समाजशास्त्र क्या है?
समाजशास्त्र (Sociology) एक ऐसा सामाजिक विज्ञान है जो हमें सिखाता है कि समाज सिर्फ लोगों का समूह नहीं, बल्कि विचारों, परंपराओं और संस्थाओं का संगम है।
- समाजशास्त्र में क्या सीखा जाता है?
- लोग एक-दूसरे से कैसे जुड़े होते हैं?
- सामाजिक संबंधों का क्या महत्व है?
- परिवार, धर्म, शिक्षा जैसी संस्थाएं कैसे काम करती हैं?
- समाज में नियम और परंपराओं का क्या प्रभाव होता है?
- समाज में बदलाव क्यों और कैसे आते हैं?
- सामाजिक सुधार और विकास की प्रक्रिया क्या होती है?
समाजशास्त्र के संस्थापक
समाजशास्त्र को एक स्वतंत्र विषय के रूप में स्थापित करने का श्रेय ऑगस्ट कॉम्टे (Auguste Comte) को दिया जाता है।
- इन्होंने इसे "समाज का वैज्ञानिक अध्ययन" कहा।
- समाजशास्त्र का एक विषय के रूप प्रभाव
- समाजशास्त्र तथ्यों और तर्क पर आधारित होता है ।
- यह जाति, धर्म, वर्ग जैसी समस्याओं का विश्लेषण करता है।
- यह पहचान, विचारधारा और समझ का विस्तार करता है।
- यह समाज में सुधार और सकारात्मक बदलाव के लिए प्रेरित करता है।
- यह जनसंख्या, परिवार और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दों की समझ बढ़ाता है।
- यह समाज और हमारी भूमिका को गहराई से समझने में सहायक।
- समाजशास्त्र हमें तार्किक, जागरूक और सामाजिक रूप से जिम्मेदार बनाता है।
सी. राइट मिल्स का विचार
समाजशास्त्र व्यक्तिगत परेशानियों और सामाजिक मुद्दों के बीच संबंध बताता है।
कई बार व्यक्तिगत समस्याएँ समाज की बड़ी समस्याओं से जुड़ी होती हैं और समाजशास्त्र इन संबंधों को समझने में मदद करता है
जैसे -
अगर किसी व्यक्ति को नौकरी नहीं मिल रही है, तो यह उसकी व्यक्तिगत समस्या है। लेकिन अगर पूरे शहर में बेरोजगारी बढ़ रही है, तो यह एक सामाजिक मुद्दा है।
CHAPTER - 2
भारतीय समाज की जनसांख्यिकीय संरचना
भारतीय समाज
जनसांख्यिकी क्या है?
जनसांख्यिकी समाजशास्त्र की एक शाखा है, जो जनसंख्या के आकार, संरचना और बदलाव का अध्ययन करती है। हिंदी में इसे 'जनांकिकी' भी कहा जाता है और में अंग्रेजी 'डेमोग्राफी' ।
यह दो यूनानी शब्दों से बना है:
- Demos (लोग)
- Graphin (अध्ययन)
यह विषय लोगों की संख्या, जन्म, मृत्यु और स्थानांतरण जैसे पहलुओं को समझने में मदद करता है।
समाजशास्त्र और जनसांख्यिकी
- जनसांख्यिकी का अध्ययन समाजशास्त्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है ।
- समाजशास्त्र के उद्भव और एक अलग अकादमिक विषय के रूप में स्थापना का श्रेय जनसांख्यिकी को दिया जा सकता है।
18वीं शताब्दी का उत्तरार्ध:
यूरोप में दो महत्वपूर्ण प्रक्रियाएँ एक साथ घटित हुईं:-
- राष्ट्र-राज्यों की स्थापना (राजनीतिक संगठन के रूप में)।
- आधुनिक सांख्यिकी विज्ञान की शुरुआत।
आधुनिक राज्य और सांख्यिकी
आधुनिक राज्य ने समय के साथ अपनी भूमिका और कामकाज का विस्तार किया। इसके अंतर्गत कई नए क्षेत्रों में राज्य की सक्रियता बढ़ी।
- जनस्वास्थ्य प्रबंध के प्रारंभिक रूपों का विकास जैसे -अस्पताल, टीकाकरण, स्वच्छता अभियान।
- पुलिस और कानून-व्यवस्था का अनुपालन जैसे- अपराध रोकथाम, ट्रैफिक नियम, सुरक्षा उपाय। ।
- कृषि और उद्योग संबंधी नीतियों का निर्माण जैसे- किसानों को सब्सिडी, उद्योगों को कर में छूट।
- कराधान और राजस्व उत्पादन में सक्रियता जैसे- GST, आयकर, सरकारी सेवाओं पर शुल्क।
- नगर शासन व्यवस्था में रुचि जैसे- कचरा प्रबंधन, सार्वजनिक स्थल विकास।
जनसांख्यिकी का सामाजिक महत्व
जनसांख्यिकी सिर्फ संख्या नहीं बताती, यह समाज की ज़रूरतों की तस्वीर दिखाती है।
जनसंख्या का अध्ययन क्यों ज़रूरी है?
