नागरिकता Notes in Hindi Class 11 Political Science Chapter-6 Book 2 citizenship nagarikata
0Team Eklavyaजनवरी 14, 2025
नागरिकता क्या हैं ?
किसी राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में की गई है।
नागरिकता की परिभाषा किसी राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में की गई है।
समकालीन विश्व में राष्ट्रों ने अपने सदस्यों को एक सामूहिक राजनीतिक पहचान के साथ-साथ कुछ अधिकार भी प्रदान किए हैं।
इसलिए हम संबद्ध राष्ट्र के आधार पर अपने को भारतीय, जापानी या जर्मन मानते हैं। नागरिक अपने राष्ट्र से कुछ बुनियादी अधिकारों के अलावा कहीं भी यात्रा करने में सहयोग और सुरक्षा की अपेक्षा रखते हैं।
किसी राष्ट्र के संपूर्ण सदस्य होने का महत्त्व तब ठीक-ठीक समझ में आ सकता है, जब हम दुनिया भर में उन हज़ारों लोगों की स्थिति के बारे में सोचते हैं, जो दुर्भाग्यवश शरणार्थी और अवैध प्रवासियों के रूप में रहने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि उन्हें कोई राष्ट्र अपनी सदस्यता देने के लिए तैयार नहीं है।
ऐसे लोगों को कोई राष्ट्र अधिकारों की गारंटी नहीं देता और वे आम तौर पर असुरक्षित हालत में जीवनयापन करते हैं।
मनपसंद राष्ट्र की पूर्ण सदस्यता उनके लिए ऐसा लक्ष्य है जिसके लिए वे संघर्ष करने को तैयार हैं, जैसा कि आज हम मध्यपूर्व के फिलिस्तीनी शरणार्थियों के मामले में देखते हैं।
नागरिकों को दिए गए अधिकारों की सुस्पष्ट प्रकृति विभिन्न राष्ट्रों में भिन्न-भिन्न हो सकती है, लेकिन अधिकतर लोकतांत्रिक देशों ने आज उनमें कुछ राजनीतिक अधिकार शामिल किये हैं।
मतदान , चुनाव लड़ने का अधिकार , राजनीतिक दल बनाने का अधिकार अभिव्यक्ति या आस्था की आजादी
जैसे - नागरिक अधिकार और न्यूनतम मजदूरी या शिक्षा पाने से जुड़े कुछ सामाजिक-आर्थिक अधिकार।
समान नागरिकता के लिए संघर्ष
1. राजतंत्रों के खिलाफ संघर्ष
2. फ्रांसीसी क्रांति
3. एशिया में उपनिवेश के खिलाफ समान नागरिकता के लिए संघर्ष
4. अफ्रीका में उपनिवेश के खिलाफ समान नागरिकता के लिए संघर्ष
दक्षिण अफ्रीका में समान नागरिकता पाने के लिए अफ्रीका की अश्वेत आबादी को सत्तारूढ़ गोरे अल्पसंख्यकों के खिलाफ लंबा संघर्ष करना पड़ा।
यह संघर्ष 1990 के दशक के आरंभ तक जारी रहा।
पूर्ण सदस्यता और समान अधिकार पाने का संघर्ष विश्व के कई हिस्सों में आज भी जारी है।
Example - महिला आंदोलन और दलित आंदोलन
उद्देश्य - अपनी जरूरतों की ओर ध्यान आकृष्ट कर जनमत बदलना, साथ ही समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नीतियों को प्रभावित करना।
संपूर्ण और समान सदस्यता
अगर आपने कभी भीड़ भरे रेल के डिब्बे या बस में सफर किया है तो आप इस चलन से अवगत होंगे कि वे लोग, जो प्रवेश पाने के लिए पहले शायद एक-दूसरे से लड़ पड़े थे, अंदर पहुँचते ही दूसरों को बाहर रखने के साझे स्वार्थ में शामिल हो जाते हैं। जल्दी ही 'भीतरी' और 'बाहरी' का विभाजन उभर आता है और 'बाहरी' को खतरे के रूप में देखा जाने लगता है।
अगर आजीविका, चिकित्सा या शिक्षा जैसी सुविधाएँ और जल-जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधन सीमित हों, तब 'बाहरी' लोगों के प्रवेश को रोकने की माँग उठने की संभावना रहती है, भले ही वे सहनागरिक क्यों न हों।
आपको 'मुंबई मुंबईकर (मुंबई वाले) के लिए’ का नारा शायद याद हो, जिससे ऐसी भावनाएँ प्रकट हुई। भारत और विश्व के विभिन्न हिस्सों में इस तरह के अनेक संघर्ष होते आये हैं।
इससे यह प्रश्न उठता है कि आखिर 'संपूर्ण और समान सदस्यता' का असली अर्थ क्या है?
