सामाजिक आंदोलन Notes in Hindi Class 12 Sociology Chapter-5 Book-Bharat main Samajik Parivartan aur Vikas
0Team Eklavyaदिसंबर 06, 2024
सामाजिक आंदोलन के लक्षण
सामाजिक आंदोलन लंबी अवधि तक चलने वाली सामूहिक गतिविधियाँ होती हैं, जो आमतौर पर राज्य की नीतियों में बदलाव की मांग करती हैं। इन आंदोलनों में नेतृत्व, संरचना और समान उद्देश्य वाले लोगों की भागीदारी होती है।
सामाजिक आंदोलन जनहित के उद्देश्य से शुरू होते हैं, जैसे जंगलों के उपयोग का अधिकार या विस्थापितों के पुनर्वास का अधिकार। हालांकि, इनका विरोध भी होता है, जैसे राजा राममोहन राय द्वारा सतीप्रथा के विरोध के बावजूद सती के पक्ष में आंदोलन हुए। इसी तरह, बालिका शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह जैसे सुधारों का भी विरोध हुआ।
आंदोलन विरोध के लिए सभाएँ, प्रचार योजनाएँ, मोमबत्ती जुलूस, काले कपड़े पहनना, नुक्कड़ नाटक आदि जैसे तरीके अपनाते हैं। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में अहिंसा और सत्याग्रह जैसे प्रभावी साधन अपनाए।
सामाजिक आंदोलन कठिन प्रक्रिया होते हैं और विरोध का सामना करते हैं, लेकिन समय के साथ ये समाज में बदलाव लाने में सफल होते हैं।
सामाजिक परिवर्तन और सामाजिक आंदोलन में अंतर
सामाजिक परिवर्तन
सामाजिक परिवर्तन एक निरंतर प्रक्रिया है, जो समय के साथ समाज में छोटे-छोटे बदलावों से होती है। यह व्यापक भागीदारी और गतिविधियों का परिणाम है।
संस्कृतीकरण और पाश्चात्यीकरण इसके उदाहरण हैं, जो समाज की संरचना और व्यवहार में बदलाव लाते हैं।
सामाजिक आंदोलन
सामाजिक आंदोलन एक विशिष्ट उद्देश्य को हासिल करने के लिए किए जाते हैं। यह एक लंबी और सतत प्रक्रिया है, जिसमें लोग संगठित होकर किसी खास बदलाव के लिए काम करते हैं।
19वीं सदी के सामाजिक सुधार आंदोलनों, जैसे सतीप्रथा विरोध और बालिकाओं की शिक्षा के प्रयास, सामाजिक आंदोलन के उदाहरण हैं।
अंतर
सामाजिक परिवर्तन स्वाभाविक और धीमा होता है, जबकि सामाजिक आंदोलन संगठित और उद्देश्यपूर्ण प्रयासों पर आधारित होता है।
समाजशास्त्र और सामाजिक आंदोलन
सामाजिक आंदोलनों का समाजशास्त्र में महत्व
सामाजिक आंदोलन समाज में बदलाव और संघर्ष को समझने का एक प्रभावी माध्यम हैं। समाजशास्त्र ने प्रारंभ से ही इन आंदोलनों में रुचि दिखाई है, जैसे फ्रांसीसी क्रांति और ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति। ये घटनाएँ सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की आधारशिला बनीं।
सामाजिक आंदोलनों का उद्देश्य
सामाजिक आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य समाज में बदलाव लाना होता है। उदाहरण के लिए, इंग्लैंड में गरीब मजदूरों और कारीगरों ने अपनी खराब जीवन स्थितियों के खिलाफ विरोध किया। फूड राइट्स के दौरान इन विरोधों को सरकार ने दबाने की कोशिश की।
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण
एमिल दुर्खाइम: उन्होंने सामाजिक आंदोलनों को समाज में असंतुलन और अव्यवस्था फैलाने वाली शक्तियों के रूप में देखा।
कार्ल मार्क्स के अनुयायी: उन्होंने आंदोलनों को समाज में शोषण और वर्ग संघर्ष के परिणाम के रूप में देखा।
