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जाति, धर्म और लैंगिक मसले Notes in Hindi Class 10 Political Science Chapter-3 Book-Loktantrik Rajniti jaati, dharm aur laingik masale Caste, religion and gender issues

जाति, धर्म और लैंगिक मसले Notes in Hindi Class 10 Political Science Chapter-3 Book-Loktantrik Rajniti jaati, dharm aur laingik masale Caste, religion and gender issues



परिचय

इस अध्याय में हम देखेंगे कि सामाजिक विविधता लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है, बल्कि यह राजनीति में फायदा भी पहुँचा सकती है। हम भारत में लोकतंत्र के कामकाज के संदर्भ में इस विचार को समझेंगे। यहाँ तीन प्रमुख सामाजिक असमानताओं पर ध्यान दिया जाएगा— लिंग, धर्म और जाति। हम जानेंगे कि ये असमानताएँ क्या हैं और राजनीति में कैसे प्रकट होती हैं। अंत में, यह समझने की कोशिश करेंगे कि क्या ये असमानताएँ लोकतंत्र के लिए फायदेमंद हैं या नुकसानदेह।


 लैंगिक मसले और राजनीति 

लैंगिक असमानता समाज में हर जगह दिखाई देती है, लेकिन राजनीति के अध्ययन में इसे अक्सर नजरअंदाज किया जाता है। इसे प्राकृतिक या अपरिवर्तनीय मान लिया जाता है, जबकि वास्तव में इसका आधार जैविक भिन्नता नहीं है।

1. असमानता का कारण

  • रूढ़िवादी धारणाएँ समाज में स्त्री और पुरुष के बारे में बनी पुरानी और पारंपरिक छवियों को दर्शाती हैं। 
  • इन धारणाओं के कारण महिलाओं और पुरुषों के लिए पहले से ही तयशुदा सामाजिक भूमिकाएँ और जिम्मेदारियाँ निर्धारित कर दी जाती हैं, जो उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और क्षमता को सीमित करती हैं।
  • लैंगिक असमानता को समझने और मिटाने के लिए इन रूढ़ियों और भूमिकाओं पर सवाल उठाना जरूरी है। यह केवल समाज का नहीं, राजनीति का भी अहम मुद्दा है।

2. निजी और सार्वजनिक जीवन में लैंगिक असमानता

  • लैंगिक असमानता हमारे समाज में गहराई से फैली हुई है। 
  • बचपन से ही लड़कों और लड़कियों को अलग-अलग सामाजिक भूमिकाओं के लिए तैयार किया जाता है। 
  • लड़कियों को यह सिखाया जाता है कि उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी घर और परिवार है, जबकि लड़के बाहरी कामों के लिए तैयार किए जाते हैं।

3. घर और बाहर का विभाजन

  • भारतीय समाज में घर का काम, जैसे खाना बनाना, सफाई और बच्चों की देखभाल, अधिकतर महिलाओं की जिम्मेदारी मानी जाती है, जबकि बाहर का काम पुरुषों के हिस्से आता है। 
  • दिलचस्प बात यह है कि जब यही काम, जैसे खाना बनाना, पैसे के लिए किया जाता है (जैसे होटल में रसोइया का काम), तो पुरुष इसे खुशी से करते हैं। 
  • इस व्यवस्था के कारण महिलाओं पर दोहरा बोझ पड़ता है, क्योंकि वे घरेलू कामों के साथ-साथ आमदनी के लिए भी काम करती हैं, लेकिन उनके काम को अक्सर कम महत्व दिया जाता है। सार्वजनिक जीवन में भी महिलाओं की स्थिति असमान है। 
  • जनसंख्या का आधा हिस्सा होने के बावजूद उनकी सार्वजनिक और राजनीतिक भागीदारी सीमित है। 
  • इतिहास में, महिलाओं को वोट देने और चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं था, लेकिन आंदोलनों और संघर्षों के माध्यम से उन्होंने अपने अधिकार प्राप्त किए, जिससे उनकी स्थिति में सुधार हुआ है।

