बेल्जियम और श्री लंका
1. बेल्जियम ( यूरोप महाद्वीप )
- राजधानी - ब्रुसेल्स
1. बेल्जियम में तीन समुदाय रहते हैं
1. फ्लेमिश – डच भाषा
2. वेलोन – फ्रेंच भाषा
3. जर्मन – जर्मन भाषा
- बेल्जियम यूरोप महाद्वीप का एक छोटा-सा देश है, यह क्षेत्रफल में हमारे हरियाणा राज्य से भी छोटा।
- बेल्जियम की सीमाएँ फ्रांस, नीदरलैंड, जर्मनी और लक्समबर्ग से लगती हैं।
- इसकी आबादी एक करोड़ से थोड़ी अधिक है हमारे हरियाणा की आबादी से लगभग आधी।
2. बेल्जियम का समाज
- बेल्जियम छोटा सा देश है लेकिन इसके समाज की जातीय बनावट बहुत जटिल है।
- बेल्जियम देश की कुल आबादी का 59 % हिस्सा फ्लेमिश इलाके में रहता है और डच भाषा बोलता है।
- शेष 40 % लोग वेलोनिया क्षेत्र में रहते हैं और फ्रेंच भाषा बोलते हैं।
- शेष 1 % लोग जर्मन भाषा बोलते हैं
- राजधानी ब्रसेल्स के 80 फ़ीसदी लोग फ्रेंच और 20 फ़ीसदी लोग डच भाषा बोलते है
3. बेल्जियम में समस्या
- अल्पसंख्यक फ्रेंच भाषी लोग तुलनात्मक रूप से ज़्यादा समृद्ध और ताकतवर हैं।
- बहुत बाद में जाकर आर्थिक विकास और शिक्षा का लाभ पाने वाले डच-भाषी लोगों को इस स्थिति से नाराज़गी थी।
- 1950 और 1960 के दशक में फ्रेंच और डच बोलने वाले समूहों के बीच तनाव बढ़ने लगा।
- इन दोनों समुदायों के टकराव का सबसे तीखा रूप ब्रूसेल्स में दिखा। यह एक विशेष तरह की समस्या थी।
- डच बोलने वाले लोग संख्या के हिसाब से अपेक्षाकृत ज्यादा थे लेकिन धन और समृद्धि के मामले में कमज़ोर थे।
2. श्री लंका
1. श्रीलंका की स्थति
- श्रीलंका एक द्वीपीय देश है जो तमिलनाडु के दक्षिणी तट से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
- इसकी आबादी लगभग दो करोड़ है अर्थात हरियाणा के बराबर।
- दक्षिण एशिया के अन्य देशों की तरह श्रीलंका की आबादी में भी कई जातीय समूहों के लोग हैं।
- सबसे प्रमुख सामाजिक समूह सिंहलियों का है
- जिनकी आबादी कुल जनसंख्या की 74 फ़ीसदी है। फिर तमिलों का नंबर आता है
- जिनकी आबादी कुल जनसंख्या में 18 फ़ीसदी है।
- तमिल लोग श्रीलंकाई मूल के तमिल 13 %
- हिंदुस्तानी तमिल औपनिवेशिक शासनकाल में बागानों में काम करने के लिए भारत से लाए गए लोगों की संतान हैं।
2. श्रीलंका में बहुसंख्यकवाद
- सन् 1948 में श्रीलंका स्वतंत्र राष्ट्र बना।
- श्री लंका का पुराना नाम सिलोन था
- सिंहली समुदाय के नेताओं ने अपनी बहुसंख्या के बल पर शासन पर प्रभुत्व जमाना चाहा।
- इस वजह से लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार ने सिंहली समुदाय की प्रभुता कायम करने के लिए अपनी बहुसंख्यक - परस्ती के तहत कई कदम उठाए।
- 1956 में एक कानून बनाया गया जिसके तहत तमिल को दरकिनार करके सिंहली को एकमात्र राजभाषा घोषित कर दिया गया।
- विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में सिंहलियों को प्राथमिकता देने की नीति भी चली।
- नए संविधान में यह प्रावधान भी किया गया कि सरकार बौद्ध मत को संरक्षण और बढ़ावा देगी।
- एक-एक करके आए इन सरकारी फ़ैसलों ने श्रीलंकाई तमिलों की नाराज़गी और शासन को लेकर उनमें बेगानापन बढ़ाया।
- उन्हें लगा कि बौद्ध धर्मावलंबी सिंहलियों के नेतृत्व वाली सारी राजनीतिक पार्टियाँ उनकी भाषा और संस्कृति को लेकर असंवेदनशील हैं।
- उन्हें लगा कि संविधान और सरकार की नीतियाँ
- उन्हें समान राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर रही हैं।
- नौकरियों और फ़ायदे के अन्य कामों में उनके साथ भेदभाव हो रहा है
- उनके हितों की अनदेखी की जा रही है।
