चुनावी राजनीति Notes in Hindi Class 9 Loktantrik Rajniti Chapter-3 Book 2 Electoral Politics chunavi rajaniti
0Team Eklavyaजनवरी 13, 2025
परिचय
लोकतंत्र में लोग सीधे शासन नहीं करते, बल्कि अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाते हैं। चुनाव लोकतंत्र के लिए क्यों जरूरी और उपयोगी हैं। साथ ही, यह भी देखेंगे कि चुनावी प्रतिस्पर्धा से लोगों को क्या लाभ मिलता है। हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि कौन-सी बातें चुनाव को लोकतांत्रिक बनाती हैं और लोकतांत्रिक व गैर-लोकतांत्रिक चुनावों में क्या फर्क होता है। हम भारत में चुनावों की प्रक्रिया का विश्लेषण करेंगे, जैसे- चुनाव क्षेत्रों की सीमाएँ तय करना, मतदान करना, और नतीजे घोषित करना। आखिर में, हम यह विचार करेंगे कि भारत में चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र हुए हैं या नहीं, और इसमें चुनाव आयोग की भूमिका क्या रही है।
3.1 चुनाव क्यों?
हरियाणा के विधानसभा चुनाव
1987 में हरियाणा विधानसभा चुनावों में चौधरी देवीलाल की लोकदल पार्टी ने कांग्रेस के खिलाफ़ 'न्याय युद्ध' आंदोलन चलाया। देवीलाल ने किसानों और छोटे व्यापारियों के कर्ज माफ करने का वादा किया, जिससे लोग आकर्षित हुए। चुनाव में लोकदल और सहयोगियों ने 90 में से 76 सीटें जीतीं, लोकदल को अकेले 60 सीटें मिलीं। कांग्रेस को केवल 5 सीटें मिलीं। देवीलाल मुख्यमंत्री बने और शपथ के बाद तुरंत कर्ज माफी का आदेश दिया। उनकी सरकार 4 साल तक रही, लेकिन 1991 में कांग्रेस ने फिर सत्ता हासिल कर ली।
चुनावों की ज़रूरत क्यों है ?
लोकतंत्र में चुनाव बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ये हमें अपने प्रतिनिधि चुनने और बदलने का मौका देते हैं। दुनिया में 100 से अधिक देशों में जनप्रतिनिधियों के चुनाव होते हैं। यहां तक कि कुछ गैर-लोकतांत्रिक देशों में भी चुनाव आयोजित किए जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि चुनाव की ज़रूरत क्यों पड़ती है?
बिना चुनाव के लोकतंत्र संभव है?
कल्पना करें, एक ऐसा लोकतंत्र जहां हर व्यक्ति मिलकर हर फैसला ले। यह छोटे समूहों में संभव हो सकता है, लेकिन बड़े समाज में यह व्यावहारिक नहीं है क्योंकि हर किसी के पास हर मुद्दे पर फैसला लेने का समय और जानकारी नहीं होती। इसलिए, लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं, जो उनकी जगह फैसले लेते हैं।
क्या चुनाव के बिना प्रतिनिधि चुने जा सकते हैं?
कभी-कभी लगता है कि प्रतिनिधि उम्र, अनुभव या शिक्षा के आधार पर चुने जाएं। लेकिन यह तय करना मुश्किल है कि किसके पास ज्यादा अनुभव या ज्ञान है। साथ ही, यह कैसे पता चलेगा कि लोग अपने प्रतिनिधियों से संतुष्ट हैं या नहीं?
चुनाव क्यों जरूरी हैं?
चुनाव हमें यह सुविधा देते हैं कि:
1. हम अपनी पसंद के प्रतिनिधि चुन सकें।
2. अगर प्रतिनिधि अच्छा काम नहीं करता, तो उसे बदल सकें।
3. सरकार बनाने और बड़े फैसले लेने के लिए योग्य लोगों को चुन सकें।
4. सरकार की नीतियों और कानूनों को दिशा देने वाली पार्टी का चयन कर सकें।
चुनाव को लोकतांत्रिक मानने के आधार क्या हैं ?
