुखियाओं और जमींदारों को दे दिया गया।
प्रभाव:
चरवाहों के लिए चरने की जगहें घट गईं और उनके मवेशियों के लिए चारे की कमी हो गई।
2. वन अधिनियम और पाबंदियाँ
नए कानून:
सरकार ने जंगलों को 'आरक्षित' और 'संरक्षित' घोषित कर दिया।
आरक्षित वन: चरवाहों का प्रवेश पूरी तरह प्रतिबंधित।
संरक्षित वन: प्रवेश की अनुमति मिली, लेकिन कड़ी शर्तों और समयसीमा के साथ।
परिणाम:
चरवाहों को जंगलों में जाने के लिए परमिट लेना पड़ता। परमिट में उनके प्रवेश और वापसी की तारीख तय होती।
अगर वे समयसीमा का उल्लंघन करते, तो जुर्माना लगाया जाता।
3. चरवाहों को अपराधी समझा जाना
अपराधी जनजाति अधिनियम (1871):
सरकार ने चरवाहा, दस्तकार, और व्यापारियों जैसे घुमंतू समुदायों को "अपराधी जनजाति" घोषित कर दिया।
उन्हें विशेष गाँवों में बसने का आदेश दिया गया और बिना अनुमति कहीं जाने पर रोक लगा दी गई।
पुलिस इन समुदायों पर नजर रखती।
अंग्रेजों की सोच:
घुमंतू लोगों को कानून-व्यवस्था के लिए खतरा माना गया। उनका जीवन स्वतंत्र और बंधनहीन था, जो अंग्रेजों को असुविधाजनक लगता था।
4. लगान और करों का बोझ
चरवाहों पर कर:
हर मवेशी पर टैक्स लगाया गया।
1850-1880 के बीच ठेकेदारों ने यह टैक्स वसूला।
1880 के बाद सरकार ने खुद यह काम किया।
पास सिस्टम:
चरवाहों को हर चरागाह में प्रवेश से पहले टैक्स चुकाना पड़ता।
उनकी जानवरों की संख्या और भुगतान पास में दर्ज होती।
प्रभाव:
टैक्स के बढ़ते बोझ ने चरवाहों की आर्थिक स्थिति खराब कर दी।
2.1 इन बदलावों ने चरवाहों की जिंदगी को किस तरह प्रभावित किया?
चरागाहों को खेतों में बदलने और जंगलों के आरक्षण से चरागाहों का क्षेत्र घटने लगा। इससे बची-खुची जमीन पर जानवरों का दबाव बढ़ गया। पहले घुमंतू चरवाहे एक क्षेत्र में सीमित समय तक जानवर चराते और फिर अगले चरागाह की ओर बढ़ जाते, जिससे पुराने क्षेत्र हरे-भरे हो जाते थे। लेकिन आवाजाही पर बंदिशों और चरागाहों के अत्यधिक उपयोग से उनकी गुणवत्ता गिरने लगी। चारे की कमी और अकाल से जानवर कमजोर हो गए और बड़ी संख्या में मरने लगे।
2.2 चरवाहों ने इन बदलावों का सामना कैसे किया?
चरवाहों ने इन बदलावों के अनुसार खुद को ढाला। कुछ ने जानवरों की संख्या घटाई, तो कुछ ने नए चरागाह ढूँढ़े। जैसे राइका समुदाय ने सिंध में चरागाह खोने के बाद हरियाणा के खेतों का उपयोग शुरू किया। धनी चरवाहे जमीन खरीदकर बस गए और खेती या व्यापार करने लगे, जबकि गरीब चरवाहे कर्ज लेकर मजदूर बन गए।
इसके बावजूद, चरवाहे आज भी जीवित हैं, और कुछ जगह उनकी संख्या बढ़ी है। वे नई परिस्थितियों के अनुसार दिशा बदलते, रेवड़ छोटा करते, या नए काम-धंधे अपनाते हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि सूखे और पहाड़ी इलाकों में चरवाही जीवन का व्यावहारिक तरीका है। ऐसे बदलाव सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि दुनिया भर के चरवाहों ने भी झेले और आधुनिक दुनिया के साथ तालमेल बिठाया।
3 अफ्रीका में चरवाहा जीवन
अफ्रीका में दुनिया की आधी से ज्यादा चरवाहा आबादी रहती है, जिसमें बेदुईन्स, बरबेर्स, मासाई, सोमाली, बोरान, और तुर्काना जैसे समुदाय शामिल हैं। करीब सवा दो करोड़ लोग चरवाही पर निर्भर हैं, जो गाय, ऊँट, बकरी, भेड़, और गधे पालते हैं। ये लोग दूध, मांस, खाल, ऊन बेचते हैं, और कुछ व्यापार, यातायात या खेती भी करते हैं।
औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल में अफ्रीकी चरवाहों की जिंदगी में बड़े बदलाव आए। मासाई समुदाय इसका एक उदाहरण है। पूर्वी अफ्रीका के ये पशुपालक, मुख्यतः कीनिया और तंजानिया में रहते हैं। नए कानूनों और पाबंदियों ने उनकी जमीन छीन ली और आवाजाही सीमित कर दी। इन बदलावों से सूखे के दिनों में उनकी जिंदगी और सामाजिक संबंधों पर गहरा असर पड़ा।
3.1 चरागाहों का क्या हुआ?
