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उपनिवेशवाद और देहात Notes in Hindi Class 12 History Chapter-9 Book 3 Colonialism and the Countryside upaniveshavaad aur dehaat

उपनिवेशवाद और देहात Notes in Hindi Class 12 History Chapter-10 Book 3 Colonialism and the Countryside upaniveshavaad aur dehaat

बंगाल और वहां के जमींदार 

औपनिवेशिक शासन सबसे पहले बंगाल में स्थापित किया गया था यहाँ सबसे पहले नयी राजस्व प्रणाली लायी गयी भूमि सम्बन्धी अधिकारों की नयी व्यवस्था लागू की गयी।


इस्तमरारी बंदोबस्त (स्थाई बंदोबस्त)

  • 1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त लागू कर दिया था।
  • ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी।
  • यह राशि प्रत्येक जमींदार को अदा करनी होती थीं।
  • अगर जमींदार अपनी निश्चित राशि नहीं चुका पाता तो उससे राजस्व वसूल करने के लिए उसकी संपदा को नीलाम कर दिया जाता था।


बर्दवान में की गयी नीलामी की घटना 

  • 1797 में बर्दवान में एक नीलामी की गई यह एक बड़ी सार्वजनिक घटना थी 
  • बर्दवान के राजा की भू - संपदाए बेची जा रही थी क्योंकी  बर्दवान के राजा ने राजस्व की राशि नहीं चुकाई थी इसलिए उनकी संपत्तियों को नीलाम किया जा रहा था
  • नीलामी में बोली लगाने के लिए अनेक खरीदार आए थे और संपदा सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को बेच दी गई 
  • लेकिन कलेक्टर को तुरंत ही इस सारी कहानी में एक अजीब पेंच दिखाई दिया ज्यादातर खरीदार राजा के अपने ही नौकर या एजेंट थे उन्होंने राजा की ओर से जमीन को खरीदा था नीलामी में 95% से अधिक फर्जी बिक्री थी



अदा ना किये गए राजस्व की समस्या 

  • अकेले बर्दवान राज के जमीनें ही ऐसी संपदाएं नहीं थी जो 18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में बेची गई थी
  • इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने के बाद लगभग 75% से अधिक जमीदारियां  या हस्तांतरित कर दी गई थी
  • अंग्रेज अधिकारीयों को यह उम्मीद थी कि इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किए जाने के बाद वह सभी समस्याएं हल हो जाएंगी जो बंगाल की विजय के समय उनके सामने उपस्थित थी  
  • 1770 के दशक तक आते-आते बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजरने लगी थी
  • ऐसा बार-बार अकाल पड़ने के कारण हो रहा था , खेती की पैदावार घट रही थी 
  • अधिकारी लोग ऐसा सोचते थे कि खेती व्यापार और राज्य के राजस्व संसाधन तभी विकसित किए जा सकेंगे जब कृषि में निवेश को प्रोत्साहन दिया जाएगा ऐसा तभी किया जा सकेगा जब संपत्ति के अधिकार प्राप्त कर लिए जाएंगे और राजस्व की मांग की दरों को स्थाई रूप से तय किया जाएगा यदि राजस्व की मांग स्थाई रूप से निर्धारित कर दी गई तो कंपनी को नियमित राजस्व प्राप्त होगा
  • अधिकारियों को ऐसा लग रहा था कि इस प्रक्रिया से छोटे किसान और धनी भू-स्वामियों का एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो जाएगा जिसके पास खेती में सुधार करने के लिए पूंजी भी होगी और उद्यम भी होगा और ब्रिटिश शासन के पालन पोषण और प्रोत्साहन पाकर यह वर्ग कंपनी के प्रति वफादार भी रहेगा 
  • अब समस्या यह है कि कौन से व्यक्ति हैं जो कृषि सुधार करने के साथ-साथ राज्य को निर्धारित राजस्व अदा करने का ठेका ले सकेंगे कंपनी के अधिकारियों के बीच लंबा वाद विवाद चला इसके बाद यह फैसला लिया गया कि इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किया जाएगा और जमीदारों को राजस्व इकठ्ठा करना होगा उन्हें सदा के लिए एक निर्धारित राजस्व मांग को अदा करना था
  • इस प्रकार जमीदार गांव में भूस्वामी नहीं था बल्कि वह राज्य का संग्राहक था जमीदारों के नीचे अनेक गांव होते थे कभी-कभी जमींदारों के नीचे 400 तक गांव होते थे
  • जमींदारों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह कंपनी को नियमित रूप से राजस्व राशि अदा करेगा यदि वह ऐसा करने में असफल हुआ तो उसकी संपदा को नीलाम कर दिया जाएगा


राजस्व के भुगतान में जमींदार चूक क्यों करते थे ?

