निर्धनता : एक चुनौती Notes in Hindi Class 9 Arthashastra Chapter-3 Book 1 Poverty: A Challenge
0Team Eklavyaजनवरी 10, 2025
परिचय
हम अपने दैनिक जीवन में ऐसे कई लोगों से मिलते हैं, जो निर्धनता में जीवन बिताते हैं। ये लोग गाँवों के भूमिहीन मजदूर, शहरों की झुग्गियों में रहने वाले, निर्माण स्थलों पर काम करने वाले मजदूर या ढाबों पर काम करने वाले बाल-श्रमिक हो सकते हैं। भिखारियों के रूप में दिखने वाले ये लोग हमारे आसपास निर्धनता की स्पष्ट तस्वीर पेश करते हैं।
भारत में हर पाँचवां व्यक्ति निर्धन है। वर्ष 2011-12 के अनुसार, लगभग 27 करोड़ लोग गरीबी में जीवन जी रहे थे। यह संख्या विश्व में सबसे अधिक है और भारत में गरीबी की गंभीर चुनौती को दर्शाती है।
निर्धनता के दो विशिष्ट मामले
निर्धनता के कई पहलू हैं, जैसे भूख, रहने की जगह की कमी, और हालात जहाँ माता-पिता बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते या बीमार लोग इलाज नहीं करवा पाते। यह साफ पानी, सफाई, और नियमित काम की कमी को भी दिखाता है। निर्धनता का मतलब है बुनियादी जीवन स्तर और सम्मान की कमी के साथ जीना।
गरीब लोग हर जगह, जैसे खेतों, फैक्ट्रियों, सरकारी दफ्तरों, अस्पतालों, और रेलवे स्टेशनों पर दुर्व्यवहार सहते हैं। ऐसी स्थिति में कोई नहीं रहना चाहता। करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर निकालना आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी चुनौती रही है। महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत तभी सच में आजाद होगा जब सबसे गरीब व्यक्ति भी दुख और तकलीफ से मुक्त होगा।
सामाजिक वैज्ञानिकों की दृष्टि में निर्धनता
निर्धनता के कई पहलू हैं, जिन्हें सामाजिक वैज्ञानिक आय, उपभोग, निरक्षरता, कुपोषण, स्वास्थ्य सेवाओं, रोजगार के अवसरों, सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता की कमी जैसे सूचकों से मापते हैं। अब निर्धनता का विश्लेषण सामाजिक अपवर्जन और असुरक्षा के आधार पर भी आम हो गया है।
निर्धनता रेखा
निर्धनता का आकलन आमतौर पर 'निर्धनता रेखा' की अवधारणा पर आधारित होता है, जो न्यूनतम आय या उपभोग स्तर को दर्शाती है, जिससे व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा कर सके। यह आवश्यकताएँ समय और स्थान के अनुसार बदलती हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में कार न होना निर्धनता मानी जाती है, जबकि भारत में इसे विलासिता समझा जाता है। भारत में निर्धनता रेखा तय करते समय खाद्य, कपड़े, जूते, ईंधन, शिक्षा, और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों पर विचार किया जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रतिदिन की जरूरत को आधार बनाकर खर्च का आकलन किया जाता है। 2011-12 में, निर्धनता रेखा ग्रामीण क्षेत्रों में 816 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 1000 रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिमाह तय की गई थी। शहरी क्षेत्रों में अधिक लागत के कारण यह राशि ज्यादा होती है। पाँच सदस्यों के परिवार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में 4,080 रुपये और शहरी क्षेत्रों में 5,000 रुपये प्रतिमाह की न्यूनतम आय की जरूरत थी। निर्धनता रेखा का आकलन हर पाँच साल में राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा किया जाता है। वैश्विक तुलना के लिए, विश्व बैंक $1.9 प्रतिदिन के न्यूनतम स्तर को मानक मानता है।
निर्धनता के अनुमान
तालिका 3.1 से पता चलता है कि भारत में निर्धनता अनुपात में समय के साथ काफी गिरावट आई है। वर्ष 1993-94 में यह लगभग 45% था, जो 2004-05 में घटकर 37.2% हो गया। 2011-12 में निर्धनता रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का अनुपात और गिरकर 22% हो गया। यदि यही प्रवृत्ति जारी रही, तो आने वाले वर्षों में यह संख्या 20% से भी कम हो सकती है। हालांकि निर्धनता अनुपात में गिरावट देखी गई, निर्धन लोगों की संख्या भी 2004-05 में 407 मिलियन से घटकर 2011-12 में 270 मिलियन हो गई। इस अवधि (2004-05 से 2011-12) के बीच निर्धनता में औसतन 2.2% प्रति वर्ष की गिरावट दर्ज की गई।
असुरक्षित समूह
