औद्योगिक समाज की कल्पना
- औद्योगीकरण ने समाज में बड़े बदलाव किए, खासकर कामकाजी जीवन और रिश्तों में।
- जब कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर और एम्मिल दुर्कीम जैसे समाजशास्त्रियों ने समाज का अध्ययन किया, तो उन्होंने देखा कि कैसे उद्योग और मशीनों ने पारंपरिक ग्रामीण समाज को बदल दिया।
पारंपरिक और औद्योगिक समाज में अंतर
- ग्रामीण समाजों में लोग अपने मालिकों के खेतों में काम करते थे, लेकिन औद्योगिक समाज में यह संबंध अब कारखानों और कार्यस्थलों पर आधारित हो गए।
- यहाँ लोग अपनी ज़िंदगी के अंतिम परिणाम को नहीं देख पाते, क्योंकि उनका काम सिर्फ एक छोटे हिस्से का होता है।
- यह काम अक्सर दोहराव और थकाऊ होता है, लेकिन फिर भी बेरोजगारी से बेहतर माना जाता है।
- मार्क्स ने इस स्थिति को "अलगाव" (alienation) कहा, जिसमें लोग अपने काम से खुश नहीं होते, और उनका जीवन इस बात पर निर्भर करता है कि मशीनें उनके काम के लिए कितनी जगह छोड़ती हैं।
समानता और असमानता का मिश्रण
- औद्योगीकरण ने कुछ क्षेत्रों में समानता लाई, जैसे कि रेलवे और बसों में जातीय भेदभाव का कोई मतलब नहीं होता। लेकिन, फिर भी पुराने भेदभाव नए कामकाजी स्थानों पर देखने को मिलते हैं। उदाहरण के लिए, वेतन और आय में असमानता बढ़ गई है।
- अच्छे वेतन वाले पेशों, जैसे चिकित्सा, कानून और पत्रकारिता में उच्च जाति के लोगों की अधिकता दिखती है, जबकि महिलाओं को समान कार्य के बावजूद कम वेतन मिलता है।
- यह दर्शाता है कि समाज में कुछ समानताएँ आने के बावजूद, आर्थिक असमानताएँ और सामाजिक भेदभाव अब भी गहरे रूप में मौजूद हैं और समाज में संरचनात्मक बदलाव की आवश्यकता है।
भारत में औद्योगीकरण
भारत में औद्योगीकरण विशिष्टताएँ
भारत में औद्योगीकरण पाश्चात्य देशों के अनुभव से अलग था। हालांकि, यह कई मामलों में समान था, लेकिन कुछ पहलुओं में भारत की स्थिति काफी भिन्न थी।
1. कृषि, उद्योग, और सेवा क्षेत्र का विभाजन
- भारत में 2018-19 के आंकड़ों के अनुसार, लगभग 43% लोग कृषि में काम करते हैं, 25% लोग निर्माण और उत्पादन क्षेत्र में और 23% लोग सेवा क्षेत्र जैसे व्यापार, यातायात, और वित्तीय सेवाओं में कार्यरत हैं।
- हालांकि, कृषि में काम करने वाले लोगों की संख्या घट रही है, जो दर्शाता है कि जो क्षेत्र लोगों को रोजगार दे रहा है, वह उन्हें ज्यादा आमदनी नहीं दे पा रहा है।
2. स्व-रोज़गार और नियमित वेतनभोगी कामकाजी स्थिति
- भारत में 52% लोग स्व-रोज़गार करते हैं, जबकि 24% लोग नियमित वेतनभोगी रोजगार में होते हैं और 24% लोग अनियमित श्रमिक होते हैं।
- यह अंतर विकसित देशों से काफी भिन्न है, जहाँ अधिकांश लोग नियमित वेतनभोगी होते हैं।
3. संगठित और असंगठित क्षेत्र
- भारत में 90% से अधिक लोग असंगठित (अनौपचारिक) क्षेत्र में काम करते हैं, जबकि संगठित क्षेत्र में रोजगार बहुत कम है।
- इसका मतलब यह है कि भारत में अधिकांश लोग ऐसे छोटे पैमाने पर काम करते हैं, जहाँ व्यक्तिगत रिश्ते और परसस्पर समझौतों का अधिक महत्व होता है।
