मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया Notes in Hindi Class 10 History Chapter-5 Book-Bharat Aur Samakalin Vishav-2 mudran sanskrti aur aadhunik duniya Print Culture and the Modern World
0Team Eklavyaनवंबर 26, 2024
आज हम मुद्रित सामग्री के बिना दुनिया की कल्पना भी नहीं कर सकते। किताबें, अखबार, पत्रिकाएँ, कैलेंडर, विज्ञापन, और पोस्टर – ये सब हमारे चारों ओर हैं। हम इन्हें पढ़ते हैं, देखते हैं और इनके जरिए दुनिया के मुद्दों को समझते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि छपाई का भी एक इतिहास है, और यह हमारे समाज और आधुनिक दुनिया को कैसे प्रभावित करता है? जानेंगे कि छपाई की शुरुआत पूर्वी एशिया से कैसे हुई और यह यूरोप और भारत तक कैसे फैली। साथ ही, मुद्रण तकनीक ने समाज और जीवन में किस तरह बदलाव लाए, यह भी देखेंगे।
शुरुआती छपी किताबें
मुद्रण तकनीक की शुरुआत चीन, जापान, और कोरिया में हुई, जहाँ हाथ से छपाई की जाती थी। धीरे-धीरे यह तकनीक शहरी संस्कृति और शिक्षा के विस्तार के साथ विकसित हुई।
1. चीन में छपाई
छपाई की शुरुआत 594 ई. में चीन में काठ के ब्लॉकों से हुई, और किताबें पारंपरिक 'एकॉर्डियन' शैली में बनाई जाती थीं।
राजतंत्र ने सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए बड़ी मात्रा में किताबें छपवाकर इस प्रक्रिया को बढ़ावा दिया।
सत्रहवीं सदी में शहरी संस्कृति के विस्तार के साथ पढ़ाई का प्रसार हुआ, जिससे व्यापारी, अमीर महिलाएँ और आम लोग काल्पनिक कहानियाँ, कविताएँ और नाटक पढ़ने में रुचि लेने लगे।
उन्नीसवीं सदी में मशीनी प्रेस के आगमन से छपाई तेज़ और अधिक कुशल हो गई, जिससे पाठकों की संख्या और पढ़ने की सामग्री में और वृद्धि हुई।
2. जापान में छपाई
छपाई की तकनीक 768-770 ई. में चीनी बौद्ध प्रचारकों द्वारा जापान में लाई गई।
जापान की सबसे पुरानी छपी किताब 'डायमंड सूत्र' है, जो 868 ई. में प्रकाशित हुई।
इस तकनीक से किताबें सस्ती हो गईं और गद्य, कविताएँ, ताश के पत्ते, और काग़ज़ के नोट जैसे विविध सामग्री पर छपाई होने लगी।
अठारहवीं सदी में एदो (टोक्यो) की शहरी संस्कृति का प्रभाव छपाई पर स्पष्ट दिखा, जिसमें चायघरों, कलाकारों और तवायफों पर आधारित चित्रित सामग्री शामिल थी।
इसके साथ ही महिलाओं, संगीत, रसोई और शिष्टाचार पर लिखी गई किताबें भी बहुत लोकप्रिय हुईं।
यूरोप में मुद्रण का आगमन
मुद्रण तकनीक चीन से होते हुए यूरोप तक पहुँची और ज्ञान के प्रसार में अहम भूमिका निभाई।
1. शुरुआत : चीन से यूरोप तक
ग्यारहवीं सदी में रेशम मार्ग के माध्यम से चीनी काग़ज़ यूरोप पहुँचा, और 1295 ई. में मार्को पोलो वुडब्लॉक छपाई की तकनीक को चीन से इटली लेकर आए।
उस समय किताबें अमीरों और भिक्षु संघों के लिए महंगी चर्म-पत्र (vellum) पर छपती थीं, जबकि व्यापारी और विद्यार्थी सस्ती मुद्रित किताबें खरीदते थे।
बढ़ती मांग के कारण पुस्तक मेले लगने लगे और पुस्तक विक्रेता कातिबों को रोजगार देने लगे, जिनमें से एक विक्रेता के पास 50 तक कातिब काम करते थे।
