संघवाद Notes in Hindi chapter 7 Class 11 Political Science book 1 sanghavaad Federalism
0Team Eklavyaनवंबर 02, 2024
संघवाद
सरकार के दो स्तर
1. पूरे देश के लिए एक सरकार
केंद्र सरकार / संघ सरकार
2. राज्यों के लिए अलग – अलग सरकार
प्रांतीय सरकार / राज्य सरकार
संघवाद
केंद्र सरकार
स्थानीय सरकार
राज्य सरकार
संघवाद से क्या अभिप्राय है
संघवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है।
इसमें एक प्रांतीय स्तर की होती है और दूसरी केंद्रीय स्तर की
प्रत्येक सरकार अपने क्षेत्र में स्वायत्त होती है और उसके पास शासन के अधिकार होते है ।
कुछ संघीय देशों में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था होती है
लेकिन भारत देश में इकहरी नागरिकता है।
इस प्रकार लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं।
वे अपने क्षेत्र के भी होते हैं और राष्ट्र के भी।
जैसे - कोई गुजराती ,झारखंडी , बिहारी , बंगाली होने के साथ-साथ भारतीय भी होता है।
प्रत्येक स्तर की राजनीतिक व्यवस्था की कुछ विशिष्ट शक्तियाँ और उत्तरदायित्व होते हैं तथा वहाँ एक अलग सरकार भी होती है।
दोहरे शासन की विस्तृत रूपरेखा , एक लिखित संविधान में मौजूद होती है।
यह संविधान सर्वोच्च होता है और दोनों सरकारों की शक्तियों का स्रोत भी।
राष्ट्रीय महत्त्व के विषय
जैसे - प्रतिरक्षा और मुद्रा का उत्तरदायित्व संघीय या केंद्रीय सरकार का होता है।
क्षेत्रीय या स्थानीय महत्त्व के विषय पर प्रांतीय राज्य सरकारें जवाबदेह होती हैं।
केंद्र और राज्यों के मध्य टकराव को रोकने के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है यह संघर्षो का समाधान करती है।
स्वतंत्र न्यायपालिका को केंद्रीय सरकार और राज्यों के बीच शक्ति के बँटवारे के संबंध में उठने वाले कानूनी विवादों को हल करने का अधिकार होता है।
संघवाद की विशेषता
संघवाद में दो या तीन स्तरीय सरकार की व्यवस्था होती है
संविधान के द्वारा सरकार का गठन किया जाता है
स्वतंत्र न्यायपालिका, जो केंद्र और राज्य सरकार के विवाद को सुलझाती है
अगर कोई परिवर्तन करना हो तो हर स्तर की सहमती चाहिए
वित्तीय स्वायत्ता
भारत एक संघ राज्य
भारत में तीन स्तर पर सरकार होती है
केंद्र सरकार
राज्य सरकार
स्थानीय सरकार
भारतीय संविधान में संघवाद
भारत की आजादी से पहले ही राष्ट्रीय आंदोलन के अनेक नेता इस विषय पर सहमत थे कि भारत जैसे विशाल देश पर शासन करने के लिए शक्तियों को प्रांतीय और केंद्रीय सरकारों के बीच बाँटना जरूरी होगा।
वह समझते थे कि भारतीय समाज में क्षेत्रीय और भाषाई विविधताएँ हैं। इन विविधताओं को मान्यता देने की आवश्यकता थी।
विभिन्न क्षेत्रों और भाषा-भाषी लोगों को सत्ता में सहभागिता करनी थी
तथा इन क्षेत्रों के लोगों को स्वशासन का अवसर मिलना चाहिए था।
शक्ति विभाजन
भारतीय संविधान में दो तरह की सरकारों का वर्णन किया गया हैं
पहली केंद्रीय सरकार जिसका कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण देश होता है
दूसरी सरकार राज्य स्तर की सरकार - जिसका कार्यक्षेत्र केवल राज्य तक ही सीमित होता है
दोनों ही संवैधानिक सरकारे हैं और इसके कार्यक्षेत्रों का स्पष्ट वर्णन किया गया है
भारतीय संविधान में संघात्मक लक्षण –
भारत में एक स्वतंत्र न्यायपालिका हैं जो सरकार को तानाशाह नहीं होने देती है
भारत में तीन स्तर की सरकारें हैं (केंद्रीय स्तर, राज्य स्तर, स्थानीय स्तर)
संविधान संशोधन प्रणाली
संविधान सर्वोच्च हैं कोई भी शक्ति संविधान से ऊपर नहीं है
सभी संविधान के दायरे में रह कर ही कार्य करेंगे
शक्तियों का विभाजन –
भारत के संविधान के अनुसार केंद्र और राज्य की सरकारों को संविधान के अनुसार विभिन्न शक्तियां प्राप्त है और इन सरकारों को जिन विषयों में कानून बनाना है
