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विनिर्माण उद्योग Class 10 Social Science Geography Chapter 5 Manufacturing Industries vinirmaan udyog

विनिर्माण उद्योग

  • कच्चे पदार्थ को मूल्यवान उत्पाद में परिवर्तित कर अधिक मात्रा में वस्तुओं के उत्पादन को विनिर्माण या वस्तु निर्माण कहा जाता है। 
  • द्वितीयक कार्यों में लगे व्यक्ति कच्चे माल को परिष्कृत वस्तुओं में परिवर्तित करते हैं। 
  • स्टील, कार, कपड़ा उद्योग, बेकरी तथा पेय पदार्थों संबंधी उद्योगों में लगे श्रमिक इसी वर्ग के अंतर्गत आते हैं। 
  • किसी देश की आर्थिक उन्नति विनिर्माण उद्योगों के विकास से मापी जाती है।



विनिर्माण का महत्त्व

  • विनिर्माण उद्योग आर्थिक विकास की रीढ़ समझे जाते हैं, क्योंकि विनिर्माण उद्योग न केवल कृषि के आधुनिकीकरण में सहायक हैं वरन् द्वितीयक व तृतीयक सेवाओं में रोजगार उपलब्ध कराकर कृषि पर हमारी निर्भरता को कम करते हैं।
  • देश में औद्योगिक विकास बेरोजगारी तथा गरीबी उन्मूलन की एक आवश्यक शर्त है। 
  • भारत में सार्वजनिक तथा संयुक्त क्षेत्र में लगे उद्योग, इसी विचार पर आधारित थे। 
  • जनजातीय तथा पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना का उद्देश्य भी क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना था।
  • निर्मित वस्तुओं का निर्यात वाणिज्य व्यापार को बढ़ाता है जिससे अपेक्षित विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है।
  • वे देश ही विकसित हैं जो कच्चे माल को विभिन्न तथा अधिक मूल्यवान तैयार माल में विनिर्मित करते हैं। 
  • भारत का विकास विविध व शीघ्र औद्योगिक विकास में निहित हैं।
  • कृषि तथा उद्योग एक दूसरे से पृथक नहीं हैं ये एक दूसरे के पूरक हैं। 
  • उदाहरणार्थ, भारत में कृषि पर आधारित उद्योगों ने कृषि पैदावार बढ़ोतरी को प्रोत्साहित किया है। 
  • ये उद्योग कच्चे माल के लिए कृषि पर निर्भर हैं तथा इनके द्वारा निर्मित उत्पाद जैसे सिंचाई के लिए पंप, उर्वरक, कीटनाशक दवाएँ, प्लास्टिक पाइप, मशीनें व कृषि औजार आदि पर किसान निर्भर हैं। 
  • इसलिए विनिर्माण उद्योग के विकास तथा स्पर्धा से न केवल कृषि उत्पादन को बढ़ावा मिला है. अपितु उत्पादन प्रक्रिया भी सक्षम हुई है।



उद्योगों का वर्गीकरण 

प्रयुक्त कच्चे माल के स्रोत के आधार पर

  • कृषि आधारित- सूती वस्त्र, ऊनी बरब, पटसन, रेशम वरब, रबर, चीनी, चाय, काफी तथा वनस्पति तेल उद्योग।
  • खनिज आधारित- लोहा तथा इस्पात, सीमेंट, एल्यूमिनियम, मशीन, औजार तथा पेट्रोरासायन उद्योग।

प्रमुख भूमिका के आधार पर

  • आधारभूत उद्योग- जिनके उत्पादन या कच्चे माल पर दूसरे उद्योग निर्भर है जैसे-लोहा इस्पात, ताँबा प्रगलन व एल्यूमिनियम प्रगलम उद्योग।
  • उपभोक्ता उद्योग- जो उत्पादन उपभोक्ताओं के सीधे उपयोग हेतु करते हैं जैसे चीनी दंतमंजन, कागज, पंखे, सिलाई मशीन आदि।

पूँजी निवेश के आधार पर -

  • लघु उधोग को परिसंपत्ति की एक इकाई पर अधिकतम निवेश मूल्य के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया जाता है। 
  • यह निवेश सीमा, समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। 
  • अधिकतम स्वीकार्य निवेश के आधार पर की जाती है। । 
  • यह निवेश मूल्य समय के साथ बदला गया है। 
  • वर्तमान में अधिकतम निवेश एक करोड़ रूपये तक स्वीकार्य है।