कंपनी को ऐसा लग रहा था की राजस्व की दर निश्चित करने से कंपनी को निश्चित आय प्राप्त होने लग जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ ,जमीदार अपनी राजस्व मांग को अदा करने में बराबर कोताही करते रहे जिससे उनकी बकाया रकम बढ़ती गई

राजस्व अदा न करने का कारण

1. ऊंची राजस्व मांग : 1790 के दशक में कंपनी ने जमींदारों से ऊंची राजस्व की मांग की, जबकि कृषि उत्पादों की कीमतें बहुत कम थीं, जिससे किसानों के लिए यह राशि चुकाना मुश्किल हो गया

2. राजस्व भुगतान की अनिवार्यता : राजस्व का भुगतान तय समय पर करना जरूरी था, चाहे फसल अच्छी हो या खराब। सूर्यास्त विधि के अनुसार, एक निश्चित तारीख को सूर्यास्त से पहले राजस्व का भुगतान आवश्यक था।

3. इस्तमरारी बंदोबस्त : इस बंदोबस्त ने जमींदारों की शक्ति को सीमित कर दिया। जमींदार केवल राजस्व वसूल करने और अपनी जमींदारी का प्रबंध करने तक ही सीमित थे, बाकी प्रशासन कंपनी द्वारा किया जाता था

4. कंपनी का नियंत्रण : कंपनी ने जमींदारों की स्वायत्तता को सीमित कर दिया, उनकी सेना को भंग कर दिया और उनके कचहरी को कलेक्टर के अधीन कर दिया। जमींदारों से स्थानीय न्याय और पुलिस की व्यवस्था का अधिकार भी छीन लिया गया।

5. राजस्व वसूलने में समस्याएं : जमींदारों के अधिकारियों (अमला) को किसानों से राजस्व वसूलने में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता था। खराब फसल और नीची कीमतों के कारण किसानों के लिए भुगतान करना मुश्किल हो जाता था

6. किसानों की देरी : कभी-कभी किसान जानबूझकर राजस्व भुगतान में देरी करते थे, जिससे जमींदारों की मुश्किलें बढ़ जाती थीं।

7. धनवान किसानों और मुखिया के कारण : धनवान किसान और गांव के मुखिया जमींदारों की परेशानी देखकर खुश होते थे, क्योंकि जमींदार अपनी ताकत का इस्तेमाल उन पर नहीं कर सकते थे।

8. कानूनी प्रक्रिया की लंबाई : जमींदार बकायेदारों पर मुकदमा तो चला सकते थे, लेकिन कानूनी प्रक्रिया लंबी और जटिल होने के कारण राजस्व वसूलना कठिन हो जाता था।

9. लंबित मामले : 1798 में बर्दवान जिले में 30,000 से अधिक राजस्व भुगतान के मामले लंबित थे, जो जमींदारों की स्थिति को और कठिन बना रहे थे।


जोतदारों का उदय

1. जोतदारों का उदय : 18वीं शताब्दी के अंत में जब जमींदार संकट में थे, तब धनी किसानों का एक समूह, जिसे जोतदार कहा जाता था, गांवों में अपनी स्थिति मजबूत कर रहा था।

2. फ्रांसिस बुकानन का वर्णन : उत्तरी बंगाल के दिनाजपुर जिले का सर्वेक्षण करते समय, फ्रांसिस बुकानन ने इन धनी किसानों (जोतदारों) के बारे में लिखा।

3. जमीन पर नियंत्रण : 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में जोतदारों ने हजारों एकड़ जमीन अर्जित कर ली थी, और उनका स्थानीय व्यापार और साहूकारी पर भी नियंत्रण था।

4. गरीब काश्तकारों पर प्रभाव : जोतदार गरीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे और स्थानीय व्यापार एवं साहूकारी पर नियंत्रण रखते थे।

5. बटाईदारी व्यवस्था : जोतदारों की अधिकांश जमीन बटाईदारों के माध्यम से जोती जाती थी, जो फसल का आधा हिस्सा जोतदारों को देते थे।

6. गांव में प्रभाव : जोतदारों की शक्ति जमींदारों की अपेक्षा अधिक प्रभावी होती थी क्योंकि वे गांव में ही रहते थे, जबकि जमींदार शहरी इलाकों में रहते थे।

7. जमींदारों का विरोध : जोतदार जमींदारों द्वारा गांव की लगान बढ़ाने के प्रयासों का विरोध करते थे और अपने अधीन किसानों को जमींदार के प्रति एकजुट कर लेते थे।

