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राष्ट्रवाद notes in hindi classs 11 political science rastrvaad

 

राष्ट्रवाद notes in hindi classs 11 political science rastrvaad



राष्ट्रवाद शब्द के प्रति आम समझ क्या है ? 

  • देशभक्ति
  • राष्ट्रीय ध्वज 
  • देश के लिए बलिदान
  • देशप्रेम 
  • दिल्ली में गणतंत्र दिवस की परेड भारतीय राष्ट्रवाद का बेजोड़ प्रतीक है 


राष्ट्रवाद 

  • पिछले 200 वर्षों में राष्ट्रवाद एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सिद्धांत के रूप में उभरा है राष्ट्रवाद ने इतिहास रचने में योगदान किया है। 
  • इसने निष्ठाओं के साथ-साथ गहरे विद्वेषों को भी प्रेरित किया है। 
  • इसने जनता को जोड़ा है तो विभाजित भी किया है। 
  • इसने अत्याचारी शासन से मुक्ति दिलाने में मदद की तो इसके साथ यह विरोध, कटुता और युद्धों का कारण भी रहा है।
  • राष्ट्रवाद कई चरणों से गुजर चुका है। 
  • उदाहरण  - उन्नीसवीं शताब्दी के यूरोप में इसने कई छोटी-छोटी रियासतों के एकीकरण से वृहत्तर राष्ट्र-राज्यों की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। 
  • आज के जर्मनी और इटली का गठन एकीकरण और सुदृढ़ीकरण की इसी प्रक्रिया के जरिए हुआ था।
  • लातिनी अमेरिका में बड़ी संख्या में नए राज्य भी स्थापित किए गए थे।
  • नए राष्ट्रों के लोगों ने एक नई राजनीतिक पहचान अर्जित की, जो राष्ट्र राज्य की सदस्यता पर आधारित थी। 

साम्राज्यों के पतन

  • राष्ट्रवाद बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन में हिस्सेदार भी रहा है। 
  • यूरोप में बीसवीं शताब्दी के आरंभ में ऑस्ट्रियाई-हंगेरियाई और रूसी साम्राज्य तथा इनके साथ एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, डच और पुर्तगाली साम्राज्य के विघटन के मूल में राष्ट्रवाद ही था।
  • राष्ट्रों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया अभी जारी है। 1960 के दशक से ही, सीधे तौर पर सुस्थिर राष्ट्र-राज्य भी कुछ समूह या अंचलों द्वारा उठाई गई राष्ट्रवादी माँगों का सामना करते रहे हैं। इन माँगों में पृथक राज्य की माँग भी शामिल है। 
  • आज दुनिया के अनेक भागों में हम ऐसे राष्ट्रवादी संघर्षों को देख सकते हैं जो मौजूदा राष्ट्रों के अस्तित्व के लिए खतरे पैदा कर रहे हैं।
  • ऐसे पृथकतावादी आंदोलन अन्य जगहों के साथ-साथ कनाडा के क्यूबेकवासियों, उत्तरी स्पेन के बास्कवासियों, तुर्की और इराक के कुर्दों श्रीलंका के तमिलों द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। 


राष्ट्र और राष्ट्रवाद

  • राष्ट्र केवल एक आकस्मिक समूह नहीं होता, बल्कि यह एक विशिष्ट सामाजिक संरचना है, जो अन्य मानव समूहों से अलग होती है। 
  • यह परिवार, जनजातीय समूह, जातीय समुदाय या किसी अन्य सगोत्रीय समूह से भिन्न होता है, क्योंकि इसका आधार प्रत्यक्ष संबंधों, वंश परंपरा या विवाह नहीं होता।


राष्ट्र और अन्य सामाजिक समूहों में अंतर:

1. परिवार से अलग:

  • परिवार प्रत्यक्ष संबंधों पर आधारित होता है।
  • परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं।

2.जनजातीय और जातीय समूहों से अलग:

  • इनमें सदस्य वंशानुगत संबंधों से जुड़े होते हैं।
  • विवाह और कुल परंपरा से संबंध स्थापित होते हैं।
  • पहचान स्थापित करने के लिए एक साझा इतिहास और वंश परंपरा होती है।

3.राष्ट्र का विशिष्ट स्वरूप:

  • राष्ट्र में अधिकतर सदस्य एक-दूसरे को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते।
  • कोई अनिवार्य रूप से साझा भाषा, धर्म या जातीय पहचान आवश्यक नहीं होती।
  • फिर भी राष्ट्र के लोग उसमें रहते हैं और उसकी पहचान को स्वीकार करते हैं।

4.राष्ट्र की निर्माण प्रक्रिया:

  • अक्सर यह माना जाता है कि राष्ट्र कुल, भाषा, धर्म या जातीयता पर आधारित होते हैं।
  • लेकिन, वास्तविकता में कोई एक विशेष गुण सभी राष्ट्रों में समान रूप से नहीं पाया जाता।
  • कई राष्ट्रों की कोई एक सामान्य भाषा नहीं होती, जैसे कनाडा, जहाँ अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषाएँ प्रमुख हैं।
  • भारत जैसे देशों में भी अनेक भाषाएँ और धर्म हैं, लेकिन फिर भी यह एक राष्ट्र के रूप में संगठित है।

5.राष्ट्र: एक काल्पनिक समुदाय

  • राष्ट्र एक ‘काल्पनिक समुदाय’ की तरह होता है।
  • यह अपने सदस्यों की साझा मान्यताओं, विश्वासों और आकांक्षाओं के आधार पर निर्मित होता है।
  • लोग कुछ खास मान्यताओं को राष्ट्र से जोड़ते हैं और उसी के माध्यम से अपनी पहचान को स्थापित करते हैं।


साझे विश्वास

  • पहला, राष्ट्र विश्वास के जरिए बनता है। राष्ट्र पहाड़, नदी या भवनों की तरह नहीं होते, जिन्हें हम देख सकते हैं और जिनका स्पर्श महसूस कर सकते हैं। वे ऐसी चीजें भी नहीं हैं जिनका लोगों के विश्वासों से स्वतंत्र अस्तित्व हो। 
  • किसी समाज के लोगों को राष्ट्र की संज्ञा देना उनके शारीरिक विशेषताओं या आचरण पर टिप्पणी करना नहीं है। यह समूह के भविष्य के लिए सामूहिक पहचान और दृष्टि का प्रमाण है, जो स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व का आकांक्षी है। इस मायने में राष्ट्र की तुलना किसी टीम से की जा सकती है। 
  • जब हम टीम की बात करते हैं तो हमारा मतलब लोगों के ऐसे समूह से है, जो एक साथ काम करते या खेलते हों और इससे भी ज्यादा जरूरी है कि वे स्वयं को एकीकृत समूह मानते हों। 
  • अगर वे अपने बारे में इस तरह नहीं सोचते तो एक टीम की उनको हैसियत जाती रहेगी और वे खेल खेलने या काम करने वाले महज अलग-अलग व्यक्ति रह जाएँगे। एक राष्ट्र का अस्तित्व तभी कायम रहता है जब उसके सदस्यों को यह विश्वास हो कि वे एक-दूसरे के साथ है।


साझे विश्वास और राष्ट्र की अवधारणा

1. राष्ट्र और विश्वास का संबंध:

  • राष्ट्र किसी भौतिक वस्तु (जैसे पहाड़, नदी या इमारत) की तरह नहीं होता जिसे हम देख या छू सकते हैं।
  • राष्ट्र का अस्तित्व पूरी तरह से लोगों के साझे विश्वास पर आधारित होता है।
  • किसी समूह को राष्ट्र मानना केवल उनकी भौतिक विशेषताओं या 
  • आचरण पर आधारित नहीं होता, बल्कि यह एक सामूहिक पहचान और दृष्टि से जुड़ा होता है।
  • यह विश्वास राष्ट्र को एक स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व के रूप में स्थापित करता है।

2. राष्ट्र की तुलना टीम से:

  • राष्ट्र को एक टीम की तरह देखा जा सकता है।
  • एक टीम वह समूह होती है जो मिलकर कार्य करती है और स्वयं को एक एकीकृत समूह मानती है।
  • यदि कोई टीम अपने बारे में एकजुटता की भावना नहीं रखती, तो वह केवल अलग-अलग व्यक्तियों का समूह रह जाएगी।
  • इसी तरह, यदि राष्ट्र के लोगों में आपसी विश्वास और एकता की भावना नहीं होगी, तो राष्ट्र का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।

3. राष्ट्र का अस्तित्व और एकजुटता:

  • राष्ट्र तब तक कायम रहता है जब तक उसके नागरिकों को यह विश्वास होता है कि वे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
  • यह विश्वास राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक तत्वों पर आधारित होता है।
  • यदि राष्ट्र के सदस्यों में यह साझा भावना समाप्त हो जाए, तो राष्ट्र में विभाजन और अस्थिरता आ सकती है।


इतिहास की भूमिका

1.राष्ट्र और ऐतिहासिक पहचान:

  • जो लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं, उनके भीतर अपने अतीत और भविष्य को लेकर एक स्थायी पहचान की भावना होती है।
  • राष्ट्र केवल वर्तमान की इकाई नहीं होता, बल्कि यह अतीत की स्मृतियों और भविष्य की आकांक्षाओं को भी समाहित करता है।
  • राष्ट्र अपने अस्तित्व को मजबूत करने के लिए साझी ऐतिहासिक घटनाओं, किंवदंतियों और अभिलेखों का निर्माण करता है।

2. इतिहासबोध और राष्ट्रवाद:

  • राष्ट्र की ऐतिहासिक पहचान उसकी सभ्यता, संस्कृति और निरंतरता से जुड़ी होती है।
  • भारत के राष्ट्रवादियों ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि भारत की सभ्यता प्राचीन, समृद्ध और एक अटूट निरंतरता से जुड़ी हुई है।
  • इतिहास को राष्ट्र की एकता और अस्तित्व के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

3. भारत में इतिहासबोध और राष्ट्रवाद:

  • भारतीय राष्ट्रवादियों ने यह दावा किया कि भारत एक प्राचीन सभ्यता रहा है, जो सांस्कृतिक विरासत और निरंतरता को बनाए रखता है।
  • पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में लिखा कि भारत में विविधता होने के बावजूद एकता की गहरी छाप रही है।
  • यह एकता सदियों से बनी रही, चाहे कोई भी राजनीतिक परिवर्तन हुआ हो।

4. ऐतिहासिक स्मृतियों की भूमिका:

राष्ट्र निर्माण के लिए साझी ऐतिहासिक स्मृतियाँ महत्वपूर्ण होती हैं। ऐतिहासिक घटनाएँ, नायक, संघर्ष और उपलब्धियाँ राष्ट्र की सामूहिक पहचान को मजबूत करती हैं। इतिहास का उपयोग राष्ट्रीय एकता, गौरव और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने के लिए किया जाता है।

i. भूक्षेत्र और राष्ट्रीय पहचान:

  • अधिकांश राष्ट्रों की पहचान एक विशिष्ट भूगोल से जुड़ी होती है।
  • किसी खास क्षेत्र में लंबे समय तक निवास और उससे जुड़ी ऐतिहासिक स्मृतियाँ लोगों को एक सामूहिक पहचान प्रदान करती हैं।
  • यह भूगोल न केवल रहने की जगह होता है, बल्कि भावनात्मक और सांस्कृतिक महत्व भी रखता है।

ii. गृहभूमि की अवधारणा:

जो लोग स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में देखते हैं, वे अक्सर गृहभूमि (Homeland) की बात करते हैं।वे अपने निवास स्थान पर अपना अधिकार जताते हैं और उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा मानते हैं।अलग-अलग राष्ट्र अपनी गृहभूमि को अलग-अलग तरीकों से व्यक्त करते हैं:

  • कोई इसे मातृभूमि (Motherland) कहता है।
  • कोई इसे पितृभूमि (Fatherland) कहता है।
  • कुछ इसे पवित्र भूमि (Sacred Land) मानते हैं।

iii. ऐतिहासिक उदाहरण:

यहूदी समुदाय : यहूदी लोग लंबे समय तक विभिन्न देशों में बिखरे रहे।लेकिन उन्होंने हमेशा फिलीस्तीन को अपनी मातृभूमि माना। इसे वे "स्वर्ग" के रूप में देखते थे।

भारत का भूगोल और राष्ट्रीय पहचान:

  • भारतीय राष्ट्र की पहचान गंगा, यमुना, हिमालय, विंध्याचल आदि भूगोल से जुड़ी हुई है।
  • यहाँ की नदियाँ, पर्वत और मैदान भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं।
  • भारत को "मातृभूमि" के रूप में देखा जाता है, जो राष्ट्रीय भावना को मजबूत करता है।

5. गृहभूमि और संघर्ष:

जब एक भूक्षेत्र पर एक से अधिक समूह दावा करते हैं, तो संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है।

उदाहरण:

  • इज़राइल-फिलीस्तीन विवाद
  • भारत-पाकिस्तान का कश्मीर विवाद
  • तिब्बत और चीन का संघर्ष
  • गृहभूमि को लेकर ऐतिहासिक दावे, धार्मिक मान्यताएँ और राजनीतिक विचारधारा संघर्ष के प्रमुख कारण बनते हैं।


साझे राजनीतिक आदर्श और राष्ट्र की पहचान

1. साझा राजनीतिक दृष्टि का महत्व:

  • राष्ट्र केवल भूक्षेत्र और ऐतिहासिक पहचान से नहीं बनता, बल्कि उसके नागरिकों के बीच भविष्य के प्रति साझा दृष्टिकोण भी आवश्यक होता है।
  • राष्ट्र के लोग न केवल अपने अतीत से जुड़े होते हैं, बल्कि वे एक स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व की भी सामूहिक इच्छा रखते हैं।
  • यह भविष्य की साझा कल्पना ही राष्ट्र को अन्य सामाजिक समूहों से अलग बनाती है।

2. राष्ट्र की राजनीतिक पहचान:

  • राष्ट्र के सदस्य यह साझा दृष्टि रखते हैं कि वे किस तरह का राज्य बनाना चाहते हैं।
  • वे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद और अन्य मूल्यों को स्वीकार करते हैं।
  • ये राजनीतिक सिद्धांत राष्ट्र को एकीकृत करने और नागरिकों के बीच सामूहिक भावना को मजबूत करने में मदद करते हैं।

3. लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता:

  • लोकतंत्र राष्ट्र को एक समावेशी और समानता आधारित प्रणाली प्रदान करता है।
  • सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति, भागीदारी और निर्णय लेने का अधिकार मिलता है।
  • यह राष्ट्र को एक संगठित और स्थायी राजनीतिक इकाई बनाता है।

4. धर्मनिरपेक्षता और उदारवाद:

  • धर्मनिरपेक्षता (Secularism) यह सुनिश्चित करती है कि राष्ट्र में धर्म के आधार पर भेदभाव न हो।
  • उदारवाद (Liberalism) व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानवाधिकारों और बहुलतावाद को प्रोत्साहित करता है।
  • इन सिद्धांतों से राष्ट्र के नागरिकों के बीच सहिष्णुता और आपसी सम्मान बढ़ता है।


साझी राजनीतिक पहचान और राष्ट्र निर्माण

1. राष्ट्र की पहचान: राजनीतिक बनाम सांस्कृतिक आधार

  • कुछ लोग मानते हैं कि राष्ट्र को एकजुट रखने के लिए साझा राजनीतिक दृष्टि पर्याप्त नहीं होती, बल्कि भाषा, जातीयता और सांस्कृतिक पहचान जरूरी होती है।
  • समान भाषा से संवाद में आसानी, समान धर्म से सामाजिक रीति-रिवाजों में समानता और सांस्कृतिक प्रतीकों से सामूहिक जुड़ाव बढ़ता है।
  • लेकिन राष्ट्र की सिर्फ सांस्कृतिक पहचान पर आधारित कल्पना लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा बन सकती है।