स्वामित्व के आधार पर

  • सार्वजनिक क्षेत्र में लगे सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रबंधित तथा सरकार द्वारा संचालित उद्योग जैसे भारत हैवी इलैक्ट्रिकल लिमिटेड (BHS) तथा स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) आदि।
  • निजी क्षेत्र के उद्योग वे उद्योग होते ही जिनका स्वामित्व सिर्फ एक व्यक्ति के पास होता है। टिस्को, बजाज ऑटो लिमिटेड, डाबर उद्योग आदि।
  • संयुक्त उद्योग जैसे उद्योग जो राज्य सरकार और निजी क्षेत्र के संयुक्त प्रयास से चलाये जाते हैं। जैसे ऑयल इंडिया लिमिटेड (OIL 
  • सहकारी उद्योग जिनका स्वामित्व कच्चे माल की पूर्ति करने वाले उत्पादकों, श्रमिकों या दोनों के हाथों में होता है। संसाधनों का कोष संयुक्त होता है तथा लाभ-हानि का विभाजन भी अनुपातिक होता है जैसे महाराष्ट्र के चीनी उद्योग, केरल के नारियल पर आधारित उद्योग।

कच्चे तथा तैयार माल की मात्रा व भार के आधार पर

  • भारी उद्योग जैसे लोहा तथा इस्पात आदि।
  • हल्के उद्योग जो कम भार वाले कच्चे माल का प्रयोग कर हल्के तैयार माल का उत्पादन करते हैं जैसे विद्युतीय उद्योग।


कृषि आधारित उद्योग

सूती वस्त्र, पटसन, रेशम,ऊनी वस्त्र, चीनी तथा वनस्पति तेल आदि कृषि से प्राप्त कच्चे माल उद्योग पर आधारित हैं।  

वस्त्र उद्योग 

  • भारतीय अर्थव्यवस्था में वस्त्र उद्योग का अपना अलग महत्त्व है क्योंकि इसका औद्योगिक उत्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान है। 
  • देश का यह अकेला उद्योग है जो कच्चे माल से उच्चतम अत्तिरिक्त मूल्य उत्पाद तक की श्रृंखला में परिपूर्ण तथा आत्मनिर्भर है। 

सूती वस्त्र उद्योग - 

  • प्राचीन भारत में सूती वस्त्र हाथ से कताई और हथकरघा बुनाई तकनीकों से बनाये जाते थे। 
  • अठारहवीं शताब्दी के बाद विद्युतीय करघों का उपयोग होने लगा। 
  • औपनिवेशिक काल के दौरान हमारे परंपरागत उद्योगों को बहुत हानि हुई क्योंकि हमारे उद्योग इंग्लैंड के मशीन निर्मित वस्त्रों से स्पर्धा नहीं कर पाये।  
  • आरंभिक वर्षों में सूती वस्त्र उद्योग महाराष्ट्र तथा गुजरात के कपास उत्पादन क्षेत्रों तक ही सीमित थे।
  • कपास की उपलब्धता, बाजार, परिवहन, पत्चनों की समीपता, श्रम, नमीयुक्त जलवायु आदि कारकों ने इसके स्थानीयकरण को बढ़ावा दिया। 
  • इस उद्योग का कृषि से निकट का संबंध है और कृषकों, कपास चुनने वालों. गाँठ बनाने वालों, कताई करने वालों, रंगाई करने वालों, डिजाइन बनाने वालों, पैकेट बनाने वालों और सिलाई करने वालों को यह जीविका प्रदान करता है। 
  • इस उद्योग के कारण रसायन रंजक मिल स्टोर तथा पैकेजिंग सामग्री और इंजीनियरिंग उद्योग की माँग बढ़ती है फलस्वरूप इन उद्योगों का विकास होता है।
  • कताई कार्य महाराष्ट्र, गुजरात तथा तमिलनाडु में केंद्रित है लेकिन सूती, रेशम, जरी कशीदाकारी आदि में बुनाई के परंपरागत कौशल और डिजाइन देने के लिए बुनाई अत्यधिक विकेंद्रीकृत है। 
  • भारत में कताई उत्पादन विश्व स्तर का है लेकिन बुना वस्त्र कम गुणवत्ता वाला है क्योंकि यह देश में उत्पादित उच्च स्तरीय धागे का अधिक प्रयोग नहीं कर पाता। 
  • बुनाई का कार्य हथकरणों, विद्युतकरचों व मिलों में होता है।
  • हाथ से बुनी खादी कुटीर उद्योग के रूप में बुनकरों को उनके घरों में बड़े पैमाने पर रोजगार प्रदान कराता है। 
  • पहला सफल सूती वस्त्र उद्योग 1854 में मुंबई मेंलगाया गया। 
  • यूरोप दो विश्व युद्धों से जुड़ा रहा था तथा भारत इंग्लैंड के अधीन था। 
  • ऐसे में इंग्लैंड में कपड़े की माँग आपूर्ति हेतु भारतीय सूती वस्त्र उद्योग को प्रोत्साहन मिला।