भारत में औद्योगीकरण के सामाजिक प्रभाव:
- कार्यस्थल पर रिश्तों का महत्व: भारत के छोटे कामकाजी क्षेत्रों में व्यक्तिगत रिश्ते अहम होते हैं। अगर नियोजक किसी को पसंद करता है, तो वेतन बढ़ सकता है, लेकिन मतभेद होने पर नौकरी खतरे में पड़ सकती है।
- सुरक्षित और लाभकारी नौकरियाँ: भारत में सुरक्षित और लाभकारी नौकरियाँ कम हैं। सरकारी नौकरी को जाति, धर्म, और क्षेत्रीय दीवारों को तोड़ने का साधन माना जाता है।
- संघ की भूमिका: असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को संघ बनाने का अनुभव नहीं होता, जिससे वे सुरक्षित कार्य और उचित वेतन के लिए संघर्ष नहीं कर पाते। सरकारी नियम हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन ठेकेदारों या नियोजकों पर निर्भर करता है।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण एवं भारतीय उद्योगों में परिवर्तन
- भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने भारत में बड़े बदलाव किए हैं, खासकर 1990 के दशक से जब सरकार ने इन नीतियों को अपनाया। इसने निजी कंपनियों और विदेशी फर्मों को भारतीय बाजार में निवेश करने के लिए प्रेरित किया, जिससे कई उद्योगों में बदलाव आया।
- पहले जिन क्षेत्रों में सरकार का कब्जा था, जैसे दूरसंचार, नागरिक उड्डयन और ऊर्जा, अब वहां निजी कंपनियाँ और विदेशी निवेशक सक्रिय हैं। उदाहरण के तौर पर, पारले पेय को कोका कोला ने खरीदा, जिससे भारतीय बाजार में विदेशी उत्पादों की संख्या बढ़ी।
- उदारीकरण के बाद खुदरा व्यापार में भी बदलाव आया। अब लोग अधिकतर बड़े शॉपिंग मॉल्स और विदेशी ब्रांड्स से खरीदारी करना पसंद करते हैं, बजाय इसके कि वे अपने स्थानीय दुकानदारों से सामान लें।
- सरकार अब सार्वजनिक कंपनियों के हिस्से निजीकरण के लिए बेच रही है, जिसे विनिवेश कहा जाता है। इससे सरकारी कर्मचारियों के बीच नौकरी खोने का डर बढ़ गया है। जैसे, मॉडर्न फूड को निजीकरण के बाद कई कर्मचारियों को काम से हटा दिया गया था।
- अधिकांश कंपनियाँ अब स्थायी कर्मचारियों की संख्या घटा रही हैं। बाह्यस्रोतों (outsourcing) से काम लिया जा रहा है, जिससे सस्ते श्रमिकों की उपलब्धता हो रही है। यह स्थिति खासतौर पर छोटी कंपनियों और बड़ी बहु-राष्ट्रीय कंपनियों में देखी जा रही है।
- छोटे उद्योगों में कर्मचारियों को कम वेतन और खराब कार्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, कर्मचारियों के पास संघ बनाने का भी मौका कम होता है, जिससे वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं कर पाते।
- भारत अब भी एक कृषि प्रधान देश है, लेकिन सेवा क्षेत्र जैसे बैंकिंग, आईटी उद्योग, होटल्स आदि में रोजगार बढ़ रहा है। इसके साथ ही, नगरीय मध्यवर्ग का भी विस्तार हो रहा है।
- हालांकि, अधिक लोग सेवा क्षेत्र में आ रहे हैं, लेकिन सुरक्षित रोजगार की कमी बनी हुई है। पहले जो लोग सरकारी नौकरियों पर निर्भर थे, अब वह विकल्प भी कम हो रहे हैं।