क्या इसका अर्थ यह होता है कि नागरिकों को देश में जहाँ भी चाहें रहने, पढ़ने या काम करने का समान अधिकार और अवसर मिलना चाहिए ? या सभी अमीर-गरीब नागरिकों को कुछ बुनियादी अधिकार और सुविधाएँ मिलनी चाहिए?
अपने देश और अन्य अनेक देशों में नागरिकों को प्राप्त अधिकारों में एक है गमनागमन की स्वतंत्रता। ( पूरे देश में कही भी आने जाने की स्वतंत्रता )
यह अधिकार कामगारों के लिए विशेष महत्त्व का है। क्योंकि गृहक्षेत्र में अवसर उपलब्ध नहीं होने पर कामगार रोजगार की तलाश में आप्रवास की ओर प्रवृत्त होते हैं।
रोजगार की तलाश में कुछ लोग देश के बाहर भी जाते हैं।
हमारे देश के विभिन्न हिस्से में कुशल और अकुशल मजदूरों के लिए बाजार विकसित हुए हैं।
उदाहरण - सूचना तकनीक के अधिकतर कर्मी बंगलोर जैसे शहरों की ओर उमड़ते हैं।
केरल की नर्स पूरे देश में कहीं भी मिल सकती हैं।
शहरों में तेजी से पनपता भवन-निर्माण उद्योग देश के विभिन्न हिस्सों के श्रमिकों को आकर्षित करता है।
अधिक संख्या में रोजगार बाहर के लोगों के हाथ में जाने के खिलाफ अक्सर स्थानीय लोगों में प्रतिरोध की भावना पैदा हो जाती है।
कुछ नौकरियों या कामों को राज्य के मूल निवासियों या स्थानीय भाषा को जानने वाले लोगों तक सीमित रखने की माँग उठती है।
राजनीतिक पार्टियाँ यह मुद्दा उठाती हैं।
यह प्रतिरोध 'बाहरी' के खिलाफ संगठित हिंसा का भी रूप ले लेता है।
भारत के लगभग सभी क्षेत्र इस तरह के आंदोलनों से गुजर चुके हैं।
समान अधिकार
क्या पूर्ण और समान नागरिकता का अर्थ यह है कि राजसत्ता द्वारा सभी नागरिकों को, चाहे वे अमीर या गरीब हों कुछ बुनियादी अधिकारों और न्यूनतम जीवन स्तर की गारंटी दी जानी चाहिए ?