पटसन उद्योग 

  • भारत पटसन व पटसन निर्मित समान का सबसे बड़ा उत्पादक है तथा बांग्लादेश के पश्चात् दूसरा बड़ा निर्यातक भी है। 
  • वर्ष 2010-11 में भारत में लगभग 80 पटसन उद्योग थे। 
  • इनमें अधिकांश पश्चिम बंगाल में हुगली नदी तट पर 98 किमी. लंबी तथा 3 किमी. चौड़ी एक सँकरी मेखला में स्थित है।
  • पहला पटसन उद्योग कोलकाता के निकट रिशरा में 1855 में लगाया गया। 
  • 1947 में देश के विभाजन के पश्चात् पटसन मिलें तो भारत में रह गई लेकिन तीन-चौथाई जूट उत्पादक क्षेत्र बांग्लादेश में चले गए।

हुगली नदी तट पर इनके स्थित होने के निम्न कारण हैं 

  • पटसन उत्पादक क्षेत्रों की निकटता, 
  • सस्ता जल परिवहन, 
  • सड़क, 
  • रेल व जल परिवहन का जाल, 
  • कच्चे माल का मिलों तक ले जाने में सहायक होना, 
  • कच्चे पटसन को संसाधित करने में प्रचुर जल, 
  • पश्चिम बंगाल तथा समीपवर्ती राज्य उड़ीस, 
  • बिहार व उत्तर प्रदेश से सस्ता श्रमिक उपलब्ध होना, 
  • कोलकाता का एक बड़े नगरीय केंद्र के रूप बैंकिंग, 
  • बीमा और जूट के सामान के निर्यात के लिए पत्तन की सुविधाएँ प्रदान करना आदि सम्मिलित हैं।

चीनी उद्योग 

  • भारत का चीनी उत्पादन में विश्व में दूसरा स्थान है लेकिन गुड़ व खांडसारी के उत्पादन में इसका प्रथम स्थान है। 
  • इस उद्योग में प्रयुक्त कच्चा माल भारी होता है तथा  ढुलाई में इसके सूक्रोस की मात्रा घट जाती है। 
  • चीनी मिलें उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा तथा मध्य प्रदेश राज्यों में फैली हैं। 
  • चीनी मिलों का 60 प्रतिशत उत्तर प्रदेश तथा बिहार में है। 
  • यह उद्योग मौसमी है, अतः सहकारी क्षेत्र के लिए उपयुक्त है। पिछले कुछ वर्षों से इन मिलों की संख्या दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में विशेषकर महाराष्ट्र में बढ़ी है। 
  • इसका मुख्य कारण यहाँ के गन्ने में अधिक सूक्रोस की मात्रा है। 


खनिज आधारित उद्योग

वे उद्योग जो खनिज व धातुओं को कच्चे माल के रूप में प्रयोग करते हैं, खनिज आधारित उद्योग कहलाते हैं। 