4. महिलाओं के साथ भेदभाव के मुख्य रूप

  • भारत में महिलाओं को शिक्षा, आर्थिक अवसर, और सामाजिक सुरक्षा में कई प्रकार की असमानताओं का सामना करना पड़ता है। 
  • महिला साक्षरता दर केवल 54% है, जो पुरुषों की 76% साक्षरता दर से काफी कम है।
  • लड़कियों की उच्च शिक्षा तक पहुँच सीमित है, क्योंकि माता-पिता अक्सर लड़कों को प्राथमिकता देते हैं। आर्थिक असमानता भी गंभीर समस्या है; महिलाएँ पुरुषों से अधिक काम करती हैं, लेकिन उन्हें कम मज़दूरी मिलती है। 
  • समान मज़दूरी अधिनियम के बावजूद, महिलाओं को समान काम के लिए भी कम भुगतान किया जाता है। लिंग अनुपात में गिरावट बेटा चाहने की मानसिकता और कन्या भ्रूण हत्या जैसी प्रथाओं का परिणाम है, जिससे भारत का लिंग अनुपात प्रति 1000 पुरुषों पर केवल 919 महिलाएँ रह गया है। 
  • इसके अलावा, घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न जैसी समस्याएँ महिलाओं के लिए आम हैं, और वे शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में असुरक्षित महसूस करती हैं।

5. नारीवादी आंदोलनों का योगदान

  • नारीवादी आंदोलनों ने महिलाओं के लिए राजनीतिक, वैधानिक, और सामाजिक बराबरी की माँग उठाते हुए उनके अधिकारों के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया। 
  • इन आंदोलनों के परिणामस्वरूप आज महिलाएँ डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक जैसे क्षेत्रों में सफलतापूर्वक काम कर रही हैं और अपनी पहचान बना रही हैं। 
  • स्कैंडिनेवियाई देशों, जैसे स्वीडन और नार्वे, में महिलाओं की भागीदारी का ऊँचा स्तर एक प्रेरणा का स्रोत है, जो यह दिखाता है कि समान अवसर मिलने पर महिलाएँ हर क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर सकती हैं।

6. महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व

  • महिलाओं के अधिकारों और समान व्यवहार की ओर ध्यान कम दिया जाता है। 
  • नारीवादी आंदोलनों ने यह महसूस किया कि जब तक महिलाओं का राजनीतिक सत्ता में प्रतिनिधित्व नहीं होगा, तब तक उनकी समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। 
  • एक तरीका यह है कि चुनावी राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जाए।

7. महिलाओं का वर्तमान राजनीतिक प्रतिनिधित्व

  • भारत में महिला प्रतिनिधित्व अब भी सीमित है। 
  • 2019 में पहली बार लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या 14.36% तक पहुँची, लेकिन राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी भी 5% से कम है। 
  • इस क्षेत्र में भारत का स्थान दुनिया के कई देशों, विशेष रूप से अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों से भी पीछे है, जो महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण और भागीदारी में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं।

8. समाधान की दिशा

  • भारत में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए आरक्षण एक महत्वपूर्ण कदम रहा है। 
  • पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई हैं, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय निकायों (गाँव और शहर) में 10 लाख से अधिक निर्वाचित महिलाएँ सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभा रही हैं। 
  • महिला संगठनों की मांग पर, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में भी महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित करने के उद्देश्य से महिला आरक्षण विधेयक पेश किया गया। 
  • यह विधेयक 2023 में पारित हुआ और इसे नारी शक्ति वंदन अधिनियम के नाम से जाना जाता है। इसके तहत लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।


 धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति 

धर्म   

धर्म और राजनीति का संबंध हमेशा एक जटिल मुद्दा रहा है। धार्मिक विभाजन, जैसे कि लैंगिक विभाजन नहीं है, लेकिन आजकल धार्मिक विभिन्नता दुनिया भर में व्यापक रूप से मौजूद है। भारत और अन्य देशों में कई धर्मों के अनुयायी रहते हैं, और जब लोग एक ही धर्म को मानते हुए भी अलग-अलग पूजा पद्धतियों या मान्यताओं का पालन करते हैं, तो इससे मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं।

1. गांधी जी का दृष्टिकोण

  • गांधी जी का मानना था कि राजनीति को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता, लेकिन यहां धर्म का मतलब किसी विशेष धर्म, जैसे हिंदू या इस्लाम से नहीं था। 
  • गांधी जी के अनुसार, धर्म का अर्थ नैतिक मूल्यों से था, जो सभी धर्मों का मूल आधार हैं। 
  • गांधी जी का विश्वास था कि राजनीति को ऐसे नैतिक मूल्यों द्वारा निर्देशित किया जाना चाहिए, जो समाज में ईमानदारी, न्याय और सत्य को बढ़ावा दें। 
  • गांधी जी के विचार में धर्म और राजनीति का यह समन्वय समाज को सही दिशा में ले जाने का साधन है।

2. धर्म और राजनीति में संबंध

  • सांप्रदायिक दंगों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए मानवाधिकार समूहों ने सरकार से आग्रह किया है कि वह धार्मिक हिंसा और दंगों को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करे। 
  • साथ ही, महिला आंदोलनों ने धार्मिक पारिवारिक कानूनों में व्याप्त भेदभाव की ओर ध्यान आकर्षित किया है। उनका कहना है कि ये कानून महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ हैं, और उन्होंने सरकार से इन कानूनों में बदलाव कर उन्हें अधिक समतामूलक बनाने की मांग की है।

3. राजनीति में धर्म का रोल

  • धार्मिक विचार, आदर्श, और मूल्य राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, बशर्ते वे समानता और न्याय को बढ़ावा दें। 
  • हर धार्मिक समुदाय को अपनी जरूरतें और मांगें राजनीति में उठाने का अधिकार होना चाहिए, क्योंकि यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है। 
  • यदि सरकार सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करती है और किसी भी धर्म के खिलाफ भेदभाव नहीं करती, तो यह सकारात्मक और न्यायपूर्ण राजनीति का उदाहरण माना जाता है, जो समाज में एकता और समरसता को मजबूत करती है।

सांप्रदायिकता

सांप्रदायिकता उस स्थिति को कहते हैं जब धर्म को राष्ट्र और राजनीति का आधार मान लिया जाता है। यह तब उभरती है जब धर्म अपने समुदाय की विशिष्टता और पक्षपोषण की मांग करता है, जिससे यह अन्य धर्मों के प्रति विरोधी हो जाता है। यदि कोई धर्म दूसरे से श्रेष्ठ माना जाए और राज्य किसी विशेष धर्म का पक्ष ले, तो यह सांप्रदायिकता का रूप ले लेता है।

1. सांप्रदायिकता की सोच

सांप्रदायिकता यह मानती है कि एक धर्म के लोग एक समान समुदाय हैं और उनके हित एक जैसे हैं, जबकि अन्य धर्मों के लोगों के हित अलग और विरोधी होते हैं। यह सोच बढ़ने पर यह धारणा बन जाती है कि अलग धर्मों के लोग समान नागरिक नहीं हो सकते। सांप्रदायिकता का प्रभाव सामाजिक और राजनीतिक जीवन में दिखता है:

  • सामाजिक स्तर पर: धार्मिक पूर्वाग्रह, एक धर्म को श्रेष्ठ मानने की सोच और सामान्य जीवन में फैली सांप्रदायिक मानसिकता।
  • राजनीतिक स्तर पर: बहुसंख्यक समुदाय अपने धर्म का प्रभुत्व चाहता है, जबकि अल्पसंख्यक अपनी पहचान बनाए रखना चाहते हैं। धर्म और भावनाओं का उपयोग चुनावों में मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए किया जाता है।
  • हिंसक रूप: सांप्रदायिकता का चरम रूप दंगे, हिंसा और नरसंहार में देखा जाता है। विभाजन के समय और आज़ादी के बाद भी भारत को सांप्रदायिक हिंसा का सामना करना पड़ा है।