हालांकि, पांडुलिपियाँ महंगी, समयसाध्य और नाजुक होती थीं, जिससे बढ़ती माँग को पूरा करना चुनौतीपूर्ण था। इस समस्या के समाधान के लिए वुडब्लॉक प्रिंटिंग का उपयोग बढ़ता गया।
2. गुटेन्बर्ग और प्रिंटिंग प्रेस
1430 के दशक में योहान गुटेन्बर्ग ने स्ट्रैसबर्ग में जैतून पेरने की मशीन से प्रेरित होकर प्रिंटिंग प्रेस विकसित की और अक्षरों के धातुई साँचे बनाए।
1448 में उन्होंने पहली छपी किताब, बाइबिल, तैयार की। 180 प्रतियों को छापने में तीन साल लगे, जो उस समय के लिए बहुत तेज़ प्रक्रिया थी।
प्रारंभिक छपी किताबें हाथ से बनी पांडुलिपियों जैसी दिखती थीं, और अमीर खरीदार अपनी रुचि के अनुसार किताबों के हाशिए पर विशेष डिज़ाइन बनवाते थे।
गुटेन्बर्ग का यह योगदान छपाई तकनीक में एक क्रांतिकारी बदलाव लेकर आया।
3. मुद्रण क्रांति
1450 से 1550 के बीच यूरोप के कई देशों में छापेखानों की स्थापना हुई, जिससे मुद्रण तकनीक का तेजी से विस्तार हुआ।
पंद्रहवीं सदी में मुद्रित किताबों की संख्या बढ़कर 2 करोड़ तक पहुँच गई, जबकि सोलहवीं सदी में यह संख्या बढ़कर 20 करोड़ हो गई।
इस बढ़ती प्रकाशन क्षमता ने पढ़ने-लिखने की संस्कृति और ज्ञान के प्रसार को नई दिशा दी।
मुद्रण क्रांति और उसका प्रभाव
मुद्रण क्रांति ने न केवल तकनीकी बदलाव लाए, बल्कि समाज, धर्म और विचारों के स्तर पर भी गहरा असर डाला। इसने लोगों की सोच, ज्ञान और जीवनशैली में बड़े परिवर्तन किए।
1. नया पाठक वर्ग
छपाई की तकनीक ने किताबों की लागत को कम कर दिया और बड़ी मात्रा में किताबें उपलब्ध कराई, जिससे पढ़ने की संस्कृति का विकास हुआ।
पहले लोग मौखिक कथाओं और धार्मिक ग्रंथों का वाचन सुनते थे, लेकिन छपाई ने पढ़ने को एक व्यक्तिगत अनुभव बना दिया।
साक्षरता के कम स्तर के कारण लोकगीत, लोककथाएँ और सचित्र किताबें लोकप्रिय हो गईं, जिन्हें ग्रामीण सभाओं और शहरी शराबघरों में पढ़कर सुनाया जाता था।
इसने मौखिक और मुद्रित संस्कृति के बीच एक अनोखा संगम बनाया, जहाँ छपी सामग्री भी मौखिक अंदाज में साझा की जाती थी, और श्रोता व पाठक एक-दूसरे में घुल-मिल गए।
2.धार्मिक विवाद और प्रिंट का डर
छपाई की तकनीक ने विचारों के तेज़ प्रसार को संभव बनाया, जिससे असहमत लोग अपने विचार छापकर समाज पर गहरा प्रभाव डाल सकते थे।
हालांकि, सत्ता और धर्मगुरुओं को यह चिंता थी कि छपे शब्द बागी और अधार्मिक विचारों को जन्म दे सकते हैं। उन्हें "मूल्यवान साहित्य" और पारंपरिक विचारों के खोने का भय भी सताता था।
मार्टिन लूथर ने कैथलिक चर्च की कुरीतियों की आलोचना करते हुए अपनी 'पिच्चानवे स्थापनाएँ' लिखीं, जो छपाई के माध्यम से तेजी से फैलीं और प्रोटेस्टेंट धर्म-सुधार आंदोलन की शुरुआत का कारण बनीं।
लूथर ने छपाई की शक्ति को मान्यता देते हुए कहा, "मुद्रण ईश्वर की दी हुई महानतम देन है।"
3.मुद्रण और प्रतिरोध
छपाई की तकनीक ने धर्म और विचारों पर गहरा असर डाला, क्योंकि लोग अब छपी किताबों के माध्यम से धर्म की नई व्याख्याएँ समझने लगे।
इटली के किसान मेनोकियो ने किताबें पढ़कर बाइबिल के नए अर्थ निकाले, जिससे चर्च नाराज हुआ और इसे धर्म-विरोधी माना गया।
