संविधान एक जीवंत दस्तावेज Notes in Hindi Class 11 Political Science Chapter-9
0Team Eklavyaदिसंबर 31, 2024
संविधान से क्या अभिप्राय है ?
संविधान का अर्थ बताइए ?
संविधान एक ऐसा लिखित / अलिखित दस्तावेज होता है जिसमें किसे देश में शासन व्यवस्था चलाये जाने से सम्बंधित नियम , कायदे , कानून होते है
संविधान में शासन व्यवस्था का स्वरूप , सरकार की शक्तियां , जनता के अधिकार और कर्तव्य , संस्थाएं ,सरकार के विभिन्न अंग और उसके कार्य , प्रशासन इत्यादि के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है
संविधान कितने प्रकार के होते हैं ?
संविधान मुख्यतः 2 प्रकार के होते है
1. लिखित संविधान
भारत,अमेरिका, फ़्रांस, डेनमार्क, ब्राजील
2. अलिखित संविधान
ब्रिटेन, इजरायल
क्या संविधान अपरिवर्तनीय होते हैं ?
संविधान संशोधन की प्रक्रिया ?
संविधान में इतने संशोधन क्यों किए गए हैं ?
संशोधनों की विषय वस्तु ?
संविधान की मूल संरचना तथा उसका विकास ?
संविधान एक जीवंत दस्तावेज ?
न्यायपालिका का योगदान ?
राजनीतिज्ञों की परिपक्वता ?
क्या संविधान अपरिवर्तनीय होते हैं ?
1 . संविधान में आवश्यकता के अनुसार संसोधन किया जा सकता है
2 . संविधान में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है
उदाहरण –सोवियत संघ ने अपने 74 वर्ष के शासन में 4 बार संविधान बदला है
कब कब बदला - 1918 , 1924, 1936, 1977 में
उदाहरण – फ्रांस ने 5 बार संविधान बदला है
कब कब बदला - 1793 , 1848 , 1875 , 1946 ,1958 में
भारत में संविधान
भारतीय संविधान 26 नवंबर 1949 को अंगीकृत किया गया। इस संविधान को 26 जनवरी 1950 को औपचारिक रूप से लागू किया गया। तब से लेकर आज तक 74 वर्ष बीत चुके हैं और यह संविधान लगातार काम कर रहा है।
हमारे देश की सरकार इसी संविधान के अनुसार काम करती है।
1) क्या हमारा संविधान इतना अच्छा है कि उसमें किसी बदलाव की जरूरत ही नहीं है ?
2) क्या हमारे संविधान-निर्माता इतने दूरदर्शी थे कि उन्होंने समय के बदलावों और घटनाओं का अंदाजा पहले ही लगा लिया था ?
ये दोनों ही बातें ठीक हैं।
यह बात सही है कि हमें एक मज़बूत संविधान विरासत में मिला है।
इस संविधान की बनावट हमारे देश की परिस्थितियों के बेहद अनुकूल हैं।
इसके साथ यह बात भी सही है कि हमारे संविधान-निर्माता अत्यंत दूरदर्शी थे। उन्होंने भविष्य के कई प्रश्नों का समाधान उसी समय कर लिया था।
लेकिन कोई भी संविधान सदा सर्वदा के लिए ठीक नहीं हो सकता।
ऐसा कोई दस्तावेज नहीं होता जिसे बदलने की आवश्यकता न पड़े।
आवश्यकता पड़ने पर हमारे संविधान में भी संसोधन हुए है
अत: हम यह कह सकते हैं की संविधान कोई अपरिवर्तनीय दस्तावेज नहीं होता है
संविधान की रचना मनुष्य ही करता है
उसे इसमें बदलाव की आवश्यकता पड़ती है तो मनुष्य ही इसमें बदलाव या संसोधन करता है
संविधान संशोधन की प्रक्रिया ?
