सूर्यकांत त्रिपाठी निराला बादल राग व्याख्या Hindi Chapter-6 Class 12 Book-Aroh Chapter Summary
0Team Eklavyaदिसंबर 12, 2024
बादल राग
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
बादल राग निराला जी की प्रसिद्ध कविता है। इसमें बादल को क्रांति का प्रतीक बताया गया है। अतः बादल राग का आशय है – क्रांति का संगीत
प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह-भाग -2’ में संकलित प्रसिद्ध छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की बहुचर्चित कविता ‘बादल राग’ से लिया गया है।
यह कविता मूल रूप में निराला जी के काव्य संग्रह ‘अनामिका’ में संकलित तथा प्रकाशित हुई थी।
तिरती है समीर-सागर पर अस्थिर सुख पर दुख की छाया- जग के दग्ध हृदय पर निर्दय विप्लव की प्लावित माया- यह तेरी रण-तरी भरी आकांक्षाओं से, घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर उर में पृथ्वी के, आशाओं से नवजीवन की, ऊँचा कर सिर, ताक रहे हैं, ऐ विप्लव के बादल!
व्याख्या
बादल छायावादी कवियों का पसंदीदा विषय रहा है।
खुद निराला जी ने ही बादल पर बहुत सी कविताएँ लिखी हैं।
इस कविता का आरम्भ समीर-सागर पर तिरती हुई अस्थिर सुख तथा दुःख की छाया के संकेत से होता है।
कवि कहता है की बादल वायु रुपी सागर के ऊपर अस्थिर सुख पर दुःख की छाया की तरह लहराते हुए मंडरा रहे हैं।
कवि को ऐसा प्रतीत होता है की संसार का ह्रदय दुःख के कारण जला हुआ है।
कवि का आशय यह है की बादल दुःख और शोषण से ग्रस्त संसार के ऊपर जल बरसाकर शोषण के खिलाफ क्रांति का उद्घोष करने वाले क्रांतिदूत की भूमिका में हैं।
कवि बादल को वीर योद्धा की संज्ञा देते हुए कहता है – ओ विनाशकारी बादलों ! तुम्हारी रणनौका अर्थात गरज-तरज और प्रबल आकांशा।
कवि का आशय यह है की बादल दुःख और शोषण से ग्रस्त संसार के ऊपर जल बरसाकर शोषण के खिलाफ क्रांति का उद्घोष करने वाले क्रांतिदूत की भूमिका में हैं।
कवि बादल को वीर योद्धा की संज्ञा देते हुए कहता है – ओ विनाशकारी बादलों ! तुम्हारी रणनौका अर्थात गरज-तरज और प्रबल आकांशा।
तुम्हारी गर्जन के नगाड़े सुनकर धरती की कोख में छिपे अंकुर नया जीवन मिलने की आशा से , धरती से फूटने की उमंग से सिर ऊंचा करके तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
हे विनाश के बादल ! तुम्हारी क्रांतिकारी वर्षा से ही दबे हुए अंकुरों का उद्धार हो पाएगा।
बार-बार गजन वर्षण है मूसलधार, हृदय थाम लेता संसार, सुन-सुन घोर वज्र-हुंकार। अशनि-पात से शापित उन्नत शत-शत वीर, क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर, गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा धीर। हँसते हैं छोटे पौधे लघुभार- शस्य अपार, हिल-हिल खिल-खिल, हाथ हिलाते, तुझे बुलाते, विप्लव-रव से छोटे ही हैं शोभा पाते।
व्याख्या
निराला जी इस काव्यांश में बादलों के बरसने से उत्पन्न वातावरण तथा उनके वर्षण के विभिन्न प्रभावों का प्राकृतिक तथा समाजिक संदर्भ में चित्रण करते हैं।
हे बादल ! तेरे बार बार गरजने तथा धारासार बरसने से सारा संसार डर के मारे अपना कलेजा थाम लेता है।
तेरी भीषण गर्जन और घनघोर ध्वनि से सब लोग आतंकित हो जाते हैं। सभी को तेरी विनाश शीलता में बह जाने का डर सताने लगता है।
अर्थात क्रांति का स्वर सुनकर पूरे संसार के लोगों के हृदय काँप जाते हैं।
