Editor Posts footer ads

तुलसीदास कवितावली और लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप व्याख्या Hindi Chapter-7 Class 12 Book- Aroh Chapter Summary

तुलसीदास  कवितावली  और  लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप व्याख्या Hindi Chapter-7 Class 12 Book- Aroh Chapter Summary


 कवितावली 

 गोस्वामी तुलसीदास 


प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह-भाग -2’ में संकलित गोस्वामी तुलसीदास जी की कृति ‘कवितावली’ के ‘कलयुग वर्णन’ प्रसंग से लिया गया है | 


किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट, 
चाकर, चपल नट, चोर, चार , चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी ।।
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
'तुलसी' बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी।।


व्याख्या 

  • इस काव्यांश में लोगों पर कलयुग के प्रभाव का तुलसीदास विस्तार से वर्णन करते हैं
  • तुलसीदास कहते हैं की कलयुग के प्रभाव में आकर लोग ऐसे हो गए हैं की श्रमजीवी , किसान , व्यापारी , भिखारी , भाट , सेवक , चंचल नट , दूत और बाजीगर (करतब दिखने वाले) सब पेट की भूख शांत करने के लिए अनेक उपाय रचते हैं
  • सब लोग पेट के लिए ही ऊंचे-नीचे कर्म तथा धर्म अधर्म करते हैं , लेकिन यह तो केवल राम-रूप घनश्याम द्वारा ही बुझाई जा सकती है 
  • वास्तव में , यहाँ तुलसीदास ने अपने समय की विषम आर्थिक परिस्थितियों का वर्णन किया है 
  • आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण लोग कोई भी बुरा से बुरा काम करने के लिए विवश हैं
  • लोगों की यह विवशता गरीबी तथा बेकारी के कारण हो सकती है
  • इस पेट की आग को बुझाने क लिए लोग अपने बेटे-बेटी तक को बेचने के लिए मजबूर होते हैं 
  • पेट की यह आग मनुष्य को धर्म –अधर्म करने पर मजबूर कर देती है
  • तुलसीदास पर श्रीराम की कृपा है , इसलिए उन्हें भूखा नहीं रहना पड़ा


खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि, 
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों 'कहाँ जाई, का करी?
'बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम ! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु ! 
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।


व्याख्या

  • इस काव्यांश में तुलसीदास ने अपने युग की लाचारी , भुखमरी , बेरोजगारी का चित्रण किया है
  • तुलसीदास अपने आराध्य श्री राम से उसे दूर करने की प्रार्थना करते हैं
  • तुलसीदास अपने समय की भयंकर दुर्दशा कर वर्णन करते हुए कहते हैं – ऐसा बुरा समय आ गया है की किसान के पास खेती करने के साधन नहीं है
  • भिखारी को भीख और दान नहीं मिलता है। बनियों का व्यापार मंदा है। नौकरी के लिए लोग दर दर भटक रहे हैं। उन्हें काम नहीं मिल रहा
  • तुलसी भगवान राम पर आस्था प्रकट करते हुए कहते है – हे राम ! वेदों और पुराणों में भी यही लिखा है
  • आज के युग को देखकर भी मैं कह सकता हूँ की ऐसे संकट के समय में आप ही कृपा करते हैं तो संकट टलता है
  • हे दीनदयालु ! आज दरिद्रता रुपी रावण ने सारी दुनिया को अपने चंगुल में फंसा लिया है 
  • चारों ओर पाप की आग जल रही है 
  • उसे देख कर सब ओर त्राहि त्राहि मच गई है। सब हाय-हाय कर रहे हैं 


धुत कहौ, अवधूत कहौ, राजपूतु कहौ, जोलहा कहौ।
काहू की बेटीसन बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम दासु है राम को, जाको रुचै सो कहै  कछु ओऊ ।
 माँग कै खाइबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दबको दोउ।


व्याख्या

  • इस सवैये में गोस्वामी तुलसीदास ने भक्ति की रचनात्मक भूमिका को स्पष्ट करते हुए , राम की भक्ति के बल के भरोसे जाति-पांति एवं धर्म के आडम्बरों का खंडन करने का साहस दिखाया है
  • तुलसीदास दुनिया को साफ़ साफ़ कहते हैं – चाहे मुझे मक्कार कहे , सन्यासी कहे , चाहे राजपूत वंश का कहे – मुझे इन नामों से कोई फर्क नहीं पड़ता
  • मुझे किसी की बेटी से अपना अपने बेटे का ब्याह तो करना नहीं है  जिससे किसी की जाती में बिगाड़ पैदा हो
  • मैं तो पूरे संसार में राम के दास के रूप में प्रसिद्ध हूँ
  • इसलिए जिसे भी मेरे बारे में जो कुछ कहना है बड़े शौक से वह कहे 
  • मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता
  • मैं तो मांगकर खाता हूँ , मस्जिद में जाकर सो जाता हूँ
  • मुझे दुनिया से न कुछ लेना है न कुछ देना है | मैं अपनी ही धुन में मस्त हूँ 





 लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप 



प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह-भाग -2’ में संकलित गोस्वामी तुलसीदास जी की अमर कृति ‘रामचरित मानस’ के लंका काण्ड में वर्णित प्रसंग ‘लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप’ से लिया गया है |

तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत।। 
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। 
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।

व्याख्या 

  • लक्ष्मण के मूर्छित होने के बाद श्री राम उनकी दशा देखकर विलाप कर रहे थे
  • सुषेण वैद्य की सलाह पर संजीवनी लेने गए हनुमान की लौटते समय मार्ग में , अयोध्या में भरत से भेंट हुई
  • प्रस्तुत काव्यांश में उस समय का वर्णन है जब मेघनाथ द्वारा चलाए गए शक्ति बाण से लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैंलक्ष्मण की ऐसी अवस्था देखकर श्रीराम चिंतित हो उठते हैं
  • हनुमान संजीवनी बूटी को पहचान नहीं पाए इसलिए पूरे पर्वत को ही उठा ले चले
  • हनुमान भरत से बोले हे नाथ ! हे प्रभु ! आप बड़े प्रतापी यह बात मन में धारण करके मैं आपके बाण पर बैठकर तुरंत चला जाऊंगा
  • ऐसा कहकर भारत के चरणों की वंदना करके उनसे आज्ञा लेकर हनुमान लंका की ओर चल पड़े
  • हनुमान भरत के बाहुबल , व्यवहार , गुण तथा राम के चरणों में अपार प्रेम देखकर उनकी मन ही मन बार बार सराहना करते हुए पवन पुत्र हनुमान मार्ग में चले जा रहे थे



उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी।। 

व्याख्या

  • उधर लंका में राम ने मूर्छित लक्ष्मण की ओर देखा
  • वे अधीर होकर मनुष्यों की तरह शोक-भरे वचन कहने लगे



अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायऊ।। 

व्याख्या

  • बोले आधी रात बीत गई है , हनुमान अभी तक नहीं आए
  • राम ने अधीर होकर अपने अनुज लक्ष्मण को उठाकर छाती से लगा लिया



सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।। 
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।

व्याख्या

  • राम बोले – हे भाई ! तुम अपने होते मुझे कभी दुखी नहीं देख सके
  • तुम्हारा स्वभाव हमेशा से ही ऐसा कोमल और मृदु रहा है
  • तुमने मेरे हित के लिए माता-पिता तक को त्याग दिया और जंगल में रहकर  बर्फ , धूप और आंधी तूफ़ान के कष्टों को सहते रहे 



सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।

व्याख्या

  • ओ प्रिय भाई लक्ष्मण ! तुम्हारा वह पहले जैसा प्रेम अब कहाँ है ? 
  • तुम मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं ?
  • यदि मुझे पता होता कि मुझे वन में अपने भाई से बिछुड़ना पड़ेगा तो मैं अपने पिता के वचन मानने से इनकार कर देता और वन में न आता



सुत बित नारी भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बरहिं बारा।।
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।। 

व्याख्या

  • भाई लक्ष्मण ! इस संसार में पुत्र , धन , पत्नी , मकान और परिवार बार बार बनते हैं और बिगड़ते हैं 
  • ये जीवन में आते हैं और फिर चले भी जाते हैं
  • परन्तु सगा भाई चाहकर भी दोबारा नहीं लाया जा सकता |मन में यह विचार करके तुम तुरंत जाग जाओ 



जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करीब करहिना।। 
अस मम जिवन बंध्या बिनु तोही। जौं जड़वत दैव जिआवै मोहि।। 

व्याख्या

  • हे लक्ष्मण ! हे मेरे भाई ! जिस प्रकार पक्षी पंखों के बिना दीन-हीन हो जाता है
  • जैसे मणि के बिना सांप और सूंड के बिना हाथी की दुर्दशा होती है , वैसे ही यदि दुर्भाग्य से कठोरतापूर्वक मुझे तुम्हारे बिना जीवित रखा तो मेरे जीवन की दशा भी ऐसी ही होगी



जइहूँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारी प्रिय प्रिय भाई गँवै।। 
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारी हानि बिदेश छतति नहीं।।

व्याख्या

  • प्रिय भाई ! मैं अयोध्या में कौन-सा मुंह लेकर जाऊँगा ? लोग कहेंगे की देखो , इसने अपनी पत्नी के लिए सगे भाई को गँवा दिया
  • चलो , मैं नारी को खोने का कलंक तो फिर भी सह लूँगा क्योंकि इस विशेष परिस्थिति में पत्नी की हानि उतनी बड़ी बात नहीं है जितनी की भाई को खोना




अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।। 
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा। 

