सूरदास कविता 2 खेलन में को काको गुसैयाँ मुरली तऊ गुपालहिं भावति hindi antara book
0Eklavya Study Pointसितंबर 14, 2024
सूरदास
(1)
खेलन में को काको गुसैयाँ। हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैयाँ। जाति-पाँति हमतें बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ। अति अधिकार जनावत यातै जातैं अधिक तुम्हारै गैयाँ। रूठहि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ। सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाऊँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ।
संदर्भ :
प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा' (भाग-1) में संकलित है। इसके रचयिता सगुणोपासक कृष्णभक्त कवि सूरदास जी हैं।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन किया है। वे हारकर भी अपनी हार को स्वीकार नहीं करना चाहते, किंतु ग्वाल-बाल सखा ऐसा नहीं होने देते हैं।
व्याख्या :
सूरदास जी कहते हैं कि सुदामा के साथ खेल खेलते समय कृष्ण सुदामा से पराजित होकर व्यर्थ में ही अपना क्रोध व्यक्त करने लगे।
इस पर ग्वाल-बाल और सुदामा कहते हैं कि खेल में कोई किसी का स्वामी नहीं होता, तुम जाति में हमसे बड़े हो, तो तुम्हारी जाति-पाँति हमसे बड़ी नहीं है और न ही हम तुम्हारे आश्रय में रहते हैं यदि तुमको इस बात का घमंड है कि तुम नंद बाबा के पुत्र हो, तो हम भी उनसे जाति-बिरादरी में नीचे नहीं हैं।
नंद बाबा भी अहीर हैं और हम भी अहीर हैं, अतः हम तुम्हारे अधीन नहीं आते हैं।आगे वे कहते हैं कि तुम इस बात पर अधिकार दिखा रहे हो कि तुम्हारे पास हमसे अधिक गायें हैं, तो इसे हम स्वीकार नहीं करते, जो खेल में बेइमानी करता है अथवा क्रोधित होता है उसके साथ खेलना उचित नहीं।
अतः सभी साथी, जहाँ-तहाँ बैठ गए, खेल रुक गया।कृष्ण खेलना चाहते हैं।सूरदास जी कहते हैं कि ऐसी स्थिति में कृष्ण ने अपनी हार स्वीकार करके और आगे ऐसा व्यवहार न करने के लिए नंद बाबा की सौगंध खाकर दाँव देना स्वीकार कर लिया।
(2)
मुरली तऊ गुपालहिं भावति। सुनि री सखी जदपि नंदलालहिं, नाना भाँति नचावति। राखति एक पाई ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति। कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टेढ़ौ है आवति। अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नार नवावति। आपुन पौढ़ि अधर सज्जा पर, कर पल्लव पलुटावति। भृकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप करावति। सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन्न, धर तें सीस डुलावति।
प्रसंग :
प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने गोपियों का मुरली के प्रति ईर्ष्या-भाव दिखाया है। गोपियाँ मुरली को अपनी सौत समझती हैं। मुरली सदैव कृष्ण के पास ही रहती थी। अतः श्रीकृष्ण का मुरली के प्रति समर्पण भाव देखकर गोपियाँ व्याकुल हो उठती हैं।
व्याख्या :
एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! श्रीकृष्ण की यह मुरली उन्हें अनेक प्रकार से परेशान करती है, फिर भी यह श्रीकृष्ण को प्रिय है।
सखी मुरली के बारे में चर्चा करते हुए कहती है कि यह बाँसुरी श्रीकृष्ण को एक पैर पर खड़े रहने के लिए बाध्य कर देती है अर्थात् मुरली बजाते समय कृष्ण को एक पैर पर खड़ा करके यह मुरली अपने अधिकारों की महत्ता को व्यक्त करती है।
कृष्ण बालक है यह मुरली श्रीकृष्ण के कोमल शरीर से मनमाने कार्य करवाती है, जिसके परिणामस्वरूप कृष्ण की कमर टेढ़ी (त्रिभंगी मुद्रा) हो गई है। यह मुरली रूपी नारी उन श्रीकृष्ण की गर्दन को झुका देती है, जिन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठाया था। जो इंद्र के सम्मुख नहीं झुका, उसे नारी झुका देती है।
आश्चर्य तो तब होता है जब मुरली स्वयं उनके होठों की शैय्या पर लेटकर उनके पल्लव के समान कोमल हाथों से अपने पैर दबवाती है मुरली के इतने कृतज्ञ हैं कि अपनी गर्दन तक झुका देते हैं।जिस समय श्रीकृष्ण मुरली बजाते हैं उनकी भौंहें टेढ़ी हो जाती हैं, आँखें लाल हो जाती हैं तथा नथुने फूल जात हैं।
इस तरह मुरली श्रीकृष्ण से उन पर क्रोध करवाती है सूरदास जी कहते हैं कि इसके बाद भी श्रीकृष्ण की ऐसी स्थिति है यदि मुरली एक पल के लिए प्रसन्न हो जाती है तो कृष्ण भी उसके प्रति आनन्दित होकर झूमने लगते हैं।