इस प्रतिक्रिया में रोमन कैथलिक चर्च ने इन्क्वीज़ीशन शुरू किया, जो धर्म-विरोधी विचारों को दबाने का प्रयास था।
1558 में चर्च ने प्रतिबंधित किताबों की एक सूची बनाई, ताकि ऐसे विचारों और किताबों का प्रसार रोका जा सके।
पढ़ने का जुनून और मुद्रण संस्कृति का प्रभाव
मुद्रण संस्कृति ने समाज में पढ़ने-लिखने की ललक और ज्ञान की भूख को बढ़ावा दिया। सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में यह प्रभाव यूरोप में स्पष्ट दिखने लगा।
1. पढ़ने का जुनून
अठारहवीं सदी में चर्चाओं और स्कूलों के प्रसार से साक्षरता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, और कई यूरोपीय देशों में साक्षरता दर 60-80% तक पहुँच गई।
इस साक्षरता वृद्धि के साथ नई सामग्री का उदय हुआ, जिसमें लोक-कथाएँ, पंचांग, प्रेम कहानियाँ और मनोरंजन प्रधान किताबें शामिल थीं।
इंग्लैंड में सस्ते "पेनी चैपबुक्स" और फ्रांस में "बिब्लियोथीक ब्ल्यू" जैसी किताबें गरीब तबकों तक पहुँचीं।
इस दौर में सामाजिक विविधता को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग रुचियों और जरूरतों के अनुसार सामग्री छपने लगी।
पत्रिकाएँ, अख़बार और वैज्ञानिक ग्रंथ भी आम जनता के लिए उपलब्ध हो गए, जिससे ज्ञान और सूचना का व्यापक प्रसार हुआ।
2. ज्ञान और प्रगति का विश्वास
ज्ञानोदय के युग में किताबों को प्रगति और ज्ञान का मुख्य स्रोत माना गया।
उपन्यासकार लुई मर्सिए ने छापेखाने को "प्रगति का सबसे ताकतवर औज़ार" कहा, जो विचारों के प्रसार और समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था।
छपे हुए शब्दों ने जनमत को संगठित किया और निरंकुश सत्ता के खिलाफ़ विरोध का माहौल बनाया।
साहित्य ने लोगों को पारंपरिक विचारों पर सवाल उठाने और नए विचारों को अपनाने के लिए प्रेरित किया, जिससे सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की नई लहर शुरू हुई।
3. मुद्रण संस्कृति और फ्रांसीसी क्रांति
मुद्रण संस्कृति ने फ़्रांसीसी क्रांति की जमीन तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ज्ञानोदय के प्रसार में वॉल्तेयर और रूसो जैसे चिंतकों के लेखन ने तर्क और विवेक के आधार पर समाज की पुनर्रचना की बात की, साथ ही अंधविश्वास और निरंकुशता पर सवाल खड़े किए।
छपाई ने आम लोगों के बीच वाद-विवाद और संवाद की संस्कृति को बढ़ावा दिया, जिससे धर्म, आस्था और परंपराओं पर सवाल उठने लगे।
इसके साथ ही, कार्टून, व्यंग्य चित्र और आलोचनात्मक साहित्य ने राजशाही की नैतिकता और भोग-विलास पर प्रहार करते हुए लोगों को राजशाही के खिलाफ़ भड़काने का काम किया।
इन सबने मिलकर क्रांति के लिए आवश्यक वैचारिक आधार तैयार किया।
4. मुद्रण का संतुलित प्रभाव
मुद्रण संस्कृति ने विचारों के मिश्रण को बढ़ावा दिया, जहाँ लोग रूसो और वॉल्तेयर जैसे ज्ञानोदय के चिंतकों के विचार पढ़ते थे, साथ ही चर्च और राजशाही का प्रचार भी उनकी पहुँच में था।
पाठक हर सामग्री को अपनी समझ और आवश्यकता के अनुसार अपनाते थे, जिससे समाज में विभिन्न विचारधाराओं का सह-अस्तित्व और संवाद संभव हुआ।