इस मुद्दे पर विचार करने के लिए हम खास वर्ग के लोगों पर नजर डालेंगे, यानी शहरी गरीबों पर।
शहरी गरीबों से संबंधित समस्या उन समस्याओं में से एक है, जो सरकार के सामने मुँह बाये खड़ी हैं।
भारत के हर शहर में बहुत बड़ी आबादी झोपड़पट्टियों और अवैध कब्जे की जमीन पर बसे लोगों की है।
ये लोग उपयोगी काम अक्सर कम मजदूरी पर करते हैं फिर भी शहर की बाकी आबादी उन्हें अवांछनीय मेहमान की तरह देखती है।
उन पर शहर के संसाधनों पर बोझ बनने या अपराध और बीमारी फैलाने का आरोप लगाया जाता है।
गन्दी बस्तियां
गंदी बस्तियों की स्थिति बहुत बेकार होती हैं।
छोटे-छोटे कमरों में कई-कई लोग रहते हैं।
यहाँ न निजी शौचालय होता है, न जलापूर्ति और न सफाई।
गंदी बस्तियों में जीवन और संपत्ति असुरक्षित होते हैं।
झोपड़पट्टियों के निवासी अपने श्रम से अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान करते हैं।
अन्य पेशों के बीच ये फेरीवाले, छोटे व्यापारी, सफाईकर्मी या घरेलू नौकर, नल ठीक करने वाले या मिस्त्री होते हैं।
झोपड़पट्टियों में बुनाई या कपड़ा रंगाई-छपाई या सिलाई जैसे छोटे कारोबार भी चलते हैं।
झोपड्पट्टियों के निवासियों को सफाई या जलापूर्ति जैसी सुविधाएँ मुहैया कराने पर संभवतः कोई भी शहर अपेक्षाकृत कम खर्च करता है।
शहरी गरीबों की हालत के प्रति सरकार, स्वयंसेवी संगठन और अन्य एजेंसियों सहित स्वयं झोपड़पट्टी के निवासियों में भी जागरूकता बढ़ रही है।
मिसाल के तौर पर, जनवरी 2004 में फुटपाथी दुकानदारों के लिए एक राष्ट्रीय नीति तैयार की गयी।
बड़े शहरों में लाखों फुटपाथी दुकानदार है और उनको अक्सर पुलिस और नगर प्रशासकों का उत्पीड़न झेलना पड़ता है।
इस नीति का मकसद विक्रेताओं को मान्यता और नियमन प्रदान करना था ताकि उन्हें सरकारी नियमों के अनुपालन के दायरे में उत्पीड़न से मुक्त कारोबार चलाने की शक्ति हासिल हो।
आदिवासी और वनवासी
हमारे समाज में हाशिए पर ठेले जा रहे अन्य इन्सानी समूहों में आदिवासी और वनवासी शामिल हैं।
ये लोग अपने जीवनयापन के लिए जंगल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं।
बढ़ती आबादी और जमीन और संसाधनों की कमी के दबाव के कारण उनमें से अनेक की जीवन-पद्धत्ति और आजीविका संकट में है।
जंगल और तराई-क्षेत्र में मौजूद खनिज संसाधनों की खनन करने के इच्छुक उद्यमियों के हितों का दबाव आदिवासी और वनवासी लोगों की जीवन पद्धत्ति और आजीविका पर एक अन्य खतरा है।
पर्यटन उद्योग भी यही कर रहा है। सरकारें इस सवाल से जूझ रही हैं कि देश के विकास को खतरे में डाले बगैर इन लोगों और इनके रहवास की सुरक्षा कैसे करें ?
सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर देने पर विचार करना और सुनिश्चित करना किसी सरकार के लिए आसान मामला नहीं होता।
विभिन्न समूह के लोगों की जरूरत और समस्याएँ अलग-अलग हो सकती हैं और एक समूह के अधिकार दूसरे समूह के अधिकारों के प्रतिकूल हो सकते हैं।
नागरिकों के लिए समान अधिकार का मतलब यह नहीं होता कि सभी लोगों पर समान नीतियाँ लागू कर दी जाएँ, क्योंकि विभिन्न समूह के लोगों की जरूरतें भिन्न-भिन्न हो सकती हैं।
अगर प्रयोजन सिर्फ़ ऐसी नीति बनाना नहीं है, जो सभी लोगों पर एक तरह से लागू हो बल्कि लोगों को अधिक बराबरी पर लाना है, तो नीतियाँ तैयार करते वक्त लोगों की विभिन्न ज़रूरतों और दावों का ध्यान रखना होगा।
नागरिक और राष्ट्र