ई.पी. थॉमसन: उन्होंने बताया कि 'भीड़' अराजक नहीं होती, बल्कि उनके विरोध के पीछे 'नैतिक अर्थव्यवस्था' होती है। गरीब जनता अपने विरोध में सही और गलत का स्पष्ट विचार रखती है और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाती है।
सामाजिक आंदोलनों के प्रकार
सामाजिक आंदोलनों को तीन मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
प्रतिदानात्मक (Transformational) आंदोलन: इस प्रकार के आंदोलन का उद्देश्य व्यक्तिगत चेतना और गतिविधियों में बदलाव लाना होता है। उदाहरण के लिए, केरल के इज़हावा समुदाय के लोगों ने नारायण गुरु के नेतृत्व में अपनी सामाजिक प्रथाओं को बदला।
सुधारवादी आंदोलन: यह आंदोलन वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं में धीरे-धीरे बदलाव लाने का प्रयास करता है। भारत में 1960 के दशक में राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर और सूचना का अधिकार (RTI) आंदोलन इसके उदाहरण हैं।
क्रांतिकारी आंदोलन: ये आंदोलन सामाजिक संबंधों का आमूल-चूल बदलाव लाने की कोशिश करते हैं, और यह अक्सर सत्ता की प्रक्रिया में बदलाव के रूप में होता है। रूस की बोल्शेविक क्रांति और भारत में नक्सली आंदोलन इसके उदाहरण हैं। ये आंदोलन राजसत्ता को बदलने का प्रयास करते हैं।
सामाजिक आंदोलन अक्सर क्रांतिकारी, सुधारवादी और संस्थागत तत्वों का मिश्रण होते हैं। एक आंदोलन शुरुआत में क्रांतिकारी हो सकता है, लेकिन समय के साथ सुधारवादी और फिर संस्थागत बन सकता है।
आंदोलनों को समझने और वर्गीकृत करने का तरीका समय और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, 1857 का 'गदर' ब्रिटिश शासकों के लिए विद्रोह था, जबकि भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए यह 'स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम' था। इससे स्पष्ट होता है कि एक ही आंदोलन को अलग-अलग नजरिए से देखा जा सकता है।
नए सामाजिक आंदोलनों की पुराने सामाजिक आंदोलनों से भिन्नता
समय के साथ सामाजिक आंदोलनों में कई बदलाव आए हैं, जिससे पुराने और नए आंदोलनों में भिन्नता स्पष्ट होती है।
पुराने आंदोलन: पुराने आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य सत्ता और शक्ति के संबंधों को बदलना था। इनमें मजदूर संघों और कामगारों के आंदोलन शामिल थे, जो वेतन, जीवन गुणवत्ता, और सामाजिक सुरक्षा की मांग करते थे। राजनीतिक दलों की इनमें केंद्रीय भूमिका थी, जैसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस का योगदान।
नए आंदोलन: आज के आंदोलन जीवन की गुणवत्ता से जुड़े मुद्दों, जैसे पर्यावरण, महिलाओं के अधिकार और जनजातीय समस्याओं पर केंद्रित हैं। ये सत्ता के पुनर्वितरण के बजाय समाज में जीवन स्तर सुधारने पर जोर देते हैं। नए आंदोलन पहचान की राजनीति, सांस्कृतिक मुद्दे और सामाजिक असमानता पर भी ध्यान देते हैं।
भूमंडलीकरण और नए मुद्दे: भूमंडलीकरण ने उद्योग, कृषि, और संचार के माध्यम से लोगों के जीवन को प्रभावित किया है, जिससे नए आंदोलनों के मुद्दे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैल गए हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं और क्षेत्रीय समूहों के आंदोलन विभिन्न वर्गों को एकजुट करते हैं।