उन्नीसवीं सदी में मुद्रण और साक्षरता
उन्नीसवीं सदी ने साक्षरता और छपाई की तकनीक में नए आयाम जोड़े। प्राथमिक शिक्षा के प्रसार और नई तकनीकों ने बच्चों, महिलाओं, और मजदूरों को पढ़ने की दुनिया में शामिल किया।
1. बच्चों और महिलाओं का पाठक वर्ग
प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य होने के साथ बच्चों के लिए विशेष किताबें छपने लगीं।
1857 में फ्रांस में बच्चों की किताबें छापने के लिए अलग प्रेस की स्थापना की गई।
इसी दौरान जर्मनी के ग्रिम बंधुओं ने लोककथाएँ एकत्रित कर प्रकाशित कीं, जिन्हें संपादित करके बच्चों के लिए उपयुक्त बनाया गया।
महिलाओं ने भी मुद्रण संस्कृति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे पाठिका और लेखिका दोनों बनीं, और उनके लिए पेनी मैगज़ीन और निर्देशिकाओं जैसी विशेष सामग्री छपने लगी।
जेन ऑस्टिन, ब्रॉण्ट बहनें और जॉर्ज इलियट जैसी प्रमुख लेखिकाओं ने "स्वतंत्र और सुदृढ़ नारी" की परिभाषा गढ़ी, जिससे महिलाओं के अधिकारों और पहचान को बल मिला।
2. मजदूर और पुस्तकालय
सत्रहवीं सदी से किराए पर किताब देने वाले पुस्तकालय प्रचलन में आ गए, जो विशेष रूप से मजदूर वर्ग के लिए आत्म-सुधार और आत्म-अभिव्यक्ति का माध्यम बने।
साक्षरता के बढ़ने और कम काम के घंटे होने के कारण मजदूरों ने इन पुस्तकालयों का उपयोग केवल पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक पर्चे और आत्मकथाएँ लिखने के लिए भी करना शुरू किया, जिससे उनके विचार और अनुभव समाज में सामने आने लगे।
3. तकनीकी विकास
मुद्रण तकनीक में सुधार ने छपाई प्रक्रिया को तेज और अधिक कुशल बना दिया।
शक्ति चालित प्रेस, जिसे रिचर्ड एम. हो ने विकसित किया, प्रति घंटे 8000 शीट छापने की क्षमता रखती थी, जबकि ऑफसेट प्रेस ने छह रंगों की छपाई को संभव बनाया।
फोटो-विद्युतीय नियंत्रण और स्वचालित पेपर-रील ने छपाई प्रक्रिया को और उन्नत किया। इस दौरान किताबों के प्रचार में भी नए तरीके अपनाए गए।
पत्रिकाओं में उपन्यास धारावाहिक रूप में छपने लगे, जिससे पाठकों की रुचि बढ़ी।
1920 के दशक में "शिलिंग श्रृंखला" के तहत सस्ती किताबें उपलब्ध कराई गईं, जबकि 1930 की आर्थिक मंदी के दौरान पेपरबैक संस्करण ने किताबों को और अधिक सुलभ बना दिया।
भारत का मुद्रण संसार
भारत में छपाई का आगमन सोलहवीं सदी में हुआ, लेकिन इसके पहले यहाँ हस्तलिखित पांडुलिपियों का एक समृद्ध इतिहास था। मुद्रण ने धीरे-धीरे भारत में सूचना और ज्ञान के प्रसार को बदल दिया।
1. मुद्रण से पहले की पांडुलिपियाँ
पांडुलिपियों की परंपरा में संस्कृत, अरबी, फ़ारसी और विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में ताड़ के पत्तों या हाथ से बने कागज पर लेखन किया जाता था।
इन्हें सुंदर चित्रों और आकर्षक जिल्दों से सजाया जाता था, जिससे उनकी कलात्मक और सांस्कृतिक महत्व बढ़ता था। हालांकि, पांडुलिपियाँ नाजुक और महँगी होने के साथ-साथ लिखावट की विविधता के कारण पढ़ने में भी कठिन होती थीं।
शिक्षा प्रणाली में इनका उपयोग सीमित था। बंगाल में विद्यार्थी किताबें पढ़ने के बजाय गुरुओं के बताए गए ज्ञान को याद करने पर अधिक निर्भर रहते थे।