इसका वर्णन संघ सूची , राज्य सूची और समवर्ती सूची में मिलता है
संघ सूची – केंद्र सरकार कानून बनाती है
राज्य सूची – राज्य सरकार कानून बनाती है
समवर्ती सूची - केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों ही कानून बना सकते है लेकिन विवाद होने पर केंद्र का कानून ही मानी होगा
सशक्त केन्द्रीय सरकार और संघवाद
भारत में इस बात को लेकर दो मत थे कि केंद्र सरकार के पास अधिक शक्तियां होनी चाहिए या राज्य सरकार के पास
कुछ लोग एक सशक्त केन्द्रीय सरकार चाहते थे
तो कुछ लोग राज्य सरकार को अधिक मजबूत बनाना चाहते थे
भारतीय संविधान द्वारा एक सशक्त केंद्रीय सरकार की स्थापना की गई है।
भारत एक महाद्वीप की तरह विशाल देश है
यह विविधताओं और सामाजिक समस्याओं से भरा है।
संविधान निर्माताओं का यह मानना था कि हमें एक संघीय संविधान चाहिए
और संविधान ऐसा हो जो इन विविधताओं को समेट सके।
संविधान निर्माता एक शक्तिशाली केंद्र सरकार की स्थापना भी करना चाहते थे
जो विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश रख सके
और सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन ला सके।
स्वतंत्रता के समय केंद्र के लिए ऐसी शक्तियाँ आवश्यक थी
क्योंकि उस समय देश में न केवल ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित कुछ प्रांत थे
बल्कि 500 से ज्यादा देशी रियासतें भी थीं
जिनका या तो पुराने प्रांतों में विलय या नए प्रांतों के रूप में गठन होना था।
भारतीय संविधान में ऐसे प्रावधान जो सशक्त केन्द्रीय सरकार बनाते है -
हमारे संविधान के अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद 'किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकती है’।
वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है। पर इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए संविधान पहले प्रभावित राज्य के विधान मंडल को विचार व्यक्त करने का अवसर देता है।
संविधान में केंद्र को अधिक शक्तिशाली बनाने वाले कुछ आपातकालीन प्रावधान हैं जो लागू होने पर हमारी संघीय व्यवस्था को एक अत्यधिक केंद्रीकृत व्यवस्था में बदल देते हैं।
आपातकाल के दौरान शक्तियाँ कानूनी रूप से केंद्रीकृत हो जाती है।
संसद को यह शक्ति भी प्राप्त हो जाती है कि वह उन विषयों पर कानून बना सके जो राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
सामान्य स्थितियों में भी केंद्र सरकार को अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्तियाँ और उत्तरदायित्व हैं।
आय के प्रमुख संसाधनों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण है।
केंद्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केंद्र पर आश्रित हैं।
दूसरी तरफ स्वतंत्रता के बाद भारत ने तेज आर्थिक प्रगति और विकास के लिए नियोजन को साधन के रूप में प्रयोग किया।
नियोजन के कारण आर्थिक फ़ैसले लेने की ताकत केंद्र सरकार के हाथ में सिमटती गई।
केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त योजना आयोग राज्यों के संसाधन प्रबंध की निगरानी करता है।
इसके अलावा, केंद्र सरकार अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर राज्यों को अनुदान और ऋण देती है।
आर्थिक संसाधनों का यह वितरण असंतुलित माना जाता है और केंद्र सरकार पर अकसर यह आरोप लगता है की वह अपने विरोधी दलों की सरकार वाले राज्यों के साथ भेदभाव करती है
अखिल भारतीय सेवाएँ पूरे देश के लिए हैं और इसमें चयनित पदाधिकारी राज्यों के प्रशासन में कार्य करते हैं।
अत: जिलाधीश के रूप में कार्यरत भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी या पुलिस कमिश्नर के रूप में कार्यरत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होता है।