अंतर
पुराने आंदोलन सत्ता और आर्थिक असमानता के खिलाफ थे, जबकि नए आंदोलन जीवन की गुणवत्ता, सांस्कृतिक और पहचान से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित हैं।
पारिस्थितिकीय आंदोलन
आधुनिक विकास ने प्राकृतिक संसाधनों के शोषण और पर्यावरणीय क्षति को बढ़ाया है। पारंपरिक विकास सभी वर्गों के लिए लाभकारी माना जाता है, लेकिन यह गरीबों को नुकसान पहुंचाता है, जैसे बाँधों के निर्माण से विस्थापन और उद्योगों से प्रदूषण।
चिपको आंदोलन: चिपको आंदोलन ने जंगल बचाने के लिए गाँववालों, खासकर महिलाओं, की एकजुटता को दर्शाया। यह केवल पर्यावरण नहीं, बल्कि जीवन-निर्वहन और सामाजिक असमानता का संघर्ष था।
सरकारी पहल:पर्यावरण सुरक्षा के लिए भारत सरकार ने "नमामि गंगे" और "स्वच्छ भारत अभियान" जैसे प्रयास शुरू किए।
वर्ग आधारित आंदोलन
किसान आंदोलन का इतिहास
1858-1914 के दौरान किसान आंदोलन स्थानीय मुद्दों, जैसे नील की खेती (1859-62) और साहूकारों के खिलाफ दक्कन विद्रोह (1857), पर केंद्रित थे। बाद में, ये आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े, जैसे चंपारन सत्याग्रह (1917-18) और बारदोली सत्याग्रह (1928)।
1920-1940 के बीच किसान संगठनों का विकास हुआ। 1929 में बिहार प्रोविंसिएल किसान सभा और 1936 में ऑल इंडिया किसान सभा की स्थापना हुई। प्रमुख आंदोलनों में तिभागा आंदोलन (1946-47) और तेलंगाना आंदोलन (1946-51) शामिल थे।
1970 के दशक में पंजाब और तमिलनाडु में नए आंदोलन क्षेत्रीय और दल-रहित थे। उन्होंने कृषि निवेश, कीमतें, टैक्स और उधारी से जुड़ी समस्याओं को उठाया और विरोध के लिए सड़कों व रेलमार्गों को बंद करने जैसे नए तरीके अपनाए।
आधुनिक किसान आंदोलन "नए सामाजिक आंदोलनों" का रूप ले चुके हैं, जो महिला मुद्दों, किसानों की आर्थिक स्थिति, और अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इनका उद्देश्य किसानों के व्यापक हितों की रक्षा करना है।
कामगारों का आंदोलन
औद्योगिकीकरण की शुरुआत: 1860 के दशक में भारत में औद्योगिकीकरण ब्रिटिश शासन के तहत शुरू हुआ, जब कलकत्ता और बंबई जैसे बंदरगाह शहरों में कारखाने स्थापित हुए। मजदूरी सस्ती थी और कामकाजी हालात खराब थे क्योंकि कोई नियम नहीं थे।
प्रारंभिक हड़तालें और संगठन: 1917 में बंबई की कपड़ा मिलों में हड़तालें शुरू हुईं। 1918 में बी. पी. वाडिया ने पहला मजदूर संघ और महात्मा गांधी ने टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन (TLA) की स्थापना की। 1920 में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) का गठन हुआ।
आजादी से पहले और बाद के आंदोलन: ब्रिटिश राज के अंत तक AITUC साम्यवादी नेताओं के नियंत्रण में आ गया। 1947 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC) बनाई।
आधुनिक समय: 1960 के दशक की आर्थिक मंदी और 1974 की रेल हड़ताल ने सरकार और मजदूर संघों के बीच संघर्ष बढ़ाया। इन आंदोलनों ने मजदूरों के अधिकारों के साथ-साथ सामाजिक बदलावों में भी भूमिका निभाई।
जाति-आधारित आंदोलन
दलित आंदोलन
दलित आंदोलन केवल आर्थिक शोषण और राजनीतिक दबाव के खिलाफ नहीं, बल्कि मानवता की पहचान, आत्मसम्मान, और अस्पृश्यता को समाप्त करने का संघर्ष है। इसे "स्पर्श के लिए संघर्ष" कहा जाता है।