- सरकार ने भूमि अधिग्रहण की नीति शुरू की है, जिससे कई औद्योगिक परियोजनाओं के लिए भूमि ली जा रही है। लेकिन इन परियोजनाओं से प्रदूषण बढ़ रहा है और किसान और आदिवासी लोग विस्थापित हो रहे हैं। विस्थापित लोगों को कम क्षतिपूर्ति मिल रही है और उन्हें दिहाड़ी मजदूर बनना पड़ रहा है।
लोग काम किस तरह पाते हैं
भारत में लोग काम पाते समय विभिन्न तरीकों का सहारा लेते हैं। नौकरी पाने का पारंपरिक तरीका जैसे विज्ञापन या रोज़गार कार्यालय का इस्तेमाल बहुत कम होता है। यहां कुछ आम तरीके हैं, जिनसे लोग रोजगार प्राप्त करते हैं:
1. स्व-रोज़गार और निजी संपर्क
- कई लोग स्व-रोज़गार में होते हैं, जैसे नलसाज, बिजली मिस्त्री, और बढ़ई (खाती या तरखान)। इनकी नौकरी पूरी तरह से पर्सनल नेटवर्क पर निर्भर करती है।
- इन लोग का मानना होता है कि उनका काम ही उनका विज्ञापन है। जैसे मोबाइल फोन ने नलसाजों और अन्य श्रमिकों के लिए काम आसान बना दिया है, जिससे वे ज्यादा लोगों तक पहुंच सकते हैं।
2. ठेकेदारों से रोजगार
- पुराने समय में, फैक्ट्री कामगारों को रोजगार दिलाने के लिए ठेकेदारों का बड़ा हाथ था। जैसे कानपुर की कपड़ा मिल में काम दिलाने वाले को मिस्त्री कहा जाता था।
- मिस्त्री खुद भी वहां काम करता था और अक्सर स्थानीय समुदाय से श्रमिक लाता था। हालांकि अब ये तरीका बदल चुका है, और अब यूनियनों और कार्यकारिणियों का ज्यादा रोल है।
- आजकल कई कामगार चाहते हैं कि उनका काम उनके बच्चों को दे दिया जाए।
3. अनुबंधित काम
- कई फैक्ट्रियों में बदली कामगार होते हैं, जो छुट्टी पर गए कर्मचारियों के स्थान पर काम करते हैं।
- ये कामगार लंबे समय से काम करते हैं लेकिन उन्हें स्थायी पद और सुरक्षा नहीं मिलती, इसे अनुबंधित कार्य कहा जाता है।
- यह स्थिति खासतौर पर संगठित क्षेत्र में होती है।
4. सरकारी योजनाएँ और रोजगार
- भारत सरकार ने रोजगार बढ़ाने के लिए कई योजनाएँ शुरू की हैं, जैसे मुद्रा योजना, आत्मनिर्भर भारत, और मेक इन इंडिया।
- इन योजनाओं का उद्देश्य स्व-रोज़गार को बढ़ावा देना है और हाशिए पर खड़े लोगों जैसे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और महिलाओं को रोजगार प्रदान करना है।
- इससे भारत के युवाओं को विकास की प्रक्रिया में शामिल होने का मौका मिल रहा है।
5. दिहाड़ी मजदूर और ठेकेदारी व्यवस्था
- दिहाड़ी मजदूर के लिए काम की ठेकेदारी व्यवस्था अभी भी बहुत आम है, खासतौर पर भवन निर्माण और ईंट बनाने के काम में।
- ठेकेदार गांवों में जाकर काम चाहने वालों से संपर्क करते हैं और उन्हें काम पर लगाते हैं। अक्सर काम करने के लिए मजदूर को पहले उधार पैसे दिए जाते हैं, जिसे बाद में उनकी दिहाड़ी से काट लिया जाता है।
6. कृषि मजदूरों की स्थिति
- पहले, कृषि मजदूर बंधुआ मजदूरी करते थे, यानी वे अपनी ऋण चुकाने के लिए ज़मींदार के पास काम करते थे। अब, वे औद्योगिक कार्यस्थलों में जाते हैं और अनियत कामगार के रूप में काम करते हैं।
- हालांकि वे अभी भी कर्जदार होते हैं, लेकिन अब वे अधिक मुक्त होते हैं क्योंकि उन्हें बंधुआ मजदूरी के सामाजिक दायित्वों से नहीं जुड़ा रहना पड़ता।
काम को किस तरह किया जाता है?
