भूमंडलीकृत विश्व का बनना Notes in Hindi Class 10 History Chapter-3 Book- Bharat Aur Samakalin Vishav-2 The Making of a Global World
0Team Eklavyaनवंबर 25, 2024
वैश्वीकरण का प्रारंभ
वैश्वीकरण को अक्सर पिछले 50 वर्षों में उभरी आर्थिक प्रक्रिया माना जाता है, लेकिन इसका इतिहास हजारों साल पुराना है। दुनिया का आपसी जुड़ाव व्यापार, यात्रा, और सांस्कृतिक आदान-प्रदान से धीरे-धीरे विकसित हुआ।
1. रेशम मार्ग (सिल्क रूट): व्यापार और संस्कृति का संगम
प्राचीन समय में सिल्क रूट व्यापारिक और सांस्कृतिक संपर्क का मुख्य मार्ग था।
इस मार्ग के माध्यम से चीन का रेशम, भारतीय मसाले और दक्षिण-पूर्व एशियाई वस्त्र यूरोप और उत्तरी अफ्रीका तक पहुंचते थे। वहीं, वापसी में सोना, चांदी और अन्य कीमती वस्तुएं एशिया आती थीं।
इस मार्ग ने न केवल व्यापार को बढ़ावा दिया बल्कि धर्मों के प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम जैसे धर्म सिल्क रूट के जरिए कई स्थानों तक फैले।
2. भोजन की यात्रा: वैश्विक प्रभाव
नूडल्स और स्पैघेत्ती जैसे खाद्य पदार्थ सांस्कृतिक आदान-प्रदान का परिणाम हैं।
नूडल्स चीन से यूरोप पहुंचे और वहां स्पैघेत्ती के रूप में विकसित हो गए।
इसी तरह, आलू, मक्का और टमाटर जैसे खाद्य पदार्थ अमेरिका से यूरोप और एशिया में आए।
आलू ने विशेष रूप से यूरोप के गरीबों की जिंदगी में बदलाव लाया, लेकिन 1840 के दशक में आलू की फसल खराब होने के कारण आयरलैंड में भीषण भुखमरी फैल गई।
3. विजय, बीमारी और व्यापार
16वीं सदी में यूरोपीय जहाजियों ने समुद्री मार्गों के माध्यम से अमेरिका और एशिया से जुड़ाव बढ़ाया, जिससे व्यापार और संपर्क में तेजी आई।
अमेरिका से लाई गई चांदी और सोने ने यूरोप की संपन्नता में वृद्धि की।
यूरोपीय विजय केवल सैनिक ताकत से ही नहीं, बल्कि चेचक जैसी बीमारियों के प्रसार से भी संभव हुई। इन बीमारियों ने अमेरिका के स्थानीय लोगों को भारी नुकसान पहुंचाया, क्योंकि उनके शरीर में इन रोगों के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता नहीं थी।
4. सामाजिक और आर्थिक बदलाव
18वीं सदी तक यूरोपीय देशों ने अमेरिका में अफ्रीकी गुलामों के श्रम से कपास और चीनी का बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू कर दिया। वहीं, उस समय भारत और चीन अभी भी दुनिया की सबसे धनी सभ्यताओं में गिने जाते थे।
15वीं सदी के बाद चीन ने अपनी सीमाएं बंद कर लीं, जिससे विश्व व्यापार का केंद्र धीरे-धीरे यूरोप बन गया।
उन्नीसवीं शताब्दी (1815-1914): वैश्विक बदलाव का दौर
उन्नीसवीं शताब्दी दुनिया के लिए तेज़ बदलावों का समय था। औद्योगिक क्रांति, वैश्विक व्यापार, तकनीकी प्रगति, और औपनिवेशिक विस्तार ने अर्थव्यवस्था, समाज, और राजनीति को नए रूप दिए।
1. अंतरराष्ट्रीय प्रवाह: व्यापार, श्रम और पूंजी
व्यापार मुख्यतः कृषि उत्पादों, जैसे कपास और गेहूं, और कच्चे माल के आदान-प्रदान पर आधारित था।
श्रम के क्षेत्र में लाखों लोग रोजगार की तलाश में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में प्रवास कर गए।
वहीं, पूंजी का प्रवाह बड़े वित्तीय केंद्रों, जैसे लंदन, से दुनिया भर में निवेश के रूप में हुआ, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्था को मजबूती मिली।
2. विश्व अर्थव्यवस्था का उदय
ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के बाद भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं की मांग तेजी से बढ़ी।
कॉर्न लॉ के तहत मक्का आयात पर लगी पाबंदी हटने के बाद ब्रिटेन में सस्ते खाद्य पदार्थों का आयात शुरू हुआ।
इसके परिणामस्वरूप पूर्वी यूरोप, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बड़े पैमाने पर खेती शुरू हुई। साथ ही, इस व्यापार को सुगम बनाने के लिए रेलवे और बंदरगाहों का व्यापक निर्माण हुआ।
3. तकनीकी प्रगति का प्रभाव
रेलवे और भाप के जहाजों के विकास से व्यापार और परिवहन पहले से कहीं अधिक आसान और तेज हो गया।
