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श्रम विभाजन और जाति-प्रथा Important Short and Long Question Class 12 Chapter-15 Book-1

श्रम विभाजन और जाति-प्रथा Important Short and Long Question Class 12 Chapter-15 Book-1


प्रश्न 1. जातिवाद के समर्थक जाति-प्रथा को श्रम विभाजन के समान क्यों मानते हैं?

उत्तर: 

जातिवाद के समर्थक जाति-प्रथा को श्रम विभाजन के समान मानते हैं क्योंकि वे इसे समाज में कार्यों के सुचारू रूप से विभाजन की प्रणाली समझते हैं। लेकिन यह तर्क गलत है, क्योंकि जाति-प्रथा केवल श्रम का नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन करती है, जिससे ऊँच-नीच की भावना पैदा होती है।


प्रश्न 2. जाति-प्रथा और श्रम विभाजन में क्या अंतर है?

उत्तर:

श्रम विभाजन कार्यों का बंटवारा करता है, जो रुचि और योग्यता पर आधारित होता है।

जाति-प्रथा व्यक्ति को उसके जन्म के आधार पर एक निश्चित कार्य में बाँध देती है, जिससे उसे अपनी इच्छा के अनुसार पेशा बदलने की स्वतंत्रता नहीं मिलती।


प्रश्न 3. जाति-प्रथा के क्या दोष हैं?

उत्तर:

1. व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन – व्यक्ति अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार कार्य नहीं कर सकता।

2. सामाजिक असमानता – यह ऊँच-नीच के वर्ग बनाकर समाज में भेदभाव उत्पन्न करती है।

3. आर्थिक नुकसान – यह बेरोजगारी और कम उत्पादकता को बढ़ावा देती है।

4. नवाचार (Innovation) की कमी – नई सोच और कौशल विकसित करने की संभावनाएँ सीमित हो जाती हैं।


प्रश्न 4. जाति-प्रथा व्यक्ति की आत्मशक्ति और प्रेरणा को कैसे प्रभावित करती है?

उत्तर: 

जाति-प्रथा व्यक्ति की आत्मशक्ति और प्रेरणा को दबा देती है, क्योंकि इसमें जन्म से ही पेशा तय कर दिया जाता है। व्यक्ति को अपने इच्छित कार्य में जाने की अनुमति नहीं होती, जिससे वह अपने कार्य में रुचि नहीं लेता और समाज की उत्पादकता कम हो जाती है।


प्रश्न 5. आदर्श समाज की स्थापना के लिए किन मूल्यों की आवश्यकता है?

उत्तर: 

आदर्श समाज की स्थापना के लिए तीन मूल्यों की आवश्यकता है:

1. स्वतंत्रता (Freedom) – हर व्यक्ति को अपने पेशे का चुनाव करने और अपनी क्षमता का उपयोग करने की आज़ादी हो।

2. समता (Equality) – सभी को समान अवसर और समान व्यवहार मिले, जिससे समाज में कोई भेदभाव न रहे।

3. भ्रातृता (Fraternity) – समाज में परस्पर सहयोग और सौहार्द बना रहे, जिससे सामाजिक परिवर्तन आसान हो सके।


प्रश्न 6. लेखक ने भ्रातृता (भाईचारे) का क्या अर्थ बताया है?

उत्तर: 

भ्रातृता का अर्थ है समाज में आपसी सहयोग और सहभागिता, जिससे सभी लोग मिलकर समाज के सुधार में योगदान दें और असमानता को खत्म करें।


प्रश्न 7. समता (Equality) को व्यावहारिक रूप से लागू करना क्यों आवश्यक है?

उत्तर:

  • समाज में लोग शारीरिक, सामाजिक और मानसिक रूप से अलग हो सकते हैं, लेकिन समान अवसर मिलना चाहिए।
  • यह न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए आवश्यक है, ताकि कोई भी व्यक्ति जन्म के आधार पर भेदभाव का शिकार न हो।
  • इससे राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता बनी रहती है, जिससे समाज अधिक संगठित और प्रगतिशील बनता है।


प्रश्न 8. जाति-प्रथा समाज की प्रगति में कैसे बाधा बनती है?

उत्तर: 

जाति-प्रथा समाज की प्रगति में बाधा बनती है क्योंकि:

  • यह लोगों को जन्म के आधार पर सीमित कर देती है, जिससे प्रतिभाशाली लोग सही अवसर नहीं पाते।
  • यह सामाजिक असमानता और भेदभाव को बढ़ाती है, जिससे समाज में एकता नहीं बन पाती।
  • आर्थिक दृष्टि से यह नुकसानदायक है, क्योंकि यह योग्य व्यक्तियों को उनके इच्छित कार्यों में जाने से रोकती है।


प्रश्न 9. लेखक के अनुसार, जाति-प्रथा क्यों एक अस्वाभाविक व्यवस्था है?

उत्तर:

  • यह स्वाभाविक योग्यता और रुचि के बजाय जन्म पर आधारित होती है।
  • यह व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता नहीं देती।
  • यह समाज में ऊँच-नीच और भेदभाव को बढ़ावा देती है, जिससे सामाजिक और आर्थिक विकास बाधित होता है।


प्रश्न 10. इस निबंध का मुख्य निष्कर्ष क्या है?

उत्तर: 

इस निबंध का मुख्य निष्कर्ष यह है कि जाति-प्रथा एक दोषपूर्ण और अस्वाभाविक व्यवस्था है, जो न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित करती है, बल्कि समाज की प्रगति में भी बाधा डालती है। समाज को स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था की ओर बढ़ना चाहिए, जिससे हर व्यक्ति को अपने जीवन का स्वतंत्र रूप से निर्माण करने का अवसर मिले।


संक्षेप में 'श्रम विभाजन और जाति-प्रथा' का सार:

  • जाति-प्रथा श्रम विभाजन नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन करती है।
  • यह व्यक्ति की रुचि, क्षमता और स्वतंत्रता को बाधित करती है।
  • समाज में समानता, स्वतंत्रता और भ्रातृता का होना आवश्यक है।
  • जाति-प्रथा आर्थिक, सामाजिक और मानसिक रूप से नुकसानदायक है।
  • न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए सबको समान अवसर और अधिकार मिलने चाहिए। 

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