भारत में निर्धनता रेखा से नीचे रहने वाले लोगों का अनुपात सभी सामाजिक और आर्थिक समूहों में समान नहीं है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के परिवार निर्धनता के प्रति सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। आर्थिक रूप से, ग्रामीण कृषि श्रमिक और शहरी अनियमित मजदूर परिवार सबसे कमजोर हैं। भारत में औसतन 22% लोग निर्धनता रेखा से नीचे हैं, लेकिन अनुसूचित जनजातियों में यह 43% है। शहरी क्षेत्रों में 34% अनियमित मजदूर और ग्रामीण क्षेत्रों में 34% कृषि श्रमिक तथा 29% अनुसूचित जातियाँ निर्धन हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति के भूमिहीन दिहाड़ी मजदूर होना उनकी मुश्किलों को और बढ़ा देता है।
1990 के दशक में अनुसूचित जनजाति को छोड़कर अन्य समूहों (अनुसूचित जाति, ग्रामीण कृषि श्रमिक और शहरी अनियमित मजदूर) में निर्धनता में कमी आई है। इसके अलावा, निर्धन परिवारों में भी आय असमानता है। इन परिवारों में सभी को कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, लेकिन महिलाएँ, वृद्ध लोग और बच्चियाँ अक्सर परिवार के संसाधनों से वंचित रह जाती हैं।
अंतर्राज्यीय असमानताएँ
भारत में राज्यों में निर्धनता का स्तर समान नहीं है। 2011-12 में भारत का निर्धनता अनुपात 22% था, लेकिन बिहार (33.7%) और ओडिशा (32.6%) जैसे राज्यों में यह अधिक था। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, और असम में भी राष्ट्रीय औसत से अधिक निर्धनता थी।
इसके विपरीत, केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात, और पश्चिम बंगाल में निर्धनता में बड़ी कमी आई। पंजाब और हरियाणा ने कृषि विकास से निर्धनता घटाई, जबकि केरल ने मानव विकास, पश्चिम बंगाल ने भूमि सुधार, और तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश ने अनाज वितरण से सुधार किया।
वैश्विक निर्धनता परिदृश्य
विश्व बैंक की परिभाषा ($2.15/दिन से कम पर जीवन) के अनुसार, वैश्विक निर्धनता 2010 में 16.27% से घटकर 2019 में 9.05% हो गई। चीन और दक्षिण-पूर्व एशिया में आर्थिक प्रगति और मानव विकास निवेश से निर्धनता में तेज गिरावट आई। चीन में यह 2020 में मात्र 0.1% रह गई। दक्षिण एशिया में निर्धनता 2017 में 12.8% से घटकर 2021 में 10.9% और निर्धन लोगों की संख्या 233 मिलियन से घटकर 207 मिलियन हो गई।
सब-सहारा अफ्रीका में निर्धनता 2017 में 36.6% से कम होकर 2019 में 35.4% हुई। लैटिन अमेरिका में निर्धनता 4.4% से बढ़कर 2021 में 4.6% हुई। रूस जैसे देशों में, जहां पहले कोई निर्धनता नहीं थी, यह 2000 में 3% हो गई। संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य 2030 तक सभी प्रकार की गरीबी समाप्त करना है।
निर्धनता के कारण
भारत में व्यापक निर्धनता के कई कारण हैं, जिनमें ऐतिहासिक, आर्थिक, और सामाजिक पहलू शामिल हैं। सरल भाषा में इसे समझने का प्रयास करते हैं:
निर्धनता के प्रमुख कारण
भारत में निर्धनता के कई कारण हैं। ऐतिहासिक रूप से, ब्रिटिश शासन के दौरान आर्थिक विकास धीमा रहा, और औपनिवेशिक नीतियों ने हस्तशिल्प और उद्योगों को नष्ट कर दिया। 1980 के दशक तक विकास दर कम रही, जिससे रोजगार और आय के अवसर घटे। तेज जनसंख्या वृद्धि ने रोजगार और आय की कमी के साथ निर्धनता को और बढ़ा दिया। कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति और सिंचाई ने कुछ क्षेत्रों में रोजगार बढ़ाया, लेकिन इसका प्रभाव सीमित रहा।
शहरी निर्धनता भी एक बड़ी समस्या है। गाँवों से शहरों में आए लोग कम आय वाले काम, जैसे रिक्शा चलाना या घरेलू नौकर का काम करने लगे और महँगे मकानों के कारण झुग्गियों में रहने को मजबूर हो गए। आय असमानता भी निर्धनता का बड़ा कारण है, क्योंकि भूमि और संसाधनों का असमान वितरण जारी है। भूमि सुधार की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकीं। छोटे किसान कृषि खर्चों के लिए कर्ज लेते हैं, लेकिन निर्धनता के कारण कर्ज नहीं चुका पाते, जिससे उनकी स्थिति और खराब हो जाती है।
निर्धनता का प्रभाव
आर्थिक प्रगति बाधित: कम आय और रोजगार अवसरों के कारण।
शहरी झुग्गियों का विकास: बेहतर नौकरी की तलाश में लोग गाँव से शहर आते हैं।
कर्ज और गरीबी का चक्र: ऋणग्रस्तता निर्धनता का कारण और परिणाम दोनों है।