मासाइयों की सबसे बड़ी समस्या उनके चरागाहों का सिमटना है। औपनिवेशिक शासन से पहले मासाईलैंड उत्तरी कीनिया से तंजानिया तक फैला था। 1885 में ब्रिटिश और जर्मन उपनिवेशों ने मासाईलैंड को दो हिस्सों में बाँट दिया। बाद में, बेहतरीन चरागाह गोरों को बसाने और शिकारगाह बनाने के लिए छीन लिए गए। मासाइयों को सूखे और कम उपजाऊ इलाकों में सीमित कर दिया गया, जिससे उनकी जमीन का 60% हिस्सा खत्म हो गया।
कई चरागाहों को राष्ट्रीय उद्यानों जैसे मासाई मारा और सेरेन्गेटी पार्क में बदल दिया गया, जहाँ मासाई अपने मवेशी नहीं चरा सकते थे। चरागाह कम होने और पानी की कमी के कारण उनके बचे इलाकों पर दबाव बढ़ गया। अधिक चराई से जमीन खराब हो गई, चारा कम पड़ा, और मवेशियों का पेट भरना मुश्किल हो गया।
3.2 सरहवें बंद हो गईं
उन्नीसवीं सदी के अंत में औपनिवेशिक सरकार ने चरवाहों की आवाजाही पर पाबंदियाँ लगा दीं। उन्हें आरक्षित इलाकों तक सीमित कर दिया गया और बिना परमिट जानवरों को बाहर ले जाना मना था। परमिट पाना भी मुश्किल और अपमानजनक था।
गोरों ने उन्हें बाजारों और व्यापार से भी दूर रखा, उन्हें बर्बर और खतरनाक मानते हुए तंग किया। हालांकि गोरों को खानों, सड़कों और शहरों के लिए उनके श्रम पर निर्भर रहना पड़ा।
नई सीमाओं और पाबंदियों ने चरवाहों की जीवनशैली और व्यापार को बुरी तरह प्रभावित किया। वे छोटे इलाकों में कैद महसूस करने लगे, और उनकी पारंपरिक चरवाही व व्यापारिक गतिविधियाँ सीमित हो गईं।
3.3 जब चरागाह सूख जाते हैं
सूखा चरवाहों की जिंदगी पर गहरा असर डालता है। बारिश न होने और चरागाह सूखने पर मवेशियों को हरे इलाकों में ले जाना जरूरी होता है, लेकिन औपनिवेशिक शासन ने मासाइयों को तय इलाकों में सीमित कर दिया। उन्हें अच्छे चरागाहों से वंचित कर अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में रहने पर मजबूर किया गया, जहाँ सूखे का खतरा हमेशा बना रहता था।
1933-34 के सूखे में मासाइयों के आधे से ज्यादा मवेशी भूख और बीमारियों से मर गए। जैसे-जैसे चरागाह कम होते गए, सूखे का असर और बढ़ता गया, जिससे चरवाहों के जानवरों की संख्या लगातार घटती गई।
3.4 सब पर एक जैसा असर नहीं पड़ा
औपनिवेशिक काल में मासाई समाज में बदलावों से सभी चरवाहों पर एक जैसा असर नहीं पड़ा। पहले मासाई समाज दो वर्गों में बँटा था—वरिष्ठ जन, जो शासन और फैसले लेते थे, और योद्धा, जो समुदाय की रक्षा करते और मवेशी छीनने के हमले करते थे। अंग्रेजों ने मुखिया नियुक्त कर इन परंपरागत भूमिकाओं को कमजोर कर दिया और लड़ाई-झगड़े पर रोक लगा दी।
समय के साथ मुखिया अमीर हो गए, जमीन और मवेशी खरीदने लगे, और व्यापार में शामिल हो गए। दूसरी ओर, गरीब चरवाहों के पास बुरे समय में संसाधन नहीं होते थे। अकाल और युद्ध में सब कुछ खोने पर उन्हें शहरों में मजदूरी करनी पड़ती थी।
इससे समाज में दो बड़े बदलाव आए—वरिष्ठ जन और योद्धाओं की पारंपरिक सत्ता कमजोर हो गई, और अमीर-गरीब चरवाहों के बीच नया भेदभाव पैदा हो गया।
निष्कर्ष
आधुनिक बदलावों ने चरवाहों की आवाजाही सीमित कर दी, चरागाह घटा दिए, और सूखे के समय उनकी समस्याएँ बढ़ा दीं। बंदिशों के कारण वे नए चरागाह नहीं खोज सकते थे, जिससे मवेशियों की मौतें बढ़ीं।
इसके बावजूद, चरवाहे बदलते समय के साथ खुद को ढालते हैं। वे रास्ते बदलते, जानवरों की संख्या घटाते, और सरकार पर अपने अधिकारों व मदद के लिए दबाव डालते हैं।
आज पर्यावरणविद और अर्थशास्त्री मानते हैं कि घुमंतू चरवाहों की जीवनशैली पहाड़ी और सूखे इलाकों में जीवन के लिए सबसे उपयुक्त है। चरवाहे अतीत के अवशेष नहीं, बल्कि आज की दुनिया का अहम हिस्सा हैं।