लोहा तथा इस्पात उद्योग

  • लोहा तथा इस्पात उद्योग एक आधारभूत (basic) उद्योग है क्योंकि अन्य सभी भारी, हल्के और मध्यम उद्योग इनसे बनी मशीनरी पर निर्भर हैं। 
  • विविध प्रकार के इंजीनियरिंग सामान, निर्माण सामग्री, रक्षा, चिकित्सा, टेलीफोन वैज्ञानिक उपकरण और विभिन्न प्रकार की उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण के लिए इस्पात की आवश्यकता होती है।
  • इस्पात के उत्पादन तथा खपत को प्रायः एक देश के विकास का पैमाना माना जाता है। 
  • लोहा तथा इस्पात एक भारी उद्योग है क्योंकि इसमें प्रयुक्त कच्चा तथा तैयार माल दोनों ही भारी और स्थूल होते हैं और इसके लिए अधिक परिवहन लागत की आवश्यकता होती है। 
  • इस उद्योग के लिए लौह अयस्क, कोकिंग कोल तथा चुना पत्थर का अनुपात लगभग 4:2:1 का है। 
  • इस्पात को कठोर बनाने के लिए इसमें मैंगनीज की कुछ मात्रा की भी आवश्यकता होती है। इस्पात उद्योगों की आदर्श स्थापना कहाँ होनी चाहिये? यह याद रहे कि इससे निर्मित माल को बाजार तथा उपभोक्ताओं तक पहुँचाने के लिए भी सक्षम परिवहन की आवश्यकता है।
  • भारत में छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र में अधिकांश लोहा तथा इस्पात उद्योग संकेंद्रित हैं। 
  • इस प्रदेश में इस उद्योग के विकास के लिए अधिक अनुकूल सापेक्षिक परिस्थितियाँ हैं। 
  • इनमें लौह अयस्क की कम लागत, उच्च कोटि के कच्चे माल की निकटता, सस्ते श्रमिक और स्थानीय बाजार में इनके माँग की विशाल संभाव्यता सम्मिलित है।


एल्यूमिनियम प्रगलन (Smelting)

  • भारत में एल्यूमिनियम प्रगलन दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धातु शोधन उद्योग है। 
  • यह हल्का, जंग अवरोधी, ऊष्मा का सुचालक, लचीला तथा अन्य धातुओं के मिश्रण से अधिक कठोर बनाया जा सकता है। 
  • हवाई जहाज बनाने में, बर्तन तथा तार बनाने में इसका प्रयोग किया जाता है।
  • कई उद्योगों में इसका महत्त्व इस्पात, ताँबा, जस्ता व सीसे के विकल्प के रूप में प्रयुक्त होने से बढ़ा है।
  • एल्यूमिनियम प्रगलन संयंत्र ओडिशा, पश्चिम बंगाल, केरल, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र व तमिलनाडु राज्यों में स्थित हैं।
  • प्रगालकों में बॉक्साइट का कच्चे पदार्थ के रूप में प्रयोग किया जाता है। 
  • इस उद्योग की स्थापना की दो महत्त्वपूर्ण आवश्यकताएँ हैं- नियमित ऊर्जा की पूर्ति तथा कम कीमत पर कच्चे माल की उपलब्धता।


रसायन उद्योग

  • भारत में रसायन उद्योग तेजी से विकसित हो रहा तथा फैल रहा है। 
  • इसकी भागीदारी सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 3 प्रतिशत है। 
  • यह उद्योग एशिया का तीसरा बड़ा तथा विश्व में आकार की दृष्टि से 12वें स्थान पर है। 
  • इसमें लघु तथा बृहत् दोनों प्रकार की विनिर्माण इकाइयाँ सम्मिलित हैं। 
  • अकार्बनिक और कार्बनिक दोनों क्षेत्रों में तीव्र वृद्धि दर्ज की गई है।
  • अकार्बनिक रसायनों में सलफ्यूरिक अम्ल , नाइट्रिक अम्ल, क्षार, काँच, साबुन, शोधक या अपमार्जक, कागज में प्रयुक्त होने वाले रसायन तथा कास्टिक सोडा आदि शामिल हैं। 
  • कार्बनिक रसायनों में पेट्रोरसायन शामिल हैं जो कृत्रिम वस्त्र, कृत्रिम रबर, प्लास्टिक, रंजक पदार्थ, दवाईयाँ, औषध रसायनों के बनाने में प्रयोग किये जाते हैं। ये उद्योग तेल शोधन शालाओं या पेट्रोरसायन संयंत्रों के समीप स्थापित हैं।
  • रसायन उद्योग अपने आप में एक बड़ा उपभोक्ता भी है। 
  • आधारभूत रसायन एक प्रक्रिया द्वारा अन्य रसायन उत्पन्न करते हैं जिनका उपयोग औद्योगिक अनुप्रयोग, कृषि अथवा उपभोक्ता बाजारों के लिए किया जाता है। 


उर्वरक उद्योग

  • उर्वरक उद्योग नाइट्रोजनी उर्वरक , फास्फेटिक उर्वरक (D.A.P.) तथा अमोनियम फास्फेट और मिश्रित उर्वरक जिसमें तीन मुख्य पोषक उर्वरक नाइट्रोजन, फास्फेट व पोटाश पर केंद्रित हैं। 
  • हरित क्रांति के पश्चात् यह उद्योग देश के अन्य अनेक भागों में भी फैल गया। 
  • गुजरात, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, पंजाब और केरल राज्य कुल उर्वरक उत्पादन का लगभग 50 प्रतिशत उत्पादन करते हैं। 
  • अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादक राज्य आंध्र प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र, असम, पश्चिम बंगाल, गोआ, दिल्ली, मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक हैं।