रेफ्रिजरेशन तकनीक ने अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया से यूरोप को मांस का निर्यात संभव बनाया, जिससे मांस की कीमतें कम हुईं और यह गरीबों तक भी पहुंचने लगा।
4. उपनिवेशवाद और इसके स्याह पक्ष
अफ्रीका और एशिया में यूरोपीय उपनिवेशों की स्थापना ने स्थानीय लोगों की आजीविका छीन ली।
अफ्रीका में रिंडरपेस्ट नामक मवेशियों की प्लेग ने 90% मवेशियों को खत्म कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप लोग भूमिहीन और अत्यंत गरीब हो गए।
यूरोपीय उपनिवेशवाद ने इन क्षेत्रों की सामाजिक और आर्थिक संरचना पर गहरा प्रभाव डाला।
5. भारत और गिरमिटिया मजदूर
भारत से लाखों मजदूरों को अनुबंध पर मॉरिशस, फिजी और कैरिबियन द्वीपों में काम करने के लिए ले जाया गया।
इन मजदूरों ने वहां नई संस्कृति को अपनाया और अपने पारंपरिक तरीके से उसे समृद्ध किया। उदाहरण के लिए, त्रिनिदाद में 'होसे' उत्सव और 'चटनी म्यूजिक' इन्हीं सांस्कृतिक बदलावों का प्रतीक हैं।
हालांकि, अनुबंधित मजदूरों का यह प्रवासन 1921 में रोक दिया गया, लेकिन भारतीय मूल के लोग अभी भी इन देशों में बसे हुए हैं और वहां की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बने हुए हैं।
6. भारतीय व्यापार और उपनिवेशवाद
भारत से कच्चे माल, जैसे कपास, नील और अफीम, के निर्यात में तेजी आई, लेकिन ब्रिटेन में भारतीय कपड़ों पर रोक लगने से भारत का कपड़ा निर्यात काफी घट गया।
ब्रिटेन ने भारतीय व्यापार से होने वाले अधिशेष (मुनाफा) का उपयोग अपने अन्य व्यापारिक घाटों को पूरा करने के लिए किया, जिससे भारत की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
महायुद्धों के बीच की अर्थव्यवस्था: संकट और सुधार (1914-1939)
पहले विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में लंबे समय तक अस्थिरता रही। यह समय आर्थिक संकट, तकनीकी विकास, और सामाजिक बदलाव का था, जिसने अंततः दूसरे विश्वयुद्ध की जमीन तैयार की।
1. युद्धकालीन रूपांतरण
पहला विश्वयुद्ध (1914-1918) आधुनिक औद्योगिक युद्ध था, जिसमें मशीनगन, टैंक और रासायनिक हथियारों का व्यापक उपयोग किया गया।
इस युद्ध से यूरोप की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो गई, लाखों सैनिक मारे गए, और उत्पादन में भारी गिरावट आई।
युद्ध के बाद अमेरिका सबसे बड़ा कर्जदाता देश बनकर उभरा, जबकि ब्रिटेन भारी कर्ज में डूब गया, जिससे उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई।
2. युद्धोत्तर संकट
पहले विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन को भारत और जापान के उभरते उद्योगों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा, जिससे उसकी औद्योगिक शक्ति कमजोर हो गई।
इसी दौरान कृषि उत्पादों, जैसे गेहूं, की वैश्विक कीमतों में गिरावट आई, जिससे किसानों की आय घट गई और वे कर्ज के बोझ तले दब गए।
1921 तक ब्रिटेन में आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि हर पाँच में से एक मजदूर बेरोजगार था।
3. अमेरिका में बृहत उत्पादन
मास प्रोडक्शन की शुरुआत, विशेष रूप से हेनरी फोर्ड की असेंबली लाइन तकनीक, ने कार उत्पादन को सस्ता और तेज़ बना दिया।
1920 के दशक में अमेरिका में फ्रिज, वॉशिंग मशीन और रेडियो जैसी टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं की खरीददारी तेजी से बढ़ी, जिन्हें अक्सर कर्ज (हायर-परचेज) पर खरीदा जाता था।
इस अवधि में निर्माण क्षेत्र में भी उछाल आया, जिससे रोजगार के अवसर बढ़े और उपभोग में वृद्धि हुई।
4. महामंदी (1929-1933)
महामंदी के प्रमुख कारणों में कृषि उत्पादों की अति-उत्पादन से कीमतों में गिरावट, अमेरिकी कर्ज वापसी की मांग, और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में गिरावट शामिल थे।
इसके परिणामस्वरूप उत्पादन, व्यापार और रोजगार में भारी गिरावट आई।
अमेरिका और यूरोप में हजारों बैंक बंद हो गए, जिससे लाखों लोग बेरोजगार हो गए।
किसानों की स्थिति और भी दयनीय हो गई, उनकी फसलें सड़ गईं और संपत्ति जब्त कर ली गई, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर गंभीर असर पड़ा।
