भारत में राष्ट्रवाद Notes in Hindi Class 10 History Chapter-2 Book-Bharat Aur Samakalin Vishav-2 bhaarat mein raashtravaad Nationalism in India
0Team Eklavyaनवंबर 25, 2024
यूरोप में आधुनिक राष्ट्रवाद ने राष्ट्र-राज्यों के उदय को प्रेरित किया, जिससे नई राष्ट्रीय पहचान और समाज के प्रति सोच विकसित हुई। प्रतीकों, गीतों और विचारों ने समुदायों को जोड़कर राष्ट्रीय भावनाएँ उत्पन्न कीं। भारत में राष्ट्रवाद का उदय उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष से जुड़ा था। ब्रिटिश दमन ने लोगों को एकजुट किया, और महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने विभिन्न समूहों को संगठित किया। हालांकि, इस एकता में मतभेद भी थे। 1920 के बाद विभिन्न समूहों की भागीदारी ने राष्ट्रवाद को एक नया रूप दिया और सोचने का नजरिया बदला।
पहला विश्वयुद्ध, ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन
1919 के बाद का समय भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक नया दौर लेकर आया। राष्ट्रीय आंदोलन तेजी से नए क्षेत्रों और समाज के अलग-अलग वर्गों तक फैला। इस समय महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी।
1. विश्वयुद्ध का प्रभाव
पहले विश्वयुद्ध के दौरान भारत में रक्षा खर्च में भारी वृद्धि हुई, जिससे करों में इज़ाफा हुआ और जीवन-यापन की लागत तेजी से बढ़ गई।
1913 से 1918 के बीच कीमतें दोगुनी हो गईं, जिससे आम जनता की जिंदगी बेहद कठिन हो गई।
ग्रामीण इलाकों में सिपाहियों की जबरन भर्ती और खराब फसल ने लोगों के गुस्से को और बढ़ा दिया।
1918 से 1921 के बीच फ्लू महामारी और अकाल ने स्थिति को और भयावह बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप लाखों लोगों की मृत्यु हो गई।
युद्ध के बाद लोग उम्मीद कर रहे थे कि हालात सुधरेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जिससे जनसामान्य की निराशा और बढ़ गई।
2. महात्मा गांधी और सत्याग्रह का विचार
गांधीजी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे और सत्याग्रह की नई पद्धति पेश की। सत्याग्रह सत्य और अहिंसा पर आधारित एक अनूठा संघर्ष है, जो बिना हिंसा और बदले की भावना के अन्याय का विरोध करता है। इसका उद्देश्य उत्पीड़क के मन में बदलाव लाना है।
भारत में अपने शुरुआती आंदोलनों के दौरान, गांधीजी ने 1917 में बिहार के चंपारण में किसानों का समर्थन किया, जो नील की खेती के अत्याचारों का सामना कर रहे थे। उसी वर्ष, उन्होंने गुजरात के खेड़ा में किसानों को कर छूट दिलाने के लिए संघर्ष किया। 1918 में उन्होंने अहमदाबाद के मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन और बेहतर कामकाजी परिस्थितियों की मांग की।
इन आंदोलनों के बाद, 1919 में रॉलट एक्ट के विरोध और जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने गांधीजी के नेतृत्व को और मजबूती प्रदान की।
3. रॉलट एक्ट (1919)
रॉलट एक्ट के तहत सरकार को किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमे के जेल में बंद करने का अधिकार मिल गया था। गांधीजी ने इस अन्यायपूर्ण कानून के खिलाफ पूरे देश में सत्याग्रह का आह्वान किया।
इसी दौरान, 13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग हत्याकांड की भयावह घटना हुई, जब अमृतसर में एक शांतिपूर्ण सभा पर जनरल डायर ने गोली चलवा दी। इस निर्मम कार्रवाई में सैकड़ों लोग मारे गए, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया और आंदोलन को और तेज़ कर दिया।
हालांकि, जब आंदोलन के दौरान हिंसा बढ़ने लगी, तो गांधीजी ने अपने अहिंसक सिद्धांतों के चलते आंदोलन को वापस लेने का फैसला किया।
4. ख़िलाफ़त और असहयोग आंदोलन
1919 में तुर्की के खलीफा की शक्ति बचाने के लिए भारतीय मुसलमानों ने खिलाफ़त आंदोलन शुरू किया, जिसे गांधीजी ने हिंदू-मुस्लिम एकता के उद्देश्य से समर्थन दिया।