सीमेंट उद्योग

  • निर्माण कार्यों जैसे घर, कारखाने, पुल, सड़कें, हवाई अड्डा, बाँध तथा अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठानों के निर्माण में सीमेंट आवश्यक है। 
  • इस उद्योग को भारी व स्थूल कच्चे माल जैसे चूना पत्थर, सिलिका और जिप्सम की आवश्यकता होती है। 
  • रेल परिवहन के अतिरिक्त इसमें कोयला तथा विद्युत ऊर्जा भी आवश्यक है।
  • पहला सीमेंट उद्योग सन् 1904 में चेन्नई में लगाया गया था। 
  • स्वतंत्रता के पश्चात इस उद्योग का प्रसार हुआ।


मोटरगाड़ी उद्योग

  • मोटरगाड़ी यात्रियों तथा सामान के तीव्र परिवहन के साधन हैं। 
  • भारत में विभिन्न केंद्रों पर ट्रक, बसें, कारें, मोटर साइकिल, स्कूटर, तिपहिया तथा बहुउपयोगी वाहन निर्मित किये जाते हैं। 
  • उदारीकरण के पश्चात्, नए और आधुनिक मॉडल के वाहनों का बाज़ार तथा वाहनों की माँग बढ़ी है, जिससे इस उद्योग में विशेषकर कार, दोपहिया तथा तिपहिया वाहनों में अपार वृद्धि हुई है। 
  • यह उद्योग दिल्ली, गुड़गाँव, मुंबई, पुणे, चेन्नई, कोलकाता, लखनऊ, इंदौर, हैदराबाद, जमशेदपुर तथा बेंगलूरु के आस पास स्थित हैं। 


सूचना प्रौद्योगिकी तथा इलैक्ट्रोनिक उद्योग

  • ट्रांजिस्टर , टेलीविजन, टेलीफ़ोन, सेल्यूलर टेलीकॉम, टेलीफ़ोन एक्सचेंज, राडार, कंप्यूटर तथा दूरसंचार उद्योग के लिए उपयोगी उपकरण इस उद्योग में बनाए जाते है। 
  • बेंगलुरु भारत की इलैक्ट्रॉनिक राजधानी के रूप में उभरा है। 
  • इलैक्ट्रोनिक सामान के अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादक केंद्र मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, पुणे, चेन्नई, कोलकाता तथा लखनऊ हैं। 
  • इस उद्योग का सर्वाधिक संकेंद्रण बेंगलुरु, नोएडा, मुम्बई, चेन्नई, हैदराबाद और पुणे में है। 
  • भारत में सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग के सफल होने का कारण हार्डवेयर व सॉफ़्टवेयर का निरंतर विकास है।



औद्योगिक प्रदूषण तथा पर्यावरण निम्नीकरण 

  • उद्योगों की भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि व विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका है
  • इनके द्वारा बढ़ते भूमि, वायु, जल तथा पर्यावरण प्रदूषण को भी नकारा नहीं जा सकता। 
  • उद्योग चार प्रकार के प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं 
  • वायु 
  • जल 
  • भूमि 
  • ध्वनि। 


वायु प्रदूषण 

  • अधिक अनुपात में अनचाही गैसों की उपस्थिति जैसे सल्फर डाइऑक्साइड तथा कार्बन मोनोऑक्साइड वायु प्रदूषण का कारण है। 
  • वायु में निलंबित कणनुमा पदार्थों में ठोस व द्रवीय दोनों ही प्रकार के कण होते हैं जैसे - - धूलि, स्प्रे, कुहासा तथा धुआँ। 
  • रसायन व कागज्ज उद्योग, ईंटों के भट्टे, तेल शोधनशालाएँ, प्रगलन उद्योग, जीवाश्म ईंधन दहन तथा छोटे-बड़े कारखाने प्रदूषण के नियमों का उल्लंघन करते हुए धुआँ निष्कासित करते हैं। 
  • जहरीली गैसों का रिसाव बहुत भयानक तथा दूरगामी प्रभावों वाला हो सकता है।
  • वायु प्रदूषण, मानव स्वास्थ्य, पशुओं, पौधों, इमारतों तथा पूरे पर्यावरण पर दुष्प्रभाव डालते हैं। 