- परिणाम यह हुआ कि तमिल और सिंहली समुदायों के संबंध बिगड़ते चले गए।
3. श्रीलंका में समस्या
- श्रीलंकाई तमिलों ने अपनी राजनीतिक पार्टियाँ बनाई तमिल को राजभाषा बनाने क्षेत्रीय स्वायत्तता हासिल करने शिक्षा और रोज़गार में समान अवसरों की माँग को लेकर संघर्ष किया।
- लेकिन तमिलों की आबादी वाले इलाके की स्वायत्तता की उनकी माँगों को लगातार नकारा गया।
- 1980 के दशक तक उत्तर-पूर्वी श्रीलंका में स्वतंत्र तमिल ईलम (सरकार) बनाने की माँग को लेकर अनेक राजनीतिक संगठन बने।
- श्रीलंका में दो समुदायों के बीच पारस्परिक अविश्वास ने बड़े टकराव का रूप ले लिया। यह टकराव गृहयुद्ध में बदल गया ।
- इसका परिणाम यह हुआ की दोनों पक्ष के हज़ारों लोग मारे गये अनेक परिवार अपने मुल्क से भागकर शरणार्थी बन गए हैं।
- इससे भी कई गुना ज्यादा लोगों की रोजी-रोटी चौपट हो गई है।
- वहाँ के गृहयुद्ध से सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में काफ़ी परेशानियाँ पैदा हुई हैं।
- 2009 में इस गृहयुद्ध का अंत हुआ।
बेल्जियम की समझदारी
- बेल्जियम के नेताओं ने श्रीलंका से अलग रास्ता अपनाने का फैसला किया।
- उन्होंने क्षेत्रीय अंतरों और सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार किया।
- 1970 और 1993 के बीच उन्होंने अपने संविधान में चार संशोधन सिर्फ़ इस बात के लिए किए कि
- देश में रहने वाले किसी भी आदमी को बेगानेपन का अहसास न हो और सभी मिल-जुलकर रह सकें।
- उन्होंने इसके लिए जो व्यवस्था की वह बहुत ही कल्पनाशील है तथा कोई और देश ऐसा नहीं कर पाया।
1. बेल्जियम के मॉडल की कुछ मुख्य बातें
- संविधान में इस बात का स्पष्ट प्रावधान है कि केंद्रीय सरकार में डच और फ्रेंच भाषी मंत्रियों की संख्या समान रहेगी।
- कुछ विशेष कानून तभी बन सकते हैं जब दोनों भाषायी समूह के सांसदों का बहुमत उसके पक्ष में हो।
- इस प्रकार किसी एक समुदाय के लोग एकतरफा फ़ैसला नहीं कर सकते।
2. शक्तियाँ की शाझेदारी
- केंद्र सरकार की अनेक शक्तियाँ देश के दो इलाकों की क्षेत्रीय सरकारों को सुपुर्द कर दी गई हैं यानी राज्य सरकारें केंद्रीय सरकार के अधीन नहीं हैं।
- ब्रूसेल्स में अलग सरकार है और इसमें दोनों समुदायों का समान प्रतिनिधित्व है।
- फ्रेंच-भाषी लोगों ने ब्रूसेल्स में समान प्रतिनिधित्व के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया क्योंकि डच भाषी लोगों ने केंद्रीय सरकार में बराबरी का प्रतिनिधित्व स्वीकार किया था।
- केंद्रीय और राज्य सरकारों के अलावा यहाँ एक तीसरे स्तर की सरकार भी काम करती है यानी सामुदायिक सरकार।
- इस सरकार का चुनाव एक ही भाषा बोलने वाले लोग करते हैं।
- डच, फ्रेंच और जर्मन बोलने वाले समुदायों के लोग चाहे वे जहाँ भी रहते हों, इस सामुदायिक सरकार को चुनते हैं।
- इस सरकार को संस्कृति, शिक्षा और भाषा जैसे मसलों पर फ़ैसले लेने का अधिकार है।
बेल्जियम की वर्तमान स्थिति
- आपको बेल्जियम का मॉडल कुछ जटिल लग सकता है। सच में यह बहुत जटिल है-खुद बेल्जियम में रहने वालों के लिए भी।
- पर यह व्यवस्था बेहद सफल रही है , इससे मुल्क में गृहयुद्ध की आशंकाओं पर विराम लग गया है वरना गृहयुद्ध की स्थिति में बेल्जियम भाषा के आधार पर दो टुकड़ों में बँट गया होता।
- जब अनेक यूरोपीय देशों ने साथ मिलकर यूरोपीय संघ बनाने का फैसला किया तो ब्रूसेल्स को उसका मुख्यालय चुना गया।
बेल्जियम और श्री लंका की सत्ता की साझेदारी की तुलना
- बेल्जियम और श्रीलंका की इन कथाओं से हमें क्या शिक्षा मिलती है ?
