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सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन Social Institutions: Continuity and Change CLASS 12 SOCIOLOGY CHAPTER 2 BOOK 1 Notes

सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन



इस अध्याय में हम चर्चा करेंगे 

  • प्राचीन भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को समझने के लिए
  • आधुनिक और प्राचीन समाज में 'जाति व्यवस्था  में अंतर को जानने के लिए
  • वर्ण व्यवस्था और 'जाति व्यवस्था में अंतर को समझने के लिए
  • भारत में जनजातीय संस्था को पहचानने के लिए 
  •  प्राचीन भारत में परिवार व्यवस्था को समझने के लिए    


जाति (एक प्राचीन संस्था)

  • हज़ारों वर्षों से भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का एक हिस्सा है।
  • 'जाति' केवल हमारे अतीत का नहीं बल्कि आज का भी एक अभिन्न अंग है
  • हिंदू समाज की संस्थात्मक विशेषता 
  • इसका प्रचलन अन्य धार्मिक समुदायों में भी है, मुसलमानों, ईसाइयों ,सिखों 


जाति का शाब्दिक अर्थ 

  • किसी भी चीज़ के प्रकार या वंश-किस्म का बोध कराने वाला शब्द जैसे अचेतन वस्तु पेड़-पौधों  जीव-जंतु मनुष्य भारतीय भाषाओं में जाति का प्रयोग जाति संस्था के संदर्भ में ही किया जाता है।
  • जाति शब्द की उत्पत्ति पुर्तगाली शब्द कास्टा (casta) (विशुद्ध नस्ल) जो अंग्रेजी का caste (नस्ल) शब्द बना है 


भारत में जातिगत व्यवस्था

 

1. वर्ण व्यवस्था 

  • प्राचीन भारतीय समाज को वर्ण व्यवस्था के आधार पर विभाजित किया गया था 
  • वर्ण व्यवस्था  6 हज़ार साल पुराणी व्यवस्था  चार श्रेणियों के विभाजन को वर्ण कहा जाता है। ब्राह्मण क्षत्रिय , वैश्य , शुद्र 
  • समाज की एक बड़ी जनसंख्या को इस व्यवस्था से बहार रखा गया पाँचवीं श्रेणी ,बहिष्कृत जाति, विदेशी लोग ,दास, युद्धों में पराजित लोग 


2. जाति व्यवस्था 

  • वर्ण व्यवस्था का बिगड़ा हुआ रूप जाति व्यवस्था है 


3. भारतीय भाषा बोलने वाले लोग, अंग्रेजी शब्द 'कास्ट' का प्रयोग भी करने लगे हैं। '

  • वर्ण अखिल भारतीय सामूहिक वर्गीकरण
  • जाति क्षेत्रीय या स्थानीय उप-वर्गीकरण



वैदिक सभ्यता में वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था

 

1. वर्ण व्यवस्था 

  • प्रारंभिक वेदिक काल में
  • जन्म से निर्धारित नहीं होते थे
  • विस्तृत या बहुत कठोर नहीं
  • स्थान परिवर्तन सामान्य


2. जाति व्यवस्था

  • उत्तर-वैदिक काल में यह व्यवस्था आई 
  • जन्म से निर्धारित होती है।
  • माता-पिता की जाति में ही 'जन्म होता है। 
  • चुनाव का विषय नहीं होती
  • बदल नहीं सकते
  • विवाह समूह के सदस्यों में ही हो सकते हैं




 जाति व्यवस्था नियम


  • जाति सदस्यता में खाने और खाना बाँटने के बारे में नियम भी शामिल होते हैं।
  • जातियों की अधिक्रमित स्थिति
  • खंडात्मक संगठन
  • एक जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति उस जाति से जुड़े व्यवसाय को ही अपना सकता था
  • जाति एक बहुत असमान संस्था थी। 
  • जहाँ कुछ जातियों को तो इस व्यवस्था से बहुत लाभ रहा, अन्य जातियों को इसकी वजह से अधीनता वाला जीवन जीना पड़ता । 
  • जाति जन्म द्वारा कठोरता से निर्धारित हो गई उसके बाद किसी व्यक्ति के लिए जीवन स्थिति बदलना असंभव था। 
  • चाहे उच्च जाति के लोग उच्च स्तर के लायक हो या न हों