राष्ट्र राज्य की अवधारणा आधुनिक काल में विकसित हुई।
राष्ट्र राज्य का विकास:
आधुनिक काल में विकसित हुआ।
पहली बार 1789 में फ्रांस के क्रांतिकारियों ने संप्रभुता और लोकतांत्रिक अधिकारों का दावा किया।
राष्ट्रीय पहचान:
राष्ट्रगान, झंडा, भाषा, और संस्कृति जैसे प्रतीक राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा हैं।
आधुनिक राष्ट्र-राज्य में विभिन्न धर्म, भाषा, और सांस्कृतिक परंपराओं के लोग सम्मिलित होते हैं।
लोकतांत्रिक समावेशिता:
लोकतांत्रिक राज्यों में सभी नागरिकों को समावेशी पहचान देने का प्रयास होता है।
लेकिन व्यवहार में यह प्रक्रिया कुछ समूहों के लिए कठिन होती है।
नागरिकता और समावेशिता:
फ्रांस का उदाहरण:
फ्रांस धर्मनिरपेक्ष और समावेशी होने का दावा करता है।
नागरिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे सार्वजनिक जीवन में फ्रांसीसी भाषा-संस्कृति को अपनाएँ।
धार्मिक प्रतीकों के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश पर विवाद।
विभिन्न देशों के नियम:
इज़राइल और जर्मनी:
नागरिकता देने में धर्म और जातीयता को वरीयता।
जर्मनी में तुर्की मजदूरों के बच्चों की नागरिकता का विवाद।
भारत में नागरिकता:
धर्मनिरपेक्ष और समावेशी दृष्टिकोण:
स्वतंत्रता आंदोलन ने विविधता को अपनाया।
संविधान ने विविध समाज को समायोजित करने का प्रयास किया।
अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाओं, और अन्य समुदायों को समान अधिकार दिए।
संविधान के प्रावधान:
नागरिकता प्राप्त करने के तरीके: जन्म, वंश, पंजीकरण, देशीकरण, और राज्यक्षेत्र में समावेश।
धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकार संरक्षित।
संवैधानिक अधिकार और कर्तव्य:
भेदभाव के खिलाफ प्रावधान।
गणतंत्र दिवस पर विविधता का प्रदर्शन समावेशिता को दर्शाता है।
सार्वभौमिक नागरिकता
शरणार्थी अवैध आप्रवासी राज्यविहीन लोग जब हम शरणार्थियों या अवैध आप्रवासियों के बारे में सोचते हैं तो मन में अनेक छवियाँ उभरती हैं।
1. एशिया या अफ्रीका के लोग जो यूरोप या अमेरिका में जाना चाहते हों
2. युद्ध या अकाल से विस्थापित लोग
अक्सर टेलीविजन पर दिखाई जाती है।
सूडान के डरफर क्षेत्र के शरणार्थी, फिलीस्तीनी, बर्मी या बंगलादेशी शरणार्थी जैसे कई उदाहरण है।
ये सभी ऐसे लोग हैं जो अपने ही देश या पड़ोसी देश में शरणार्थी बनने के लिए मजबूर किये गये हैं।
नागरिकता और राष्ट्रीय सीमाएँ:
नागरिकता के नियम:
देश अपनी सीमाएँ सुरक्षित रखने और अवांछित प्रवासियों को बाहर रखने के लिए कानून और प्रतिबंध लागू करते हैं।
नागरिकता देने के लिए संविधान और कानूनों में प्रावधान।
भारत का उदाहरण:
उत्पीड़ित लोगों को आश्रय देने की नीति।
1959 में दलाई लामा और उनके अनुयायियों को शरण दी गई।
सीमावर्ती देशों से अवैध प्रवासियों का लगातार प्रवेश।
चुनौतियाँ:
लोकतांत्रिक नागरिकता का वायदा पूरा करना मुश्किल।
राज्यविहीन लोगों की पहचान और अधिकार सुनिश्चित करना कठिन।
प्रतिबंध, दीवार और बाड़ लगाने के बावजूद आज भी दुनिया में बड़े पैमाने पर लोगों का देशांतरण होता है।
युद्ध, उत्पीड़न, अकाल या अन्य कारणों से लोग विस्थापित होते हैं।
अगर कोई देश उन्हें स्वीकार करने के लिए राजी नहीं होता और वे घर नहीं लौट सकते तो वे राज्यविहीन या शरणार्थी हो जाते हैं।
वे शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में रहने के लिए मजबूर किए जाते हैं।