8. राजस्व भुगतान का दबाव : जोतदार किसानों को राजस्व भुगतान में देरी करने के लिए प्रोत्साहित करते थे, जिससे जमींदारों की जमीन नीलाम हो जाती और जोतदार उसे खरीद लेते थे।

9. क्षेत्रीय शक्ति : उत्तरी बंगाल में जोतदार अत्यधिक शक्तिशाली थे और बंगाल के अन्य भागों में भी धनी किसान और गांव के मुखिया प्रभावशाली बनकर उभरे।

10 विभिन्न स्थानों पर नाम : विभिन्न स्थानों पर इन्हें हवलदार, गान्टीदार या मंडल के नाम से भी जाना जाता था।


जमींदारों की ओर से प्रतिरोध जमींदार किस प्रकार से अपने जमींदारी को नीलाम होने से बचाते थे 

1. फर्जी बिक्री की तरकीब : जमींदार अपनी जमींदारी को नीलाम होने से बचाने के लिए फर्जी बिक्री का सहारा लेते थे। जैसे, बर्दवान के राजा ने अपनी जमींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता को दे दिया, क्योंकि कंपनी स्त्रियों की संपत्ति को नहीं छीनती थी।

2. नीलामी में ऊंची बोली लगवाना : नीलामी के समय जमींदार अपने ही आदमियों से ऊंची बोली लगवाते थे और संपत्ति को खरीदवा लेते थे।

3. भुगतान से इनकार : नीलामी में संपत्ति खरीदने के बाद, जमींदार के एजेंट भुगतान करने से इनकार कर देते थे, जिससे भू-संपदा को दोबारा नीलाम करना पड़ता था।

4. नीलामी प्रक्रिया को बार-बार दोहराना : बार-बार नीलामी और बोली का यह क्रम चलता रहता था, जिससे अंततः संपत्ति कम दामों में जमींदार को ही बेचना पड़ता था।

5. बाहरी खरीदारों के लिए कब्जा मुश्किल : अगर कोई बाहरी व्यक्ति नीलामी में जमीन खरीद भी लेता था, तो उसे जमीन पर कब्जा नहीं मिल पाता था।

6. लठैतों का प्रयोग : पुराने जमींदार के लठैत नए खरीदार के लोगों को मारपीट कर भगा देते थे, ताकि बाहरी खरीदार जमीन पर अधिकार न कर सके।

7. रैयतों की वफादारी : पुराने रैयत बाहरी लोगों को जमीन में घुसने नहीं देते थे, क्योंकि वे अपने आपको पुराने जमींदार से जुड़ा महसूस करते थे और उसके प्रति वफादार रहते थे।



पांचवी रिपोर्ट 

1. पांचवी रिपोर्ट का प्रस्तुतीकरण : 1813 में ब्रिटिश संसद में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासन और क्रियाकलापों के बारे में एक रिपोर्ट पेश की गई, जिसे "पांचवी रिपोर्ट" कहा जाता है।

2. रिपोर्ट की सामग्री : यह 1002 पन्नों की रिपोर्ट थी, जिसमें जमींदारों और रैयतों की अर्जियां, अलग-अलग जिलों के कलेक्टर की रिपोर्ट, राजस्व विवरण से संबंधित सांख्यिकी तालिका, और बंगाल एवं मद्रास के राजस्व तथा न्यायिक प्रशासन पर टिप्पणियां शामिल थीं।

3. कंपनी पर नजर : 1760 के दशक से ही ब्रिटेन में कंपनी के क्रियाकलापों पर नजर रखी जा रही थी और उन पर चर्चा होती थी, खासकर बंगाल में कंपनी के विस्तार के बाद।

4. ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार का विरोध : ब्रिटेन में कई समूह कंपनी के एकाधिकार का विरोध कर रहे थे, क्योंकि वे भारत के साथ व्यापार में निजी व्यापारियों के बढ़ते अवसर देख रहे थे। कई राजनीतिक समूहों का मानना था कि बंगाल विजय का लाभ केवल कंपनी को मिल रहा है, पूरे ब्रिटेन को नहीं, जिससे कंपनी के कुशासन पर बहस छिड़ गई।

5. प्रवर समिति द्वारा तैयार : कंपनी के कामकाज की जांच के लिए कई समितियां बनाई गईं, और पांचवी रिपोर्ट एक प्रवर समिति द्वारा तैयार की गई थी। इस रिपोर्ट ने ब्रिटिश संसद में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के स्वरूप पर गंभीर बहस को जन्म दिया।

6. रिपोर्ट की विश्वसनीयता : हालांकि पांचवी रिपोर्ट में बहुमूल्य साक्ष्य उपलब्ध हैं, लेकिन इसकी विश्वसनीयता पर संदेह है, क्योंकि इसे उन लोगों ने लिखा था जो कंपनी के कुप्रशासन की आलोचना कर रहे थे।रिपोर्ट में जमींदारी नीलाम होने और उसे बचाने के लिए नए हथकंडों का भी उल्लेख किया गया था।



