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संघवाद Notes in Hindi Class 10 Politcial Science Chapter-2 Book- Loktantrik Rajniti sanghavaad Federalism

संघवाद Notes in Hindi Class 10 Politcial Science Chapter-2 Book- Loktantrik Rajniti sanghavaad Federalism

परिचय

इस अध्याय में हम संघवाद पर चर्चा करेंगे, जो आधुनिक लोकतंत्रों में सत्ता के बँटवारे का एक सामान्य तरीका है। यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों को एक ही लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत साथ रहने और काम करने का मौका मिलता है। हम भारत में संघवाद के सिद्धांत और व्यवहार को समझने की कोशिश करेंगे। इसमें संवैधानिक प्रावधानों, संघवाद को मज़बूत करने वाली नीतियों और राजनीति का अध्ययन करेंगे। अंत में, भारतीय संघवाद के एक नए स्तर, यानी स्थानीय शासन, पर भी चर्चा की जाएगी।

  संघवाद क्या है?  

1. संघवाद 

  • संघवाद एक शासन प्रणाली है जिसमें सत्ता केंद्रीय सरकार और राज्यों (या प्रांतों) के बीच बांटी जाती है। इसमें दोनों स्तर की सरकारें स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं और अपने-अपने क्षेत्र के लिए जिम्मेदार होती हैं।

2. संघवाद और एकात्मक शासन में अंतर

  • संघवाद और एकात्मक शासन में महत्वपूर्ण अंतर होता है। 
  • संघवाद में केंद्रीय और प्रांतीय सरकारें स्वतंत्र रूप से काम करती हैं और एक-दूसरे को आदेश नहीं दे सकतीं। 
  • इसके विपरीत, एकात्मक शासन में केंद्र सरकार के पास पूरी ताकत होती है और प्रांतीय सरकारें केंद्र के अधीन कार्य करती हैं। 
  • इस प्रकार, संघीय ढांचे में शक्तियों का विभाजन होता है, जबकि एकात्मक प्रणाली में सारी शक्ति केंद्र सरकार के पास निहित रहती है।

3. संघीय शासन की मुख्य विशेषताएँ

  • संघीय व्यवस्था में दो या अधिक स्तर की सरकारें होती हैं, जैसे केंद्र और राज्य स्तर की सरकारें। 
  • इसमें सत्ता का स्पष्ट बंटवारा होता है, जिसमें संविधान द्वारा अधिकार और जिम्मेदारियाँ तय की जाती हैं। 
  • संविधान की सुरक्षा के लिए उसमें बदलाव केवल दोनों स्तर की सरकारों की सहमति से ही किया जा सकता है। 
  • अदालतें अधिकार विवादों को सुलझाने में अहम भूमिका निभाती हैं। 
  • वित्तीय स्वायत्तता के तहत हर स्तर की सरकार के लिए अलग-अलग राजस्व स्रोत निर्धारित होते हैं। 
  • संघीय व्यवस्था समानता और विविधता का सम्मान करते हुए देश की एकता बनाए रखती है और क्षेत्रीय विविधताओं को मान्यता प्रदान करती है।

4. संघीय व्यवस्था के निर्माण के तरीके

  • संघीय व्यवस्थाएं स्वतंत्र देशों के एकीकरण या आंतरिक विविधता के आधार पर बनाई जा सकती हैं। 
  • स्वतंत्र देशों के एकीकरण के उदाहरण जैसे अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में, राज्यों को अधिक ताकत दी जाती है और वे काफी हद तक स्वायत्त होते हैं। 
  • वहीं, आंतरिक विविधता के आधार पर बने संघीय देशों जैसे भारत और बेल्जियम में, केंद्र सरकार अधिक शक्तिशाली होती है, जो देश की एकता बनाए रखते हुए विविधता को प्रबंधित करती है।
  • संघवाद का उद्देश्य देश की एकता बनाए रखना और क्षेत्रीय विविधताओं का सम्मान करना है। 
  • यह शासन का एक आदर्श रूप है, जिसमें सहयोग और विश्वास सबसे अहम हैं।


  भारत में संघीय व्यवस्था 

1. भारत में संघवाद

  • भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में सत्ता का बंटवारा बहुत सोच-समझकर किया गया है। भारत का संविधान देश को राज्यों का संघ घोषित करता है और संघीय शासन व्यवस्था की विशेषताओं को अपनाता है।