- दोनों ही देश लोकतांत्रिक हैं। फिर भी सत्ता में साझेदारी के सवाल को उन्होंने अलग-अलग ढंग से निपटाने की कोशिश की।
- बेल्जियम के नेताओं को लगा कि विभिन्न समुदाय और क्षेत्रों की भावनाओं का आदर करने पर ही देश की एकता संभव है।
- इस एहसास के चलते दोनों पक्ष सत्ता में साझेदारी करने पर सहमत हुए।
- श्रीलंका में ठीक उलटा रास्ता अपनाया गया। इससे यह पता चलता है कि अगर बहुसंख्यक समुदाय दूसरों पर प्रभुत्व कायम करने और सत्ता में उनको हिस्सेदार न बनाने का फैसला करता है तो इससे देश की एकता ही संकट में पड़ सकती है।
सत्ता की साझेदारी क्यों ज़रूरी है ?
सत्ता के बँटवारे के पक्ष में दो तरह के तर्क दिए जा सकते हैं।
पहला
- सत्ता का बँटवारा ठीक है क्योंकि इससे विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच टकराव का अंदेशा कम हो जाता है क्योंकि सामाजिक टकराव आगे बढ़कर अक्सर हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता का रूप ले लेता है इसलिए सत्ता में हिस्सा दे देना राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व के लिए अच्छा है।
- बहुसंख्यक समुदाय की इच्छा को बाकी सभी पर थोपना तात्कालिक तौर पर लाभकारी लग सकता है पर आगे चलकर यह देश की अखंडता के लिए घातक हो सकता है। बहुसंख्यकों का अत्याचार सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए ही परेशानी पैदा नहीं करता अक्सर यह बहुसंख्यकों के लिए भी हानिकारक होता है।
- बहुसंख्यक समुदाय की इच्छा को बाकी सभी पर थोपना तात्कालिक तौर पर लाभकारी लग सकता है पर आगे चलकर यह देश की अखंडता के लिए घातक हो सकता है।
- बहुसंख्यकों का अत्याचार सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए ही परेशानी पैदा नहीं करता अक्सर यह बहुसंख्यकों के लिए भी हानिकारक होता है।
दूसरा
- सत्ता का बँटवारा लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए ठीक है सत्ता की साझेदारी लोकतंत्र की आत्मा है।
- लोकतंत्र का मतलब ही होता है कि जो लोग इस शासन-व्यवस्था के अंतर्गत हैं उनके बीच सत्ता को बाँटा जाए इसलिए, वैध सरकार वही है जिसमें अपनी भागीदारी के माध्यम से सभी समूह शासन व्यवस्था से जुड़ते हैं।
सत्ता की साझेदारी के रूप
- पहले ऐसा माना जाता था कि राजनीतिक सत्ता का बँटवारा नहीं किया जा सकता ।
- इसी धारणा के विरूद्ध सत्ता की साझेदारी का विचार सामने आया था।
- लंबे समय से यही मान्यता चली आ रही थी कि सरकार की सारी शक्तियाँ एक व्यक्ति या किसी खास स्थान पर रहने वाले व्यक्ति-समूह के हाथ में रहनी चाहिए।
- अगर फ़ैसले लेने की शक्ति बिखर गई तो तुरंत फैसले लेना और उन्हें लागू करना संभव नहीं होगा।
- लेकिन, लोकतंत्र का एक बुनियादी सिद्धांत है कि जनता ही सारी राजनीतिक शक्ति का स्रोत है।
- इसमें लोग स्व-शासन की संस्थाओं के माध्यम से अपना शासन चलाते हैं।
- एक अच्छे लोकतांत्रिक शासन में समाज के विभिन्न समूहों और उनके विचारों को उचित सम्मान दिया जाता है और सार्वजनिक नीतियाँ तय करने में सबकी बातें शामिल होती हैं
- इसलिए उसी लोकतांत्रिक शासन को अच्छा माना जाता है जिसमें ज्यादा से ज्यादा नागरिकों को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदार बनाया जाए।
आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अनेक रूप हो सकते हैं।
1. सत्ता का क्षैतिज वितरण
- शासन के विभिन्न अंग, जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सत्ता का बंटवारा रहता है।
- इसे हम सत्ता का क्षैतिज वितरण कहेंगे क्योंकि इसमें सरकार के विभिन्न अंग एक ही स्तर पर रहकर अपनी-अपनी शक्ति का उपयोग करते हैं।