2. धर्मनिरपेक्ष शासन

  • सांप्रदायिकता हमारे लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती रही है, और इससे निपटने के लिए भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्ष शासन को अपनाया है। 
  • हमारे संविधान निर्माता इस बात से भली-भांति परिचित थे कि यदि किसी एक धर्म को विशेष दर्जा दिया जाए, तो यह समाज में विभाजन और असमानता पैदा कर सकता है।

3. धर्मनिरपेक्ष शासन की प्रमुख विशेषताएँ

  • भारत का संविधान किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में मान्यता नहीं देता, जैसा कि श्रीलंका में बौद्ध धर्म या पाकिस्तान में इस्लाम को दिया गया है। 
  • इसके बजाय, संविधान सभी नागरिकों को किसी भी धर्म का पालन करने, उसकी प्रथाओं का अनुसरण करने और उसे प्रचारित करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। 
  • साथ ही, संविधान धर्म के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव को अवैध घोषित करता है, जिससे सभी नागरिकों के लिए समानता सुनिश्चित की जा सके। 
  • इसके अलावा, सरकार को धार्मिक मामलों में दखल देने का अधिकार भी दिया गया है, ताकि धार्मिक समुदायों के भीतर समानता सुनिश्चित की जा सके और छुआछूत जैसी प्रथाओं को समाप्त किया जा सके।

4. भारत में धर्मनिरपेक्षता

  • धर्मनिरपेक्षता केवल किसी पार्टी या व्यक्ति की विचारधारा नहीं है, बल्कि यह भारतीय संविधान की बुनियादी विचारधारा और मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। 
  • यह हमारे देश के सामाजिक और राजनीतिक ढांचे का अभिन्न हिस्सा है, जो सभी धर्मों के प्रति समानता और सम्मान सुनिश्चित करते हुए भारत की विविधता और एकता को बनाए रखता है।


5. सांप्रदायिकता से निपटने के लिए कदम

  • हमारे संविधान ने सांप्रदायिकता से निपटने के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया है, लेकिन इस समस्या का समाधान केवल संविधान तक सीमित नहीं है। 
  • इसे जड़ से मिटाने के लिए हमें दैनिक जीवन में सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और दुष्प्रचारों का सक्रिय रूप से मुकाबला करना होगा। 
  • साथ ही, राजनीति में धर्म के आधार पर की जाने वाली गोलबंदी को रोकना होगा, ताकि समाज में भाईचारे और समानता को बढ़ावा दिया जा सके।


 जाति और राजनीति 

राजनीति में जाति एक महत्वपूर्ण सामाजिक विभाजन है, जो दोनों तरह से प्रभाव डालता है - सकारात्मक और नकारात्मक।

  • जाति आधारित आरक्षण ने समाज के वंचित वर्गों को शिक्षा, रोजगार, और राजनीति में प्रतिनिधित्व देकर समानता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है। इसने गरीब और पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया है। 
  • हालांकि, इसका नकारात्मक पक्ष भी है। जातिवाद अक्सर भेदभाव, असमानता और हिंसा का कारण बनता है। इसके अलावा, चुनावी राजनीति में जातिवाद का उपयोग ध्रुवीकरण और वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देता है, जिससे समाज में तनाव और विवाद उत्पन्न होते हैं।

जातिगत असमानताएँ

जातिगत असमानता भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण और जटिल पहलू है। जबकि लिंग और धर्म पर आधारित विभाजन दुनिया भर में होते हैं, जाति आधारित विभाजन केवल भारत में ही विशेष रूप से देखा जाता है।