2. भारत में संघीय शासन की व्यवस्था

संघीय व्यवस्था में सत्ता तीन स्तरों में बंटी होती है:-

  • केंद्र सरकार: पूरे देश के लिए कानून और नीतियां बनाती है।
  • राज्य सरकारें: राज्यों के अंदरूनी और स्थानीय मामलों को संभालती हैं।
  • स्थानीय निकाय: पंचायत और नगरपालिकाएं, जो रोजमर्रा के प्रशासन की जिम्मेदारी संभालती हैं।

सत्ता का बंटवारा तीन सूचियों में किया गया है:-

  • संघ सूची: इसमें रक्षा, विदेशी मामले, और बैंकिंग जैसे विषय हैं। इन पर केवल केंद्र सरकार कानून बना सकती है।
  • राज्य सूची: इसमें पुलिस, कृषि, और सिंचाई जैसे विषय हैं। इन पर राज्य सरकार कानून बनाती है।
  • समवर्ती सूची: इसमें शिक्षा, विवाह, और मजदूर संघ जैसे विषय हैं। इन पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं। लेकिन टकराव होने पर केंद्र का कानून मान्य होगा।

जो विषय इन सूचियों में नहीं आते (जैसे कंप्यूटर सॉफ़्टवेयर), वे केंद्र सरकार के अधिकार में होते हैं।

3. सभी राज्यों के अधिकार समान नहीं हैं

  • भारतीय संविधान के तहत कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को विशेष दर्जा प्राप्त है। 
  • असम, नागालैंड, मिज़ोरम जैसे राज्यों को अनुच्छेद 371 के तहत विशेष अधिकार दिए गए हैं, जो स्वदेशी लोगों की संस्कृति और उनके भूमि अधिकारों को संरक्षित करते हैं। 
  • दूसरी ओर, केंद्र शासित प्रदेश जैसे दिल्ली, चंडीगढ़ और लक्षद्वीप छोटे क्षेत्र होते हैं जिन्हें राज्यों के बराबर अधिकार नहीं मिलते। इनका प्रशासन केंद्र सरकार के अधीन होता है।

4. संविधान की मजबूती और न्यायपालिका की भूमिका

  • केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता के बंटवारे में किसी भी प्रकार का बदलाव करना आसान नहीं है और इसके लिए विशेष प्रक्रिया का पालन करना होता है। 
  • संसद में दो-तिहाई बहुमत और आधे राज्यों की विधानसभाओं की मंजूरी आवश्यक होती है।
  • इसके अलावा, यदि केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारों को लेकर कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो इसे सुलझाने की जिम्मेदारी उच्चतम न्यायालय की होती है।

5. राजस्व और संसाधन

  • केंद्र और राज्य, दोनों को अपने-अपने स्तर पर कर लगाने और राजस्व इकट्ठा करने का अधिकार दिया गया है, जिससे वे अपने कामकाज को सुचारू रूप से चला सकें। 
  • यह अधिकार उन्हें संविधान के तहत दिया गया है, ताकि वे अपनी जिम्मेदारियों को प्रभावी ढंग से निभा सकें और जनता को आवश्यक सेवाएं प्रदान कर सकें।
  • भारत का संघीय ढांचा देश की विविधता और एकता दोनों को संतुलित करता है। यह प्रणाली "सभी को साथ लेकर चलने" के सिद्धांत पर आधारित है।


 संघीय व्यवस्था कैसे चलती है? 

भारत में संघीय व्यवस्था का कारगर तरीके से चलना सिर्फ संवैधानिक प्रावधानों पर निर्भर नहीं है। इसकी सफलता का असली कारण भारत की लोकतांत्रिक राजनीति का चरित्र है। यही राजनीति संघवाद की भावना, विविधता का सम्मान, और साथ रहने की इच्छा को बढ़ावा देती है।