कुदाल और हल 

19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में बुकानन ने राजमहल की पहाड़ियों का दौरा किया था बुकानन ने इन पहाड़ियों को अभेद् बताया उसके अनुसार यह एक खतरनाक इलाका था यहां बहुत कम यात्री जाने की हिम्मत करते थे बुकानन जहां भी गया वहां उसके निवासियों के व्यवहार को शत्रुता पूर्ण पाया यह लोग कंपनी के अधिकारियों के प्रति आशंकित रहते थे और उनसे बातचीत करने को तैयार नहीं थे बुकानन जहां भी जाता वहां के बारे में अपनी डायरी में लिखता था जहां जहां उसने भ्रमण किया वहां के लोगों से मुलाकात की उनके रीति-रिवाज को देखा था


राजमहल की पहाड़ियां 

राजमहल  की  पहाड़ियों  के  इर्द-गिर्द  रहने वाले  लोग  पहाड़ी  कहलाते  थे यह  जंगल  की  उपज  से  अपनी  गुजर  बसर  करते  थे पहाड़ी लोग  झूम खेती  करते  थे 

झूम खेती 

पहाड़ियां लोग जंगल  के  छोटे  से  हिस्से  में  झाड़ियों  को  काटकर  और  घास - फूस  को  जलाकर जमीन  साफ  कर  लेते  थे  राख  पोटाश से  उपजाऊ  बनी  जमीन  पर  यह  लोग  तरह - तरह  की दालें और  ज्वार  , बाजरा  उगा  लेते  थे यह  अपने  कुदाल  से  जमीन  को  थोड़ा  खुर्च  लेते  थे  कुछ  वर्षों  तक  उस जमीन  पर  खेती  करते  थे फिर  उसे  कुछ  वर्षों  के  लिए  परती  छोड़कर  नए  इलाके  में  चले  जाते थे जिससे  यह  जमीन  अपनी  खोई  हुई  उर्वरता दुबारा  प्राप्त  कर  लेती  थी उन जंगलों से पहाड़ी लोग खाने के लिए महुआ के फूल इकट्ठे करते थे  बेचने के लिए रेशम के कोया और राल और काठकोयला बनाने के लिए लकड़ियां इकट्ठी करते थे हरी घास वाला इलाका पशुओं के लिए चारागाह बन जाता था

पहाड़ी लोग और जंगल 

1. जंगल से जुड़ी जिंदगी : पहाड़ी लोगों की जिंदगी जंगल से घनिष्ठ रूप से जुड़ी थी। वे इमली के पेड़ों के बीच झोपड़ियों में रहते थे और आम के पेड़ के नीचे आराम करते थे। पूरा प्रदेश उन्हें अपनी निजी भूमि लगता था, और वे बाहरी लोगों के प्रवेश का विरोध करते थे।

2. मुखिया की भूमिका : इनके मुखिया जनजाति में एकता बनाए रखते थे और आपसी झगड़े सुलझाते थे। किसी अन्य जनजाति या मैदानी लोगों के साथ युद्ध होने पर मुखिया जनजाति का नेतृत्व करते थे।

3. मैदानी इलाकों पर हमले : पहाड़ी लोग अकाल या अभाव के समय में मैदानी इलाकों पर हमला करते थे। ये हमले अक्सर अपनी ताकत दिखाने या जीवित रहने के लिए होते थे। जमींदारों और व्यापारियों को उनसे शांति बनाए रखने के लिए खिराज देना पड़ता था।

4. व्यापारियों से कर : पहाड़ी रास्तों से गुजरने की अनुमति के लिए व्यापारी पहाड़ी मुखियाओं को पथकर देते थे, जिसके बदले में मुखिया उनकी सुरक्षा करते थे।

5. अंग्रेजों का हस्तक्षेप : 18वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेजों ने स्थाई कृषि के विस्तार के लिए जंगलों की कटाई का समर्थन किया, जिससे खेती का विस्तार हुआ। अंग्रेज जंगलों को उजाड़ और जंगल में रहने वालों को असभ्य समझते थे, इसलिए उन्होंने वहां स्थाई कृषि स्थापित करने की योजना बनाई। स्थाई कृषि के विस्तार से पहाड़ी लोगों और मैदानी किसानों के बीच झगड़े बढ़ने लगे। पहाड़ी लोग गांवों में हमले करके अनाज और पशु लूटने लगे।