- यह बताता है कि कहाँ कितने लोग रहते हैं और वहाँ किन सुविधाओं की ज़रूरत है।
- सरकार को स्वास्थ्य सेवाएँ, रोज़गार के अवसर, वरिष्ठ नागरिकों के लिए योजनाएँ, शिक्षा जैसी सुविधाओं की योजना बनाने में मदद मिलती है।
- जनसांख्यिकी समाज की नब्ज़ है – यह हमें बताती है कि समाज कहाँ है, और उसे कहाँ पहुँचना है।
जनसांख्यिकी के दो मुख्य प्रकार
- औपचारिक जनसांख्यिकी (Formal Demography)
- यह पूरी तरह आँकड़ों पर आधारित होती है।
यह अध्ययन करती है:-
- जन्म (Birth)
- मृत्यु (Death)
- प्रवास (Migration)
सामाजिक जनसांख्यिकी (Social Demography)
यह देखती है कि जनसंख्या समाज को कैसे प्रभावित करती है।
यह अध्ययन करती है:-
- शिक्षा,
- रोज़गार,
- राजनीति,
- सामाजिक ढाँचा
जनसंख्या गणना (Census) और इसका महत्व
- जनगणना यानी – देश की गिनती!
- यह एक ऐसा तरीका है जिससे हम यह पता लगाते हैं कि देश में कितने लोग रहते हैं, वे कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, और कैसी ज़िंदगी जीते हैं।
जनगणना का इतिहास :
- समाजिक आंकड़े जुटाने की परंपरा बहुत पुरानी है, लेकिन आधुनिक जनगणना 18वीं शताब्दी के अंत में शुरू हुई।
- अमेरिका में 1790 में पहली आधुनिक जनगणना हुई।
- यूरोप में भी 19वीं शताब्दी की शुरुआत में इस पद्धति को अपनाया गया।
भारत में जनगणना की शुरुआत:
- अंग्रेज़ों ने 1867-72 के बीच सबसे पहले जनगणना का कार्य शुरू किया।
- 1881 से हर दस साल में नियमित जनगणना होने लगी।
- आज़ादी के बाद भारत ने भी यह प्रक्रिया जारी रखी।
- 1951 से अब तक सात दसवर्षीय जनगणनाएँ हो चुकी हैं।
- 2011 की जनगणना सबसे नई है।
भारत में जनसंख्या वृद्धि
1951 से 1981 तक भारत में जनसंख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी।
कारण थे
- बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ
- मृत्यु दर में कमी लेकिन जन्म दर बनी रही ज़्यादा
इसका असर
- संसाधनों पर बोझ बढ़ा
- बेरोज़गारी और गरीबी में इज़ाफा
फिर क्या हुआ ?
- सरकार ने परिवार नियोजन और जागरूकता अभियान चलाए।
- जिससे धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट आने लगी।
- अब लोग छोटे परिवार को समझने लगे हैं।
जनसंख्या परिवर्तन के कारण
जनसंख्या कभी बढ़ती है, कभी घटती है – पर क्यों?