भारत का संविधान लचीला और कठोर का सम्मिश्रण है
संविधान निर्माता जानते थे की संविधान में त्रुटियाँ हो सकती है और भविष्य में इसमें संशोधन की जरूरत हो सकती है
इसलिए उन्होंने संविधान में संशोधन का प्रावधान रखा था
अनुच्छेद 368 के माध्यम से संसद संविधान में अवश्यक के अनुसार संशोधन कर सकती है , नए उपबंध जोड़ सकती है या पुराने उपबंधों को बदल या हटा सकती है
संविधान में संशोधन के तरीके
संशोधन करने के तरीके
1. संसद में सामान्य बहुमत के आधार पर संशोधन
प्रावधान/उदाहरण
नए राज्यों का निर्माण
राज्यों की सीमाओं व नामों में परिवर्तन
राज्यों में उच्च सदन (विधान परिषद) का सृजन या समाप्ति
नागरिकता की प्राप्ति व समाप्ति
सर्वोच्च न्यायलय का क्षेत्राधिकार बढ़ाना
2. संसद के दोनों सदनों में अलग- अलग विशेष बहुमत के आधार पर संशोधन
प्रावधान/उदाहरण
मौलिक अधिकार (राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत)
अन्य प्रावधान जो की पहली व तीसरी श्रेणी में आते हों आदि
3. विशेष बहुमत और आधे राज्यो के समर्थन द्वारा संशोधन
प्रावधान/उदाहरण
राष्ट्रपति के निर्वाचन का तरीका
केन्द्र और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का वितरण
संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व आदि
संविधान में इतने संशोधन क्यों हुए है ?
हमारे संविधान को लागू हुए 74 साल हो गए हैं
अब तक इसमें 106 संशोधन हो चुके हैं जिस समय संविधान बना था उस समय की परिस्थिति के अनुकूल था लेकिन बाद में इसमें संशोधन की आवश्यकता महसूस हुए तो इसमें बदलाव किया गया
संशोधनों की विषय वस्तु ?
संविधान के संशोधन तीन प्रकार के हैं
1. प्रशासनिक संशोधन
2. संविधान की व्याख्या सम्बंधित संशोधन
3. राजनीतिक आम सहमती से सम्बंधित संशोधन
प्रशासनिक संशोधन
उच्च न्यायलय के न्यायधीश की सेवा निवृति की आयु 60 से बढाकर ६२ कर दी गयी
सर्वोच्च न्यायलय के न्यायधीश का वेतन बढाने से संबंधी संशोधन विधायिका में SC ST को आरक्षण का उपबंध
संविधान की व्याख्या सम्बंधित संशोधन
न्यायपालिका और सरकार के बीच में कई बार संविधान की व्याख्या को लेकर मतभेद हुए है
संविधान में अनेको संशोधन इन्ही मतभेदों के कारण हुए है
उदाहरण – मौलिक अधिकारों को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच में विवाद हुआ
राजनीतिक आम सहमती से सम्बंधित संशोधन
1984 के बाद के अधिकतर संशोधनों को इसी श्रेणी में रखा गया है
जैसे – दल बदल विरोधी कानून
61 वां संशोधन ( मतदान की आयु को 21 से 18 कर दिया गया )
73 वां और 74 वां संशोधन
विवादास्पद संशोधन –
जिन संशोधन में विवाद हुआ हो
जैसे – 38 , 39 , 42 वां
संविधान का 42वाँ संशोधन एक बड़ा संशोधन है।
इसने संविधान को गहरे स्तर पर प्रभावित किया।
एक प्रकार से यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानंद मामले में दिए गए निर्णय को भी चुनौती थी।
यहाँ तक कि इसके तहत लोकसभा की अवधि को भी 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया।
मूल कर्तव्यों को संविधान में इसी संशोधन द्वारा जोड़ा गया था।
संविधान का 42वाँ संशोधन न्यायपालिका की समीक्षा शक्तियों पर भी प्रतिबंध लगाता है।
यह कहा जाता है कि इस संशोधन के द्वारा संविधान के एक बड़े मौलिक हिस्से को नए सिरे से लिखा गया।
इस संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना, सातवीं अनुसूची तथा 53 अनुच्छेदों में परिवर्तन किए गए।
जब यह संशोधन संसद में पास किया गया तो विरोधी दलों के बहुत से सांसद जेल में थे।
इसी पृष्ठभूमि में 1977 के चुनाव हुए और सत्ताधारी दल (कांग्रेस) की हार हुई।
नई सरकार ने इन विरोधाभासी संशोधनों पर पुनः विचार करना आवश्यक समझा और 38वें, 39 वें तथा 42वें संशोधन के माध्यम से जो परिवर्तन किए गए थे उनमें से अधिकांश को 43वें, 44वें संशोधन के द्वारा निरस्त कर दिया।
संविधान की मूल संरचना
एक बेहतर शासन और जन-हितकारी प्रशासन के लिए भी स्थानीय समस्याओं का ज्ञान जरूरी है।
स्थानीय शासन का फायदा यह है कि यह लोगों के सबसे नजदीक होता है और इस कारण उनकी समस्याओं का समाधान बहुत तेजी से तथा कम खर्चे में हो जाता है।
स्थानीय शासन
1. गाँव
पंचायत
2. नगर
नगर पालिका
स्थानीय शासन की आवश्यकता
हमें स्थानीय शासन की आवश्यकता क्यों हैं ?