दलित शब्द का अर्थ: "दलित" का अर्थ उत्पीड़ित और शोषित लोग है। यह शब्द 1970 के दशक में बाबा साहब अंबेडकर के अनुयायियों ने नव-बौद्ध आंदोलन के संदर्भ में प्रचलित किया। यह असमानता और जातिवाद के विरोध का प्रतीक है।
दलित आंदोलनों की विविधता: भारत में कई अलग-अलग दलित आंदोलन हुए हैं, जैसे छत्तीसगढ़ का सतनामी आंदोलन, पंजाब का आदि धर्म आंदोलन, महाराष्ट्र का महार आंदोलन, और दक्षिण भारत का ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन। सभी का उद्देश्य दलित पहचान, आत्मसम्मान, और अस्पृश्यता का उन्मूलन था।
दलित साहित्य का उदय: दलित साहित्य ने दलित अनुभवों और समाज की असमानताओं को उजागर किया। यह सम्मान और सामाजिक बदलाव की अपील करता है। आज दलित आंदोलन एक प्रमुख सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन बन चुका है।
पिछड़े वर्ग और जातियों का आंदोलन
उत्पत्ति: औपनिवेशिक काल में जाति आधारित पहचान पर जोर दिया गया, जिससे पिछड़े वर्ग अपने अधिकारों के लिए संगठित हुए। यह संघर्ष धार्मिक से अधिक राजनीतिक पहचान का मुद्दा बन गया।
'पिछड़े वर्गों' की पहचान: 'पिछड़े वर्ग' शब्द 19वीं सदी के अंत में प्रचलित हुआ। 1920 के दशक में हिंदू बैकवर्ड क्लासेस लीग और ऑल-इंडिया बैकवर्ड क्लासेस फेडरेशन जैसे संगठनों का गठन हुआ।
संगठनों की भूमिका: 1954 तक 88 संगठन पिछड़े वर्गों के लिए काम कर रहे थे। इन आंदोलनों ने जातिवाद का विरोध किया और सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों की मांग की, जिससे सामाजिक न्याय के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ।
जनजातीय आंदोलन
भारत में जनजातीय आंदोलनों के मुद्दे समान होते हुए भी क्षेत्रीय भिन्नताएँ हैं। अधिकांश आंदोलन मध्य भारत की 'जनजातीय बेल्ट' में हुए, जैसे छोटानागपुर, संथाल परगना, और मुंडा क्षेत्रों में। झारखंड, जो 2000 में दक्षिण बिहार से अलग होकर बना, इन्हीं जनजातीय संघर्षों का परिणाम है।
बिरसा मुंडा का नेतृत्व:झारखंड आंदोलन में बिरसा मुंडा का महत्वपूर्ण योगदान था। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया और आदिवासियों की पहचान को जीवित रखने में भूमिका निभाई। उनकी शहादत आज भी गीतों और लेखों के माध्यम से याद की जाती है।
शिक्षा और जागरूकता:ईसाई मिशनरियों के प्रयास से दक्षिण बिहार में आदिवासियों के बीच शिक्षा का प्रसार हुआ। इससे साक्षर आदिवासी अपनी संस्कृति और इतिहास पर लिखने लगे। इसके परिणामस्वरूप एक बुद्धिजीवी आदिवासी वर्ग उभरा, जिसने झारखंड राज्य की मांग को संगठित और व्यापक बनाया।
आदिवासियों की समस्याएँ:दक्षिण बिहार में आदिवासियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। स्थानीय व्यापारी और महाजन उनकी संपत्ति छीन रहे थे, और खनिज संसाधनों से होने वाला लाभ बाहरी लोगों को मिल रहा था। इसके अलावा, आदिवासियों की ज़मीन भी उनसे छिनी जा रही थी।
मुख्य मुद्दे और आंदोलन
झारखंड के आदिवासियों ने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर विरोध किया, जिनमें शामिल थे:
भूमि का अधिग्रहण: सिंचाई परियोजनाओं और गोलीबारी क्षेत्रों के लिए भूमि का अधिग्रहण।