काम करने के तरीके समय के साथ बदल गए हैं। आधुनिक औद्योगिक कार्यस्थलों में काम की प्रक्रिया बहुत अलग होती है। आइए जानते हैं, कैसे काम किया जाता है और काम के विभिन्न पहलुओं को समझते हैं:
1. मैनेजर और कामगारों के रिश्ते
- बड़े उद्योगों और फैक्ट्रियों में मैनेजर का मुख्य कार्य कामगारों को नियंत्रित करना और उनसे अधिक काम करवाना होता है।
- इसके दो प्रमुख तरीके होते हैं: पहला, कार्य घंटों में वृद्धि, यानी काम के घंटे बढ़ाकर काम की मात्रा को बढ़ाना, और दूसरा, निर्धारित समय में अधिक उत्पादन, यानी एक निश्चित समय में अधिक उत्पाद बनाना।
- मशीनों का उपयोग उत्पादन को बढ़ाने में मदद करता है, लेकिन इसके साथ ही यह कामगारों के स्थान पर मशीनों को ले आता है, जो रोज़गार के लिए एक गंभीर खतरे की बात है।
2. कपड़ा मिल और बुनाई
- कपड़ा मिलों में कामगारों को मशीन के विस्तार के रूप में देखा जाता है।
- एक बुनकर रामचंद्र ने बताया कि बुनाई में मशीनों के साथ काम करते वक्त, शरीर के हर हिस्से को काम में लगाना पड़ता है।
- यह एक शारीरिक थकावट है, और कामगार को पूरी तरह मशीन पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता है।
3. मशीनों का प्रभाव
- मारुति उद्योग की एक उदाहरण देखें: यहां कामगारों को हर मिनट दो कारें बनानी होती हैं और उन्हें दिन में सिर्फ 45 मिनट की विश्राम मिलता है।
- यह काम मशीनों की गति से जुड़ा होता है, और कर्मचारियों को लगातार तनाव में काम करना पड़ता है। जब बाहरी स्रोतों से पार्ट्स समय पर नहीं आते, तो कामगारों को दबाव महसूस होता है।
4. सेवा क्षेत्र में काम
- सॉफ़्टवेयर और आईटी कंपनियों में काम करने वाले लोग भी बहुत दबाव में होते हैं।
- इनका काम रचनात्मक और स्वतंत्र होने के बावजूद, यह भी टायलरिज्म यानी काम को टुकड़ों में बांटने की प्रक्रिया से जुड़ा होता है।
5. समाज और परिवार पर असर
- आईटी सेक्टर की वजह से शहरों में काम के घंटे बदल गए हैं। उदाहरण के लिए, बंगलोर, हैदराबाद और गुड़गाँव में स्थित कंपनियों के कारण दुकानों और रेस्तराओं का समय भी देर से खुलने लगा है।
- इसके कारण संयुक्त परिवारों का पुनर्निर्माण हुआ है, क्योंकि दादा-दादी अब बच्चों की देखभाल करने में मदद करते हैं।
6. कृषि बनाम ज्ञान आधारित कार्य
- क्या ज्ञान आधारित काम जैसे सॉफ़्टवेयर या आईटी काम, किसी किसान की दक्षता से बेहतर हैं? यह एक अहम सवाल है। जबकि एक किसान बहुत सारे कृषि कौशल में माहिर होता है, एक सॉफ़्टवेयर पेशेवर कंप्यूटर और तकनीक में माहिर होता है। दोनों के पास अपनी जगह पर दक्षता है, लेकिन दोनों के काम करने के तरीके और कौशल अलग होते हैं।
7. मशीनों का असर
- हैरी ब्रेवरमैन ने यह तर्क दिया कि मशीनों का उपयोग काम की दक्षता को कम कर देता है। पहले वास्तुकार नक्काशी में माहिर होते थे, लेकिन अब कंप्यूटर उनकी जगह ले रहे हैं। इससे मानव श्रम का महत्व घट रहा है।
कार्यावस्थाएँ
हम सभी को घर, कपड़े, और अन्य सामानों की जरूरत होती है, लेकिन ये चीज़ें किसी के कठिन काम का परिणाम होती हैं। काम करने की स्थिति का सीधा असर काम करने वाले लोगों की ज़िंदगी पर पड़ता है। सरकार ने काम की परिस्थितियों को सुधारने के लिए कई कानून बनाए हैं, लेकिन क्या ये सभी जगह सही से लागू होते हैं? आइए जानें।