चुनाव कई तरीकों से हो सकते हैं, लेकिन लोकतांत्रिक चुनावों को पहचानने के लिए कुछ न्यूनतम शर्तें जरूरी हैं:
1. सर्वजन मताधिकार: हर व्यक्ति को वोट देने का अधिकार हो और हर वोट का समान मोल हो।
2. विकल्पों की आजादी: पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने की आजादी हो।
3. नियमित चुनाव: चुनाव समय-समय पर तय अंतराल में हों।
4. जनमत का सम्मान: लोग जिसे चाहें, वही चुना जाए।
5. स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव: लोग अपनी इच्छा से वोट दे सकें।
क्या राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता अच्छी चीज़ है ?
चुनाव का मतलब है राजनीतिक प्रतियोगिता या मुकाबला। यह मुकाबला मुख्य रूप से राजनीतिक पार्टियों या उम्मीदवारों के बीच होता है। लेकिन सवाल उठता है, क्या यह राजनीतिक मुकाबला जरूरी है?
चुनावी मुकाबले के नुकसान:
1. बंटवारा: चुनावी राजनीति से कई बार समाज, बस्तियों, और यहाँ तक कि घरों में भी मतभेद और बंटवारे जैसी स्थिति हो जाती है।
2. आरोप-प्रत्यारोप: उम्मीदवार और पार्टियां एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं, जिससे राजनीति में कड़वाहट बढ़ती है।
3. अच्छे लोग दूर रहते हैं: चुनावी दबाव और राजनीति के हथकंडों से कई अच्छे और ईमानदार लोग चुनाव में नहीं उतरते।
4. दीर्घकालिक सोच की कमी: सत्ता पाने की होड़ में कई बार लंबी अवधि के हितों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
फिर भी राजनीतिक मुकाबला क्यों जरूरी है?
हमारे संविधान निर्माताओं ने इन समस्याओं को समझा, लेकिन फिर भी मुक्त चुनावी मुकाबले को चुना। इसका कारण है कि:
1. यथार्थ को स्वीकार करना: नेताओं को भी अपना करियर बनाने और सत्ता में बने रहने की चिंता होती है। सभी नेता हमेशा समाज की सेवा की भावना से काम नहीं करते।
2. लोकतंत्र की मजबूती: केवल सेवा की भावना पर निर्भर रहना जोखिम भरा हो सकता है। इसलिए, जनता को यह अधिकार दिया गया कि वह अपने नेताओं का चयन करे और उन्हें जवाबदेह बनाए।
चुनाव कैसे बेहतर बनाते हैं?
1. लोकप्रियता का दबाव: नेताओं और पार्टियों को पता होता है कि अगर वे जनता की जरूरतों को पूरा करेंगे, तो उनकी लोकप्रियता बढ़ेगी और वे अगले चुनाव में जीत सकते हैं।
2. गलत कामों पर सजा: अगर कोई नेता या पार्टी जनता को संतुष्ट नहीं करती, तो वे अगला चुनाव हार जाते हैं। यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा हथियार है।
3. जनता की सेवा का रास्ता: भले ही कोई पार्टी सिर्फ सत्ता पाने के लिए राजनीति में आई हो, लेकिन चुनावी दबाव उन्हें जनता की सेवा करने के लिए मजबूर करता है।
चुनावी मुकाबला और बाजार का संबंध:
चुनाव की प्रक्रिया बाजार की तरह काम करती है। जैसे एक दुकानदार ग्राहक को अच्छा सामान देने पर मजबूर होता है ताकि ग्राहक दूसरी दुकान पर न जाए, वैसे ही राजनीतिक पार्टियां जनता की सेवा करने पर मजबूर होती हैं ताकि लोग उन्हें वोट दें।
3.2 चुनाव की हमारी प्रणाली क्या है ?
भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव हर पाँच साल में होते हैं। कार्यकाल खत्म होने पर लोकसभा और विधानसभाएँ भंग हो जाती हैं, और सभी चुनाव क्षेत्रों में आम चुनाव होते हैं। किसी सदस्य की मृत्यु या इस्तीफे से खाली सीट पर उपचुनाव होता है। यहाँ हम आम चुनावों पर ध्यान देंगे।
चुनाव क्षेत्र
हरियाणा में 90 विधायकों का चुनाव क्षेत्र-आधारित प्रणाली से होता है। देश को निर्वाचन क्षेत्रों में बाँटा गया है, जहाँ हर क्षेत्र के मतदाता एक प्रतिनिधि चुनते हैं। लोकसभा के लिए 543 निर्वाचन क्षेत्र हैं, और विधानसभा के लिए राज्यों को सीटों में बाँटा गया है। हर क्षेत्र से चुने गए प्रतिनिधियों को संसद सदस्य या विधायक कहा जाता है। पंचायत और नगरपालिका चुनावों में भी वार्ड के रूप में छोटे निर्वाचन क्षेत्र होते हैं। जब हम कहते हैं कि लोकदल ने हरियाणा की 60 सीटें जीतीं, तो इसका मतलब है कि 60 निर्वाचन क्षेत्रों से उनके उम्मीदवार जीते।
आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र
संविधान सभी नागरिकों को प्रतिनिधि चुनने और चुने जाने का अधिकार देता है। लेकिन कमजोर वर्गों की संसद और विधानसभाओं में आवाज सुनिश्चित करने के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र बनाए गए। अनुसूचित जातियों (SC) और जनजातियों (ST) के लिए सीटें आरक्षित हैं, जिन पर केवल इन्हीं वर्गों के लोग चुनाव लड़ सकते हैं।
वर्तमान में लोकसभा में SC के लिए 84 और ST के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं (2019 के अनुसार), जो उनकी आबादी के अनुपात में हैं। यह आरक्षण पंचायत, नगरपालिका, और नगर निगमों में भी लागू है। कई राज्यों में अन्य पिछड़े वर्गों (OBC) और महिलाओं के लिए भी आरक्षण व्यवस्था है, जिसमें स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित हैं।
मतदाता सूची
मतदाता सूची (वोटर लिस्ट) चुनाव से पहले तैयार की जाती है, ताकि हर योग्य नागरिक को वोट देने का समान अवसर मिले। भारत में 18 साल और उससे ऊपर के सभी नागरिक जाति, धर्म, या लिंग के भेदभाव के बिना वोट डाल सकते हैं। अपराधियों और मानसिक असंतुलन वाले कुछ व्यक्तियों को विशेष परिस्थितियों में मताधिकार से वंचित किया जा सकता है।
सरकार का दायित्व है कि सभी योग्य मतदाताओं के नाम सूची में हों। हर चुनाव से पहले सूची को अपडेट किया जाता है, नए नाम जोड़े जाते हैं, और बाहर गए या मृत लोगों के नाम हटाए जाते हैं। हर 5 साल में पूरी सूची का नवीनीकरण होता है। पहचान सुनिश्चित करने के लिए फोटो पहचान-पत्र की व्यवस्था है, लेकिन वोट देने के लिए अन्य पहचान पत्र जैसे राशन कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस भी मान्य हैं।
उम्मीदवारों का नामांकन
लोकतांत्रिक चुनावों में किसी के भी चुनाव लड़ने पर बड़ी बंदिश नहीं है। 18 साल की उम्र में वोट देने का अधिकार होता है, लेकिन उम्मीदवार बनने की न्यूनतम आयु 25 वर्ष है। अपराधियों पर कुछ पाबंदियां होती हैं, लेकिन ये कम मामलों में लागू होती हैं।
राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों को "टिकट" देते हैं। चुनाव लड़ने के इच्छुक व्यक्ति को नामांकन पत्र भरकर जमानत राशि जमा करनी होती है। अब उम्मीदवारों को अपनी आपराधिक मामलों, संपत्ति, देनदारियों, और शैक्षिक योग्यता की जानकारी सार्वजनिक करनी पड़ती है। यह व्यवस्था मतदाताओं को सूचित निर्णय लेने में मदद करती है।
चुनाव अभियान
चुनाव का मुख्य उद्देश्य लोगों को अपनी पसंद के प्रतिनिधियों, सरकार, और नीतियों को चुनने का मौका देना है। इसके लिए स्वतंत्र और खुली चर्चा बहुत जरूरी है। यही काम चुनाव अभियान के दौरान होता है।
चुनाव प्रचार कैसे होता है?