जाति व्यवस्था के सिद्धांत


1. भिन्नता और अलगाव (SEPRATION)

  • हर जाति दूसरी जाति से अलग थी और इसलिए वह अन्य जाति से कठोरता से पृथक होती है। 
  • जाति के नियमों को जातियों को मिश्रित होने से बचाने के लिए बनाये गये है। 
  • जैसे शादी, खान-पान एवं सामाजिक अंतःक्रिया व्यवसाय आदि ।



2. संपूर्णता और अधिक्रम (HEIRARCHY )

  • प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान होने के साथ-साथ एक क्रम श्रेणी भी होती है। 
  • एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है।
  • प्रत्येक जाति का व्यवस्था में अपना स्थान तय है और वो स्थान किसी भी जाति को नहीं दिया जा सकता।



3. अधिक्रमित व्यवस्था (धार्मिक आधार पर )


I. शुद्ध

  • उच्च जाति 
  • आर्थिक  सैन्य शक्ति


II.अशुद्ध 

  • निम्न जाति 
  • कमजोर वर्ग 


उपनिवेशवाद और जाति 



1. ब्रिटिश प्रशाशन के लिए जाती व्यवस्था 


  • जाति के वर्तमान स्वरूप को औपनिवेशिक काल और स्वतंत्र भारत में तीव्र गति से हुए परिवर्तनों द्वारा आकार प्रदान किया गया।
  • आज जिसे हम जाति के रूप में जानते हैं वह प्राचीन भारतीय परंपरा की अपेक्षा उपनिवेशवाद की ही अधिक देन है।
  • ब्रिटिश प्रशासकों ने देश पर कुशलतापूर्वक शासन करना सीखने के उद्देश्य से जाति व्यवस्थाओं की जटिलताओं को समझने के प्रयत्न शुरू किए।



2. सामाजिक संरचनाओं को समझना

 

  • ब्रिटिशों को अच्छे से शासन करना था  इसलिए भारत में सामाजिक संरचनाओं को समझना जरूरी था 
  • ब्रिटिशों द्वारा इसलिए भारत में जन गणना की शुरुआत की 
  • जनगणना का पहला प्रयास सर्वप्रथम 1860 के दशक में किया गया 
  • नियमित जनगणना 1881 से  होने लगी हर 10 साल में 


3. जाति के सामाजिक अधिक्रम


  • जाति सम्बंधित  जानकारी इक‌ट्ठी करने का प्रयत्न किया गया
  • 1901 में हरबर्ट रिजले के निर्देशन में किस क्षेत्र में किस जाति को अन्य जातियों की तुलना में सामाजिक दृष्टि से कितना ऊँचा या नीचा स्थान प्राप्त है श्रेणी क्रम में प्रत्येक जाति की स्थिति निर्धारित कर दी गई।
  • जातियों के प्रतिनिधियों ने सामाजिक क्रम में अपनी जाति को अधिक ऊँचा स्थान देने की माँग की थी 
  • जाति की संस्था में बाहरी हस्तक्षेप होने लगा और इससे जाति का एक नया जीवन प्रारंभ हो गया।
  • 1935 का भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया जिसने राज्य द्वारा विशेष व्यवहार के लिए जातियों तथा जनजातियों की सूचियों या 'अनुसूचियों' को वैधता प्रदान कर दी।




जाति का समकालीन रूप


  •  राष्ट्रवादी आंदोलनों के लिए समर्थन जुटाने में जातीय  भावनाओं एवं आधारों ने अपनी भूमिका अदा की थी।
  • अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों को संगठित करने के प्रयत्न 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारंभ हो चुके थे। 
  • महात्मा गांधी और बाबा साहेब अंबेडकर ने 1920के दशक से अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए थे 
  • राष्ट्रवादी आंदोलन जाति को एक सामाजिक कुरीति और फूट डालने की एक औपनिवेशिक युक्ति मानता था।



जाति उन्मूलन में राज्य की स्थिति 

  • जाति उन्मूलन के संदर्भ में राज्य संकंट में फंसा हुआ था राज्य के समक्ष दो चुनौतियां थी 