6. अंग्रेजों की प्रतिक्रिया : अंग्रेजों ने पहाड़ी लोगों को नियंत्रित करने का प्रयास किया। 1770 के दशक में अंग्रेज अधिकारियों ने पहाड़ी लोगों का संहार करने की नीति अपनाई, लेकिन 1780 के दशक में अगस्टस क्वींसलैंड ने शांति स्थापना के लिए मुखियाओं को वार्षिक भत्ता देने का प्रस्ताव रखा। कुछ पहाड़ी मुखियाओं ने भत्ता लेने से इनकार कर दिया, और जिन्होंने लिया, उन्होंने अपनी सत्ता खो दी। इस दौरान पहाड़ी लोग अपने आप को सैन्यबलों से बचाने के लिए पहाड़ों के भीतर चले गए। जब बुकानन ने इस क्षेत्र का दौरा किया, तो पहाड़ी लोग अंग्रेजों को संदेह की दृष्टि से देखते थे, क्योंकि अंग्रेज उनके जंगलों को नष्ट कर उनकी जीवन शैली बदलना चाहते थे।

7. संथालों का नया खतरा : उन्हीं दिनों पहाड़ी लोगों के लिए नया खतरा संथालों के रूप में आया, जो जंगलों की कटाई और स्थाई खेती के लिए इलाके में आ गए। संथालों के आगमन से पहाड़ी लोग और अंदरूनी हिस्सों में जाने के लिए मजबूर हुए। पहाड़ी लोग झूम खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे, जबकि संथाल स्थाई खेती के लिए हल का प्रयोग करते थे। इस तरह कुदाल और हल की यह लड़ाई लंबे समय तक चली।



संथाल 

गुंजरिया पहाड़ में संथाल

संथाल लोग 1800 में राजमहल की गुंजरिया पहाड़ियों में आए और जंगलों को काटकर खेती का क्षेत्र बढ़ाया। 1810 में बुकानन गुंजरिया इलाके में पहुंचा और उसने देखा कि क्षेत्र की भूमि खेती के लिए हाल ही में जुताई गई थी, जिससे वह अचंभित रह गया। बुकानन ने लिखा कि मानव श्रम के उचित उपयोग से इस क्षेत्र की काया पलट गई है। उसने कहा कि गुंजरिया को एक शानदार क्षेत्र में बदला जा सकता है और इसकी सुंदरता और समृद्धि विश्व के किसी भी क्षेत्र के बराबर विकसित की जा सकती है। बुकानन ने गुंजरिया की चट्टानी लेकिन उपजाऊ भूमि का विशेष उल्लेख किया और यहां की तंबाकू और सरसों की गुणवत्ता को अत्यंत बढ़िया बताया।

संथाल लोग राजमहल की पहाड़ियों में कैसे पहुंचे ?

1. संथालों का आगमन : संथाल लोग 1780 के दशक में बंगाल में आना शुरू हुए। जमींदार उन्हें खेती के विस्तार के लिए भूमि तैयार करने और जंगल साफ करने के लिए भाड़े पर रखते थे। अंग्रेजों ने पहाड़ी लोगों को स्थाई कृषि में असफल रहने के बाद संथालों की ओर ध्यान दिया। पहाड़ी लोग जंगल काटने और हल से खेती करने को तैयार नहीं थे, जबकि संथाल आदर्श बाशिंदे माने गए क्योंकि वे जंगल साफ करने, हल का प्रयोग करने और स्थाई कृषि करने में संकोच नहीं करते थे।

2. दामिन-इ-कोह का निर्माण : 1832 तक संथालों को राजमहल की तलहटी में बसने के लिए भूमि देकर दामिन-इ-कोह क्षेत्र को उनके लिए सीमांकित किया गया। संथालों को भूमि के अनुदान पत्र में शर्त दी गई कि वे पहले 10 वर्षों में जमीन के 10वें हिस्से को साफ करके जोतेंगे।

3. संथाल बस्तियों का विस्तार : 1838 में संथालों के 40 गांव थे, जो बढ़कर 1851 में 1473 हो गए। इसी अवधि में संथालों की जनसंख्या भी 3000 से बढ़कर 82000 से अधिक हो गई। इस कृषि विस्तार से ब्रिटिश राजस्व में वृद्धि हुई। संथालों के आगमन से पहाड़ी लोगों पर बुरा प्रभाव पड़ा। पहाड़ी लोग झूम खेती करते थे, जिसके लिए उन्हें उपजाऊ भूमि की आवश्यकता थी, लेकिन अब उन्हें पहाड़ियों के भीतर जाना पड़ा, जहां उपजाऊ भूमि कम थी। संथाल अब स्थाई कृषि में संलग्न होकर वाणिज्यिक फसलों की खेती करने लगे और व्यापारियों एवं साहूकारों से लेनदेन करने लगे।