व्याख्या

  • अब तो हे पुत्र लक्ष्मण ! मेरा यह निष्ठुर और कठोर ह्रदय नारी खोने का कलंक और तुम्हारा शोक दोनों को ही सहन करेगा , अर्थात् तुम्हारे बिना तो मुझे सीता भी प्राप्त नहीं हो सकती
  • हे भैया ! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र हो और तुम ही उस माँ के प्राणों का आधार हो तुम्हारे बिना तुम्हारी माँ भी जीवित नहीं रह पाएंगी



सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी।। 
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई।। 

व्याख्या

  • हे लक्ष्मण ! तुम्हे हर प्रकार से सुखदायी और हितैषी मानकर ही तुम्हारी माता ने तुम्हारा हाथ पकड़ कर मेरे हाथ में सौंपा था
  • अब तुम ही बताओ , मैं तुम्हारे बिना उन्हें जाकर क्या उत्तर दूंगा ?मुझे यह बात सिखाते क्यों नहीं ? 



बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन।। 
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई।।

व्याख्या

  • इस प्रकार संसार के प्राणियों को चिंतामुक्त करने वाले श्रीराम स्वयं अनेक प्रकार की चिंताओं में डूब गए
  • उनके कमल जैसे विशाल नयनों से आंसुओं का प्रवाह होने लगा

  • तब कथावाचक शिवजी ने पार्वती को कहा – देखो , वे राम जो स्वयं सम्पूर्ण हैं , अखंड हैं , अपने भक्तों को कृपापूर्वक नरलीला दिखा रहे हैं। वे जान बूझकर सामान्य नारों जैसा आचरण कर रहे हैं।



प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर 
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना मँह बीर रस ।।

व्याख्या

  • प्रभु का विलाप सुनकर वानरों का समूह दुःख से व्याकुल हो उठा
  • तभी हनुमान जी अचानक इस तरह प्रकट हुए जैसे करुण रस में अचानक वीर रस प्रकट हो गया हो
  • आशय यह है की हनुमान के आने से शोक का वातावरण वीरता से भर गया




हरषि राम भेटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।। 
तुरत बैद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई।। 

व्याख्या

  • श्रीराम प्रसन्न होकर हनुमान से भेंट करते हैं उन्होंने हनुमान का बहुत उपकार माना
  • तब वैद्य ने तुरंत ही लक्ष्मण का उपचार किया
  • परिणामस्वरूप लक्ष्मण प्रसन्नतापूर्वक उठ बैठे और उन्हें होश आ गया



हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता।। 
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा।।


व्याख्या

  • राम भाई लक्ष्मण को ह्रदय से लगा कर मिले यह मिलन देखकर यहाँ उपस्थित सभी भालू , वानर आदि प्रसन्न हो उठे 
  • हनुमान ने वैद्य को उसी प्रकार तुरंत उस स्थान पर पहुंचा दिया जहाँ से वह उन्हें सम्मान से लेकर आए थे



यह बृतांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ।। 
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा।। 

व्याख्या

  • लक्ष्मण के होश में आने का सारा वर्णन रावण ने सुना तब वह अत्यंत निराशाजनक होकर पछताने लगा 
  • वह व्याकुल होकर अपने भाई कुम्भकरण के पास गया उसने विविध प्रकार से उसे गहरी नींद से जगाया 



जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा।। 
कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई।।

व्याख्या

  • जागने पर कुम्भकरण ऐसे दिखाई पड़ रहा था मानो साक्षात् काल देह धारण करके बैठा हो |
  • कुम्भकरण ने रावण से पुछा – कहो भाई , क्या बात है ? तुम्हारे मुहँ सूख क्यों रहे हैं ? 




कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी।। 
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे।। 

व्याख्या

  • तब रावण ने अभिमान के साथ वह सारी कथा कह सुनाई की कैसे वह सीता का अपहरण कर लाया था
  • उसने कहा – भाई कुम्भकरण ! राम के वानरों में कई राक्षस मार डाले हैं उन्होंने बड़े बड़े योद्धाओं का संहार कर डाला है



दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी।। 
अपर महोदर आदिक बीरा । परे समर महि सब रनधीरा।।

व्याख्या

  • दुर्मुख , देवांतक , मनुष्य भक्षक (नरान्तक) , महायोद्धा , अतिकाय , भारी-भरकम , अकम्पन और महोदर आदि अन्य वीर रणधीर युद्ध भूमि में मरे पड़े हैं



सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान। 
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान।।

व्याख्या

  • इस काव्यांश में यह बताया है की रावन के वचन सुनकर कुम्भकरण ने क्या प्रतिक्रिया दी |
  • रावण के ये कुवचन सुनकर कुम्भकरण दुखी होकर कहने लगा – अरे दुष्ट !
  • तू जगत जननी सीता का अपहरण करके भी अपना कल्याण चाहता है ? (यह कभी नहीं हो सकता) 









एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Ok, Go it!