2. भारत में छपाई का आगमन
सोलहवीं सदी में पुर्तगाली धर्म-प्रचारकों ने गोवा में प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत की, जिससे भारत में मुद्रण का आगमन हुआ।
प्रारंभिक मुद्रण के तहत 1579 में पहली तमिल किताब और 1713 में पहली मलयालम किताब छपी। डच प्रचारकों ने तमिल में 32 किताबें प्रकाशित कीं, जिससे क्षेत्रीय भाषाओं में मुद्रण को प्रोत्साहन मिला।
अंग्रेजी प्रेस का भारत में आगमन 1780 में हुआ, जब जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने "बंगाल गज़ट" का प्रकाशन शुरू किया। यह भारत का पहला स्वतंत्र अंग्रेज़ी अखबार था, जिसमें दासों की बिक्री और औपनिवेशिक अधिकारियों से जुड़ी गॉसिप प्रकाशित होती थी, जो उस समय के समाज का अनोखा चित्र प्रस्तुत करता था।
3. औपनिवेशिक नियंत्रण और स्वतंत्र प्रेस
सरकार ने स्वतंत्र प्रेस पर कड़ा रुख अपनाया, जिसके तहत गवर्नर वॉरेन हेस्टिंग्स ने "बंगाल गज़ट" के प्रकाशक जेम्स ऑगस्टस हिक्की पर मुकदमा किया।
इसके अलावा, औपनिवेशिक सरकार ने अपने नियंत्रण वाले अखबारों को बढ़ावा देना शुरू किया, ताकि सूचनाओं पर उनका एकाधिकार बना रहे।
वहीं, भारतीयों ने भी प्रेस के माध्यम से अपनी आवाज बुलंद करने का प्रयास किया।
राजा राममोहन राय के सहयोगी गंगाधर भट्टाचार्य ने "बंगाल गज़ट" नाम से एक अखबार प्रकाशित किया, जो भारतीय प्रयासों की स्वतंत्र पत्रकारिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल थी।
धार्मिक सुधार और सार्वजनिक बहसें
उन्नीसवीं सदी के आरंभ में भारत में धर्म और समाज सुधार को लेकर बड़ी बहसें छिड़ीं। मुद्रण और प्रिंटिंग प्रेस ने इन वाद-विवादों को एक नई दिशा दी, जिससे समाज में व्यापक बदलाव हुए।
1. धर्म और समाज सुधार की बहसें
औपनिवेशिक समाज में बदलाव के साथ धर्म और रीति-रिवाजों पर बहस तेज हो गई, जहाँ कुछ लोग मौजूदा परंपराओं में सुधार लाना चाहते थे, जबकि रूढ़िवादी इन सुधारों का कड़ा विरोध कर रहे थे। प्रिंटिंग प्रेस के आगमन ने इस बहस को और बढ़ावा दिया।
छपी पुस्तिकाओं और अखबारों ने नए विचारों का प्रचार-प्रसार किया, जिससे आम लोगों को इन चर्चाओं में भाग लेने और अपने विचार व्यक्त करने का अवसर मिला। प्रिंट ने धर्म और समाज पर बहस को जन-सहभागिता का माध्यम बना दिया।
2. हिंदू समाज में बहसें
औपनिवेशिक भारत में विधवा दाह, मूर्तिपूजा, ब्राह्मणवादी व्यवस्था और एकेश्वरवाद जैसे सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर बहस छिड़ी हुई थी।
राममोहन राय ने 1821 में "संवाद कौमुदी" के माध्यम से सुधारवादी विचारों का प्रचार किया, जिसमें उन्होंने परंपराओं में बदलाव की वकालत की। उनके इन विचारों का जवाब रूढ़िवादियों ने "समाचार चंद्रिका" जैसे अखबारों के माध्यम से दिया, जिसमें उनके सुधारों का विरोध किया गया।
इस दौरान धार्मिक ग्रंथों का भी व्यापक प्रसार हुआ। तुलसीदास के "रामचरितमानस" का पहला मुद्रित संस्करण 1810 में छपा और सस्ते लिथोग्राफ संस्करणों के जरिए यह ग्रंथ उत्तर भारत के हर कोने में पहुँच गया, जिससे धर्म और समाज पर छपाई का प्रभाव और अधिक बढ़ा।