4. संथालों पर कर और कर्ज का प्रभाव : जैसे-जैसे संथालों ने खेती का विस्तार किया, सरकार ने उन पर भारी कर लगा दिया, और साहूकार ऊंची ब्याज दरें वसूलने लगे। कर्ज न चुका पाने पर संथालों की भूमि पर कब्जा कर लिया जाता था, जिससे वे असंतुष्ट हो गए।

5. संथाल विद्रोह (1855-56) : संथालों ने जमींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक राज्य के खिलाफ विद्रोह किया। इसके परिणामस्वरूप 5500 वर्गमील के क्षेत्र में संथाल परगना का गठन किया गया, जिससे संथालों को संतुष्ट करने की उम्मीद की गई।



फ्रांसिस बुकानन

  • बुकानन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कर्मचारी था, जो नक्शा नवीसों, सर्वेक्षकों, और कुलियों के साथ यात्रा करता था। उसकी यात्राओं का खर्च कंपनी उठाती थी, जिसके बदले में वह जानकारी एकत्र करता था।
  • बुकानन को कंपनी से साफ निर्देश दिए गए थे कि उसे क्या देखना, खोजना और लिखना है। कंपनी का उद्देश्य था प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित कर उनका उपयोग अपने लाभ के लिए करना।
  • कंपनी की शक्ति और व्यवसाय में वृद्धि के साथ, उसने राजस्व स्रोतों का सर्वेक्षण शुरू किया, जिसके लिए बुकानन ने भूगोलवेत्ताओं, भू-विज्ञानियों, वनस्पति विज्ञानियों और चिकित्सकों को जानकारी जुटाने के लिए भेजा।
  • बुकानन ने जहां भी यात्रा की, वहां की भूमि के विभिन्न स्तरों, पत्थरों, चट्टानों, और वाणिज्यिक दृष्टि से मूल्यवान खनिजों की खोज की। उसने लौह, खनिज, और ग्रेनाइट के संभावित स्थलों का भी पता लगाया।
  • बुकानन न केवल अपनी खोज का वर्णन करता था, बल्कि यह भी सुझाव देता था कि भूमि को अधिक उत्पादक कैसे बनाया जा सकता है, कौन सी फसलें उगाई जा सकती हैं, और कौन से पेड़ काटे जा सकते हैं। उसने वन को कृषि भूमि में बदलने का सुझाव दिया, जिससे कंपनी की राजस्व आय बढ़ाई जा सके।


देहात में विद्राह बम्बई दक्कन

औपनिवेशिक काल में बंगाल और बंबई दक्कन के किसानों में बड़े बदलाव हो रहे थे, जिससे वे असंतोष से भर गए। 19वीं शताब्दी में किसानों ने साहूकारों और व्यापारियों के शोषण के खिलाफ कई विद्रोह किए, जिसमें बंबई दक्कन का 1875 का विद्रोह प्रमुख था। इस विद्रोह के पीछे किसानों का अन्याय के प्रति आक्रोश और उनकी स्थिति सुधारने की कोशिश थी। राज्य ने विद्रोह को दबाने और उसके कारणों को समझने के लिए जांचें कीं, जिनसे मिले अभिलेख इतिहासकारों के लिए महत्त्वपूर्ण स्रोत बने।


1. लेखा बहियाँ जला दी गई

  • सूपा में विद्रोह की शुरुआत 12 मई 1875 को पुणे जिले के सूपा गाँव से किसान आंदोलन शुरू हुआ। किसान साहूकारों पर हमला कर उनकी बही-खाते और ऋणपत्रों को जलाने लगे। कई जगहों पर साहूकारों के घर और अनाज की दुकानें भी लूटी गईं।
  • सूपा से शुरू होकर यह विद्रोह अहमदनगर तक फैला और दो महीनों में 6,500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के 30 से अधिक गाँवों में फैल गया। साहूकारों को गाँव छोड़कर भागना पड़ा।
  • किसान साहूकारों से अत्यधिक ब्याज पर ऋण लेते थे, जिससे वे ऋण के जाल में फंस गए। साहूकारों का दबदबा बढ़ने से किसान अपनी भूमि और जीवन पर नियंत्रण खो रहे थे।
  • किसान ऋण और शोषण से छुटकारा पाने के लिए ऋणपत्रों और दस्तावेजों को जला रहे थे।
  • ब्रिटिश अधिकारियों ने विद्रोह को गंभीरता से लिया, गाँवों में पुलिस थाने और सेना तैनात की, 95 लोगों को गिरफ्तार किया, लेकिन इसे काबू करने में महीनों लगे।


2. एक नयी राजस्व प्रणाली (रैयतवाड़ी प्रणाली)