1. राज्य जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध था और भारत के संविधान में भी स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख किया गया। 

2. राज्य उन सुधारों को लाने में असमर्थ एवं अनिच्छुक था 



जाति उन्मूलन में राज्य की भूमिका 

  • राज्य ने अलग अलग क्षेत्रों में कुछ परिवर्तन किए 


1. औद्योगिक क्षेत्र में 

  • राज्य जाति प्रथा की ओर आँखें बंद करके काम करेगा तो उससे जातिगत संस्था का उन्मूलन हो जाएगा।
  • राज्य के विकास संबंधी कार्यकलाप और निजी उद्योग की वृद्धि ने आर्थिक परिवर्तन लाकर अप्रत्यक्ष रूप से जाति संस्था को प्रभावित किया।
  • नगरीकरण और शहरों में सामूहिक रहन-सहन की परिस्थितियों ने जातिगत भेदभाव को कम  कर दिया। 
  • औद्योगिक नौकरियों में भर्ती जाति के आधार पर होती रही मुंबई की कपड़ा मिल हो या कोलकाता की जूट मिल बिचौलिया अपनी जाति के लोगों को कारखानों में मजदूर बनाता था 
  • जिससे उन विभागों या कारखानों में अक्सर एक खास जाति के मज़दूरों का ही वर्चस्व रहता था
  • अछूतों के प्रति खूब भेदभाव बरता जाता था



2. सामाजिक और सांस्कृतिक

 

  • जाति सांस्कृतिक और घरेलू क्षेत्रों में ही सबसे सुदृढ़ सिद्ध हुई। 
  • अपनी जाति के भीतर विवाह करने की परम्परा, आधुनिकीकरण और परिवर्तन से बड़े तौर पर अप्रभावित रही।
  • आज भी अधिकांश विवाह जाति की परिसीमाओं के भीतर ही होते हैं 



3. राजनितिक क्षेत्र

 

  • लोकतांत्रिक राजनीति गहनता से जाति आधारित रही है।
  • जाति चुनावी राजनीति का केंद्र-बिंदु बनी हुई है। 
  • 1980 के दशक जाति आधारित राजनीतिक दल भी उभरने लगे थे 
  • जातीय भाईचारे की भूमिका चुनाव जीतने में निर्णायक रहने लगी। 



परिवर्तन की नई संकल्पनाएँ 


'प्रबल जाति


  • ऐसी जातियों जिनकी जनसंख्या काफ़ी बड़ी होती थी और जिन्हें स्वतंत्रता के बाद किए गए भूमि सुधारों द्वारा भूमि के अधिकार दिए गए थे।
  • भूमि-सुधारों ने पहले के दावेदारों से अधिकार छीन लिए थे। 


 पहले के दावेदार


  • ऊँची जातियों के ऐसे सदस्य होते थे जो लगान वसूल करने के अलावा खेतिहर अर्थव्यवस्था में कोई भूमिका अदा नहीं करते थे। 
  • वे अक्सर उस गाँव में भी नहीं रहते थे
  • अब ये भूमि-अधिकार अगले स्तर के दावेदारों को मिल गए थे
  • जब उन्हें भूमि-अधिकार मिल गए तो फिर उन्होंने पर्याप्त आर्थिक शक्ति प्राप्त कर ली। 
  • उनकी बड़ी संख्या ने भी चुनावी लोकतंत्र के इस युग में उन्हें राजनीतिक शक्ति प्रदान की।
  • यह मध्यवर्ती जातियाँ देहाती इलाकों में प्रबल जातियाँ बन गईं और क्षेत्रीय राजनीति तथा खेतिहर अर्थव्यवस्था में भूमिका अदा करने लगीं।