3. मुस्लिम समाज में प्रिंट और बहसें
औपनिवेशिक शासन के दौरान धर्मांतरण और इस्लामी कानूनों में बदलाव का डर लोगों के बीच गहराने लगा
इस डर का मुकाबला करने के लिए मुद्रण का उपयोग धार्मिक ग्रंथों के फ़ारसी और उर्दू में अनुवाद, साथ ही सस्ते गुटके और अखबारों के माध्यम से धार्मिक विचारों के प्रसार के लिए किया गया।
1867 में देवबंद सेमिनरी की स्थापना हुई, जिसने धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा दिया और इस्लामी सिद्धांतों पर आधारित फ़तवे जारी किए।
इसने मुसलमानों के धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
4. समुदायों को जोड़ने में प्रिंट की भूमिका
धार्मिक पुस्तकें आसानी से उपलब्ध होने और ले जाने में सरल होने के कारण व्यापक रूप से लोकप्रिय हुईं।
ये किताबें अनपढ़ लोगों के लिए भी उपयोगी थीं, क्योंकि उन्हें बोलकर पढ़ा जा सकता था।
इसके माध्यम से धार्मिक मुद्दों पर संवाद बढ़ा और विभिन्न धर्मों और उनके समुदायों के बीच जुड़ाव पैदा हुआ।
मुद्रित पुस्तकों ने बहस-मुबाहिसों को बढ़ावा देकर समाज में विचारों के आदान-प्रदान को नई दिशा दी।
प्रकाशन के नए रूप और समाज पर असर
1. साहित्य और दृश्य संस्कृति का विकास
यूरोप में उपन्यास विधा के विकास के साथ ही भारत में भी यह विधा तेजी से लोकप्रिय हुई। कहानियाँ, सामाजिक-राजनीतिक लेख और गीत पाठकों की रुचि का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए।
इन विधाओं ने मानव जीवन के अनुभवों और भावनाओं को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। इसी दौरान दृश्य संस्कृति का भी उदय हुआ।
राजा रवि वर्मा जैसे कलाकारों ने आम लोगों के लिए चित्र बनाए, जो सस्ती तस्वीरों और कैलेंडरों के रूप में बाजार में उपलब्ध हुए और घरों तथा दफ्तरों में सजाए जाने लगे।
पत्र-पत्रिकाओं में कैरिकेचर और कार्टून भी छपने लगे, जो सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर व्यंग्यपूर्ण टिप्पणियाँ करते थे और जनता के बीच जागरूकता फैलाते थे।
2. महिलाएँ और प्रिंट संस्कृति
उन्नीसवीं सदी में मध्यवर्गीय महिलाओं ने पढ़ाई और लेखन में रुचि लेना शुरू किया, जिससे समाज में एक नया बदलाव आया। महिलाओं के लिए कई पत्रिकाएँ छपने लगीं, जिनमें नारी-शिक्षा, गृहस्थी और सामाजिक सुधार जैसे विषय शामिल थे।
रशसुंदरी देवी ने 1876 में "आमार जीबन" लिखकर पहली आत्मकथा प्रस्तुत की, जो महिलाओं के अनुभवों को अभिव्यक्त करने का महत्वपूर्ण प्रयास था। इसी कड़ी में कैलाशबाशिनी देवी, ताराबाई शिंदे, और पंडिता रमाबाई जैसी लेखिकाओं ने महिलाओं की समस्याओं और अनुभवों पर लिखा।
हालांकि, परंपरावादी हिंदू और मुसलमान समाज के लोग महिलाओं की शिक्षा का विरोध करते थे, लेकिन कई महिलाओं ने इन रूढ़ियों को तोड़ते हुए शिक्षा और लेखन के माध्यम से अपनी पहचान बनाई।
3. गरीब और प्रिंट संस्कृति
सस्ती किताबों की बिक्री और चौक-चौराहों पर पुस्तकालयों की स्थापना ने गरीब तबकों को पढ़ने और शिक्षित होने का अवसर प्रदान किया। सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अमीर वर्ग ने भी पुस्तकालय खुलवाए।