  • ब्रिटिश शासन के विस्तार के साथ, अन्य क्षेत्रों में बंगाल की तरह स्थायी बंदोबस्त प्रणाली नहीं अपनाई गई। इसका मुख्य कारण यह था कि 1810 के बाद कृषि उत्पादों की कीमतें बढ़ीं, जिससे जमींदारों की आय बढ़ी, पर सरकार इसमें हिस्सेदारी नहीं ले सकी क्योंकि राजस्व स्थायी रूप से तय था। इस कारण, नए क्षेत्रों में ऐसी राजस्व नीतियाँ बनाई गईं, जिनमें समायोजन संभव था।
  • ब्रिटिश अधिकारियों ने इंग्लैंड के आर्थिक सिद्धांतों से प्रभावित होकर नीतियाँ बनाईं। 1820 के दशक में डेविड रिकार्डो के सिद्धांतों का असर था, जिसमें कहा गया कि भूस्वामी को औसत लगान ही मिलना चाहिए और अधिशेष आय पर कर लगाया जाना चाहिए ताकि किसान भूमि सुधार में निवेश कर सकें। बंगाल के जमींदार, स्थायी बंदोबस्त के कारण, केवल किरायाजीवी बन गए और भूमि सुधार में निवेश नहीं किया। इससे यह प्रणाली अन्य क्षेत्रों के लिए अनुपयुक्त मानी गई।
  • बंबई दक्कन में रैयतवाड़ी प्रणाली अपनाई गई, जिसमें राजस्व राशि सीधे किसान (रैयत) के साथ तय की जाती थी और इसे हर 30 साल में समायोजित किया जाता था। हालांकि, इस प्रणाली में कड़ी राजस्व माँग के कारण किसानों पर ऋण का बोझ बढ़ता गया। कुछ अधिकारियों ने इसे अत्यधिक कठोर माना और बाद में इसमें नरमी लाई गई।
  • 1845 के बाद कृषि उत्पादों की कीमतों में वृद्धि से किसानों को खेती का विस्तार करने का प्रोत्साहन मिला, लेकिन इसके लिए उन्हें साहूकारों से ऋण लेना पड़ा, जिससे उनका कर्ज और बढ़ गया।



3. फिर कपास में तेजी आई

  • 1860 के दशक से पहले ब्रिटेन में कच्चे कपास का तीन-चौथाई हिस्सा अमेरिका से आता था। ब्रिटिश कपड़ा उद्योग लंबे समय से इस निर्भरता के कारण चिंतित था, क्योंकि किसी संकट की स्थिति में उनकी आपूर्ति बाधित हो सकती थी।
  • इस आपूर्ति की समस्या का समाधान खोजने के लिए ब्रिटेन ने 1857 में कपास आपूर्ति संघ और 1859 में मैनचेस्टर कॉटन कंपनी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य विभिन्न देशों में कपास उत्पादन को प्रोत्साहित करना था।
  • भारत को एक वैकल्पिक आपूर्तिकर्ता के रूप में देखा गया, क्योंकि यहाँ की भूमि, जलवायु, और सस्ता श्रम कपास उत्पादन के लिए उपयुक्त था।
  • 1861 में अमेरिकी गृहयुद्ध छिड़ने से अमेरिका से कच्चे कपास के आयात में भारी कमी आई, जो 20 लाख गांठों से घटकर केवल 55 हजार गांठें रह गया। इससे ब्रिटेन में कपास संकट उत्पन्न हो गया और भारत सहित अन्य देशों को अधिक कपास निर्यात करने का संदेश भेजा गया।
  • बंबई के कपास व्यापारियों ने कपास की कीमतों में आई तेजी का फायदा उठाते हुए अधिक मात्रा में कपास खरीदना शुरू किया और शहरी साहूकारों को ऋण देकर किसानों तक अधिक ऋण उपलब्ध कराया।
  • कपास की बढ़ती कीमतों के कारण दक्कन के गाँवों के किसानों को अचानक असीमित ऋण मिलने लगा। साहूकार भी लंबी अवधि के लिए ऋण देने के लिए तैयार हो गए।
  • 1860 से 1864 के बीच दक्कन में कपास की खेती के क्षेत्र में दो गुना वृद्धि हुई। 1862 तक ब्रिटेन के कुल कपास आयात का 90 प्रतिशत भारत से आने लगा।
  • कपास उत्पादन में तेजी के बावजूद सभी किसानों को इसका लाभ नहीं हुआ। केवल कुछ धनी किसानों को लाभ मिला, जबकि अधिकांश किसान ऋण के जाल में फंस गए और कर्ज के बोझ से और अधिक दब गए।