इसके पीछे होते हैं तीन मुख्य कारण:
जन्म दर (Birth Rate)
- यह बताता है कि हर 1000 लोगों में कितने बच्चे जन्म लेते हैं।
- अगर जन्म दर ज़्यादा है → जनसंख्या बढ़ेगी।
- उदाहरण :- गाँवों में जहाँ परिवार बड़े होते हैं, वहाँ जन्म दर अधिक हो सकती है।
मृत्यु दर (Death Rate)
- यह बताता है कि हर 1000 लोगों में कितने लोगों की मृत्यु होती है।
- अगर मृत्यु दर ज़्यादा है → जनसंख्या घटेगी।
- लेकिन आजकल बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं से मृत्यु दर कम हो गई है।
प्रवास (Migration)
- यह तब होता है जब लोग एक जगह से दूसरी जगह चले जाते हैं। यदि बहुत से लोग किसी शहर में आते हैं वहाँ की जनसंख्या बढ़ती है। और अगर लोग शहर से बाहर चले जाएँ वहाँ की जनसंख्या घटती है।
- उदाहरण: नौकरी के लिए लोग गाँव से शहर की ओर जाते हैं।
जनसंख्या अध्ययन का उपयोग
जनसांख्यिकी केवल आंकड़ों का खेल नहीं, यह एक समाज का आईना है। इसका उपयोग सरकार और समाज – दोनों के लिए बहुत ज़रूरी है।
1. नीति निर्माण में सहायक
- सरकार जनसंख्या के आँकड़ों के आधार पर सटीक और उपयोगी योजनाएँ बनाती है।
- जैसे – कहाँ स्कूल चाहिए, कहाँ अस्पताल, कहाँ रोजगार के अवसर बढ़ाने हैं।
2. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की योजनाओं में मदद
- अगर पता हो कि किस क्षेत्र में कितने बच्चे हैं → वहाँ स्कूल बनाए जा सकते हैं।
- अगर कोई इलाका बीमारियों से जूझ रहा है → वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर किया जा सकता है।
- बेरोज़गारी वाले क्षेत्र में रोज़गार योजना लाई जा सकती है।
3. सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असर समझना
जनसंख्या अध्ययन से यह समझ आता है कि –
किस वर्ग को किस चीज़ की ज़रूरत है समाज में कौन-से मुद्दे उभर रहे हैं ये सब बातें राजनीतिक निर्णयों को भी प्रभावित करती हैं।
माल्थस का जनसंख्या वृद्धि का सिद्धांत
- अंग्रेज़ अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस (1766-1834) ने जनसंख्या वृद्धि पर अपना सिद्धांत दिया, जिसे "माल्थस का जनसंख्या सिद्धांत" कहा जाता है।
- इस सिद्धांत को उन्होंने 1798 में अपनी पुस्तक "एन एसे ऑन द प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन" में प्रस्तुत किया।
- यह एक निराशावादी सिद्धांत था ।
माल्थस का मुख्य विचार क्या था?
माल्थस ने जनसंख्या और भोजन की वृद्धि के बीच असंतुलन की बात कही।
उनका मानना था:
1. जनसंख्या बढ़ती है गुणोत्तर (Geometric Progression) में:-
यानी बहुत तेज़ी से:- 2, 4, 8, 16, 32...
2. खाद्य उत्पादन बढ़ता है अंकगणितीय (Arithmetic Progression) में :-
यानी धीरे-धीरे:- 2, 4, 6, 8, 10...
इसका मतलब हुआ जैसे-जैसे जनसंख्या तेजी से बढ़ेगी, लेकिन भोजन की मात्रा उतनी तेजी से नहीं बढ़ पाएगी।
नतीजा:
- भोजन की कमी,
- भुखमरी,
- गरीबी,
- संघर्ष और अस्थिरता
जनसंख्या नियंत्रण के उपाय
माल्थस ने जनसंख्या पर नियंत्रण के लिए दो तरह के उपायों का सुझाव दिया:
(क) कृतिम निरोधक
ये उपाय जन्म दर को घटाने के लिए होते हैं। यानी जनसंख्या को पहले से रोकने का प्रयास।
मुख्य उपाय:
- विवाह में देरी
- परिवार नियोजन
- नैतिक अनुशासन (जैसे संयमित जीवन)
- सरकारी नीतियाँ जो जनसंख्या घटाने में मदद करें
(ख) प्राकृतिक निरोधक (Positive Checks)
ये वे स्थितियाँ हैं जो मृत्यु दर को बढ़ा देती हैं। अगर जनसंख्या नहीं रुकी, तो प्रकृति सज़ा देगी।
मुख्य कारक:
- युद्ध (War)
- अकाल (Famine)
- महामारी (Diseases)
- प्राकृतिक आपदाएँ (Natural Disasters)
माल्थस के सिद्धांत की आलोचना
कई विद्वानों ने कहा कि अगर देश आर्थिक रूप से विकसित होता है,तो जनसंख्या को भी नियंत्रित किया जा सकता है।