इस दौरान जाति-आधारित लेखन ने सामाजिक बदलाव की नींव रखी। ज्योतिबा फुले की "गुलामगिरी" (1871) ने जाति प्रथा की कठोर आलोचना की, जबकि भीमराव अंबेडकर और पेरियार ने जातीय और सामाजिक न्याय पर अपने लेखन से शोषित वर्गों की आवाज बुलंद की।
मजदूर वर्ग ने भी अपने अनुभवों को साझा करने के लिए साहित्य का सहारा लिया। काशीबाबा की "छोटे और बड़े सवाल" (1938) ने जातीय और वर्गीय शोषण को उजागर किया।
बंगलौर और बंबई के मजदूरों ने खुद को शिक्षित करने और जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से पुस्तकालय स्थापित किए।
प्रिंट और प्रतिबंध: औपनिवेशिक युग में सेंसरशिप का उदय
1. प्रारंभिक दौर में सेंसरशिप
1798 से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी मुद्रण सामग्री पर नियंत्रण को लेकर अधिक चिंतित नहीं थी। प्रारंभ में सेंसरशिप मुख्य रूप से उन अंग्रेज़ों के खिलाफ लागू की गई, जो कंपनी की आलोचना करते थे।
कंपनी को इस बात का डर था कि ऐसी आलोचनाएँ इंग्लैंड में उनके व्यापारिक अधिकारों और विशेषाधिकारों पर हमला कर सकती हैं, जिससे उनकी स्थिति कमजोर हो सकती थी।
2. प्रेस कानून और प्रारंभिक नियंत्रण
1820 के दशक में कलकत्ता सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेस की स्वतंत्रता पर नियंत्रण स्थापित करने वाले कानून लागू किए, जिससे मुद्रण सामग्री पर कड़ा प्रतिबंध लगाया गया।
हालांकि, 1835 में गवर्नर जनरल विलियम बेंटिंक और टॉमस मेकॉले ने प्रेस की आज़ादी को बहाल करने के लिए उदार कानून बनाए, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा मिला और प्रेस को नए सिरे से सशक्त किया गया।
3. 1857 के बाद प्रेस पर सख्ती
1857 के विद्रोह के बाद औपनिवेशिक सरकार ने 'देसी' प्रेस पर कड़ा नियंत्रण लगाने की आवश्यकता महसूस की। इसके परिणामस्वरूप, 1878 में वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट लागू किया गया, जो भाषाई प्रेस को सेंसर करने के लिए बनाया गया था।
इस कानून के तहत यदि किसी रिपोर्ट को विद्रोही करार दिया जाता, तो संबंधित अखबार को चेतावनी दी जाती थी। चेतावनी का पालन न करने पर अखबार को जब्त कर लिया जाता और उसकी छपाई मशीनें भी हटा दी जाती थीं। इस कानून ने प्रेस की स्वतंत्रता पर गंभीर प्रतिबंध लगा दिया।
4. राष्ट्रवादी प्रेस का उभार
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान राष्ट्रवादी अखबारों ने औपनिवेशिक कुशासन की खबरें छापना और आजादी के आंदोलन का समर्थन करना जारी रखा।
दमनकारी नीतियों के बावजूद ये अखबार देश के कोने-कोने में फैलते गए और स्वतंत्रता संग्राम का एक मजबूत माध्यम बने।
1907 में, केसरी अखबार में बाल गंगाधर तिलक ने पंजाब के क्रांतिकारियों की सजा पर सहानुभूति व्यक्त की।
1908 में इस लेख के कारण तिलक को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे पूरे भारत में विरोध प्रदर्शन भड़क उठे। इन घटनाओं ने प्रेस की ताकत और उसकी भूमिका को और अधिक सशक्त किया।