- ऐसे बँटवारे से यह सुनिश्चित हो जाता है कि कोई भी एक अंग सत्ता का असीमित उपयोग नहीं कर सकता। हर अंग दूसरे पर अंकुश रखता है।
- आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता की साझेदारी के अनेक रूप हो सकते हैं।
- इस व्यवस्था को 'नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था' भी कहते हैं।
2. सत्ता का उर्ध्वाधर वितरण ( विभिन्न स्तरों पर )
- सरकार के बीच भी विभिन्न स्तरों पर सत्ता का बँटवारा हो सकता है: जैसे, पूरे देश के लिए एक सामान्य सरकार हो और फिर प्रांत या क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग सरकार रहे।
- पूरे देश के लिए बनने वाली ऐसी सामान्य सरकार को अक्सर संघ या केंद्र सरकार कहते हैं,
- प्रांतीय या क्षेत्रीय स्तर की सरकारों को हर जगह अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। भारत में हम इन्हें राज्य सरकार कहते हैं। हर देश में बँटवारा ऐसा ही नहीं है।
- कई देशों में प्रांतीय या क्षेत्रीय सरकारें नहीं हैं।
- लेकिन हमारी तरह, जिन देशों में ऐसी व्यवस्था है वहाँ के संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सत्ता का बंटवारा किस तरह होगा।
- बेल्जियम में तो यह काम हुआ है पर श्रीलंका में नहीं हुआ है।
- राज्य सरकारों से नीचे के स्तर की सरकारों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था हो सकती है।
- नगरपालिका और पंचायतें ऐसी ही इकाइयों हैं।
- उच्चतर और निम्नतर स्तर की सरकारों के बीच सत्ता के ऐसे बँटवारे को उर्ध्वाधर वितरण कहा जाता है।
3. विभिन्न सामाजिक समूहों को सत्ता में हिस्सेदारी
- सत्ता का बँटवारा विभिन्न सामाजिक समूहों, भाषायी और धार्मिक समूहों के बीच भी हो सकता है।
- बेल्जियम में 'सामुदायिक सरकार' इस व्यवस्था का एक अच्छा उदाहरण है।
- कुछ देशों के संविधान और कानून में इस बात का प्रावधान है कि सामाजिक रूप से कमज़ोर समुदाय और महिलाओं को विधायिका और प्रशासन में हिस्सेदारी दी जाए।
- इस तरह की व्यवस्था विधायिका और प्रशासन में अलग-अलग सामाजिक समूहों को हिस्सेदारी देने के लिए की जाती है ताकि लोग खुद को शासन से अलग न समझने लगें।
- अल्पसंख्यक समुदायों को भी इसी तरीके से सत्ता में उचित हिस्सेदारी दी जाती है।
4. दबाव समूह और आंदोलनों को महत्त्व
- सत्ता के बँटवारे का एक रूप हम विभिन्न प्रकार के दबाव समूह और आंदोलनों द्वारा शासन को प्रभावित और नियंत्रित करने के तरीके में भी लक्ष्य कर सकते हैं।
- लोकतंत्र में लोगों के सामने सत्ता के दावेदारों के बीच चुनाव का विकल्प जरूर रहना चाहिए।
- समकालीन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में यह विकल्प विभिन्न पार्टियों के रूप में उपलब्ध होता है।
- पार्टियाँ सत्ता के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करती हैं। पार्टियों की यह आपसी प्रतिद्वंद्विता ही इस बात को सुनिश्चित कर देती है कि सत्ता एक व्यक्ति या समूह के हाथ में न रहे।
- सत्ता पर बारी-बारी से अलग-अलग विचारधारा और सामाजिक समूहों वाली पार्टियों के हाथ आती-जाती रहती है।
- कई बार सत्ता की यह भागीदारी एकदम प्रत्यक्ष दिखती है क्योंकि दो या अधिक पार्टियाँ मिलकर चुनाव लड़ती हैं या सरकार का गठन करती हैं।
- लोकतंत्र में हम व्यापारी, उद्योगपति, किसान और औद्योगिक मजदूर जैसे कई संगठित हित-समूहों को भी सक्रिय देखते हैं।
- सरकार की विभिन्न समितियों में सीधी भागीदारी करके या नीतियों पर अपने सदस्य-वर्ग के लाभ के लिए दबाव बनाकर
- ये समूह भी सत्ता में भागीदारी करते हैं।
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