श्रम विभाजन और जाति-प्रथा Class 12 Chapter-15 Book-Aroh Chapter summary
0Team Eklavyaदिसंबर 09, 2024
श्रम विभाजन और जाति-प्रथा
जाति-प्रथा और श्रम विभाजन
जातिवाद के पोषक जाति-प्रथा को श्रम विभाजन के समान मानते हैं, लेकिन यह तर्क पूरी तरह गलत है। जाति-प्रथा केवल श्रम का नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन करती है, जो उन्हें ऊँच-नीच के वर्गों में बाँट देती है। इस व्यवस्था में मनुष्य की रुचि और क्षमता का कोई महत्व नहीं होता, क्योंकि यह पैतृक पेशे पर आधारित होती है, जिसे जन्म से ही तय कर दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं मिलती, जिससे बेरोजगारी और आर्थिक समस्याएँ बढ़ती हैं।
जाति-प्रथा के दोष
जाति-प्रथा मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा और आत्मशक्ति को कुचल देती है, जिससे वह अपने कार्य में रुचि नहीं लेता। यह व्यवस्था केवल विवशतावश किए गए कार्य को बढ़ावा देती है, जो टालमटोल और कम उत्पादकता का कारण बनती है। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से यह प्रथा पूरी तरह अव्यावहारिक और हानिकारक है।
आदर्श समाज की परिकल्पना
लेखक स्वतंत्रता, समता और भ्रातृता पर आधारित समाज का समर्थन करते हैं। भ्रातृता का अर्थ है कि समाज में सबका आपसी संपर्क और सहभागिता हो, जिससे वांछित परिवर्तन सहजता से संभव हो सके। स्वतंत्रता का तात्पर्य है कि हर व्यक्ति को अपनी क्षमता का प्रभावी उपयोग करने और अपने पेशे का चुनाव करने की पूरी आजादी हो। समता का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि समाज के सभी सदस्यों को समान अवसर और व्यवहार मिले, ताकि किसी प्रकार की असमानता न रहे।
समता की व्यावहारिकता
यद्यपि मनुष्य शारीरिक, सामाजिक और व्यक्तिगत प्रयासों के कारण असमान हो सकते हैं, फिर भी समाज में समान अवसर प्रदान करना आवश्यक है। न्यायसंगत समाज की स्थापना तभी संभव है, जब सभी सदस्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए। यह सिद्धांत राजनीतिज्ञों के लिए भी व्यावहारिक है, क्योंकि वर्गीकरण और व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर भेदभाव करना न तो संभव है और न ही उचित।
निष्कर्ष
जाति-प्रथा एक अस्वाभाविक और दोषपूर्ण व्यवस्था है, जो न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित करती है, बल्कि समाज की प्रगति में भी बड़ी बाधा बनती है। आदर्श समाज की स्थापना के लिए समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था का होना आवश्यक है।