जनजातीय समुदाय


  • जनजाति एक आधुनिक शब्द है जो ऐसे समुदायों के लिए प्रयुक्त होता है जो बहुत पुराने हैं और उप-महाद्वीप के सबसे पुराने निवासी हैं।
  • जनजातियाँ ऐसे समुदाय थे जो किसी लिखित धर्मग्रंथ के अनुसार किसी धर्म का पालन नहीं करते थे, 
  • उनका कोई सामान्य प्रकार का राज्य या राजनीतिक संगठन नहीं था और उनके समुदाय कठोर रूप से वर्गों में नहीं बँटे हुए थे
  • ये न तो हिन्दू थे और न ही गैर हिन्दू  इस समाज में जाति प्रथा भी नहीं थी 
  • इन लोगो की संस्कृति पुरे समाज से काफी ज्यादा भिन्न थी इसलिए इन लोगो की तरफ से विरोध भी हुआ करता था 
  • जिसके परिणामस्वरूप झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्यों का गठन किया गया 



जनजातीय समाज का वर्गीकरण 


1. स्थाई विशेषक 

  • भारत की जनजातीय जनसंख्या व्यापक रूप से बिखरी हुई है लेकिन कुछ क्षेत्रों में उनकी आबादी काफ़ी घनी है। 
  • जनजातीय जनसंख्या का लगभग 85% भाग 'मध्य भारत' में रहता है 
  • जो पश्चिम में गुजरात तथा राजस्थान से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल और उड़ीसा तक फैला हुआ है 
  • मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र तथा आंध्र प्रदेश के कुछ भाग स्थित हैं।
  • जनजातीय जनसंख्या के शेष 15% में से 11% से अधिक पूर्वोत्तर राज्यों में और बाकी के 3% से थोड़े-से अधिक शेष भारत में रहते हैं। 
  • पूर्वोत्तर राज्यों में इनकी आबादी सबसे घनी है अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड


भाषा की दृष्टि से, जनजातियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है।

1. भारतीय-आर्य परिवार

2. द्रविड़ परिवार 

3. आस्ट्रिक परिवार

4. तिब्बती-बर्मी, परिवार

  • जनसंख्या के आकार की दृष्टि से, जनजातियों में बहुत अधिक अंतर पाया जाता है, 
  • सबसे बड़ी जनजाति की जनसंख्या लगभग 70 लाख है जबकि सबसे छोटी जनजाति जो अंडमान द्वीपवासियों में रहती है शायद 100 व्यक्तियों से भी कम है। 
  • सबसे बड़ी जनजातियाँ गोड, भील, संथाल, ओराँव, मीना, बोडो और मुंडा हैं, 
  • जनजातियों की कुल जनसंख्या 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की समस्त जनसंख्या का लगभग 8.2% या लगभग 8.4 करोड़ व्यक्ति हैं।


2. अर्जित विशेषक 

वर्गीकरण दो मुख्य कसौटियों पर आधारित है।


I. आजीविका के साधन 

  • आजीविका के आधार पर, जनजातियों को मछुआ, खाद्य संग्राहक और आखेटक (शिकारी), झूमखेती करने वाले, कृषक और बागान तथा औद्योगिक कामगारों की श्रेणियों में बाँटा जा सकता है।


II. हिंदू समाज में उनके समावेश 

  • हिंदू समाज के प्रति रुख भी एक बड़ी कसौटी है क्योंकि जनजातियों की अभिवृत्तियोंके बीच काफी अंतर होता है- कुछ जनजातियों का हिंदुत्व की ओर सकारात्मक झुकाव होता है जबकिकुछ जनजातियाँ उसका प्रतिरोध या विरोध करती हैं।




जनजाति : एक संकल्पना की जीवनी

  • 1960 के दशक में विद्वानों के बीच इस प्रश्न को लेकर वाद-विवाद होता रहा 
  • कि क्या जनजातियों को जाति आधारित (हिंदू) कृषक समाज के एक सिरे का विस्तार माना जाए अथवा वे पूर्ण रूप से एक भिन्न प्रकार का समुदाय है।


1. कुछ विद्वान विस्तार के पक्ष में थे

  • जनजातियाँ जाति आधारित कृषक समाज से मौलिक रूप से अलग नहीं हैं, और संसाधनों का स्वामित्व समुदाय आधारित अधिक और व्यक्ति आधारित कम हैं। 