4. ऋण का स्त्रोत सूख गया

  • कपास के व्यापार में तेजी के दौरान भारतीय व्यापारी उम्मीद कर रहे थे कि वे अमेरिका को हटाकर विश्व बाजार में कच्चे कपास के एकमात्र आपूर्तिकर्ता बन सकते हैं। 1861 में बंबई गजट के संपादक ने भी आशा जताई थी कि भारत लंकाशायर के लिए कपास का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बनेगा। लेकिन 1865 में अमेरिकी गृहयुद्ध के बाद अमेरिका में कपास उत्पादन फिर से शुरू हो गया, जिससे भारतीय कपास की माँग घटने लगी और भारतीय व्यापारियों की उम्मीदें टूट गईं।
  • कपास की माँग और कीमतों में गिरावट से महाराष्ट्र के व्यापारी और साहूकार किसानों को लंबी अवधि के ऋण देने से कतराने लगे। उन्होंने बकाया ऋण की वापसी की माँग की और नए अग्रिम देना बंद कर दिया। इस बीच, पुराने राजस्व बंदोबस्त की अवधि समाप्त होने पर, नई राजस्व माँग 50-100% तक बढ़ा दी गई। गिरती कीमतों और उत्पादन के बीच किसानों के लिए इस बढ़ी हुई माँग को पूरा करना कठिन हो गया।
  • इस संकट में किसानों को फिर से ऋण की आवश्यकता हुई, लेकिन साहूकारों ने उन्हें ऋण देने से इनकार कर दिया, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और बिगड़ गई। कठोर राजस्व नीतियों और साहूकारों की ऋण बंदी ने किसानों को गंभीर संकट में डाल दिया।



5. अन्याय का अनुभव

  • किसान (रैयत) इस बात से नाराज थे कि, ऋण पर निर्भर होने के बावजूद, ऋणदाता उनके प्रति संवेदनहीन थे और ग्रामीण परंपराओं का उल्लंघन कर रहे थे। पहले ऋण पर ब्याज एक सीमा तक ही होता था, लेकिन औपनिवेशिक शासन में यह नियम टूट गया। कई ऋणदाताओं ने 100 रुपये के ऋण पर 2000 रुपये का ब्याज लगाया।
  • किसान ऋणदाताओं को धोखेबाज मानने लगे, क्योंकि वे खातों में हेरफेर करते और कानूनी दस्तावेजों के माध्यम से किसानों का शोषण करते थे। किसानों ने आरोप लगाया कि ऋणदाता बांड में धोखाधड़ी करते, फसलें सस्ते दाम पर खरीदते और संपत्तियों पर कब्जा कर लेते थे।
  • ऋणपत्रों के नियमों के बावजूद, ऋणदाता हर तीन साल बाद एक नया बांड बनवाते और पुराने ब्याज को नए मूलधन में जोड़ देते, जिससे ब्याज बढ़ता गया। औपनिवेशिक अधिकारियों ने अनौपचारिक लेन-देन पर संदेह करते हुए, किसानों से कानूनी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवाए, जिन्हें वे ठीक से समझ नहीं पाते थे।
  • समय के साथ, किसान इन कानूनी दस्तावेजों से डरने लगे, परंतु जीवित रहने के लिए उन्हें ऋणदाताओं की शर्तें माननी पड़ीं। दस्तावेज उनके शोषण का प्रतीक बन गए और इस व्यवस्था में फंसकर वे लगातार पीड़ित होते गए।



6. दक्कन दंगा आयोग

  • जब दक्कन में विद्रोह फैला, तो बंबई सरकार ने शुरू में इसे गंभीरता से नहीं लिया। परंतु 1857 के विद्रोह की याद से चिंतित होकर भारत सरकार ने बंबई सरकार पर दबाव डाला कि दंगों के कारणों की जाँच के लिए एक आयोग स्थापित करे।
  • इस जाँच आयोग की रिपोर्ट, जिसे "दक्कन दंगा रिपोर्ट" कहा जाता है, 1878 में ब्रिटिश संसद में पेश की गई और यह इतिहासकारों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत बनी। आयोग ने दंगा प्रभावित जिलों में जाकर किसानों, साहूकारों, और गवाहों के बयान लिए और राजस्व दर, कीमतें, ब्याज दरें आदि का विश्लेषण किया।
  • रिपोर्ट में सरकारी दृष्टिकोण साफ झलकता है, जो अपनी नीतियों की आलोचना करने से बचती है। आयोग ने निष्कर्ष दिया कि किसानों के असंतोष का कारण सरकारी राजस्व माँग नहीं, बल्कि साहूकारों की नीतियाँ थीं। इससे पता चलता है कि औपनिवेशिक सरकार जनता के असंतोष का कारण अपनी नीतियों को नहीं मानती थी, बल्कि दोष साहूकारों पर डालती थी।








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