पश्चिमी देशों का अनुभव:
- यूरोप और अमेरिका में देखा गया कि समय के साथ जनसंख्या की गति धीमी हो जाती है और लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो जाता है।
- आधुनिक युग में तकनीक ने भोजन उत्पादन को बहुत बढ़ा दिया है। जीवन स्तर भी पहले से कहीं बेहतर हुआ है।
मार्क्सवादी और आधुनिक सोच
गरीबी का कारण जनसंख्या नहीं, बल्कि संसाधनों का असमान वितरण है। कुछ लोग बहुत अधिक संसाधन इस्तेमाल करते हैं, जबकि बहुसंख्यक लोग गरीबी में जीते हैं। ह दिखाता है कि समस्या समाज की आर्थिक और सामाजिक असमानता में है, न कि केवल जनसंख्या में।
माल्थस के सिद्धांत का प्रभाव
- उनके विचारों ने जनसंख्या अध्ययन को दिशा दी।
- उनके सिद्धांत के बाद आधुनिक जनसंख्या नीतियाँ बनीं।
- कई देशों ने जन्म दर को नियंत्रित करने के उपाय अपनाए।
जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत
यह सिद्धांत बताता है कि जैसे-जैसे कोई देश आर्थिक और सामाजिक रूप से विकसित होता है, उसकी जनसंख्या वृद्धि की दर में बदलाव आता है।
तीन मुख्य चरण :
- परंपरागत समाज
- उच्च जन्म दर और उच्च मृत्यु दर
- बीमारियाँ, कुपोषण, और इलाज की कमी के कारण मृत्यु दर ज़्यादा होती है।
- लोग ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं, जिससे जनसंख्या में बहुत बदलाव नहीं होता।
- जनसंख्या लगभग स्थिर रहती है।
संक्रमणकालीन समाज
- जन्म दर उच्च और मृत्यु दर टती है
- चिकित्सा, स्वच्छता और पोषण में सुधार से मृत्यु दर कम हो जाती है।
- लेकिन जन्म दर अब भी ज़्यादा रहती है।
- जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ती है।
आधुनिक समाज
- जन्म दर कम र मृत्यु दर कम
- लोग परिवार नियोजन अपनाते हैं।
- जीवनशैली में सुधार आता है, शिक्षा बढ़ती है।
- जनसंख्या वृद्धि की दर धीमी हो जाती है और समाज स्थिर हो जाता है।
महत्व:
- समाज के विकास और जनसंख्या वृद्धि के संबंध को समझने में मदद करता है।
- स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार से जनसंख्या स्थिर हो सकती है।
- कई देशों में जनसंख्या नियंत्रण और आर्थिक नीति के लिए उपयोगी सिद्धांत है।
जनसंख्या अध्ययन में विभिन्न संकल्पनाएँ और संकेतक
जनसंख्या अध्ययन में विभिन्न संकल्पनाएँ और संकेतक महत्वपूर्ण होते हैं, जो जनसंख्या के आकार, संरचना और प्रवृत्तियों को समझने में मदद करते हैं।
1. जन्म दर (Birth Rate)
- यह प्रति 1000 व्यक्तियों पर एक साल में जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या होती है।
- इसे इस प्रकार व्यक्त किया जाता है:
यह संकेत करता है कि किसी क्षेत्र में जनसंख्या कितनी तेज़ी से बढ़ रही है।
2. मृत्यु दर (Death Rate)
- यह प्रति 1000 व्यक्तियों पर एक साल में मरने वाले लोगों की संख्या होती है।
- इसे इस प्रकार व्यक्त किया जाता है:
यह समाज की स्वास्थ्य सेवाओं और जीवन स्तर का संकेतक होता है।
3. शिशु मृत्यु दर (Infant Mortality Rate - IMR)
- यह प्रति 1000 जीवित जन्मे बच्चों में से एक साल की उम्र तक मरने वाले बच्चों की संख्या होती है।
- यह समाज में स्वास्थ्य सुविधाओं और पोषण स्तर का महत्वपूर्ण मापदंड है।
4. प्रजनन दर (Fertility Rate)
- यह औसतन एक महिला द्वारा अपने जीवनकाल में जन्म दिए गए बच्चों की संख्या को दर्शाता है।
- प्राकृतिक प्रजनन दर को बनाए रखने के लिए यह दर 2.1 होनी चाहिए।
5. स्त्री-पुरुष अनुपात (Sex Ratio)
- यह प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या को दर्शाता है।
- इसे इस प्रकार व्यक्त किया जाता है:
यदि यह अनुपात बहुत कम होता है, तो इसका मतलब है कि लैंगिक भेदभाव या महिलाओं की मृत्यु दर अधिक हो सकती है।
जनसंख्या आयु संरचना