1. खदान में काम
- भारत की कोयला खदानों में लाखों लोग काम करते हैं। सरकार ने खदान एक्ट 1952 और व्यावसायिक सुरक्षा कोड 2020 जैसे नियम बनाए हैं, जो कार्य घंटे और सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।
- हालांकि, इन नियमों का पालन सिर्फ बड़ी कंपनियों में होता है, जबकि छोटी खदानों में अक्सर नजरअंदाज किया जाता है।
- ठेकेदार सही रजिस्टर नहीं रखते, जिससे दुर्घटनाओं के बाद मुआवजा देने से बचा जा सके। खदान खत्म होने पर पर्यावरणीय क्षति को ठीक करने की जिम्मेदारी भी नहीं निभाई जाती।
2. खदानों में खतरनाक स्थितियाँ
- भूमिगत खदानों में बाढ़, आग और धंसने का खतरा रहता है। गैसों और ऑक्सीजन की कमी से सिलिकोसिस और टीबी जैसी बीमारियाँ होती हैं।
- खुले खदानों में काम करने वाले धूप, बारिश और गिरने वाली चीज़ों से चोटिल हो सकते हैं।
3. भारत में काम की दुर्घटनाएँ
- भारत में कार्यस्थलों पर दुर्घटनाओं की दर अन्य देशों की तुलना में अधिक है। सुरक्षा नियमों की अनदेखी और काम की खराब स्थितियाँ कामगारों के जीवन को खतरे में डालती हैं।
4. प्रवासी कामगारों की स्थिति
- मछली पकड़ने के उद्योग में तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में प्रवासी कामगार, खासकर युवा महिलाएँ, काम करती हैं।
- वे छोटे स्थानों पर रहकर कठिन परिस्थितियों में काम करती हैं। प्रवासी पुरुष अपने परिवारों से दूर रहते हैं और अकेलेपन का सामना करते हैं।
- हालांकि, युवा महिलाएँ इस काम के जरिए स्वतंत्रता और आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करती हैं।
घरों में होने वाला काम
- भारत में घर पर किए जाने वाले काम आर्थिकी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जैसे लेस बनाना, ज़री का काम, गलीचे बनाना, बीड़ी बनाना और अगरबत्तियाँ बनाना।
- इनमें मुख्य रूप से महिलाएँ और बच्चे शामिल होते हैं। एजेंट कच्चा माल घर तक पहुँचाता है और तैयार सामान लेकर जाता है। भुगतान इस आधार पर किया जाता है कि कितने पीस तैयार हुए हैं।
- बीड़ी निर्माण गाँवों में तेंदु पत्ते इकट्ठा करने से शुरू होता है, जो मुख्यतः महिलाएँ करती हैं। ये पत्ते जंगलात विभाग या ठेकेदार को बेचे जाते हैं।
- ठेकेदार इन्हें घर पर काम करने वालों को देता है, जो पत्तों को गीला करके तंबाकू भरते हैं और बीड़ी बनाते हैं।
- तैयार बीड़ियाँ ठेकेदार उत्पादकों को बेचता है, जो उन्हें पकाकर अपने ब्रांड का लेबल लगाते हैं। इसके बाद ये वितरकों के माध्यम से पान की दुकानों तक पहुँचती हैं, जहाँ से लोग इन्हें खरीदते हैं।
हड़तालें और मजदूर संघ
कामकाजी हालात और मजदूरों की हड़ताल
- कभी-कभी खराब कामकाजी परिस्थितियों के चलते मजदूर हड़ताल पर चले जाते हैं। हड़ताल के दौरान मजदूर काम नहीं करते, और मिल मालिक दरवाजे बंद कर देते हैं।
- हड़ताल करना कठिन होता है क्योंकि मजदूरों को बिना वेतन के रहना पड़ता है, और मिल मालिक नए मजदूर रख सकते हैं।
1982 बंबई टैक्सटाइल मिल्स की हड़ताल