बादलों के भयंकर वज्रपात से उन्नति के शिखर पर पहुंचे हुए सैकड़ों सैकड़ों वीर परास्त होकर भूमि भूमिसात हो जाते हैं।
बादलों के भीषण तड़ित पात से आसमान को छूने की स्पर्धा में लगे हुए ऊँचे ऊँचे पहाड़ों के कठोर शरीर तक घायल होकर छलनी हो जाते हैं।
जो जितने ऊंचे होते हैं , वे उतने ही ज्यादा घायल होते हैं।
जबकि उसी बादल की विनाशशीलता में छोटे से अस्तित्व वाले लघु पौधे हँसते हैं।
वे उस विनाश से जीवन प्राप्त करते हैं।
इसलिए हे बादल ! वे छोटे छोटे पौधे तो तुझे हिल-हिल कर खिल-खिल कर , हाथ हिलाते हुए अनेक संकेतों से बुलाते हैं , तुझे निमंत्रण देते हैं।
तुम्हारे आने से उन्हें नया जीवन मिलता है।
विनाश के शोर से हमेशा लघुप्राण ही लाभ पाते हैं।
अर्थात् क्रांति से शोषक वर्ग ही नष्ट होता है।
अट्टालिका नहीं है रे आतंक-भवन सदा पंक पर ही होता जल-विप्लव-प्लावन, क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से सदा छलकता नीर, रोग-शोक में भी हँसता है शैशव का सुकुमार शरीर। रुद्ध कोष है, क्षुब्ध तोष गना-अंग से लिपटे भी आतंक अंक पर काँप रहे हैं। धनी, वज्र-गर्जन से बादल ! त्रस्त-नयन मुख ढाँप रहे हैं।
व्याख्या
इस पद्यांश में कवि ने खुलकर धनी वर्ग पर चोट की है और शोषित लोगों के प्रति सहानुभूति प्रकट की है।
कवि कहता है ऊँचे ऊँचे भवन , ये तो भय और त्रास के निवास हैं।
इनमे रहने वाले लोग हमेशा डरे रहते हैं।
जल की विनाशशीलता तो हमेशा कीचड़ में ही होती है।
वहीं बाढ़ और विनाश का दृश्य उपस्थित होता है।
आशय यह है की हमेशा निम्न वर्ग के लोग ही क्रांति करते हैं।
समृद्ध लोग तो डरे ही रहते हैं। सुविधाभोगी वर्ग के तुच्छ लोग क्रांति से घबराकर आंसू बहाते हैं ।
अर्थात् वे हमेशा बाढ़ से डरे रहते हैं।
आशय यह है की समृद्धि में पले कोमल शिशु क्रांति की ज्वाला नहीं सह सकते।
जबकि निम्न वर्ग के कोमल शिशु ऐसे संघर्षशील होते हैं की रोग और शोक में भी हमेशा मुस्कराते रहते हैं।
पूंजीपति लोगों ने धन से परिपूर्ण अपने खजानों को अपने लिए सुरक्षित रखकर बंद किया हुआ है।
उन्होंने औरों को उस धन से वंचित कर दिया है।
इतना धन होने पर भी उनके मन में संतोष नहीं हैं।
वे हमेशा डरे रहते हैं।
मोटे मोटे पूंजीपति अपने अपने महलों में अपनी पत्नियों के अंगों से लिपटे हुए भी कांप रहे हैं। उन्हें क्रांति का भय है।
जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर, तुझे बुलाता कृषक अधीर, ऐ विप्लव के वीर! चूस लिया है उसका सार, हाड़-मात्र ही है आधार, ऐ जीवन के पारावार!
व्याख्या
इन पंक्तियों में कवि समाज के शोषक वर्ग तथा शोषित वर्ग अर्थात धनी वर्ग तथा गरीब वर्ग का चित्रण करता है ।
कवि बादलों को संबोधित करते हुए कहता है – हे विनाश रचाने वाले बादल !
देखों तुम्हे जर्जर भुजाओं वाला , दुर्बल – हीन शरीर वाला किसान व्याकुल होकर बुला रहा है।
उसने अपनी भुजाओं का सारा बल जिस समृद्धि को उत्पन्न करने में गंवा गँवा दिया , उस समृद्धि ने उसके शरीर का सारा रस ही मानो चूस लिया।
इस पूंजीपति वर्ग ने ही किसान का शोषण करके उसकी ऐसी बुरी दशा बनाई है।
अब तो उस किसान के शरीर में मात्र हड्डियों का पंजर ही शेष रह गया है।
उसका रक्त-मांस शोषण व्यवस्था ने चूस लिया है।
ऐसी अवस्था में हे जीवन दाता , जल के सागर , बादल ! तुम्ही बरसकर उस पर कृपा करो।
तुम्ही ऐसी क्रांति करो , जिससे वह शोषण मुक्त हो सके तथा उसकी सूखी हड्डियों में पुनः रक्त-मांस आ सके।