चुनाव प्रचार के लिए उम्मीदवारों को सूची जारी होने से मतदान तक करीब दो हफ्ते मिलते हैं। इस दौरान वे लोगों से मिलते, सभाओं में भाषण देते, और पार्टियाँ समर्थकों को सक्रिय करती हैं। चुनावी खबरें और बहसें मीडिया में चलती हैं, लेकिन तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती है।
मुद्दे और नारे:
चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दल बड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
कुछ सफल चुनावी नारे:
1. गरीबी हटाओ (1971): इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने देश से गरीबी हटाने का वायदा किया।
2. लोकतंत्र बचाओ (1977): जनता पार्टी ने आपातकाल की ज्यादतियों को खत्म करने का वायदा किया।
3. जमीन-जोतने वाले को (1977): वामपंथी दलों ने किसानों के लिए यह नारा दिया।
4. तेलुगु स्वाभिमान (1983): तेलुगु देशम पार्टी ने तेलुगु पहचान और गर्व पर जोर दिया।
चुनाव प्रचार में क्या करना मना है?
चुनाव प्रचार को सही और निष्पक्ष रखने के लिए कई कानून और नियम बनाए गए हैं। उम्मीदवार या पार्टी को मतदाताओं को प्रलोभन देने, घूस देने या धमकाने की अनुमति नहीं है। जाति या धर्म के आधार पर वोट मांगना और सरकारी संसाधनों का चुनाव प्रचार में इस्तेमाल करना भी प्रतिबंधित है। साथ ही, चुनाव में खर्च की सीमा तय है—लोकसभा चुनाव के लिए ₹25 लाख और विधानसभा चुनाव के लिए ₹10 लाख। इन नियमों का उल्लंघन करने पर उम्मीदवार का चुनाव रद्द हो सकता है।
आदर्श आचार संहिता
राजनीतिक पार्टियों ने चुनाव प्रचार के लिए आदर्श आचार संहिता को स्वीकार किया है, जो प्रचार गतिविधियों के लिए दिशानिर्देश प्रदान करती है। इसके तहत धर्मस्थलों का चुनाव प्रचार में उपयोग प्रतिबंधित है। सरकारी वाहन या अधिकारियों का प्रचार कार्यों में उपयोग नहीं किया जा सकता। इसके अलावा, चुनाव की घोषणा के बाद मंत्री किसी बड़ी योजना का शिलान्यास या नीतिगत फैसले नहीं ले सकते।
मतदान और मतगणना
चुनाव का अंतिम चरण मतदान है, जिसे चुनाव का दिन कहा जाता है। मतदाता सूची में नाम वाला व्यक्ति अपने मतदान केंद्र पर जाता है, जहाँ उसकी पहचान के बाद उसकी उंगली पर काला निशान लगाया जाता है। पहले मतपत्र से मतदान होता था, अब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) का उपयोग होता है। मतदाता अपने पसंदीदा उम्मीदवार के चुनाव चिह्न के सामने का बटन दबाता है।
मतदान के बाद सभी EVM सील कर सुरक्षित स्थान पर रखी जाती हैं। तय तारीख पर मतगणना होती है, जिसमें सभी दलों के एजेंट मौजूद रहते हैं। सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित होता है। आम चुनावों में मतगणना और परिणाम एक ही दिन घोषित होते हैं, जिससे यह तय होता है कि अगली सरकार कौन बनाएगा।
3.3 भारत में चुनाव क्यों लोकतांत्रिक है ?