अक्सर वे कानूनी तौर पर काम नहीं कर सकते या अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकते या संपत्ति अर्जित नहीं कर सकते। समस्या इतनी विकराल है कि संयुक्त राष्ट्र ने शरणार्थियों की जाँच करने और मदद करने के लिए उच्चायुक्त नियुक्त किया हुआ है।
नागरिक के रूप में कितने लोगों को अंगीकार किया जा सकता है.इस सवाल पर फ़ैसला करना अनेक देशों के लिए कठिन मानवीय और राजनीतिक समस्या बनी हुई है। अनेक देशों में युद्ध वा उत्पीड़न से पलायन करने वाले लोगों को अंगीकार करने की नीति है। लेकिन वे भी लोगों को अनियंत्रित भीड़ को स्वीकर करना या सुरक्षा के संदर्भ में देश को जोखिम में डालना नहीं चाहेंगे।
भारत उत्पीड़ित लोगों को आश्रय उपलब्ध कराने पर गर्व करता है।
ऐसा भारत ने 1959 में दलाई लामा और उनके अनुयायियों के लिए किया।
भारतीय राष्ट्र की सभी सीमाओं से पड़ोसी देशों के लोगों का प्रवेश हुआ है और यह प्रक्रिया जारी है।
इनमें से अनेक लोग वर्षों तक राज्यहीन व्यक्तियों के रूप में पड़े रहते है - शिविरों में या अवैध प्रवासी के रूप में।
अंततः इनमें से अपेक्षाकृत कुछ को ही नागरिकता प्राप्त होती है।
ऐसी समस्याएँ लोकतांत्रिक नागरिकता के उस वायदे को चुनौती देती है, जो यह कहता है कि समकालीन विश्व में सभी लोगों को नागरिक की पहचान और अधिकार उपलब्ध होने चाहिए। अनेक लोग अपनी पसंद के देश की नागरिकता हासिल नहीं कर सकते, उनके लिए अपनी पहचान का विकल्प भी नहीं होता।
राज्यहीन लोगों का सवाल आज विश्व के लिए गंभीर समस्या बन गया है। राष्ट्रों की सीमाएँ अभी भी युद्ध या राजनीतिक विवादों के जरिये पुनर्परिभाषित की जा रही हैं और ऐसे विवादों से घिरे लोगों के लिए इनके परिणाम घातक होते हैं। वे अपने घर, राजनीतिक पहचान और सुरक्षा गँवाते हैं और देशांतरण के लिए मजबूर किए जाते हैं।
विश्व नागरिकता
विश्व नागरिकता की अवधारणा, उसके महत्व कैसे वैश्विक संचार और आपसी जुड़ाव ने विश्व नागरिकता की धारणा को बल दिया है
आधुनिक युग में वैश्विक जुड़ाव:
संचार के नए साधन:
इंटरनेट, टेलीविज़न, और सेलफोन ने दुनिया को जोड़ दिया है।
किसी घटना की जानकारी अब तुरंत उपलब्ध हो जाती है, जिससे विश्व के विभिन्न हिस्सों के लोग आपस में जुड़े महसूस करते हैं।
साझा सहानुभूति:
युद्धों, आपदाओं और अन्य घटनाओं ने विश्व के लोगों में सहानुभूति और साझे सरोकार को विकसित किया है।
एशिया की सुनामी जैसी आपदाओं में वैश्विक सहयोग इसका उदाहरण है।
विश्व नागरिकता की धारणा:
राष्ट्रीय नागरिकता के मुकाबले:
राष्ट्रीय नागरिकता सुरक्षा और अधिकार देती है, लेकिन यह समस्याओं को सीमित दृष्टिकोण से देखती है।
आज की वैश्विक समस्याओं के समाधान के लिए राज्यसत्ता का सहयोग पर्याप्त नहीं है।
विश्व नागरिकता के लाभ:
राष्ट्रीय सीमाओं से परे की समस्याओं जैसे प्रवासी और राज्यविहीन लोगों के अधिकारों का समाधान।
बुनियादी मानव अधिकार और सुरक्षा सुनिश्चित करना, चाहे लोग किसी भी देश में रहें।
संयुक्त कार्रवाई की आवश्यकता:
कई समस्याओं का समाधान राष्ट्रीय सरकारें अकेले नहीं कर सकतीं।
विश्व नागरिकता विभिन्न देशों और सरकारों के बीच समन्वय को बढ़ावा देती है।
वैश्विक दृष्टिकोण की आवश्यकता:
विश्व नागरिकता हमें याद दिलाती है कि हम एक अंतर्संबद्ध विश्व में रहते हैं।
राष्ट्रीय नागरिकता को वैश्विक जिम्मेदारियों और साझेदारी के साथ जोड़ने की जरूरत है।