5. भारत और महामंदी
महामंदी के दौरान कृषि क्षेत्र पर गहरा प्रभाव पड़ा, जहां गेहूं और जूट जैसी फसलों की कीमतें आधी हो गईं।
किसानों ने कर्ज लेकर खेती जारी रखने की कोशिश की, लेकिन उपज का उचित दाम न मिलने से उनकी आर्थिक स्थिति और खराब हो गई।
औद्योगिक क्षेत्र में, राष्ट्रवादी दबाव के कारण सीमा शुल्क बढ़ने से उद्योगों को कुछ हद तक लाभ हुआ, जिससे शहरी मध्यवर्ग और जमींदारों की स्थिति अपेक्षाकृत स्थिर रही।
इस दौरान भारत से सोने का निर्यात बढ़ा, जिसने ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को सहारा दिया, लेकिन इसका लाभ भारतीय किसानों को नहीं मिला, जिससे उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।
युद्धोत्तर विश्व अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण
दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) ने अभूतपूर्व तबाही मचाई। लाखों लोगों की मौत और आर्थिक बर्बादी के बाद दुनिया को फिर से खड़ा करना चुनौतीपूर्ण था। युद्ध के बाद, दो महाशक्तियाँ उभरीं—अमेरिका और सोवियत संघ। इस काल में विश्व अर्थव्यवस्था को पुनः संगठित करने के प्रयास शुरू हुए।
1. ब्रेटन वुड्स व्यवस्था (1944)
महामंदी और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आर्थिक स्थिरता और पूर्ण रोजगार बनाए रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार और पूंजी प्रवाह को नियंत्रित करने के उद्देश्य से कई संस्थाओं और नीतियों की स्थापना की गई।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की स्थापना देशों की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए की गई, जबकि विश्व बैंक को युद्धोत्तर पुनर्निर्माण और विकासशील देशों को सहायता प्रदान करने के लिए बनाया गया।
मुद्रा विनिमय प्रणाली के तहत डॉलर को सोने के साथ स्थिर किया गया, और अन्य मुद्राओं की विनिमय दर डॉलर के आधार पर तय की गई, जिससे वैश्विक आर्थिक स्थिरता में मदद मिली।
2. प्रारंभिक युद्धोत्तर प्रगति
1950 से 1970 के बीच वैश्विक व्यापार और आय में तेज वृद्धि हुई, जिससे विश्व अर्थव्यवस्था में व्यापक सुधार देखा गया। इस अवधि में औद्योगिक देशों में बेरोजगारी दर 5% से कम रही, जो स्थिर आर्थिक प्रगति का संकेत था।
वहीं, विकासशील देशों ने तकनीक और पूंजी का आयात कर अपने आर्थिक विकास को गति देने की कोशिश की, जिससे उनकी अर्थव्यवस्था में भी बदलाव के प्रयास दिखाई दिए।
3. अनौपनिवेशीकरण और स्वतंत्रता
युद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका में कई उपनिवेश स्वतंत्र हो गए, लेकिन इन नवस्वतंत्र देशों को गरीबी, संसाधनों की कमी और औपनिवेशिक शोषण के कारण अस्त-व्यस्त अर्थव्यवस्था जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
आर्थिक स्थिरता और विकास के लिए इन देशों को IMF और विश्व बैंक जैसे संस्थानों की मदद लेनी पड़ी, जिन पर अब भी औपनिवेशिक शक्तियों का वर्चस्व था।
विकासशील देशों ने अपनी स्थिति सुधारने के लिए समूह-77 (G-77) का गठन किया और नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) की मांग उठाई।
4. ब्रेटन वुड्स का अंत और वैश्वीकरण की शुरुआत
1970 के दशक में अमेरिकी डॉलर की ताकत कमजोर पड़ने के कारण स्थिर विनिमय दरों को खत्म कर अस्थिर विनिमय दरों को अपनाया गया।
इस समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने सस्ते श्रम वाले देशों, जैसे चीन, में उत्पादन केंद्रित करना शुरू किया।
सस्ती उत्पादन लागत और कम वेतन के कारण चीन तेजी से वैश्विक विनिर्माण का केंद्र बनकर उभरा, जिससे वैश्विक आर्थिक संरचना में महत्वपूर्ण बदलाव आया।
5. वैश्वीकरण का असर
वैश्विक व्यापार और पूंजी प्रवाह में तेजी से वृद्धि हुई, जिससे विश्व अर्थव्यवस्था को नई दिशा मिली।
भारत, चीन और ब्राजील जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने तेज विकास दर हासिल की, जिसके परिणामस्वरूप दुनिया का आर्थिक नक्शा बदल गया और इन देशों का वैश्विक आर्थिक मंच पर प्रभाव बढ़ा।