1. जाति व्यवस्था

  • जाति व्यवस्था में पेशा और सामाजिक स्थिति वंशानुगत होती है, जिसका अर्थ है कि एक परिवार का पेशा अगली पीढ़ी तक चलता है। 
  • इस व्यवस्था में जाति समूहों के भीतर ही शादी और खानपान के संबंध सीमित रहते हैं। 
  • इसका परिणाम यह हुआ कि अंत्यज जातियों, जिन्हें सबसे नीच माना जाता था, के साथ भेदभाव और छुआछूत का व्यवहार किया जाता था, जिससे समाज में गहरी असमानता और सामाजिक विभाजन पैदा हुआ।

2. समाज सुधारक और उनके प्रयास

  • महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर, ज्योतिबा फुले, और पेरियार रामास्वामी नायकर जैसे समाज सुधारकों ने जातिगत भेदभाव को समाप्त करने और समाज को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए। 
  • उन्होंने सामाजिक समानता के लिए आंदोलन चलाए और वंचित वर्गों के अधिकारों की रक्षा की। 
  • उनके प्रयासों और सामाजिक-आर्थिक बदलावों के परिणामस्वरूप भारत में जाति व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव आया है, जिससे समानता और न्याय की दिशा में प्रगति संभव हुई है।

3. आधुनिक भारत में जाति व्यवस्था में बदलाव

  • आर्थिक विकास, शहरीकरण, साक्षरता, और शिक्षा के बढ़ते स्तर के कारण जाति व्यवस्था में कुछ हद तक बदलाव आया है। 
  • शहरी क्षेत्रों में अब लोग एक-दूसरे की जाति को लेकर कम चिंतित रहते हैं, जिससे सामाजिक संबंधों में बदलाव देखने को मिलता है। 
  • इसके साथ ही, भारतीय संविधान ने जातिगत भेदभाव पर रोक लगाई है और जातिवाद के खिलाफ कड़े कानून और नीतियाँ बनाई हैं, जो समाज में समानता और न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

4.जातिवाद का वर्तमान प्रभाव

  • जातिवाद अभी भी समाज में गहराई से मौजूद है। आज भी अधिकांश लोग अपनी जाति में ही शादी करना पसंद करते हैं, और छुआछूत की प्रथा पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाई है। 
  • जिन जातियों में पहले से शिक्षा का प्रचलन था, वे आज भी शिक्षा और आर्थिक रूप से मजबूत हैं, जबकि शिक्षा से वंचित जातियाँ आज भी पिछड़ी हुई स्थिति में हैं। 
  • जाति और आर्थिक स्थिति का गहरा संबंध है, और शहरी मध्यम वर्ग में अगड़ी जातियों का अनुपात अपेक्षाकृत अधिक है, जो सामाजिक और आर्थिक असमानता को दर्शाता है।


 राजनीति में जाति 

जातिवाद राजनीति में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह मान्यता कि जाति ही सामाजिक समुदाय का एकमात्र आधार है, अक्सर राजनीति में जातिगत विभाजन को बढ़ावा देती है। हालांकि, यह अनुभव से सही नहीं साबित होता, क्योंकि जाति हमारे जीवन का एक हिस्सा है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू नहीं है।

1. राजनीति में जाति के प्रभाव

  • भारतीय चुनावों में जाति की बड़ी भूमिका होती है। राजनीतिक पार्टियाँ चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवारों का चयन इस तरह करती हैं कि अलग-अलग जातियों और समुदायों को संतुष्ट किया जा सके। 
  • कुछ पार्टियाँ जातियों को वोट बैंक के रूप में देखती हैं और उनकी भावनाओं को उभारने की कोशिश करती हैं। वे खुद को विशेष जातियों का प्रतिनिधि बताकर उनके मुद्दे उठाने का दावा करती हैं ताकि उनका समर्थन मिल सके।
  • "एक व्यक्ति, एक वोट" प्रणाली ने राजनीतिक दलों को जाति के आधार पर समर्थन जुटाने की रणनीति अपनाने पर मजबूर किया। इसका एक फायदा यह हुआ कि इससे छोटी और पिछड़ी जातियों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी।