इसके बाद 1920 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन भारतीयों के सहयोग पर निर्भर है, और यदि यह सहयोग वापस ले लिया जाए, तो यह शासन समाप्त हो जाएगा।
इस आंदोलन के अंतर्गत सरकारी उपाधियों का त्याग, विदेशी वस्त्रों और सामान का बहिष्कार, तथा सरकारी नौकरियों, स्कूलों, और अदालतों का त्याग शामिल था।
1920 में नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने असहयोग आंदोलन को मंजूरी दी। इसके बाद गांधीजी और शौकत अली ने पूरे देश में इस आंदोलन के लिए समर्थन जुटाया।
आंदोलन के भीतर अलग-अलग धाराएँ
असहयोग-ख़िलाफ़त आंदोलन 1921 में शुरू हुआ। इसमें समाज के विभिन्न वर्गों ने हिस्सा लिया, लेकिन उनकी अपेक्षाएँ और आंदोलन का मतलब सबके लिए अलग-अलग था। आइए इसे सरल भाषा में समझें।
1. शहरों में आंदोलन
असहयोग आंदोलन के दौरान शहरी मध्यवर्ग ने सक्रिय भागीदारी दिखाई। हज़ारों छात्रों ने स्कूल और कॉलेज छोड़ दिए, और कई शिक्षकों और वकीलों ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया।
मद्रास को छोड़कर अन्य प्रांतों में चुनावों का बहिष्कार किया गया, लेकिन मद्रास में जस्टिस पार्टी (गैर-ब्राह्मण) ने चुनावों का बहिष्कार नहीं किया क्योंकि वे काउंसिल में अपने अधिकारों के लिए काम करना चाहते थे।
इस आंदोलन का आर्थिक प्रभाव भी व्यापक था। विदेशी वस्त्रों और सामानों का बहिष्कार किया गया, शराब की दुकानों की पिकेटिंग हुई, और विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई।
परिणामस्वरूप, 1921-1922 के बीच विदेशी कपड़ों का आयात आधा हो गया, और भारतीय कपड़ों की मांग बढ़ने से हथकरघों का उत्पादन बढ़ा।हालांकि, आंदोलन में कई समस्याएँ भी थीं। खादी गरीबों के लिए महंगी थी, जिससे विदेशी कपड़ों का बहिष्कार लंबे समय तक संभव नहीं हो सका।
ब्रिटिश संस्थानों का बहिष्कार किया गया, लेकिन वैकल्पिक भारतीय संस्थानों का विकास धीमा रहा। परिणामस्वरूप, लोग धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों और अदालतों में लौटने लगे।
2. ग्रामीण इलाक़ों में विद्रोह
असहयोग आंदोलन के दौरान किसानों ने भी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया।
अवध में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में किसानों ने लगान कम करने, बेगार खत्म करने और जमींदारों के बहिष्कार की माँग की। पंचायतों ने "नाई-धोबी बंद" का आह्वान किया।
1920 में जवाहरलाल नेहरू और बाबा रामचंद्र ने मिलकर अवध किसान सभा बनाई।
1921 में आंदोलन उग्र हो गया, जिसमें जमींदारों के घरों पर हमले, बाजारों में लूटपाट, और अनाज के गोदामों पर कब्जा जैसे घटनाएँ हुईं।
किसानों में गांधीजी के नाम पर यह प्रचार किया गया कि लगान नहीं भरना है और जमीन गरीबों में बाँटी जाएगी।
इसके अलावा, आंध्र प्रदेश के गूडेम पहाड़ियों में आदिवासी किसानों ने जंगलों पर अपने अधिकारों के लिए विद्रोह किया।
इस विद्रोह का नेतृत्व अल्लूरी सीताराम राजू ने किया, जिन्होंने गांधीजी का समर्थन किया, लेकिन बलप्रयोग को आज़ादी का जरिया माना। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध छेड़ा, लेकिन 1924 में उन्हें फांसी दे दी गई।
3. बागानों में स्वराज
असम के बागानों में मजदूरों के लिए "स्वराज" का मतलब था आज़ादी के साथ अपने गाँव लौटना। हालांकि, 1859 के कानून के तहत मजदूरों को बागान छोड़ने की इजाजत नहीं थी।
असहयोग आंदोलन के दौरान, मजदूर बागानों से भागकर अपने गाँव की ओर चलने लगे, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि गांधीजी के राज में उन्हें जमीन मिलेगी।
रेलवे और स्टीमर हड़ताल के कारण कई मजदूर रास्ते में फँस गए, जहां पुलिस ने उन्हें पकड़कर पीटा और वापस भेज दिया।
सविनय अवज्ञा की ओर
1922 में असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद भारतीय राजनीति में कई बदलाव हुए। आंदोलन के अगले चरण में गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत की। यह आंदोलन असहयोग आंदोलन से अलग था क्योंकि इसमें अंग्रेज़ी कानूनों का उल्लंघन भी शामिल था। आइए इसे सरल भाषा में समझते हैं।