2. विरोधी पक्ष का कहना था

  • जनजातियाँ जातियों से पूरी तरह भिन्न होती हैं क्योंकि उनमें धार्मिक या कर्मकांडीय दृष्टि से शुद्धता और अशुद्धता का भाव नहीं होता जो कि जाति व्यवस्था का केंद्र-बिंदु है।



जनजाति और जाति के बीच के अंतर 

1. जनजाति और जाति के बीच के अंतर को दर्शाने वाला तर्क

  • पवित्रता और अपवित्रता में विश्वास रखने वाली हिंदू जातियों 
  • अधिक समतावादी जनजातियों के बीच माने गए सांस्कृतिक अंतर पर आधारित था।


2. जनजातीय समूहों को हिन्दू समाज में शामिल कर लिया ये एकीकरण अलग अलग प्रक्रियाओं के द्वारा किया जा रहा था 

  • संस्कृतिकरण सवर्ण हिंदुओं द्वारा विजय के बाद विजितों को शूद्रवर्णों के अंतर्गत शामिल करना  परसंस्कृतिग्रहण जातीय अधिक्रम में आत्मसात् कर लिया गया




राष्ट्रीय विकास बनाम जनजातीय विकास 

1. जनजातीय लोगो का निवास स्थान 

  • ग्रामीण परिवेश 
  • जंगल 

2. इनके निवास स्थान में देश का महत्वपूर्ण खनिज भंडारण है 

3. विकास के नाम पर बड़े बड़े बांध बनाये गये ,कारखाने स्थापित किए गये, खानों की खुदाई की जाने लगी 

4. जनजातीय लोगों को शेष भारतीय समाज के विकास के लिए अनुपात से बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ी

5. जनजातियों की हानि की कीमत पर मुख्यधारा के लोग लाभान्वित हुए। जनजातीय लोगों से उनकी जमीनें छिनने की प्रक्रिया शुरू हो गई।


संघर्ष

  • नये जनजातीय राज्यों का उद्भव होना शुरू हो गया 
  • झारखण्ड और छत्तीसगढ़ को अलग राज्य का दर्जा मिला 
  • सरकार ने कठोर कदम उठाये जिससे विद्रोह भड़का और पूर्वोत्तर राज्यों की अर्थव्यवस्था संस्कृति और समाज को हानि पंहुची 


समकालीन जनजातीय पहचान 

  • मुख्यधारा की प्रक्रियाओं में जनजातीय समुदायों के जबरदस्ती समावेश का प्रभाव जनजातीय संस्कृति पर पड़ा।
  • जनजातीय पहचान धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही थी क्योंकि मुख्य धारा के साथ अन्तः क्रिया के परिणाम जनजातीय समुदायों के लिए अच्छे साबित नहीं हो रहे थे 
  • इसके लिए विरोध शुरू हुए तथा सरकार द्वारा नये राज्यों की स्थापना की गयी 
  • जनजातीय लोगो को विशेष कानूनों के तहत रखा जा रहा है इनकी स्वतंत्रता बहुत सीमित है 
  • मणिपुर नागालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्यों के लोगो को वो अधिकार प्राप्त नहीं है  जो भारत के अन्य नागरिकों को प्राप्त है 
  • इन राज्यों को उपद्रवग्रस्त राज्य घोषित किया जा चुका है यहाँ पर उठने वाले विद्रोह को सरकार ने कठोर कदम उठाकर उनका दमन कर दिया 


परिवार और नातेदारी 


हममें से हर कोई एक परिवार में उत्पन्न हुआ है 

हमें अपने परिवार में सदस्यों से लगाव महसूस होता है

लेकिन कभी-कभी भाइयों के बीच विवाद भी हो जाता है


1. नातेदारी के प्रकार 

  • विवाह मूलक नातेदारी - देवर भाभी, साला- साली, सास-ससुर
  • रक्तमूलक नातेदारी - माता - पिता, भाई - बहिन


2. संयुक्त परिवार 

  • भारत में अधिकतर परिवारों में एक से अधिक पीढ़ी के लोग एक साथ रहते है ऐसे परिवार संयुक्त परिवार कहलाते है 


3. एकल परिवार 

  • ऐसा परिवार जिसमे सिर्फ पति पत्नी और सिर्फ बच्चे ही रहते है 


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