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सामाजिक न्याय Notes in Hindi Class 11 Political Science Chapter-4 Book 2 Social Justice samajik nyay

सामाजिक न्याय Notes in Hindi Class 11 Political Science Chapter-4 Book 2 Social Justice samajik nyay


न्याय के विभिन्न दृष्टिकोण

1. प्राचीन भारतीय संदर्भ में न्याय

2. कन्फ्यूशियस का दृष्टिकोण (चीन)

3. ग्रीक दृष्टिकोण

4. न्याय की आधुनिक समझ 


प्राचीन भारतीय संदर्भ में न्याय

न्याय और धर्म का संबंध:-

  • प्राचीन भारतीय समाज में न्याय को 'धर्म' के साथ जोड़ा गया। 
  • धर्म का मतलब सामाजिक और नैतिक व्यवस्था से था।

राजा का कर्तव्य:-

धर्म या न्यायोचित सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना राजा का प्राथमिक कर्तव्य माना गया। यह दर्शाता है कि न्याय का उद्देश्य समाज में संतुलन और नैतिकता बनाए रखना था।


कन्फ्यूशियस का दृष्टिकोण (चीन)

सजा और पुरस्कार की नीति:

कन्फ्यूशियस के अनुसार, राजा को न्याय स्थापित करने के लिए गलत करने वालों को दंडित करना चाहिए और अच्छे कार्य करने वालों को पुरस्कृत करना चाहिए।

नैतिकता पर बल:

कन्फ्यूशियस की सोच न्याय को नैतिकता और शासन की जिम्मेदारी के रूप में देखती है, जिसमें सजा और पुरस्कार संतुलन बनाए रखते हैं।


ग्रीक दृष्टिकोण

प्लेटो ने अपनी पुस्तक "द रिपब्लिक" में न्याय पर चर्चा की।

सुकरात के संवाद:

सुकरात ने न्याय को समाज में हर व्यक्ति के दीर्घकालिक हित से जोड़ा।

स्वार्थ और न्याय:

सुकरात ने समझाया कि यदि हर व्यक्ति केवल स्वार्थ के लिए कार्य करेगा और कानून तोड़ेगा, तो समाज में अराजकता फैल जाएगी।

सभी की भलाई:

  • न्याय केवल व्यक्तिगत हित तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज की भलाई से जुड़ा है। 
  • सुकरात ने बताया कि जैसे डॉक्टर सभी मरीजों की भलाई के लिए काम करता है, 
  • वैसे ही शासक को भी न्यायपूर्ण शासन करना चाहिए।


न्याय की आधुनिक समझ 

हर व्यक्ति को वाजिब हिस्सा (प्राप्य ) 

  • न्याय का अर्थ है हर व्यक्ति को उसका उचित अधिकार देना।
  • यह अवधारणा आज भी हमारी न्याय प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा है।


न्याय का सिद्धांत 


समान लोगों के साथ समान बर्ताव 

समान अधिकारों की आवश्यकता:  

हर व्यक्ति को समान अवसर और अधिकार मिलना चाहिए। 

चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग, धर्म या लिंग का हो, उसकी मानवीय गरिमा और अधिकारों का सम्मान होना चाहिए। 

यह विचार बहुत से मौलिक अधिकारों, जैसे जीवन, स्वतंत्रता, और संपत्ति के अधिकारों, से जुड़ा है। समाज में समान अवसर प्रदान करने के लिए इस सिद्धांत का पालन जरूरी है, ताकि हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार प्रगति कर सके।

जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव का विरोध जब हम यह कहते हैं कि दो व्यक्तियों को एक समान काम के लिए समान पारिश्रमिक मिलना चाहिए, तो इसका अर्थ यह है कि हमें भेदभाव को खत्म करके एक समान और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए। किसी व्यक्ति को उसकी जाति, धर्म या लिंग के आधार पर कम या ज्यादा वेतन मिलना गलत है। यह न केवल समाज में असंतुलन पैदा करता है, बल्कि यह उन मूलभूत मानवीय अधिकारों का उल्लंघन भी है, जिनका सम्मान हर इंसान को मिलना चाहिए।

समाज में समान अवसर:

  • समान अवसरों का अधिकार यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुसार फलने-फूलने का अवसर मिले। 
  • किसी को भी उसके कामकाजी जीवन में इस आधार पर भेदभाव नहीं सहना चाहिए कि वह किस जाति, लिंग, या वर्ग से संबंधित है। 
  • आज के समाज में जब समानता की बात की जाती है, तो इसका मतलब यह है कि हर किसी को अपनी मेहनत और कड़ी मेहनत के आधार पर ही पहचान और इनाम मिलना चाहिए।

महिलाओं और पुरुषों के बीच वेतन का भेद:

स्कूलों या अन्य क्षेत्रों में यदि पुरुष और महिला के लिए समान कार्य के लिए वेतन में भेद किया जाता है, तो यह स्पष्ट रूप से असमानता और अन्याय का उदाहरण है। महिलाओं को समान काम के लिए समान वेतन देने का सवाल न केवल कानूनी है, बल्कि यह समाज में समानता और न्याय स्थापित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

इस प्रकार, समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धांत और समान अधिकारों का आदान-प्रदान समाज में समानता और सामाजिक न्याय की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण है। 

यह न केवल कानूनी अधिकारों के बारे में है, बल्कि यह मानवीय गरिमा, सम्मान और आदर्शों का पालन करने की बात भी है।


लोगों की विशेष जरूरतों का ध्यान रखना

यह सिद्धांत न केवल समानता के विचार को आगे बढ़ाता है, बल्कि यह सुनिश्चित करता है कि समाज के सभी वर्गों को उनके विशिष्ट संदर्भ और जरूरतों के अनुसार न्याय मिले।

समानता और विशेष जरूरतों का संतुलन 

हर व्यक्ति की स्थिति समान नहीं होती। हर व्यक्ति की बुनियादी स्थिति, ज़रूरतें और संसाधन अलग होते हैं। 

उदाहरण - यदि एक व्यक्ति शारीरिक विकलांगता का सामना कर रहा है, तो उसे किसी दूसरे व्यक्ति की तुलना में अलग प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो सकती है। इसलिए, इस सिद्धांत के अनुसार, विशेष जरूरतों का ध्यान रखते हुए कुछ लोगों को विशेष सहायता देना जरूरी हो सकता है। यह केवल समानता का विस्तार नहीं, बल्कि उसकी व्यावहारिकता है, ताकि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी जरूरतों के अनुसार अवसर और संसाधन मिल सकें।

शारीरिक विकलांगता, उम्र और शिक्षा के आधार पर भेदभाव

  • विकलांग व्यक्तियों के लिए विशेष सुविधाएं या आरक्षण, या उम्रदराज लोगों के लिए स्वास्थ्य देखभाल की विशेष योजनाएं, ये सभी सिद्धांत के तहत न्यायसंगत हो सकते हैं। 
  • यह तब जरूरी हो जाता है, जब किसी वर्ग या समूह को समान अवसरों से वंचित होने के कारण विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है।

समाज में असमानता और न्यायपूर्ण वितरण

समाज में असमानताओं का एक बड़ा कारण शिक्षा, स्वास्थ्य, और अन्य बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच का अभाव है, और यही असमानता जाति आधारित सामाजिक भेदभाव से भी जुड़ी हुई है। 

इसलिए, समानता के सिद्धांत को लागू करने से पहले इस बात पर विचार करना जरूरी होता है कि क्या वे व्यक्ति न्यूनतम बुनियादी सुविधाओं का लाभ उठा पा रहे हैं या नहीं। अगर नहीं, तो उन्हें विशेष सहायता प्रदान करना आवश्यक है।

आरक्षण का प्रावधान

  • संविधान में SC , ST , OBC के लिए आरक्षण का उल्लेख किया है, आरक्षण यह सुनिश्चित करता है कि समाज के वंचित वर्ग अन्य समूहों के बराबरी के अवसर पा सकें, विशेषकर शिक्षा और सरकारी नौकरियों के क्षेत्रों में। 
  • यह पहल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर इन वर्गों को विशेष अवसर नहीं मिलते, तो समानता का सिद्धांत केवल एक आदर्श बनकर रह जाएगा, और वास्तविक समाज में असमानता बनी रहेगी।


न्यायपूर्ण बंटवारा 


संसाधनों का न्यायोचित वितरण -

सामाजिक न्याय का एक प्रमुख पक्ष संसाधनों का न्यायोचित वितरण है। जब समाज में गंभीर आर्थिक और सामाजिक असमानताएँ होती हैं, तो यह जरूरी हो जाता है कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों का पुनर्वितरण किया जाए, ताकि सभी नागरिकों को समान अवसर मिल सकें और वे अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।

भारत में संविधान ने छुआछूत की प्रथा को समाप्त करने का आदेश दिया और यह सुनिश्चित किया कि सभी जातियों के लोग समान रूप से मंदिरों में प्रवेश कर सकें, सरकारी नौकरियों में अवसर पा सकें और बुनियादी सुविधाओं का लाभ उठा सकें। 

यह कदम सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण था, क्योंकि इससे वंचित जातियों को समानता का अनुभव हुआ और उनके अधिकारों का सम्मान किया गया।

शिक्षा और नौकरियों में समान पहुँच -

भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में आरक्षण की नीतियाँ समाज के वंचित वर्गों, जैसे अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST), और अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