पुनर्वास और सर्वेक्षण: रुके हुए सर्वेक्षणों और पुनर्वास कार्यों के खिलाफ विरोध।
आर्थिक समस्याएँ: ऋण, किराए और सहकारी कर्जों के संग्रह पर विरोध।
वन उत्पाद का राष्ट्रीयकरण: वन उत्पादों के राष्ट्रीयकरण के विरोध में बहिष्कार।
इन समस्याओं और संघर्षों के परिणामस्वरूप, झारखंड का अलग राज्य बनवाने की मांग बढ़ी और अंततः यह राज्य 2000 में अस्तित्व में आया।
पूर्वोत्तर
स्वतंत्रता के बाद, जब भारत सरकार ने नए राज्य बनाए, तो पूर्वोत्तर के पर्वतीय क्षेत्रों में अशांति फैल गई। इन क्षेत्रों की जनजातियाँ अपनी पारंपरिक स्वतंत्रता और अलग पहचान को लेकर चिंतित थीं, और उन्हें असम के प्रशासन में शामिल होने में संदेह था।
पूर्वोत्तर की जनजातियाँ लंबे समय तक भारतीय समाज से अलग रही थीं, जिससे वे अपनी सांस्कृतिक और पारंपरिक पहचान को बचाए रख पाईं। लेकिन समय के साथ, उन्हें भारतीय संविधान के तहत स्वायत्तता की जरूरत महसूस हुई, और यह अब एक बड़ा मुद्दा बन गया है।
मुख्य मुद्दे
पूर्वोत्तर के जनजातीय आंदोलनों के केंद्र में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे हैं:
वन-भूमि से विस्थापन: जनजातीय समुदायों का अपनी पारंपरिक वन-भूमि से विस्थापन एक प्रमुख संघर्ष का कारण है।
सांस्कृतिक असमानता: इन समुदायों का सामना सांस्कृतिक पहचान के संकट से भी है, जिससे उनका पारंपरिक जीवन और समाज प्रभावित हो रहा है।
विकास और आर्थिक मुद्दे: विकास की गति और आर्थिक असमानताएँ भी जनजातीय आंदोलनों का हिस्सा हैं।
इन मुद्दों के कारण जनजातीय समुदायों ने अपनी पहचान और स्वायत्तता की रक्षा के लिए संघर्ष किया है, और इसने पूर्वोत्तर भारत में सामाजिक आंदोलनों को नया आकार दिया है।
महिलाओं का आंदोलन
19वीं सदी के समाज-सुधार आंदोलन और महिला संगठन
19वीं सदी में समाज-सुधार आंदोलनों ने महिलाओं के अधिकार, शिक्षा, विवाह, और विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दों को उठाया। 20वीं सदी की शुरुआत में महिला संगठनों का उदय हुआ, जैसे:
विमेंस इंडिया एसोसिएशन (WIA)
आल-इंडिया विमेंस कॉन्फ्रेंस (AIWC)
नेशनल काउंसिल फॉर विमेन इन इंडिया (NCWI)
AIWC ने शुरुआत में राजनीति से दूरी रखी, लेकिन बाद में महसूस किया कि स्वतंत्रता के बिना महिलाओं का कल्याण संभव नहीं।
1. कृषिक संघर्ष और महिलाओं की भागीदारी
औपनिवेशिक काल के जनजातीय और ग्रामीण संघर्षों में महिलाओं ने पुरुषों के साथ भाग लिया, जैसे:
बंगाल का तिभागा आंदोलन
तेलंगाना का सशस्त्र संघर्ष
महाराष्ट्र का वरली जनजातीय आंदोलन
2.स्वतंत्रता के बाद महिला आंदोलन
1947 के बाद महिला आंदोलन धीमा पड़ गया। कुछ महिलाओं ने राष्ट्र निर्माण में भाग लिया, जबकि विभाजन के आघात ने आंदोलन को कमजोर किया।
3. 1970 का पुनरुत्थान
1970 के दशक में महिला आंदोलन का "दूसरा दौर" शुरू हुआ। इसमें महिलाओं के खिलाफ हिंसा, कानूनी अधिकार, भू-स्वामित्व, रोजगार, यौन उत्पीड़न, और दहेज के खिलाफ संघर्ष जैसे मुद्दे शामिल थे।
4. जेंडर समानता की दिशा में कदम
महिला आंदोलन ने लैंगिक समानता की वकालत की। सरकार की "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" जैसी योजनाएँ भी समानता को बढ़ावा देने में मदद कर रही हैं।