संघीय व्यवस्था को चलाने के प्रमुख कारण:-

  • संविधान में स्पष्ट प्रावधान: भारतीय संविधान में केंद्र और राज्यों के अधिकारों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है। इसके लिए तीन सूचियों—संघ सूची, राज्य सूची, और समवर्ती सूची—का प्रावधान किया गया है, जिनके माध्यम से केंद्र और राज्यों की जिम्मेदारियाँ और अधिकार निर्धारित किए गए हैं। यह व्यवस्था सत्ता के संतुलन और प्रभावी प्रशासन सुनिश्चित करती है।
  • विविधता का सम्मान: भारत की राजनीति ने अपनी भाषाई और सांस्कृतिक विविधताओं को अपनाते हुए एकता बनाए रखने में सफलता पाई है। भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन इस दिशा में एक महत्वपूर्ण और सफल कदम था, जिसने विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक समूहों को अपनी पहचान बनाए रखने का अवसर दिया और राष्ट्रीय एकता को भी मजबूत किया।
  • क्षेत्रीय दलों की भागीदारी: क्षेत्रीय पार्टियों ने राज्यों के स्थानीय मुद्दों को प्रभावी रूप से उठाते हुए उन्हें केंद्र तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके परिणामस्वरूप राज्यों को अपनी पहचान और अधिकार प्राप्त हुए, जिससे भारतीय संघीय ढांचा और अधिक मजबूत और संतुलित हुआ।
  • राजनीतिक सहयोग: भले ही केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दल सत्ता में हों, उन्होंने सहमति और संवाद के माध्यम से मिलकर काम किया है। यह आपसी सहयोग संघीय व्यवस्था को मजबूत करने और राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है।
  • न्यायपालिका की भूमिका: केंद्र और राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों को सुलझाने में न्यायपालिका ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। न्यायालयों ने संवैधानिक मूल्यों का पालन सुनिश्चित करते हुए विवादों का समाधान किया, जिससे संघीय व्यवस्था की स्थिरता और संतुलन बनाए रखने में मदद मिली।
  • संकट के समय एकता: प्राकृतिक आपदाओं या राष्ट्रीय आपातकाल जैसी स्थितियों में केंद्र और राज्य मिलकर कार्य करते हैं, जिससे प्रभावी राहत और प्रबंधन सुनिश्चित होता है। इस प्रकार की संयुक्त कार्रवाई संघीय भावना को सुदृढ़ करती है और राष्ट्रीय एकता को बल प्रदान करती है।


 भाषायी राज्यों का गठन 

भारत में भाषायी आधार पर राज्यों का गठन देश की लोकतांत्रिक राजनीति की पहली बड़ी परीक्षा थी। 1947 में आजादी के बाद से 2019 तक भारत के राजनीतिक नक्शे में कई बड़े बदलाव हुए। पुराने प्रांत गायब हुए, नए राज्यों का गठन हुआ, और कई राज्यों की सीमाएँ, क्षेत्र और नाम बदले गए।

1. भाषायी राज्यों का गठन

  • 1950 के दशक में, एक भाषा बोलने वाले लोगों को एक राज्य में संगठित करने के उद्देश्य से कई पुराने राज्यों की सीमाओं में बदलाव किया गया, जिससे प्रशासन को आसान और सुगम बनाया जा सका। 
  • इसके अलावा, भाषा के साथ-साथ संस्कृति, भूगोल, और जातीय विविधता के आधार पर भी नए राज्यों का गठन किया गया, जैसे नगालैंड, उत्तराखंड, और झारखंड, जो इन क्षेत्रों की विशेष पहचान और आवश्यकताओं को दर्शाते हैं।

2. डर और परिणाम

  • शुरुआत में, कई नेताओं को यह डर था कि भाषावार राज्यों का गठन देश की एकता को कमजोर कर सकता है। हालांकि, इसका परिणाम इसके विपरीत निकला। 
  • भाषायी आधार पर राज्यों के गठन ने न केवल देश को अधिक एकीकृत और मजबूत बनाया, बल्कि प्रशासन में भी सुधार किया। साथ ही, इसने क्षेत्रीय विविधता का सम्मान बढ़ाते हुए राष्ट्रीय एकता को और सुदृढ़ किया।

3. भारत की भाषा-नीति

  • भारत में भाषा-नीति देश के संघीय ढाँचे की दूसरी बड़ी परीक्षा थी। 
  • संविधान ने किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया, बल्कि हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी। 
  • चूंकि हिंदी सिर्फ 40% भारतीयों की मातृभाषा है, अन्य भाषाओं के संरक्षण के लिए भी विशेष कदम उठाए गए।