चुनाव में गड़बड़ियों की खबरें आम हैं, जैसे फर्जी नाम जोड़ना, असली नाम हटाना, सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग, धन का अत्यधिक खर्च, और मतदान के दिन धांधली जैसे फर्जी मतदान या मतदाताओं को डराना। ये गड़बड़ियाँ अक्सर सही होती हैं, लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं होतीं कि चुनाव के उद्देश्य को पूरी तरह नकार दें। सवाल यह है कि क्या कोई पार्टी केवल घांधली से सत्ता में आ सकती है? इस पर सावधानी से विचार करना जरूरी है।
स्वतंत्र चुनाव आयोग
चुनाव निष्पक्ष हैं या नहीं, यह देखने के लिए जरूरी है कि उनका संचालन कौन करता है। भारत में चुनाव एक स्वतंत्र और शक्तिशाली चुनाव आयोग द्वारा कराए जाते हैं, जिसे न्यायपालिका जैसी स्वतंत्रता प्राप्त है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं और उन्हें सरकार से स्वतंत्र रहकर काम करने का अधिकार होता है। शासक पार्टी भी मुख्य निर्वाचन आयुक्त को हटा नहीं सकती।
निर्वाचन आयोग के अधिकारों में चुनाव प्रक्रिया का संचालन, आदर्श आचार संहिता लागू करना, सरकार को चुनाव से जुड़े निर्देश देना, और चुनाव ड्यूटी पर अधिकारियों को नियंत्रित करना शामिल है। पिछले 25 वर्षों में आयोग ने इन शक्तियों का सक्रिय उपयोग किया है। अगर किसी जगह मतदान सही नहीं होता, तो आयोग फिर से मतदान का आदेश देता है। सरकारों को आयोग के आदेश मानने पड़ते हैं, जिससे निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित होते हैं।
चुनाव में लोगों की भागीदारी
चुनाव की गुणवत्ता को जाँचने का एक तरीका यह है कि लोग इसमें कितनी भागीदारी करते हैं। यदि चुनाव निष्पक्ष न हों, तो लोग इनमें हिस्सा लेना छोड़ देंगे।
1. मतदान प्रतिशत: भारत में मतदान का प्रतिशत स्थिर या बढ़ा है, जबकि यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में यह कम हुआ है।
2. गरीबों की भागीदारी: भारत में गरीब, निरक्षर और कमजोर वर्ग के लोग अमीरों की तुलना में ज्यादा मतदान करते हैं, जबकि अमेरिका जैसे देशों में स्थिति उलटी है।
3. महत्त्व: भारतीय लोग चुनाव को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं और अपने वोट के जरिए नीतियों को प्रभावित करने की उम्मीद रखते हैं।
4. सक्रियता: समय के साथ चुनावी गतिविधियों में लोगों की भागीदारी बढ़ रही है। 2004 में एक-तिहाई मतदाता चुनाव अभियानों में शामिल हुए, और आधे से ज्यादा लोग किसी न किसी पार्टी से जुड़े थे।
चुनावी नतीजों को स्वीकार करना
चुनाव के निष्पक्ष होने का सबसे बड़ा पैमाना उसके नतीजे हैं। अगर चुनाव निष्पक्ष न हों, तो ताकतवर पार्टी हमेशा जीतती और हारने वाली पार्टी नतीजे नहीं मानती। भारत में चुनाव नतीजे यह दिखाते हैं:
शासक दल राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर अकसर हारते रहे हैं।
निवर्तमान सांसदों और विधायकों में से आधे दोबारा चुनाव हार जाते हैं।
पैसे वाले या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का चुनाव हारना आम है।
ज्यादातर पार्टियाँ हारे हुए नतीजों को भी जनादेश मानकर स्वीकार कर लेती हैं।
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की चुनौतियाँ
भारत में चुनाव आम तौर पर स्वतंत्र और निष्पक्ष होते हैं, और नतीजे जनता की इच्छा को दर्शाते हैं। हालांकि, कुछ चुनौतियाँ भी हैं। धनवान और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को फायदा मिलता है। राजनीतिक परिवारों का दबदबा है, और आम लोगों के पास अक्सर सीमित विकल्प होते हैं। छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को बड़ी पार्टियों की तुलना में ज्यादा समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
ये समस्याएँ केवल भारत की नहीं, बल्कि कई लोकतंत्रों की हैं। इनसे निपटने के लिए चुनाव प्रणाली में सुधार की जरूरत है। आम नागरिक जागरूक रहकर सही उम्मीदवार का चयन कर सकते हैं और चुनाव सुधारों की माँग का समर्थन कर सकते हैं।