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देव हँसी की चोट सपना दरबार kavita 3 antra class 11 vyakhya


     देव     


हँसी की चोट 


साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नीर गयो ढरि। 
तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि।। 
'देव' जियै मिलिबेही की आस कि, आसहू पास अकास रह्यो भरि। 
जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि।।


संदर्भ : 

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा' (भाग-1) में संकलित शीर्षक 'हँसी की चोट' से अवतरित है। इसके रचयिता महाकवि 'देव' हैं।


प्रसंग :  

प्रस्तुत पद में कवि ने प्रिय (कृष्ण) के वियोग में पीड़ित गोपी की विरह दशा का मार्मिक वर्णन किया है।


व्याख्या :

  • नायक कृष्ण ने किसी समय गोपियों की तरफ हँसते हुए देखा था। कृष्ण की उसी हँसी ने गोपियों के मन को हर लिया अर्थात् चुरा लिया। जिस दिन से नायिका के हृदय का अपहरण हुआ है, तब से ही कृष्ण ने गोपियों से मुख फेर लिया।कृष्ण के मुँह फेर लेने से वे अब हँसना भूल गई हैं। 
  • वियोग के दुःखद स्थिति में गोपियों के शरीर में स्थित पाँचों तत्त्व एक-एक कर निकल रहे हैं। विरह में दुःख के कारण वे लंबी-लंबी (गहरी-गहरी) सांसें ले रहीं हैं, जिससे उनके शरीर के पाँच तत्त्वों में से वायु तत्त्व चला गया।कृष्ण के वियोग में दुःख के कारण आँखों से निरंतर बहते आँसुओं के रूप में गिरती जल के बूँदों के शरीर से निकलने के कारण शरीर से जल तत्त्व बाहर निकल रहा है। 
  • कृष्ण के विरह में उनके निस्तेज़ हो जाने से तेज के रूप में अग्नि तत्त्व उनके शरीर से बाहर चला गया। वियोग में प्रिय के न रहने पर शरीर की दुर्बलता के कारण शरीर से पृथ्वी तत्त्व चला गया। कवि देव कह रहे हैं कि पाँच तत्त्वों से निर्मित उनके शरीर से चार तत्त्व निकल गए, किंतु कृष्ण से मिलने की आशा में, प्राण अभी तक शरीर से नहीं निकला है।
  • कृष्ण से मिलने की इस आशा से आसपास आकाश तत्त्व रुका है अन्यथा उसके भी निकल जाने पर गोपियों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। कृष्ण के वियोग में, उनको अपना हृदय देने वाली इन गोपियों को अत्यंत दुःख हो रहा है। इसलिए वे हँसना भूल गई हैं।



   सपना   


झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,
 घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में। 
आनि कह्यो स्याम मो सौं 'चलौ झूलिबे को आज’
 फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं।। 
चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,
 सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में। 
आँख खोलि देखौं तौ न घन हैं, न घनश्याम, 
वेई छाई बूँदें मेरे आँसु है दृगन में।


संदर्भ : 

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा' (भाग-1) में संकलित 'सपना' शीर्षक से अवतरित है। इसके रचयिता महाकवि 'देव' हैं।

प्रसंग : 

प्रस्तुत पद में कवि ने गोपी (नायिका) के स्वप्न का मनोहारी चित्र खींचा है।


व्याख्या :

  • कवि कहता है कि गोपी स्वप्न में बारिश की बूँदों को देख रही हैं, जहाँ पृथ्वी पर वर्षा की हल्की-हल्की बूँदें पड़ रही हैं। आकाश बादलों से घिरा हुआ है। ऐसे वातावरण में श्रीकृष्ण गोपी से कहते हैं चलो आज झूलने के लिए चलते हैं।
  • श्रीकृष्ण के यह वचन सुनकर उसकी प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं रहता, क्योंकि आज उसे श्रीकृष्ण के साथ झूलने का अवसर प्राप्त हुआ था। 
  • नींद उचटने के कारण उसकी यह प्रसन्नता अधिक समय तक रह न सकी।गोपी जाग गई और स्वप्न भंग हो गया। वह स्वप्न में ही सही कृष्ण के साथ झूलने का सुख प्राप्त न कर सकी।
  • गोपी कह रही है कि उसे ऐसा लग रहा है मानो उसका भाग्य उसके जागने से सो गया हो। श्रीकृष्ण के साथ उसका मिलन होते-होते रह गया। वह आँख खुलने के कारण श्रीकृष्ण के साथ झूलने का सुख न पा सकी।
  • जब उसने आँखें खोलीं तो देखा कि न तो कहीं बादल थे और न ही कहीं श्रीकृष्ण। सपने में बादलों से बरसती बूँदों के स्थान पर उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गईअर्थात् स्वप्न के भंग होने पर गोपी रोने लगी, क्योंकि वह संयोगावस्था में पहुँचते-पहुँचते वियोगावस्था में आ चुकी थी।



  दरबार   

साहिब अंध, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो। 
भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो। 
भेष न सूझ्यो, कह्यो समझ्यो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।
'देव' तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो ।।


संदर्भ : 

प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा' (भाग-1) में संकलित शीर्षक 'दरबार' से अवतरित है। इसके रचयिता महाकवि 'देव' हैं।


प्रसंग:

प्रस्तुत पद में कवि ने रीतिकालीन रास-रंग की दरबारी संस्कृति का वर्णन किया है। उस समय राजा और उसके दरबारी देश एवं समाज की चिंता किए बिना रास-रंग में डूबे रहते थे।


व्याख्या : 

  • देव कवि ने अनेक आश्रयदाताओं व राजाओं के दरबार को देखा था। वहाँ कवि को अनेक प्रकार की अनुभूतियाँ हुईं। उनका वर्णन करते हुए कवि कह रहे हैं कि राजा ज्ञानशून्य है अर्थात् उनके ज्ञानचक्षु बंद हैं।
  • राजा के दरबारी भय के कारण राजा की चापलूसी में लगे रहने के कारण अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में असमर्थ हैं। वे गूँगे के समान राजा की हाँ-में-हाँ मिलाते हैं, दरबार के सभासद बहरे हैं।
  • दरबार अच्छे-बुरे का भेद करने में असमर्थ हैं। दरबारी एवं राजा कलाकारों के सौंदर्य एवं कला के पारखी नहीं हैं। वे भोग-विलास में डूबे रहते हैं।वे कला की गहराई में जाना ही नहीं चाहते हैं। इसलिए दरबार में आनंद एवं प्रसन्नता का वातावरण नहीं है।
  • ऐसी स्थिति में यदि दरबार में भूले-भटके कोई कलाकार आ जाए, तो यह मार्ग उसके लिए कला के प्रदर्शन के लिए सरल मार्ग नहीं अपितु दुर्गम मार्ग ही होगा, क्योंकि दरबार में कलाकार की कोई कद्र नहीं होगी, कोई उसका साथ नहीं देगा। दरबार में न तो किसी को वेश से पहचाना जाता है और न किसी की कही हुई बात को कोई समझने वाला है।
  • कोई कुछ बताना भी चाहे तो दरबार में उसे कोई सुनता नहीं है। ऐसे में कोई कैसे अपनी रुचियों को अभिव्यक्त करे।दरबार में अपनी कला का प्रदर्शन करना ठीक वैसा ही होगा जैसे प्रतिभा से भटका हुआ कोई कलाकार अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन सारी रात करता रहा हो, लेकिन उस कलाकार की कला का आनंद लेने वाला कोई न हो।


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