एक मजबूत लोकतान्त्रिक व्यवस्था कायम करने के लिये स्थानीय शासन की आवश्यकता होती है ।
स्थानीय स्तर की राजनीतिक, आर्थिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये स्थानीय शासन की आवश्यकता होती है
सामान्य नागरिकों की प्रतिनिधियों तक पहुंच के लिये स्थानीय शासन की आवश्यकता होती है ।
कार्य को सफल व तीव्र गति से करने हेतु (जन कल्याणकारी कार्य)
आपसी सामंजस्य व सफल प्रशासन हेतु।
भारत में स्थानीय शासन का विकास
ऐसा माना जाता है कि अपना शासन खुद चलाने वाले ग्राम समुदाय प्राचीन भारत में 'सभा' के रूप में मौजूद थे।
समय बीतने के साथ गाँव की इन सभाओं ने पंचायत का रूप ले लिया।
समय बदलने के साथ-साथ पंचायतों की भूमिका और काम भी बदलते रहे।
आधुनिक समय में, स्थानीय शासन के निर्वाचित निकाय सन् 1882 के बाद अस्तित्व में आए।
उस वक्त लार्ड रिपन (Lord Rippon) भारत का वायसराय था।
उसने इन निकायों को बनाने की शुरुआत की। उस वक्त इसे मुकामी बोर्ड (Local Board) कहा जाता था।
इस दिशा में प्रगति बड़ी धीमी गति से हो रही थी।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सरकार से माँग की कि सभी स्थानीय बोर्ड को ज्यादा कारगर बनाने के लिए वह जरूरी कदम उठाए।
गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 के बनने पर अनेक प्रांतों में ग्राम पंचायत बने।
सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही।
महात्मा गांधी ने जोर देकर कहा था कि आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए।
उनका मानना था कि ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाना सत्ता के विकेंद्रीकरण का कारगर साधन है।
विकास के हर कार्य में स्थानीय लोगों की भागीदारी होनी चाहिए
स्वतंत्र भारत में स्थानीय शासन
संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के बाद स्थानीय-शासन को मजबूत आधार मिला।
इससे पहले भी स्थानीय शासन के निकाय बनाने के लिए कुछ प्रयास किये गए थे।
सन 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम (Community Development Programme) लाया गया ।
इस कार्यक्रम का यह उद्देश्य था कि स्थानीय विकास की विभिन्न गतिविधियों में जनता की भागीदारी हो
इसी पृष्ठभूमि में ग्रामीण इलाकों के लिए एक त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की गई।
कुछ प्रदेश (गुजरात, महाराष्ट्र) ने सन् 1960 में निर्वाचन द्वारा बने स्थानीय निकायों की प्रणाली अपनायी।
लेकिन अनेक प्रदेशों में इन स्थानीय निकायों की शक्ति इतनी नहीं थी कि वे स्थानीय विकास की देखभाल कर सकें।
ये निकाय वित्तीय मदद के लिए प्रदेश तथा केंद्रीय सरकार पर बहुत ज्यादा निर्भर थे।
कई प्रदेशों ने तो यह तक नहीं माना कि निर्वाचन द्वारा स्थानीय निकाय स्थापित करने की जरूरत भी है।
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहाँ स्थानीय निकायों को भंग करके स्थानीय शासन का जिम्मा सरकारी अधिकारी को सौंप दिया गया।
कई प्रदेशों में अधिकांश स्थानीय निकायों के चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से हुए।
अनेक प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव समय-समय पर स्थगित होते रहे।
सन् 1987 के बाद स्थानीय शासन की संस्थाओं के गहन पुनरावलोकन की शुरुआत हुई।