राज्य न तो उनके विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकता है न ही उन्हें सेवा से हटा सकता है।
संविधान के दो अन्य अनुच्छेद 33 व 34 केंद्र सरकार को शक्ति को उस स्थिति में काफी बढ़ा देते हैं जब देश के किसी क्षेत्र में 'सैनिक शासन' (मार्शल लॉ) लागू हो जाय।
ये प्रावधान संसद को इस बात का अधिकार देते हैं कि ऐसी स्थिति में वह केंद्र या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शांति व्यवस्था बनाए रखने या उसको बहाली के लिए किए गए किसी भी कार्य को कानूनन जायज करार दे सके।
इसी के अंतर्गत 'सशस्त्र बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम' का निर्माण किया गया। इससे कभी-कभी जनता और सशस्त्र बलों में आपसी तनाव भी हुआ है।
भारतीय संघीय व्यवस्था में तनाव -
संविधान ने केंद्र सरकार को बहुत अधिक शक्तियाँ दी है।
इसी कारण राज्य ज्यादा शक्ति की माँग करते हैं।
समय-समय पर राज्यों ने ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की माँग उठायी है।
इससे केंद्र और राज्यों के बीच संघर्ष और विवादों का जन्म होता है।
केंद्र और राज्य अथवा विभिन्न राज्यों के आपसी कानूनी विवादों का समाधान न्यायपालिका करती है।
लेकिन स्वायत्तता की माँग एक राजनीतिक सवाल है जिसे आपसी बातचीत द्वारा ही हल किया जा सकता है।
केंद्र राज्य सम्बन्ध -
1950 तथा 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संघीय व्यवस्था की नीव रखी।
इस दौरान केंद्र और राज्यों में काँग्रेस का वर्चस्व था। नए राज्यों के गठन की माँग के अलावा केंद्र और राज्यों के बीच संबंध शांतिपूर्ण और सामान्य रहे।
राज्यों को आशा थी कि वे केंद्र से प्राप्त वित्तीय अनुदानों से विकास कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त केंद्र द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बनाई गई नीतियों के कारण भी राज्यों को काफ़ी आशा बंधी थी।
1960 के दशक के बीच में काँग्रेस के वर्चस्व में कुछ कमी आई और अनेक राज्यों में विरोधी दल सत्ता में आ गए।
इससे राज्यों की और ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की माँग की शुरुवात हुई ।
इस माँग के पीछे प्रमुख कारण यह था कि केंद्र और राज्यों में भिन्न-भिन्न दल सत्ता में थे।
अतः राज्यों की सरकारों ने केंद्र की काँग्रेसी सरकार द्वारा किए गए अवांछनीय हस्तक्षेपों का विरोध करना शुरू कर दिया।
काँग्रेस के लिए भी विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों से संबंधों के तालमेल बनाने में समस्या आई ।
इस विचित्र राजनैतिक संदर्भ में संघीय व्यवस्था के अंदर स्वायत्तता की अवधारणा को लेकर वाद-विवाद छिड़ गया।
आखिरकार 1990 के दशक से काँग्रेस का वर्चस्व काफी कुछ खत्म हो गया है और केंद्र में गठबंधन राजनीति के युग की शुरुवात हुई ।
राज्यों में भी विभिन्न राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल सत्तारूढ़ हुए हैं।
इससे राज्यों का राजनीतिक कद बढ़ा, विविधता का आदर हुआ और एक मँजे हुए संघवाद की शुरूआत हुई।
इस तरह दूसरे दौर में स्वायत्तता का मसला राजनैतिक रूप से सरगर्म हुआ है।
स्वायत्तता की मांग -
समय समय पर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों नें राज्यों को केंद्र के मुकाबले ज्यादा स्वायत्तता की मांग उठाई है
कभी कभी इन माँगों के पीछे यह इच्छा होती है कि शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदला जाए तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए जाएँ।
समय-समय पर अनेक राज्यों (तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल) और दलों (द्रमुक, अकाली दल, माकपा) ने स्वायत्तता की माँग की।