जल प्रदूषण 

  • उद्योगों द्वारा कार्बनिक तथा अकार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों के नदी में छोड़ने से जल प्रदूषण फैलता हैं।
  • जल प्रदूषण के प्रमुख कारक कागज, लुग्दी, रसायन, वस्त्र, तथा रंगाई उद्योग, तेल शोधन शालाएँ, चमड़ा उद्योग तथा इलैक्ट्रोप्लेटिंग उद्योग हैं जो रंग, अपमार्जक, अम्ल, लवण तथा भारी धातुएँ जल में वाहित करते हैं। 
  • भारत के मुख्य अपशिष्ट पदार्थों में फ्लाई एश, फोस्फो-जिप्सम तथा लोहा इस्पात की अशुद्धियाँ हैं।



तापीय प्रदूषण- 

  • जब कारखानों तथा तापघरों से गर्म जल को बिना ठंडा किए ही नदियों तथा तालाबों में छोड़ दिया जाता है, तो जल में तापीय प्रदूषण होता है। 
  • परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के अपशिष्ट व परमाणु शस्त्र उत्पादक कारखानों से कैंसर, जन्मजात विकार तथा अकाल प्रसव जैसी बीमारियाँ होती हैं। 



भूमि प्रदूषण 

  • मृदा व जल प्रदूषण आपस में संबंधित हैं। मलबे का ढेर विशेषकर काँच, हानिकारक रसायन, औद्योगिक बहाव, पैकिंग, लवण तथा कूड़ा-कर्कट मृदा को अनुपजाऊ बनाता है। 
  • वर्षा जल के साथ ये प्रदूषक जमीन से रिसते हुए भूमिगत जल तक पहुँच कर उसे भी प्रदूषित कर देते हैं। 


ध्वनि प्रदूषण - 

  • ध्वनि प्रदूषण से खिन्नता तथा उत्तेजना ही नहीं वरन् श्रवण असक्षमता, हृदय गति, रक्त चाप तथा अन्य कायिक व्यथाएँ भी बढ़ती हैं। 
  • अनचाही ध्वनि, उत्तेजना व मानसिक चिंता का स्रोत है। 
  • औद्योगिक तथा निर्माण कार्य, कारखानों के उपकरण, जेनरेटर, लकड़ी चीरने के कारखाने, गैस यांत्रिकी तथा विद्युत ड्रिल भी अधिक ध्वनि उत्पन्न करते हैं।



पर्यावरणीय निम्नीकरण की रोकथाम के उपाय 

  • विभिन्न प्रक्रियाओं में जल का न्यूनतम उपयोग तथा जल का दो या अधिक उत्तरोत्तर अवस्थाओं में पुनर्चक्रण द्वारा पुनः उपयोग।
  • जल की आवश्यकता पूर्ति हेतु वर्षा जल संग्रहण।
  • नदियों व तालाबों में गर्म जल तथा अपशिष्ट पदार्थों को प्रवाहित करने से पहले उनका शोधन करना।
  • जहाँ भूमिगत जल का स्तर कम है वहाँ उद्योगों द्वारा इसके अधिक निष्कासन पर कानूनी प्रतिबंध होना चाहिये। 
  • वायु में निलंबित प्रदूषण को कम करने के लिए कारखानों में ऊँची चिमनियाँ, चिमनियों में एलेक्ट्रोस्टैटिक अवक्षेपण (eletrostatic precipitators), स्क्रबर उपकरण तथा गैसीय प्रदूषक पदार्थों को जड़त्वीय रूप से पृथक करने के लिए उपकरण होना चाहिये। 
  • कारखानों में कोयले की अपेक्षा तेल व गैस के प्रयोग से धुएँ के निष्कासन में कमी लायी जा सकती है। 
  • मशीनों व उपकरणों का उपयोग किया जा सकता है तथा जेनरेटरों में साइलेंसर (silencers) लगाया जा सकता है। 
  • ऐसी मशीनरी का प्रयोग किया जाए जो ऊर्जा सक्षम हों तथा कम ध्वनि प्रदूषण करे। 
  • ध्वनि अवशोषित करने वाले उपकरणों के इस्तेमाल के साथ कानों पर शोर नियंत्रण उपकरण भी पहनने चाहिये।


 

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