सन् 1989 में पी. के. थुगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफ़ारिश की।
समिति की सिफ़ारिश थी कि स्थानीय शासन की संस्थाओं के चुनाव समय-समय पर कराने, उनके समुचित कार्यों की सूची तय करने तथा ऐसी संस्थाओं को धन प्रदान करने के लिए संविधान में संशोधन किया जाये।
संविधान का 73 वां और 74 वां संसोधन
सन् 1989 में केंद्र सरकार ने दो संविधान संशोधनों की बात आगे बढ़ायी।
इन संशोधनों का लक्ष्य था स्थानीय शासन को मजबूत करना और पूरे देश में इसके कामकाज तथा बनावट में एकरूपता लाना।
सन् 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन को संसद ने पारित किया।
संविधान का 73वाँ संशोधन गाँव के स्थानीय शासन से जुड़ा है।
इसका संबंध पंचायती राज व्यवस्था की संस्थाओं से है।
संविधान का 74वाँ संशोधन शहरी स्थानीय शासन (नगरपालिका) से जुड़ा है।
सन् 1993 में 73वाँ और 74वाँ संशोधन लागू हुए।
73 वां संसोधन
त्रि - स्तरीय बनावट
1. जिला पंचायत
2. ब्लॉक समिति / तालुका / मंडल
3. ग्राम पंचायत / ग्राम सभा
73 वां संसोधन
अब सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा त्रि-स्तरीय है।
सबसे नीचे यानी पहली पायदान पर ग्राम पंचायत आती है।
ग्राम पंचायत के दायरे में एक अथवा एक से ज्यादा गाँव होते हैं।
मध्यवर्ती स्तर यानी बीच का पायदान मंडल का है जिसे खंड (Block) या तालुका भी कहा जाता है।
जो प्रदेश आकार में छोटे हैं वहाँ मंडल या तालुका पंचायत यानी मध्यवर्ती स्तर को बनाने की जरूरत नहीं।
सबसे ऊपरले पायदान पर जिला पंचायत का स्थान है।
इसके दायरे में जिले का पूरा ग्रामीण इलाका आता है।
पंचायती हलके में मतदाता के रूप में दर्ज हर वयस्क व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होता है।
ग्राम सभा की भूमिका और कार्य का फ़ैसला प्रदेश के कानूनों से होता है।
जिला पंचायत
1. ब्लॉक समिति तालुका
2. ग्राम पंचायत ग्राम सभा
चुनाव
पंचायती राज के तीनों स्तर के चुनाव सीधा जनता करती है
हर पंचायती राज की अवधी 5 वर्ष की होती है
अगर प्रदेश की सरकार द्वारा समय से पहले पंचायत को भंग कर दिया जाता है तो छः महीने में दुबारा चुनाव करने होते है
आरक्षण
1. महिलाओं के लिए सभी पंचायती संस्थाओं में एक तिहाई सीट आरक्षित है
2. SC / ST के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण का प्रावधान है
3. अगर प्रदेश की सरकार चाहे तो ओबीसी की सीट भी आरक्षित कर सकती है
विषयों का स्थानांतरण
ऐसे 29 विषय जो पहले राज्य सूची में थे, उन्हें अब संविधान की 11 वीं अनुसूची में दर्ज किया गया हैं।
इन विषयों को पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित किया जाना है।
इन विषयों का संबंध स्थानीय स्तर पर होने वाले विकास और कल्याण के कामकाज से है।
इन कार्यों का वास्तविक हस्तांतरण प्रदेश के कानून पर निर्भर है।
हर प्रदेश यह फैसला करेगा कि इन 29 विषयों में से कितने को स्थानीय निकायों के हवाले करना है।
ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज कुछ विषय
1. कृषि
3. लघु सिंचाई, जल प्रबंधन, जल संचय का विकास
..........
8. लघु उद्योग, इसमें खाद्य प्रसंस्करण के उद्योग शामिल हैं।
..........
10. ग्रामीण आवास
11. पेयजल
.........
13. सड़क, पुलिया
14. ग्रामीण विद्युतीकरण
..........
