भारत में खाद्य सुरक्षा Notes in Hindi Class 9 Arthashastra Chapter-4 Book 1 food security in india
0Team Eklavyaजनवरी 10, 2025
खाद्य सुरक्षा क्या है?
भोजन जीवन के लिए उतना ही जरूरी है जितना साँस लेने के लिए वायु। लेकिन खाद्य सुरक्षा का मतलब केवल दो वक्त का खाना पाना नहीं है, बल्कि इससे ज्यादा है। खाद्य सुरक्षा के मुख्य आयाम हैं:
खाद्य उपलब्धता - इसका मतलब है कि देश में खाद्य उत्पादन, आयात, और सरकारी अनाज भंडारों में पर्याप्त स्टॉक हो।
पहुंच - हर व्यक्ति तक खाद्य सामग्री पहुँच सके।
सामर्थ्य - लोगों के पास पौष्टिक और पर्याप्त भोजन खरीदने के लिए धन हो।
किसी देश में खाद्य सुरक्षा तभी संभव है जब (1) सभी लोगों के लिए पर्याप्त खाद्य उपलब्ध हो, (2) वे इसे खरीदने में सक्षम हों, और (3) खाद्य की उपलब्धता में कोई बाधा न हो।
खाद्य सुरक्षा क्यों?
गरीब वर्ग हमेशा खाद्य असुरक्षा से जूझ सकता है, लेकिन भूकंप, सूखा, बाढ़, या अकाल जैसी आपदाओं के दौरान निर्धनता रेखा से ऊपर के लोग भी इससे प्रभावित हो सकते हैं। प्राकृतिक आपदाएँ, जैसे सूखा, खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट लाती हैं, जिससे खाद्य की कमी और कीमतों में वृद्धि होती है। ऊँची कीमतों पर भोजन खरीदना मुश्किल हो जाता है, और लंबे समय तक यह स्थिति भुखमरी और अकाल का रूप ले सकती है।
1943 में बंगाल के अकाल में 30 लाख लोगों की मौत हुई थी। हालांकि ऐसा अकाल फिर नहीं आया, लेकिन आज भी भूख और खाद्य असुरक्षा की समस्या बनी हुई है। कोविड-19 महामारी ने भी खाद्य उपलब्धता और आर्थिक गतिविधियों पर बुरा असर डाला। इसलिए, किसी भी देश में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है ताकि आपदाओं और महामारियों के दौरान भी खाद्य की उपलब्धता बनी रहे।
खाद्य-असुरक्षित कौन हैं?
भारत में खाद्य असुरक्षा: कारण, प्रभाव, और समाधान
भारत में खाद्य असुरक्षा एक गंभीर मुद्दा है, जिससे समाज का कमजोर वर्ग सबसे अधिक प्रभावित होता है। यह समझने के लिए इसे सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है।
खाद्य असुरक्षा से प्रभावित वर्ग
ग्रामीण क्षेत्रों में: भूमिहीन किसान, छोटे ज़मीन वाले लोग, पारंपरिक कारीगर, और दिहाड़ी मजदूर सबसे कमजोर हैं।
शहरी क्षेत्रों में: कम वेतन वाले मजदूर, अनियमित काम करने वाले, और मौसमी कामगार, जिनकी आय स्थिर नहीं होती, अधिक प्रभावित होते हैं।
खाद्य असुरक्षा के कारण
सामाजिक असमानता: अनुसूचित जाति, जनजाति, और पिछड़े वर्गों के पास कम भूमि और संसाधन होते हैं। प्राकृतिक आपदाओं और विस्थापन से भी ये लोग प्रभावित होते हैं।
1. भुखमरी:
दीर्घकालिक भुखमरी: गरीबों की कम आय और पौष्टिक आहार की कमी के कारण होती है।
मौसमी भुखमरी: फसल चक्र या अनियमित रोजगार की वजह से होती है।
महिलाओं और बच्चों पर प्रभाव: गर्भवती और दूध पिलाने वाली महिलाएँ सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं, और पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण का खतरा बढ़ जाता है।
2. समाधान: हरित क्रांति और खाद्यान्न आत्मनिर्भरता
हरित क्रांति: 1968 में 'गेहूँ क्रांति' से गेहूँ और चावल का उत्पादन बढ़ा।
2021-22 में कुल अनाज उत्पादन: 315 करोड़ टन।
3. प्रमुख राज्य:
गेहूँ: उत्तर प्रदेश (36 करोड़ टन) और मध्य प्रदेश (18 करोड़ टन)।
चावल: पश्चिम बंगाल (17 करोड़ टन) और उत्तर प्रदेश (16 करोड़ टन)।
भविष्य की रणनीति: उत्पादन बढ़ाने के साथ उसे हर क्षेत्र तक पहुँचाना और खाद्य सुरक्षा योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन।
भारत में खाद्य सुरक्षा
70 के दशक के प्रारंभ में हरित क्रांति के आने के बाद से भारत में मौसम की विपरीत दशाओं के बावजूद अकाल नहीं पड़ा। देश भर में उपजाई जाने वाली विविध फसलों के कारण भारत पिछले तीस वर्षों में खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है। इसके साथ ही, सरकार द्वारा सावधानीपूर्वक तैयार की गई खाद्य सुरक्षा व्यवस्था ने देश में अनाज की उपलब्धता को और भी सुनिश्चित किया। इस व्यवस्था के दो प्रमुख घटक हैं: बफ़र स्टॉक और सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जो खराब मौसम स्थितियों या किसी अन्य कारण से अनाज की कमी को रोकते हैं।
बफर स्टॉक क्या है?