हालांकि, ये नीतियाँ अक्सर समाज में मत-भिन्नता और संघर्ष उत्पन्न करती हैं, विशेष रूप से तब जब लोग महसूस करते हैं कि उनकी योग्यता या क्षमता को उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। शिक्षा और नौकरी में आरक्षण से अक्सर हिंसा और किसी वर्ग के भविष्य के प्रति भय उत्पन्न हो सकता है। यह एक संवेदनशील मुद्दा है, जो समाज में गहरी भावनाएँ और तनाव उत्पन्न करता है।

समाज में संसाधनों का वितरण और समान अवसर को लेकर मत-भिन्नता और विरोध स्वाभाविक हैं, क्योंकि अलग-अलग लोग अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखते हैं कि समाज में समानता और न्याय किस प्रकार लागू किया जाए। राजनीतिक सिद्धांतों में इस बात पर बहस हो रही है कि क्या वंचित वर्गों को विशेष सहायता देने के लिए आरक्षण जैसी नीतियाँ न्यायसंगत हैं या नहीं, और यदि हां, तो क्या वे समाज में सामूहिक विकास को बढ़ावा देती हैं या इससे असंतोष और असमानता बढ़ती है।


जॉन रोल्स का न्याय सिद्धांत  

'अज्ञानता के आवरण' 


जॉन रॉल्स कहते हैं कि हम खुद को ऐसी परिस्थिति में होने की कल्पना करें जहाँ हमें यह निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित किया जाए। 

जबकि हमें यह ज्ञात नहीं है कि उस समाज में हमारी क्या जगह होगी। 

अर्थात् हम नहीं जानते कि किस किस्म के परिवार में हम जन्म लेंगे, हम 'उच्च' जाति के परिवार में पैदा होंगे या 'निम्न' जाति में, धनी होंगे या गरीब, सुविधा संपन्न होंगे या सुविधाहीन। 

रॉल्स तर्क देते हैं कि अगर हमें यह नहीं मालूम हो, इस मायने में, कि हम कौन होंगे और भविष्य के समाज में हमारे लिए कौन से विकल्प खुले होंगे, तब हम भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय का समर्थन करेंगे, वह तमाम सदस्यों के लिए अच्छा होगा।

रॉल्स ने इसे 'अज्ञानता के आवरण' में सोचना कहा है। 

वे आशा करते हैं कि समाज में अपने संभावित स्थान और हैसियत के बारे में पूर्ण अज्ञानता की हालत में हर आदमी, अपने खुद के हितों को ध्यान में रखकर फैसला करेगा। क्योंकि  कोई नहीं जानता कि वह कौन होगा और उसके लिए क्या लाभप्रद होगा, इसलिए हर कोई सबसे बुरी स्थिति के मद्देनजर समाज की कल्पना करेगा। 

खुद के लिए सोच-विचार कर सकने वाले व्यक्ति के सामने यह स्पष्ट रहेगा कि जो जन्म से सुविधा संपन्न हैं वे कुछ विशेष अवसरों का उपभोग करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य से यदि उनका जन्म समाज के वंचित तबके में हो जहाँ वैसा कोई अवसर न मिले, तब क्या होगा इसलिए, अपने स्वार्थ में काम करने वाले हर व्यक्ति के लिए यही उचित होगा कि वह संगठन के ऐसे नियमों के बारे में सोचे जो कमजोर तबके के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सके। इस प्रयास से दिखेगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन सभी लोगों को प्राप्त हों चाहे वे उच्च वर्ग के हो या न हों।


सामाजिक न्याय का अनुसरण  

अगर  किसी समाज में बेहिसाब धन-दौलत वालों तथा बहिष्कृत और वंचितों के बीच गहरा विभाजन मौजूद है तो हम कहेंगे कि वहाँ सामाजिक न्याय का अभाव है।

उस समाज को अन्यायपूर्ण ही माना जायेगा, जहाँ अमीर और गरीब के बीच गहरी खाई  हो, जहाँ वे बिल्कुल भिन्न-भिन्न दुनिया में रहने वाले लगें और जहाँ वंचितों को अपनी स्थिति सुधारने का कोई मौका न मिले, चाहे वे कितना भी कठिन श्रम क्यों न करें।

दूसरे शब्दों में, न्यायपूर्ण समाज को लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ जरूर मुहैया करानी चाहिए, ताकि वे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन जीने में सक्षम हो सकें, समाज में अपनी प्रतिभा का विकास करें तथा इसके साथ समान अवसरों के जरिये अपने चुने हुए लक्ष्य की ओर बढ़ें।

बुनियादी आवश्यकता - 

  • भोजन , आवास, 
  • शुद्ध पेयजल, 
  • शिक्षा 
  • न्यूनतम मजदूरी 
  • स्वास्थ्य सुविधा 


मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप 

मुक्त बाजार के समर्थकों का मानना है कि जहाँ तक संभव हो, व्यक्तियों को संपत्ति अर्जित करने के लिए तथा मूल्य, मजदूरी और मुनाफे के मामले में दूसरों के साथ अनुबंध और समझौतों में शामिल होने के लिए स्वतंत्र रहना चाहिए। 

उन्हें लाभ की अधिकतम मात्रा हासिल करने हेतु एक दूसरे के साथ प्रतिद्वंद्विता करने की छूट होनी चाहिए। 

मुक्त बाजार के समर्थक मानते हैं कि अगर बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया जाए, तो बाज़ारी कारोबार का योग कुल मिलाकर समाज में लाभ और कर्तव्यों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित कर देगा। 

इससे योग्यता और प्रतिभा से लैस लोगों को अधिक प्रतिफल मिलेगा जबकि अक्षम लोगों को कम हासिल होगा। 

उनकी मान्यता है कि बाजारी वितरण का जो भी परिणाम हो, वह न्यायसंगत होगा।

मुक्त बाजार के सभी समर्थक आज पूर्णतया अप्रतिबंधित बाजार का समर्थन नहीं करेंगे। 

कई लोग अब कुछ प्रतिबंध स्वीकार करने को तैयार होंगे। 


राज्य का हस्तक्षेप 

सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन-मानक सुनिश्चित करने हेतु राज्य हस्तक्षेप करें, ताकि वे समान शर्तों  पर प्रतिस्पर्धा करने में समर्थ हो सकें।

राज्य की नीतियाँ इन सेवाओं को खरीदने के लिए लोगों को सशक्त बनाने की कोशिश करें। 

राज्य के लिए यह भी जरूरी हो सकता है, कि वह उन वृद्धों और रोगियों को विशेष सहायता प्रदान करें, जो प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। 

लेकिन इसके आगे राज्य की भूमिका नियम-कानून का ढाँचा बरकरार रखने तक ही सीमित रहनी चाहिए, जिससे व्यक्तियों के बीच जबरदस्ती और अन्य बाधाओं से मुक्त प्रतिद्वंद्विता सुनिश्चित हो।

उनका मानना है कि मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है। कहा जाता है कि बाजार किसी व्यक्ति की जाति या धर्म की परवाह नहीं करता। 

वह यह भी नहीं देखता कि आप मर्द हैं या औरत। 

वह इन सबसे निरपेक्ष रहता है और उसका सरोकार आपकी प्रतिभा और कौशल से है। 

अगर आपके पास योग्यता है तो बाकी सब बातें बेमानी हैं।

बाजारी वितरण के पक्ष में एक तर्क यह दिया जाता है, कि यह हमें ज्यादा विकल्प प्रदान करता है। 

इसमें शक नहीं कि बाजार प्रणाली उपभोक्ता के तौर पर हमें ज्यादा विकल्प देती है। 

हम जैसा चाहें वैसा चावल पसंद कर सकते हैं और पसंदीदा स्कूल जा सकते हैं, बशर्ते उनकी कीमत चुकाने के लिए हमारे पास साधन हों।

लेकिन, बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में महत्त्वपूर्ण बात यह है, कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। 

यदि निजी एजेंसियाँ इसे अपने लिए लाभदायक नहीं पाती हैं, तो वे उस खास बाजार में प्रवेश नहीं करेंगी अथवा सस्ती और घटिया सेवाएँ मुहैया कराएगी। 

यही वजह है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में बहुत कम निजी विद्यालय हैं और कुछ खुले भी हैं, तो वे निम्नस्तरीय हैं।

स्वास्थ्य सेवा और आवास के मामले में भी सच यही है। 

इन परिस्थितियों में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है।

मुक्त बाज़ार और निजी उद्यम के पक्ष में अक्सर सुनने में आने वाला दूसरा तर्क यह है कि वे जो सेवाएँ मुहैया कराते हैं, उनकी गुणवत्ता सरकारी संस्थानों द्वारा प्रदत्त सेवाओं से प्रायः बेहतर होती है। लेकिन इन सेवाओं की कीमत उन्हें गरीब लोगों की पहुँच से बाहर कर दे सकती है। 

निजी व्यवसाय वहीं जाना चाहता है, जहाँ उसे सबसे ज्यादा मुनाफा मिले और इसीलिए मुक्त बाज़ार ताकतवर, धनी और प्रभावशाली लोगों के हित में काम करने को प्रवृत्त होता है। 

इसका परिणाम अपेक्षाकृत कमजोर और सुविधाहीन लोगों के लिए अवसरों का विस्तार करने के बजाय अवसरों से वंचित करना हो सकता है।


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