16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम
17. शिक्षा, इसमें प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा शामिल है।
18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा
19. वयस्क और अनौपचारिक शिक्षा
20. पुस्तकालय
21. सांस्कृतिक गतिविधि
22. बाजार और मेला
23. स्वास्थ्य और साफ-सफाई, इसमें अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा डिस्पेंसरी शामिल हैं
24. परिवार नियोजन
25. महिला और बाल-विकास
26. सामाजिक कल्याण
27. कमजोर तबके का कल्याण, खासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का।
28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली।
भारत के अनेक प्रदेशों के आदिवासी जनसंख्या वाले क्षेत्रों को 73वें संशोधन के प्रावधानों से अलग रखा गया था।
ये प्रावधान इन क्षेत्रों पर लागू नहीं होते थे।
लेकिन सन् 1996 में अलग से एक अधिनियम बना और पंचायती व्यवस्था के प्रावधानों के दायरे में इन क्षेत्रों को भी शामिल कर लिया गया।
अनेक आदिवासी समुदायों में जंगल और जल-जोहड़ जैसे साझे संसाधनों की देख-रेख के रीति-रिवाज मौजूद हैं।
इस कारण, नये अधिनियम में आदिवासी समुदायों के इस अधिकार की रक्षा की गई है। वे अपने रीति-रिवाज के अनुसार संसाधनों की देखभाल कर सकते हैं।
इस उद्देश्य से ऐसे इलाकों की ग्राम सभा को अपेक्षाकृत ज्यादा अधिकार दिए गए हैं और निर्वाचित ग्राम पंचायत को कई मायनों में ग्राम सभा की अनुमति लेनी पड़ती है।
इस अधिनियम के पीछे मूल विचार स्व-शासन की स्थानीय परंपरा को बचाना और आधुनिक ढंग से निर्वाचित निकायों से ऐसे समुदायों को परिचित कराना है।
राज्य चुनाव आयुक्त
प्रदेशों के लिए यह आवश्यक है कि वे एक राज्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करें।
इस आयुक्त को जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी।
पहले यह काम प्रदेश का प्रशासन करता था, जो प्रदेश की सरकार के अधीन होता है।
अब भारत के चुनाव आयुक्त के समान प्रदेश का चुनाव आयुक्त भी स्वायत्त (autonomous) है।
प्रदेश का चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र अधिकारी है।
उसके कार्यालय का संबंध भारत के चुनाव आयोग से नहीं होता।
राज्य वित्त आयोग
प्रदेशों की सरकार के लिए हर पाँच वर्ष पर एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना जरूरी है।
यह आयोग प्रदेश में मौजूद स्थानीय शासन की संस्थाओं की आर्थिक स्थिति का जायजा लेगा।
यह आयोग एक तरफ प्रदेश और स्थानीय शासन की व्यवस्थाओं के बीच तो दूसरी तरफ शहरी और ग्रामीण स्थानीय शासन की संस्थाओं के बीच राजस्व के बँटवारे का पुनरावलोकन करेगा।
इस पहल के द्वारा यह सुनिश्चित किया गया है कि ग्रामीण स्थानीय शासन को धन आबंटित करना राजनीतिक मसला न बने।
74 वां संसोधन
74वें संशोधन का संबंध शहरी स्थानीय शासन से है अर्थात् नगरपालिका से।
शहरी इलाकाः-
(1) ऐसे इलाके में कम से कम 5000 की जनसंख्या हो
(2) कामकाजी पुरूषों में कम से कम 75% खेती बाड़ी से अलग काम करते हो
(3) जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो ।
विशेषः-
अनेक रूपों में 74 वें संविधान संशोधन में 73वे संशोधन का दोहराव है लेकिन यह संशोधन शहरी क्षेत्रों से संबंधित है।
73 वें संशोधन के सभी प्रावधान प्रत्यक्ष चुनाव, आरक्षण विषयों का हस्तांतरण, प्रादेशिक चुनाव आयुक्त और प्रादेशिक वित्त आयोग 74 वें संशोधन में शामिल है तथा नगर पालिकाओं पर लागू होते हैं।
73वें और 74वें संशोधन का क्रियान्वयन
अब सभी प्रदेशों ने 73वें संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए कानून बना दिए हैं।
इन प्रावधानों को अस्तित्व में आये अब दस वर्ष से ज़्यादा हो रहे हैं।
इस अवधि (1994-2004) में अधिकांश प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव कम से कम दो बार हो चुके हैं।
मध्य प्रदेश और राजस्थान तथा कुछ और प्रदेशों में तो अब तक तीन बार चुनाव हो चुके हैं
वर्तमान में ग्रामीण भारत में लगभग
जिला पंचायत – 600
प्रखंड स्तर पंचायत – 6000
ग्राम पंचायत – 2,40,000
वर्तमान में शहरी भारत में लगभग
नगर निगम – 100
नगर पालिका – 1400
नगर पंचायत – 2000
पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रावधान के कारण स्थानीय निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है।
आरक्षण का प्रावधान अध्यक्ष और सरपंच जैसे पद के लिए भी है।
इस कारण निर्वाचित महिला जन-प्रतिनिधियों की एक बड़ी संख्या अध्यक्ष और सरपंच जैसे पदों पर आसीन हुई है।
आज कम से कम 200 महिलाएँ जिला पंचायतों की अध्यक्ष हैं।
2,000 महिलाएँ प्रखंड अथवा तालुका पंचायत की अध्यक्ष हैं और ग्राम पंचायतों में महिला सरपंच की संख्या 80,000 से ज्यादा है।
नगर निगमों में 30 महिलाएँ मेयर (महापौर) हैं।
नगरपालिकाओं में 500 से ज्यादा महिलाएँ अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। लगभग 650 नगर पंचायतों की प्रधानी महिलाओं के हाथ में हैं।