2. जातिवाद और चुनाव

  • भारतीय चुनावों में जाति का प्रभाव तो होता है, लेकिन यह पूरी तरह से हावी नहीं है। अधिकतर चुनाव क्षेत्रों में किसी एक जाति का बहुमत नहीं होता, इसलिए चुनाव जीतने के लिए पार्टियों को कई जातियों का समर्थन लेना पड़ता है।
  • पार्टियाँ अक्सर किसी जाति को "वोट बैंक" मानती हैं, यानी मानती हैं कि उस जाति के लोग उन्हें ही वोट देंगे। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि एक ही जाति के कई उम्मीदवार मैदान में होते हैं, जिससे वोट बंट जाते हैं। कभी-कभी जाति के मतदाताओं के पास अपनी जाति का उम्मीदवार भी नहीं होता।
  • जाति का असर तो है, लेकिन चुनावी नतीजों पर सरकार की नीतियाँ, नेताओं की लोकप्रियता और अन्य मुद्दे भी बड़ा प्रभाव डालते हैं।


 जाति के अंदर राजनीति 

जाति और राजनीति का संबंध एकतरफ़ा नहीं है; राजनीति भी जातियों को प्रभावित करती है। जाति व्यवस्था और जातिगत पहचान राजनीति के प्रभाव में बदल सकती है।

1. जाति और राजनीति का आपसी संबंध

  • जाति आधारित राजनीति में हर जाति अपनी ताकत बढ़ाने की कोशिश करती है। पहले जो उप जातियाँ खुद को कमजोर मानती थीं, अब उन्हें मुख्य जातियों के साथ जोड़ने के प्रयास किए जाते हैं, जिससे उनका सामूहिक प्रभाव बढ़ सके।
  • क्योंकि अकेले कोई जाति सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती, इसलिए वे अन्य जातियों और समुदायों के साथ गठबंधन करती हैं। ये गठबंधन जातियों के बीच आपसी समझ और मोल-भाव का माध्यम बनते हैं।
  • जातिगत राजनीति में बदलाव तब आता है, जब 'अगड़ा' और 'पिछड़ा' जैसी नई ध्रुवीकरण रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं। इससे जातिगत समीकरण और जटिल हो जाते हैं, जिससे राजनीति की दिशा भी बदल जाती है।

2. जातिगत राजनीति का सकारात्मक प्रभाव

  • जातिगत राजनीति ने वंचित समुदायों, खासकर दलित और पिछड़ी जातियों, को अपनी आवाज उठाने और सत्ता में भागीदारी मांगने का मौका दिया है। इससे ये समुदाय अपने अधिकारों और समानता की लड़ाई को मजबूती से आगे बढ़ा सके हैं।
  • कई राजनीतिक दल और संगठन भेदभाव खत्म करने, वंचित जातियों को सम्मान दिलाने, और ज़मीन-जायदाद व अवसर उपलब्ध कराने के लिए आंदोलन और सुधार कार्य करते रहे हैं।
  • यह प्रक्रिया समाज में सामाजिक न्याय और समानता लाने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

3. जातिगत राजनीति के नकारात्मक पहलू

  • यदि राजनीति में केवल जाति पर जोर दिया जाए, तो इससे गरीबी, विकास और भ्रष्टाचार जैसे बड़े और जरूरी मुद्दों से ध्यान भटक सकता है। यह समाज में टकराव, तनाव और हिंसा को बढ़ावा दे सकता है, जो लोकतंत्र और सामाजिक सौहार्द के लिए हानिकारक है।
  • इस तरह की राजनीति से सामाजिक विभाजन गहरा हो सकता है, जिससे देश की प्रगति धीमी पड़ जाती है और विकास की दिशा में बाधाएँ खड़ी होती हैं। इसलिए, राजनीति में जाति के बजाय व्यापक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है।

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