2. सांस्कृतिक पहचान पर आधारित राष्ट्र की समस्याएँ

(क) धर्म की विविधता:

  • सभी प्रमुख धर्म आंतरिक रूप से विविध होते हैं और इनके भीतर कई पंथ और उप-समूह होते हैं।
  • धर्म के नियमों और ग्रंथों की अलग-अलग व्याख्याएँ होती हैं।
  • यदि किसी एक धर्म को राष्ट्र की पहचान बना दिया जाए, तो इससे अन्य धर्मों और उनके अनुयायियों के अधिकारों का हनन हो सकता है।
  • यह वर्चस्ववादी और दमनकारी समाज का निर्माण कर सकता है।

(ख) भाषायी और सांस्कृतिक विविधता:

  • अधिकतर समाजों में विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के लोग साथ-साथ रहते हैं।
  • यदि राज्य की सदस्यता किसी विशेष भाषा या धर्म से जोड़ दी जाए, तो कुछ समूह अलग-थलग पड़ सकते हैं।
  • इससे धार्मिक स्वतंत्रता बाधित होगी और गैर-राष्ट्रभाषा बोलने वाले नागरिकों को भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है।
  • यह समानता और स्वतंत्रता जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाएगा।

3. राष्ट्र की राजनीतिक कल्पना और लोकतंत्र

  • राष्ट्र को सांस्कृतिक आधार पर नहीं, बल्कि राजनीतिक मूल्यों और साझा आदर्शों पर आधारित होना चाहिए।
  • लोकतंत्र में किसी खास धर्म, नस्ल या भाषा से जुड़ाव जरूरी नहीं होता, बल्कि यह संविधान और समान नागरिकता के सिद्धांत पर आधारित होता है।
  • नागरिकों को एक मूल्य-समूह के प्रति निष्ठा रखनी होती है, जिसे संविधान में दर्ज किया जा सकता है।

4. लोकतांत्रिक राष्ट्र की विशेषताएँ:

  • सभी नागरिकों को समान अवसर और अधिकार मिलें।
  • राष्ट्र की पहचान को किसी एक धर्म, भाषा या जाति से जोड़ने के बजाय साझे राजनीतिक आदर्शों पर आधारित किया जाए।
  • संविधान और कानून को राष्ट्र की एकता और लोकतांत्रिक मूल्यों का आधार बनाया जाए।


राष्ट्रीय आत्म-निर्णय

  • राष्ट्रीय आत्म-निर्णय का अधिकार वह सिद्धांत है जिसके तहत एक राष्ट्र अपनी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नीतियों को स्वयं निर्धारित करने का अधिकार चाहता है। यह अधिकार अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से मान्यता और स्वीकार्यता की माँग करता है। आत्म-निर्णय की अवधारणा विशेष रूप से उन समूहों के लिए महत्वपूर्ण है जो एक निश्चित भू-भाग पर लंबे समय से रहते आए हैं और उनकी सांझी पहचान है।

आत्म-निर्णय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :

  • आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग उन्नीसवीं सदी के यूरोप में विशेष रूप से मजबूत हुई, जब 'एक संस्कृति-एक राज्य' की अवधारणा सामने आई।
  • प्रथम विश्व युद्ध के बाद वर्साय संधि (1919) के माध्यम से नए राष्ट्र-राज्यों का गठन किया गया। हालाँकि, सभी आत्म-निर्णय की माँगों को पूरा करना संभव नहीं था।
  • सीमाओं में बदलाव और जनसंख्या विस्थापन के कारण बड़े पैमाने पर मानव संकट उत्पन्न हुआ, जिससे सांप्रदायिक हिंसा भी बढ़ी।