1. असहयोग के बाद की स्थिति
गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को बढ़ती हिंसा के डर से वापस ले लिया, क्योंकि उन्हें लगा कि सत्याग्रहियों को और प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
इसके बाद 1923 में सी.आर. दास और मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस के भीतर स्वराज पार्टी का गठन किया। इस पार्टी का उद्देश्य था परिषदों में प्रवेश कर ब्रिटिश नीतियों का विरोध करना।
इसी दौरान, देश आर्थिक संकट से भी जूझ रहा था। 1926 से कृषि उत्पादों की कीमतें गिरने लगीं, और 1930 तक किसान भारी संकट में आ गए, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा।
2. साइमन कमीशन और पूर्ण स्वराज
1928 में भारत में संवैधानिक सुधारों का अध्ययन करने आए साइमन कमीशन का व्यापक विरोध हुआ, क्योंकि इस कमीशन में कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था।
देशभर में "साइमन कमीशन वापस जाओ" के नारों के साथ इसका विरोध किया गया।
इसके बाद, 1929 के लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने "पूर्ण स्वराज" की माँग की। 26 जनवरी 1930 को देश में पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया गया, जो स्वतंत्रता के प्रति भारतीयों की प्रतिबद्धता का प्रतीक बना।
3. सविनय अवज्ञा आंदोलन और नमक यात्रा
गांधीजी ने नमक कर को दमनकारी बताते हुए इसे ब्रिटिश शासन के विरोध का प्रतीक बनाया।
31 जनवरी 1930 को उन्होंने वायसराय को 11 माँगों की सूची भेजी, जिसमें नमक कर को समाप्त करना प्रमुख माँग थी। माँगें न माने जाने पर गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया।
मार्च 1930 में उन्होंने साबरमती आश्रम से दांडी तक 240 किलोमीटर की ऐतिहासिक पैदल यात्रा की, जिसे नमक यात्रा कहा जाता है।
6 अप्रैल को उन्होंने समुद्र का पानी उबालकर नमक बनाकर कानून तोड़ा।
इस आंदोलन ने पूरे देश में उत्साह फैलाया। लोगों ने नमक कानून तोड़ा, विदेशी कपड़ों और शराब का बहिष्कार किया, किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया, और वनवासियों ने जंगल कानूनों का उल्लंघन करते हुए आरक्षित वनों में प्रवेश किया।
4. सरकारी दमन और गांधी-इरविन समझौता
सविनय अवज्ञा आंदोलन के जवाब में सरकार ने कड़ा रुख अपनाया। नेताओं को गिरफ्तार किया गया, शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर हमला हुआ, और लाखों लोगों को जेल में डाल दिया गया।
स्थिति को शांत करने के लिए 1931 में गांधी-इरविन समझौता हुआ, जिसके तहत गांधीजी ने गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने पर सहमति दी। इसके बदले सरकार ने राजनीतिक कैदियों को रिहा करने का वादा किया, जिससे आंदोलन की तीव्रता कुछ हद तक कम हुई।
5. सामाजिक समूहों की भागीदारी
सविनय अवज्ञा आंदोलन में समाज के विभिन्न वर्गों ने अपनी-अपनी अपेक्षाओं के साथ भाग लिया। संपन्न किसान, विशेष रूप से गुजरात और उत्तर प्रदेश में, भारी लगान का विरोध कर रहे थे और उनके लिए स्वराज "लगान माफी" का प्रतीक था।
गरीब किसान जमींदारों का किराया माफ करना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस ने इस मुद्दे पर खुलकर समर्थन नहीं दिया।
व्यापारी वर्ग ने विदेशी आयात का विरोध किया, और स्वराज उनके लिए व्यापार पर औपनिवेशिक पाबंदियों के अंत का प्रतीक था।
मजदूर वर्ग ने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया, लेकिन उनके मुद्दों को कांग्रेस ने नजरअंदाज किया।
महिलाओं ने भी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने बड़ी संख्या में नमक कानून तोड़ा और पिकेटिंग में हिस्सा लिया, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें संगठन में महत्त्वपूर्ण पद नहीं दिए।