4. भारत की भाषा - नीति की मुख्य बातें

  • भारतीय संविधान ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया और अन्य 22 भाषाओं को अनुसूचित भाषाओं के रूप में मान्यता प्रदान की। 
  • केंद्र सरकार की परीक्षाओं में उम्मीदवारों को इन भाषाओं में परीक्षा देने की अनुमति है। राज्यों के स्तर पर हर राज्य की अपनी राजभाषा होती है, और प्रशासनिक कार्य मुख्य रूप से उसी भाषा में किए जाते हैं। 
  • संविधान के अनुसार, अंग्रेज़ी का उपयोग 1965 में बंद होना था, लेकिन गैर-हिंदी भाषी राज्यों, विशेष रूप से दक्षिण भारत की मांग पर इसे जारी रखा गया। 
  • तमिलनाडु में इस मुद्दे पर उग्र आंदोलन हुए, जिसके बाद केंद्र सरकार ने हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों के उपयोग की अनुमति दी। 
  • केंद्र सरकार हिंदी को बढ़ावा देती है, लेकिन इसे गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर थोपने से बचती है। इस लचीले रवैये ने भारत को श्रीलंका जैसी भाषा-आधारित अशांति से बचाए रखने में मदद की है।


  केंद्र-राज्य संबंध: भारत में संघवाद  

भारत में केंद्र और राज्य सरकारों के संबंध समय के साथ बदलते रहे हैं। यह बदलाव संघीय ढाँचे को मजबूत करने और सत्ता की साझेदारी को बेहतर बनाने में अहम साबित हुए हैं।

1. पहले दौर: एक पार्टी का दबदबा

  • आज़ादी के बाद लंबे समय तक केंद्र और अधिकांश राज्यों में एक ही पार्टी (कांग्रेस) का शासन रहा, जिसके कारण राज्य सरकारों ने संघीय स्वायत्तता का प्रभावी उपयोग कम किया। 
  • बाद में, जब केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें बनने लगीं, तो केंद्र सरकार ने कई बार राज्यों के अधिकारों की अनदेखी की। 
  • इसके तहत संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग करते हुए विपक्षी दलों की राज्य सरकारों को भंग कर दिया गया, जिससे संघीय व्यवस्था प्रभावित हुई।

2.बदलाव का दौर: 1990 के बाद

  • क्षेत्रीय दलों के उदय के साथ, कई राज्यों में इन दलों ने सत्ता हासिल की, जिससे राज्यों की स्वायत्तता को अधिक महत्व मिला। 
  • लोकसभा में किसी एक पार्टी को बहुमत न मिलने के कारण गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ, जिसने केंद्र सरकार को राज्यों के साथ बेहतर तालमेल बनाने पर मजबूर किया। 
  • इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले ने केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को मनमाने तरीके से भंग करने पर रोक लगा दी। 
  • इस निर्णय ने संघवाद की भावना को और मजबूत किया और राज्यों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित की।

3. आज का दौर: मजबूत संघवाद

  • आज भारत में केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता की साझेदारी पहले की तुलना में अधिक प्रभावी हो गई है। 
  • राज्यों की स्वायत्तता का सम्मान बढ़ा है, और केंद्र एवं राज्यों के बीच बेहतर तालमेल ने संघीय व्यवस्था को मजबूत किया है। 
  • यह सहयोगात्मक दृष्टिकोण न केवल प्रशासन को सुचारू बनाता है, बल्कि राष्ट्रीय एकता और विकास को भी प्रोत्साहित करता है।


 भारत में विकेंद्रीकरण 

भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में शासन को केवल दो स्तर (केंद्र और राज्य) तक सीमित रखना पर्याप्त नहीं था। राज्यों के भीतर भी सत्ता के बंटवारे की ज़रूरत महसूस हुई। यही वजह है कि भारत में तीन स्तर की सरकार का ढांचा अपनाया गया, जिसमें तीसरा स्तर स्थानीय सरकारों का है। इसे विकेंद्रीकरण कहा जाता है।

1. विकेंद्रीकरण क्या है?