बफ़र स्टॉक भारतीय खाद्य निगम (एफ़.सी.आई.) के माध्यम से सरकार द्वारा खरीदे गए गेहूँ और चावल का भंडार है। सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थित कीमत पर अनाज खरीदती है, जिसे बुआई से पहले घोषित किया जाता है। बफ़र स्टॉक का उद्देश्य गरीब वर्गों को सस्ती कीमत पर अनाज उपलब्ध कराना है, जिसे निर्गम कीमत कहते हैं। यह खराब मौसम या आपदा के दौरान अनाज की कमी को दूर करने में मदद करता है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है?
भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) के तहत भारतीय खाद्य निगम द्वारा खरीदी गई अनाज को विनियमित राशन दुकानों के माध्यम से गरीब वर्ग में वितरित किया जाता है। लगभग 5.5 लाख राशन की दुकानें देश भर में हैं, जहाँ खाद्यान्न, चीनी और मिट्टी का तेल बाजार कीमत से कम कीमत पर उपलब्ध होता है। राशन कार्ड वाले परिवार इन सामग्रियों को निर्धारित मात्रा में खरीद सकते हैं। राशन प्रणाली की शुरुआत 1940 के दशक में बंगाल के अकाल के बाद हुई और 60 के दशक में खाद्य संकट के कारण इसे पुनर्जीवित किया गया। 70 के दशक में गरीबी उन्मूलन के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली, एकीकृत बाल विकास सेवाएँ और काम के बदले अनाज जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए। वर्तमान में, कई गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जिनमें खाद्य सुरक्षा बढ़ाने वाले प्रयास भी शामिल हैं।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वर्तमान स्थिति
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) भारत सरकार का एक प्रमुख कदम है, जिसका उद्देश्य खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना और गरीबों को सस्ती दरों पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना है।
PDS का विकास और योजनाएँ
भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के प्रारंभिक चरण में सभी वर्गों को खाद्यान्न समान कीमत पर उपलब्ध कराया जाता था। 1997 में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (TPDS) शुरू की गई, जिसमें निर्धनों और गैर-निर्धनों के लिए अलग-अलग कीमतें निर्धारित की गईं। इसके तहत विशेष योजनाएँ भी शुरू की गईं, जैसे अंत्योदय अन्न योजना (2000), जो सबसे गरीब वर्ग को सस्ते दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराती है, और अन्नपूर्णा योजना (2000), जो वरिष्ठ नागरिकों के लिए बनाई गई है।
PDS की उपलब्धियाँ
सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने खाद्यान्न की कीमतों को नियंत्रित कर मूल्य स्थिरता बनाए रखी। यह कमी वाले क्षेत्रों में अनाज पहुँचाकर भुखमरी रोकने में कारगर रही। न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) ने किसानों को प्रोत्साहन देकर उत्पादन बढ़ाने में मदद की।
PDS से जुड़ी समस्याएँ
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कई समस्याएँ हैं। FCI के गोदामों में अनाज का अधिक भंडारण होता है, जिससे खराब गुणवत्ता और रखरखाव लागत बढ़ती है। डीलरों की गड़बड़ी, जैसे काला बाज़ार, घटिया अनाज की बिक्री, और दुकानों का अनियमित समय पर खुलना, बड़ी चुनौती है। तीन-स्तरीय कार्ड प्रणाली में गरीबी रेखा से ऊपर (APL) परिवारों को कम लाभ मिलता है, जबकि निर्धनता रेखा के पास के परिवारों को उचित छूट नहीं मिलती। MSP के कारण धान और गेहूँ की अधिक खेती होती है, जिससे मोटे अनाज की खेती घटती है और पर्यावरण व जल स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
समाधान की दिशा
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार के लिए भंडारण प्रबंधन और गोदामों की गुणवत्ता में सुधार करना जरूरी है। डीलरों की गड़बड़ियों, जैसे काला बाज़ार और अनियमितताओं, पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए। निर्धन और निम्न-मध्यम वर्ग के लिए लाभकारी नीतियाँ लागू करके समान वितरण सुनिश्चित किया जा सकता है। साथ ही, मोटे अनाज की खेती और खपत को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन देना जरूरी है।
सहकारी समितियों की खाद्य सुरक्षा में भूमिका
भारत के दक्षिणी और पश्चिमी भागों में सहकारी समितियाँ खाद्य सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। तमिलनाडु में अधिकांश राशन दुकानों को सहकारी समितियाँ चला रही हैं, और दिल्ली में मदर डेयरी द्वारा दूध और सब्ज़ियाँ नियंत्रित दरों पर उपलब्ध कराई जा रही हैं। गुजरात में अमूल ने दूध और दुग्ध उत्पादों में सफलता प्राप्त की है। महाराष्ट्र में ए.डी.एस. ने अनाज बैंकों की स्थापना में सहायता की, और ये बैंकों अब विभिन्न क्षेत्रों में फैल रहे हैं। ए.डी.एस. की कोशिशों से खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में सफलता मिली है और यह एक नया प्रकार का खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम बन चुका है।