आत्म-निर्णय की चुनौतियाँ :-

  • सीमाओं का पुनर्निर्धारण: विभिन्न सांस्कृतिक और नस्लीय समूहों के लिए सीमाओं को पुनः निर्धारित करने से विस्थापन और संघर्ष उत्पन्न होते हैं।
  • अल्पसंख्यकों की स्थिति: नवगठित राष्ट्र-राज्यों में अल्पसंख्यक समुदायों को अक्सर भेदभाव और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
  • राजनीतिक अस्थिरता: आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग कई बार राष्ट्र-राज्यों की अखंडता के लिए खतरा बन जाती है, जिससे आंतरिक संघर्ष पैदा होता है।
  • औपनिवेशिक संघर्ष: एशिया और अफ्रीका के औपनिवेशिक राष्ट्रों ने आत्म-निर्णय के सिद्धांत के आधार पर स्वतंत्रता प्राप्त की, लेकिन नव स्वतंत्र देशों में भी जातीय और सांस्कृतिक संघर्ष बने रहे।


समाधान और समकालीन दृष्टिकोण:

  • आज, समाधान नए राष्ट्र-राज्यों के निर्माण में नहीं, बल्कि मौजूदा राज्यों को अधिक लोकतांत्रिक और समावेशी बनाने में निहित है।
  • सभी सांस्कृतिक और नस्लीय समूहों को समान नागरिक के रूप में स्वीकार किया जाए।
  • विभिन्न समुदायों के बीच आपसी सम्मान और सहयोग को बढ़ावा देना।
  • अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक और कानूनी उपायों को लागू करना।


राष्ट्रवाद और बहुलवाद

  • 'एक संस्कृति-एक राज्य' के विचार को त्यागते ही यह जरूरी हो जाता है कि ऐसे तरीकों के बारे में सोचा जाए जिसमें विभिन्न संस्कृतियाँ और समुदाय एक ही देश में फल-फूल सकें। 
  • इस लक्ष्य को पाने के लिए ही अनेक लोकतांत्रिक देशों ने सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक समुदायों की पहचान को स्वीकार करने और संरक्षित करने के उपायों को शुरू किया है।
  • भारतीय संविधान में धार्मिक, भाषायी और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए विस्तृत प्रावधान हैं।
  • विभिन्न देशों में समूहों को जो अधिकार प्रदान किये गये हैं, उनमें शामिल हैं – 
  • अल्पसंख्यक समूहों एवं उनके सदस्यों की भाषा, संस्कृति एवं धर्म के लिए संवैधानिक सुरक्षा के अधिकार। 
  • कुछ मामलों में इन समूहों को विधायी संस्थाओं और अन्य राजकीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अधिकार भी होता है
  • ये अधिकार इन समूहों के सदस्यों के लिए कानून द्वारा समान व्यवहार एवं सुरक्षा के साथ ही समूह की सांस्कृतिक पहचान के लिए भी सुरक्षा का प्रावधान करते हैं।
  • हालाँकि यह उम्मीद की जाती है कि समूहों को मान्यता और संरक्षण  प्रदान करने से उनकी आकांक्षाएँ संतुष्ट होंगी, 
  • फिर भी, हो सकता है कि कुछ समूह पृथक राज्य की माँग पर अडिग रहें। 
  • ऐसी माँगों से लोकतांत्रिक ढंग से निपटने के लिए यह जरूरी है कि संबंधित देश अत्यंत उदारता एवं दक्षता का परिचय दें।
  • हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो समूहों की पहचान को मान्यता देने के महत्व के प्रति काफी सचेत है। 
  • आज हम ऐसे बहुत से संघर्षों के साक्षी हैं जो समूह की पहचान की मान्यता के लिए चल रहे हैं तथा राष्ट्रवाद की भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। 
  • इस बात की जरूरत है कि हम राष्ट्रीय पहचान के उनके दावों की सत्यता को स्वीकार करें 
  • लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम राष्ट्रवाद के असहिष्णु और एकजातीय स्वरूपों के साथ कोई सहानुभूति बरतें।


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