इस तरह, विभिन्न वर्गों की भागीदारी ने आंदोलन को व्यापक बनाया, लेकिन उनकी अपेक्षाएँ पूरी तरह से पूरी नहीं हो सकीं।
6. सविनय अवज्ञा की सीमाएँ
सविनय अवज्ञा आंदोलन में दलितों की भागीदारी सीमित रही।
डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलितों के लिए अलग राजनीतिक अधिकारों और सामाजिक सुधारों की माँग की, जो आंदोलन से अलग एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया।
मुस्लिम समुदाय की बात करें तो, असहयोग आंदोलन के बाद मुसलमानों का बड़ा तबका कांग्रेस से दूर हो गया।
सांप्रदायिक दंगों और मुस्लिम अल्पसंख्यकों की चिंताओं ने इस विभाजन को और गहरा किया, जिससे आंदोलन में उनकी सहभागिता कम हो गई और कांग्रेस की चुनौती बढ़ गई।
सामूहिक अपनेपन का भाव
राष्ट्रवाद तब पनपता है जब लोग यह महसूस करने लगते हैं कि वे एक ही राष्ट्र के अंग हैं। यह भावना संयुक्त संघर्षों और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से विकसित होती है।
1. भारत माता की छवि
भारत माता की अवधारणा भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण में एक महत्वपूर्ण प्रतीक बनी।
1870 के दशक में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने "वन्दे मातरम्" गीत लिखा, जो भारत माता की भावनात्मक अभिव्यक्ति थी।
बाद में अबनींद्रनाथ टैगोर ने भारत माता को एक शांत और आध्यात्मिक संन्यासिनी के रूप में चित्रित किया, जो राष्ट्र की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक बनी।
यह छवि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रवाद और देशभक्ति का प्रतीक बन गई, और भारत माता की छवि को श्रद्धा से देखना राष्ट्रवाद में आस्था का प्रतीक बन गया।
2. लोक कथाओं और सांस्कृतिक पुनर्जागरण
भारतीय राष्ट्रवाद के उत्थान के दौरान, राष्ट्रवादियों ने गाँव-गाँव घूमकर लोक गीत, गाथाएँ, और मिथक इकट्ठे किए, जिन्हें परंपरागत भारतीय संस्कृति की असली पहचान माना गया।
इन लोक कथाओं ने राष्ट्रीय गौरव का स्रोत बनकर भारतीयों को अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करने की प्रेरणा दी।
रवींद्रनाथ टैगोर और नटेसा शास्त्री जैसे विद्वानों ने इन लोक परंपराओं को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीय भावना को बल मिला।
3. झंडों और प्रतीकों का उपयोग
स्वदेशी आंदोलन के दौरान झंडे का भी महत्वपूर्ण प्रतीकात्मक उपयोग किया गया। बंगाल में एक तिरंगा झंडा बनाया गया, जिसमें हरे, पीले और लाल रंग थे। इसमें कमल के फूल और अर्धचंद्र को हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक माना गया।
1921 में गांधीजी ने स्वराज झंडा प्रस्तुत किया, जो सफेद, हरे और लाल रंग का था, और इसके केंद्र में चरखा स्वावलंबन का प्रतीक था। इस झंडे को जुलूसों में लेकर चलना ब्रिटिश शासन के खिलाफ अवज्ञा और स्वराज की आकांक्षा का प्रतीक बन गया।
4. इतिहास की पुनर्व्याख्या
भारतीय राष्ट्रवादियों ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय गौरव को बढ़ावा देने के लिए प्राचीन भारत की महान उपलब्धियों को उजागर किया।
उन्होंने कला, विज्ञान, और संस्कृति के क्षेत्र में प्राचीन भारत की प्रगति पर जोर देकर भारतीयों को अपने इतिहास पर गर्व करने की प्रेरणा दी।
इसका उद्देश्य भारतीयों में आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के प्रति जागरूकता उत्पन्न करना था, जिससे वे औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष कर सकें।
5.समस्याएँ
भारतीय राष्ट्रवाद के दौरान अतीत और प्रतीकों का अधिकांश हिस्सा हिंदू संस्कृति पर आधारित था, जिससे यह आंदोलन मुख्यतः हिंदू परंपराओं और प्रतीकों से जुड़ा दिखने लगा।
इस सांस्कृतिक आधार के कारण अन्य समुदाय, विशेषकर मुसलमान, स्वयं को इस आंदोलन से अलग-थलग महसूस करने लगे, जिससे राष्ट्रवाद के दायरे में सांप्रदायिक विभाजन की आशंका बढ़ गई।