  • जब केंद्र और राज्य सरकारें अपनी कुछ शक्तियां और जिम्मेदारियां स्थानीय सरकारों को सौंपती हैं, तो इसे विकेंद्रीकरण कहा जाता है। 
  • इसका मुख्य उद्देश्य स्थानीय स्तर पर समस्याओं का समाधान करना है, क्योंकि स्थानीय लोग अपने क्षेत्र की जरूरतों और प्राथमिकताओं को बेहतर समझते हैं। 
  • यह प्रणाली न केवल प्रशासन को अधिक प्रभावी बनाती है, बल्कि जनता की भागीदारी को भी प्रोत्साहित करती है।

2. विकेंद्रीकरण के लाभ

  • विकेंद्रीकरण के माध्यम से स्थानीय समस्याओं का समाधान अधिक प्रभावी तरीके से किया जा सकता है, क्योंकि स्थानीय लोग अपने मुद्दों को बेहतर समझते हैं और उनसे कुशलता से निपट सकते हैं। 
  • इसके साथ ही, यह प्रणाली लोकतांत्रिक भागीदारी को बढ़ावा देती है, क्योंकि स्थानीय स्तर पर लोगों को फैसलों में शामिल किया जाता है, जिससे लोकतंत्र की जड़ें और मजबूत होती हैं। 
  • महिलाओं और वंचित वर्गों के सशक्तिकरण के लिए सीटों का आरक्षण सुनिश्चित किया गया है, जिससे महिलाओं और अनुसूचित जाति/जनजातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है और उनकी भागीदारी अधिक प्रभावी हुई है।

3. विकेंद्रीकरण की शुरुआत और सुधार

  • पहले ग्राम पंचायतें और नगरपालिकाएँ तो मौजूद थीं, लेकिन वे राज्य सरकारों के पूर्ण नियंत्रण में थीं, जिनके पास न तो पर्याप्त अधिकार थे और न ही संसाधन। 
  • यहां तक कि इनके चुनाव भी नियमित रूप से नहीं होते थे। 1992 में संविधान में संशोधन कर इन स्थानीय स्वशासी निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। 
  • इस सुधार के तहत, स्थानीय चुनाव नियमित रूप से कराना अनिवार्य हो गया, और महिलाओं एवं वंचित वर्गों के लिए सीटों का आरक्षण सुनिश्चित किया गया। 
  • साथ ही, राज्य सरकारों को अपने राजस्व और अधिकारों का एक हिस्सा स्थानीय निकायों को सौंपने के लिए बाध्य किया गया, जिससे इन संस्थानों को अधिक स्वायत्तता और प्रभावशीलता मिली।

4. स्थानीय सरकारों का ढांचा

  • स्थानीय स्वशासन प्रणाली के तहत ग्राम स्तर पर प्रत्येक गाँव में एक ग्राम पंचायत होती है, जिसके सदस्य (पंच) और प्रधान का चुनाव गाँव के लोग करते हैं। 
  • ग्राम सभा, जिसमें गाँव के सभी मतदाता शामिल होते हैं, पंचायत के कामकाज की देखरेख करती है। ब्लॉक स्तर पर कई ग्राम पंचायतों को मिलाकर पंचायत समिति बनाई जाती है, जिसके सदस्य पंचायतों के प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हैं। 
  • जिला स्तर पर सभी पंचायत समितियों को मिलाकर जिला परिषद का गठन होता है, जिसके सदस्य सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं, और इसमें सांसद और विधायक भी शामिल होते हैं। 
  • शहरी क्षेत्रों में छोटे शहरों के लिए नगरपालिकाएँ और बड़े शहरों के लिए नगर निगम होते हैं, जिनके प्रमुख (मेयर) और सदस्य जनता द्वारा चुने जाते हैं। यह संरचना स्थानीय प्रशासन को सुदृढ़ बनाती है।

5. समस्याएँ और चुनौतियाँ

  • हालांकि स्थानीय स्वशासी निकायों को संवैधानिक दर्जा दिया गया है, लेकिन कई चुनौतियां अभी भी बनी हुई हैं। 
  • अधिकांश ग्राम सभाओं की बैठकें नियमित रूप से नहीं होतीं, और कई राज्यों ने स्थानीय निकायों को पर्याप्त अधिकार और संसाधन प्रदान नहीं किए हैं। 
  • इसके कारण स्थानीय सरकारों की स्वायत्तता अभी भी सीमित है, जिससे उनके कार्यों और निर्णयों की प्रभावशीलता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

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