समाधान की दिशा
निर्धनता को कम करने के लिए समान संसाधन वितरण, जैसे भूमि सुधार और ग्रामीण विकास, आवश्यक हैं। कृषि, उद्योग, और सेवा क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ाकर आय का स्तर सुधारा जा सकता है। शिक्षा और कौशल विकास पर जोर देकर रोजगार के नए रास्ते खोले जा सकते हैं। साथ ही, गरीबों को सस्ते और आसान ऋण उपलब्ध कराकर कर्ज़ प्रबंधन को सुधारना भी जरूरी है, ताकि वे अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सकें।
निर्धनता-निरोधी उपाय
भारत में निर्धनता को कम करना हमेशा से विकास रणनीति का मुख्य उद्देश्य रहा है। इसके लिए सरकार ने दो प्रमुख उपाय अपनाए हैं:
आर्थिक संवृद्धि को बढ़ावा देना।
लक्षित निर्धनता-निरोधी कार्यक्रम।
निर्धनता के कारण
1950 से 1980 के बीच भारत में आर्थिक विकास की धीमी गति ने निर्धनता को बढ़ावा दिया। कृषि पर अत्यधिक निर्भरता और इस क्षेत्र में कम विकास के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता अधिक रही। इसके साथ ही, भूमि और संसाधनों का असमान वितरण आय असमानता का मुख्य कारण बना। रोजगार और आय में कमी के बावजूद तेजी से बढ़ती जनसंख्या ने निर्धनता की समस्या को और गहरा कर दिया।
निर्धनता-निरोधी प्रमुख योजनाएँ
भारत में निर्धनता और बेरोजगारी को कम करने के लिए कई योजनाएँ शुरू की गई हैं। मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत हर ग्रामीण परिवार को साल में 100 दिन की मजदूरी देने का प्रावधान है, जिससे 4.78 करोड़ परिवारों को रोजगार मिला, जिसमें 53% हिस्सा महिलाओं का था। काम के बदले अनाज योजना (एनएफडब्ल्यूपी) 2004 में सबसे पिछड़े जिलों में शुरू की गई, जो ग्रामीण निर्धनों को मजदूरी का विकल्प प्रदान करती है।
प्रधानमंत्री रोजगार योजना (1993) के तहत ग्रामीण और छोटे शहरों के शिक्षित बेरोजगारों को स्वरोजगार के लिए सहायता दी जाती है, जिससे वे लघु व्यवसाय और उद्योग स्थापित कर सकें। स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना (1999) स्व-सहायता समूहों के माध्यम से गरीबों को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास करती है, जिसमें बैंक ऋण और सरकारी सहायता का संयोजन होता है। प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना (2000) के अंतर्गत स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, और पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए राज्यों को सहायता प्रदान की जाती है। अंत्योदय अन्न योजना सबसे गरीब परिवारों को रियायती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराकर उनकी मदद करती है।
योजनाओं के प्रभाव
सकारात्मक पहलू यह है कि इन योजनाओं से रोजगार के अवसर बढ़े और महिलाओं व कमजोर वर्गों को लाभ मिला। लेकिन चुनौतियाँ भी रहीं, जैसे योजनाओं का सही कार्यान्वयन नहीं हो पाया, लाभ पात्र व्यक्तियों तक पूरी तरह नहीं पहुँच सका, और योजनाओं के बीच समन्वय की कमी बनी रही।
आगे की राह
योजनाओं के उचित कार्यान्वयन और परिवीक्षण की आवश्यकता।
लक्षित समूहों की सही पहचान।
ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर पैदा करना।
भावी चुनौतियाँ
भारत में निर्धनता में गिरावट आई है, लेकिन इसे पूरी तरह समाप्त करना अब भी एक बड़ी चुनौती है। ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों और विभिन्न राज्यों में निर्धनता की असमानता बनी हुई है, और कुछ सामाजिक-आर्थिक समूह अधिक असुरक्षित हैं। अगले दस से पंद्रह वर्षों में उच्च आर्थिक संवृद्धि, मुफ्त प्राथमिक शिक्षा, जनसंख्या नियंत्रण, और कमजोर वर्गों के सशक्तीकरण के जरिए निर्धनता उन्मूलन में और प्रगति की उम्मीद है।
निर्धनता की परिभाषा केवल न्यूनतम जीवन निर्वाह तक सीमित है, जबकि इसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और आत्मविश्वास जैसे पहलुओं तक विस्तारित किया जाना चाहिए। विकास के साथ निर्धनता की परिभाषा बदलती रहती है, और इसे समाप्त करना एक गतिशील लक्ष्य है। अगले दशक तक सभी को आय, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, और रोजगार सुरक्षा प्रदान करना और लैंगिक समानता सुनिश्चित करना हमारी प्राथमिकताएँ होंगी।