एक अन्य माँग यह है कि राज्यों के पास आय के स्वतंत्र साधन होने चाहिए और संसाधनों पर उनका ज्यादा नियंत्रण होना चाहिए। इसे वित्तीय-स्वायत्तता भी कहते हैं।
1977 में पश्चिमी बंगाल की वामपंथी सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों को पुनर्परिभाषित करने के लिए एक दस्तावेज़ प्रकाशित किया।
तमिलनाडु और पंजाब की स्वायत्तता की माँगों में भी ज्यादा वित्तीय अधिकार हासिल करने की मंशा छुपी हुई है।
स्वायत्तता की माँग का तीसरा पहलू प्रशासकीय शक्तियों से संबंधित है।
विभिन्न राज्य प्रशासनिक तंत्र पर केंद्रीय नियंत्रण से नाराज रहते हैं।
राज्यपाल की भूमिका और राष्ट्रपति शासन -
राज्यपाल की भूमिका केंद्र और राज्यों के बीच हमेशा ही विवाद का विषय रही है।
राज्यपाल निर्वाचित पदाधिकारी नहीं होता।
राज्यपाल की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा होती है।
अतः राज्यपाल के फैसलों को अकसर राज्य सरकार के कार्यों में केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है।
जब केंद्र और राज्य में अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं तब राज्यपाल की भूमिका और विवादास्पद हो जाती है।
केंद्र-राज्य संबंधों से जुड़े मसलों की पड़ताल के लिए केंद्र सरकार द्वारा 1983 में एक आयोग बनाया गया।
इस आयोग को 'सरकारिया आयोग' के नाम से जाना जाता है।
इस आयोग ने 1998 में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश को थी कि राज्यपालों की नियुक्ति अनिवार्य तथा निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए
संविधान के सर्वाधिक विवादास्पद प्रावधानों में से एक अनुच्छेद 356 है।
इसके द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है।
इस प्रावधान को किसी राज्य में तब लागू करते हैं जब "ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता।
" परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लेती है।
राष्ट्रपति शासन को अधिकतम तीन वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है।
राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधान सभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा कर सके।
इससे अनेक विवाद पैदा हुए। कुछ मामलों में राज्य सरकारों को विधायिका में बहुमत होने के बाद भी बर्खास्त कर दिया गया।
1959 में केरल में और 1967 के बाद अनेक राज्यों में बहुमत की परीक्षा के बिना ही सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया।
1967 तक अनुच्छेद 356 का प्रयोग काफी कम किया गया।
1967 के बाद अनेक राज्यों में गैर-काँग्रेसी सरकारें बनीं जबकि केंद्र में सत्ता काँग्रेस के पास रही।
केंद्र ने अनेक अवसरों पर इसका प्रयोग राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया अथवा उसने राज्यपाल के माध्यम से बहुमत दल या गठबंधन को सत्तारूढ़ होने से रोका।
उदाहरण के लिए सन् 1980 के दशक में केंद्रीय सरकार ने आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया
राज्यपाल को केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में देखा जाता है
वह राज्य सरकार को हटाने और विधान सभा भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति को भेज सके।
राज्यपाल को यह शक्ति भी प्राप्त है कि वह विधान मंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित कर सके।
इससे केंद्र सरकार को यह अवसर मिल जाता है कि वह किसी राज्य के कानून निर्माण में देरी कर सके
और यदि चाहे तो ऐसे विधेयकों की परीक्षा कर उन पर निषेधाधिकार (वीटो) का प्रयोग करके उसे पूरी तरह नकार दे।
नए राज्यों की मांग -
नए राज्यों के गठन की मांग को लेकर भी तनाव रहा है
आजादी के बाद नए राज्यों के गठन की मांग उठी है
जिसके लिए सरकार ने 1953 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया
इस आयोग ने भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की सिफारिश की है
1960 में गुजरात और महाराष्ट्र का गठन हुआ है
1966 में पंजाब और हरियाणा को अलग किया गया बाद में पूर्वोत्तर के राज्यों का गठन हुआ
विशिष्ट प्रावधान -
भारतीय संघवाद की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें अनेक राज्यों के साथ थोड़ा अलग व्यवहार किया जाता है।
प्रत्येक राज्य का आकार और जनसंख्या भिन्न-भिन्न होने के कारण उन्हें राज्यसभा में असमान प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है।
जहाँ छोटे-से-छोटे राज्य को भी न्यूनतम प्रतिनिधित्व अवश्य प्रदान किया गया है
वहीं इस व्यवस्था से यह भी सुनिश्चित किया गया कि बड़े राज्यों को ज्यादा प्रतिनिधित्व मिल सके।
शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्राप्त है।
लेकिन कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है।
ऐसे प्रावधान पूर्वोत्तर के राज्यों (असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम आदि) के लिए हैं
जहाँ विशिष्ट इतिहास और संस्कृति वाली जनजातीय-बहुल जनसंख्या निवास करती है।
यहाँ के ये निवासी अपनी संस्कृति तथा इतिहास को बनाए रखना चाहते हैं। (अनुच्छेद 371)।
बहरहाल, ये प्रावधान इस क्षेत्र के कुछ भागों में अलगाववाद और सशस्त्र विद्रोह को रोकने में सफल नहीं हो सके हैं।
ऐसे ही कुछ विशिष्ट प्रावधान पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश तथा अन्य राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र, सिक्किम और तेलंगाणा के लिए भी हैं।
जम्मू और कश्मीर -
पहले जम्मू और कश्मीर को अनुछेद 370 के तहत विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त था
जम्मू और कश्मीर बड़े रजवाड़ों में से एक था, जिसके पास भारत या पाकिस्तान से जुड़ने या फिर स्वतंत्र रहने का विकल्प था।
परंतु, स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात् अक्तूबर, 1947 में पाकिस्तान ने अपनी ओर से कश्मीर पर कब्ज़ा करने के लिए क़बायली घुसपैठिए भेजे।
इसने महाराजा हरि सिंह को भारत से मदद लेने के लिए मज़बूर किया और वे भारतीय संघ में सम्मिलित हो गए।
पश्चिमी और पूर्वी भागों के कई मुस्लिम बहुल क्षेत्र पाकिस्तान में मिल गए, परंतु जम्मू और कश्मीर एक अपवाद था।
इन परिस्थितियों के अंतर्गत संविधान द्वारा उसे बहुत अधिक स्वायत्तता दी गई।
अनुच्छेद 370 के अनुसार, संघ और समवर्ती सूचियों में उल्लेखित मामलों में कोई कानून भी बनाने के लिए राज्य की सहमति की आवश्यकता थी।
यह अन्य राज्यों की स्थिति से भिन्न था।
दूसरे राज्यों के मामले में, शक्तियों का बंटवारा जैसा तीन सूचियों में दिया गया था, स्वतः लागू होता है।
जम्मू और कश्मीर के मामले में, केंद्र सरकार के पास मात्र सीमित शक्तियाँ थी और संघ सूची तथा समवर्ती सूची में दी गई अन्य शक्तियों को केवल राज्य की सहमति से ही उपयोग में लाया जा सकता था।
जम्मू और कश्मीर का अलग संविधान और झंडा था,
जम्मू और कश्मीर में राज्य की सहमति के बिना,
आंतरिक अशांति के कारण आपातकाल की घोषणा नहीं की जा सकती थी।
केंद्र सरकार राज्य में वित्तीय आपातकाल नहीं लगा सकती थी और जम्मू और कश्मीर में नीति निर्देशक सिद्धांत लागू नहीं होते थे।
भारतीय संविधान में संशोधन (अनुच्छेद 368 के अंतर्गत) जम्मू और कश्मीर की सरकार की सहमति से ही लागू किए जा सकते थे।
वर्तमान में 370 के अंतर्गत दिया गया विशेष दर्जा अस्तित्व में नहीं है।
जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 द्वारा, राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों (1) जम्मू और कश्मीर और (2) लद्दाख में विभाजित कर दिया है। यह नई व्यवस्था 31 अक्तूबर, 2019 से प्रभावी हुई है।