अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में Class 12 Chapter-3 Book-Antral Book-2 Chapter Summary
0Team Eklavyaदिसंबर 09, 2024
अपना मालवा खाऊ-उजाडू सभ्यता में
यह अध्याय मालवा की प्राकृतिक समृद्धि, सांस्कृतिक धरोहर और पानी के प्रबंधन के माध्यम से मानव सभ्यता की खाऊ-उजाड़ू जीवनशैली की आलोचना करता है। लेखक ने मालवा की पौराणिक संपन्नता और आज की स्थिति के बीच का अंतर स्पष्ट किया है।
मालवा की प्राकृतिक संपन्नता
मालवा की धरती को "गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर" कहा गया है, जो इसकी जल और कृषि संपन्नता का प्रतीक है। नदियों, तालाबों और बारिश के जल भंडारण की परंपरा ने इस क्षेत्र को सूखे के समय भी समृद्ध बनाए रखा। क्वार के महीने में मानसून के जाते-जाते भी यह पूरा क्षेत्र हरियाली से भर जाता था, जो मालवा की विशिष्टता को दर्शाता है।
पानी का प्रबंधन और उजाड़ू सभ्यता
मालवा के शासक विक्रमादित्य, भोज और मुंज ने तालाब, बावड़ियों और जलाशयों का निर्माण करवाकर पानी को संरक्षित रखने की परंपरा स्थापित की थी। लेकिन आधुनिक समय में "विकास" के नाम पर इन परंपराओं को नजरअंदाज कर दिया गया। इंजीनियरों ने तालाबों को गाद से भरने दिया और भूजल का अत्यधिक दोहन किया, जिससे क्षेत्र की नदियाँ और तालाब सूख गए। नर्मदा, शिप्रा, चंबल और गंभीर जैसी नदियाँ अब गंदे पानी के नाले बनकर अपनी प्राचीन महिमा खो चुकी हैं।
मालवा में बदलते मौसम और जलवायु संकट
मालवा में बारिश के आँकड़े बताते हैं कि कभी यह क्षेत्र संतुलित वर्षा के लिए जाना जाता था, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग और औद्योगिक सभ्यता के कारण जलवायु परिवर्तन ने इसकी परंपरागत समृद्धि को गंभीर क्षति पहुँचाई है। अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों की खाऊ-उजाड़ू जीवनशैली पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुँचा रही है। कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन ने धरती का तापमान बढ़ाकर जलवायु चक्र को बिगाड़ दिया है, जिससे मालवा जैसे क्षेत्र भी प्रभावित हुए हैं।
नदियों और सभ्यता का संबंध
नदियाँ हमेशा से सभ्यता के जन्म स्थान रही हैं, लेकिन आज की औद्योगिक सभ्यता ने इन्हें गंदे नालों में बदल दिया है। नदियों का सूखना, तालाबों का गाद से भर जाना और पानी का अत्यधिक दोहन मालवा की परंपरागत समृद्धि को नष्ट कर रहा है, जिससे क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा और संतुलन पर गंभीर प्रभाव पड़ा है।
लेखक की चिंता और संदेश
लेखक अमेरिका की खाऊ-उजाड़ू जीवनशैली की आलोचना करते हुए अपने समाज से अपनी धरोहरों को सहेजने की अपील करता है। वह जल, धरती और पर्यावरण के संरक्षण को जीवन का अभिन्न अंग बनाने पर जोर देता है। लेखक का संदेश है कि पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाकर ही वास्तविक समृद्धि और संतुलन को कायम रखा जा सकता है।
निष्कर्ष:
मालवा की धरती जो कभी जल, हरियाली और समृद्धि का प्रतीक थी, आज खाऊ-उजाड़ू सभ्यता के कारण अपनी पहचान खो रही है। लेखक ने पारंपरिक जल संरक्षण की महत्ता को रेखांकित करते हुए पर्यावरण और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने की आवश्यकता पर बल दिया है।