यह बताता है कि किसी क्षेत्र की जनसंख्या को आयु के आधार पर कैसे बाँटा गया है। यह समाज की आर्थिक, सामाजिक और नीतिगत योजनाओं के लिए बहुत ज़रूरी जानकारी देता है।
आयु वर्ग के तीन मुख्य भाग:
0–14 वर्ष → बालक आयु वर्ग
- यह वर्ग निर्भर (dependent) होता है।
- इन्हें शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य सेवाओं की ज़रूरत होती है।
15–64 वर्ष → कार्यशील जनसंख्या
- यह वर्ग अर्थव्यवस्था को चलाता है।
- यही लोग नौकरी करते हैं, उत्पादन में भाग लेते हैं और टैक्स भी देते हैं।
65+ वर्ष → वृद्ध जनसंख्या
- ये भी निर्भर वर्ग में आते हैं।
- इन्हें स्वास्थ्य सेवाएँ, पेंशन और देखभाल की ज़रूरत होती है।
जनसंख्या आयु संरचना महत्व:
यह जानकारी सरकार को यह तय करने में मदद करती है कि किस वर्ग के लिए कितने संसाधन, सेवाएँ और योजनाएँ चाहिए।
भारत की जनसंख्या का आकार और संवृद्धि
- भारत, चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है।
- 2011 की जनगणना के अनुसार : भारत की कुल जनसंख्या – 121 करोड़ (1.21 बिलियन)
1. जनसंख्या वृद्धि का इतिहास
A. 1901–1951:
धीमी वृद्धि (1.33%) जनसंख्या की वृद्धि बहुत अधिक नहीं थी। इस दौर में गरीबी, बीमारियाँ, अकाल और खराब स्वास्थ्य सेवाएँ प्रमुख कारण थे।
B. 1911–1921:
सबसे कम वृद्धि (-0.03%) यह भारत के इतिहास का एकमात्र दशक था जिसमें जनसंख्या घटी।
मुख्य कारण:
1918–1919 में इन्फ्लूएंज़ा महामारी ने लगभग 1.25 करोड़ लोगों की जान ले ली। इसलिए 1921 को "महामारी विभाजन बिंदु" कहा जाता है।
C. 1951–1981:
- जनसंख्या विस्फोट का दौर
- इस समय स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हुआ, मृत्यु दर घटी, लेकिन जन्म दर ज़्यादा बनी रही।
- 1961–1981 के बीच वृद्धि दर लगभग 2.2%
- जनसंख्या में तेज़ी से इज़ाफा हुआ।
D. 1981 के बाद:
- नियंत्रण की शुरुआत
- सरकार ने परिवार नियोजन, जागरूकता अभियान, और स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया।
- इससे जनसंख्या वृद्धि दर धीरे-धीरे कम होने लगी।
2. मृत्यु दर में गिरावट और स्वास्थ्य सुधार
A. 1931 से पहले जन्म दर और मृत्यु दर दोनों ऊँची थीं।
B. 1921 के बाद महामारियों पर नियंत्रण के चलते मृत्यु दर में गिरावट शुरू हुई।
C. 1918-19 इन्फ्लूएंज़ा महामारी से भारी मौतें (1.25 करोड़)।
D. बाद में टीकाकरण, चिकित्सा सेवाओं में सुधार, और सफाई अभियानों ने मृत्यु दर को घटाया।
E. 1994 और 2006 प्लेग जैसी बीमारियाँ फिर आईं, पर ज्यादा नुकसान नहीं हुआ।
3. अकाल और भुखमरी का प्रभाव
- पहले खराब कृषि उत्पादन और वितरण प्रणाली के कारण अकाल पड़ते थे।
- हरित क्रांति, भंडारण व्यवस्था, और सरकारी योजनाओं से स्थिति में सुधार हुआ।
- MGNREGA जैसी योजनाओं ने गरीबों को रोज़गार और भोजन सुरक्षा दी।
4. जन्म दर में गिरावट के कारण
- शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, और परिवार नियोजन ने जन्म दर को घटाया।
- अलग-अलग राज्यों में जन्म दर अलग-अलग रही:
- उत्तर भारत में जन्म दर अधिक रही।
- दक्षिण और पूर्वी भारत में जन्म दर कम रही (1.7 के आसपास)।
5. भविष्य की संभावनाएँ
- 2041 तक भारत की जनसंख्या वृद्धि दर लगभग शून्य हो सकती है।
- कई राज्यों की जनसंख्या स्थिर हो जाएगी।
- लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार में जनसंख्या वृद्धि अब भी तेज़ बनी रह सकती है।
भारतीय जनसंख्या की आयु
भारत की जनसंख्या युवा है, यानी यहाँ युवा लोगों की संख्या अधिक है। अन्य देशों की तुलना में भारत में कम उम्र के लोगों का अनुपात अधिक है, जो इसे एक लोकसंख्यिक प्रदान करता है।
1. विभिन्न आयु वर्गों में जनसंख्या वितरण
0-14 वर्ष (बाल आयु वर्ग):
- 1971 में यह 42% था, लेकिन 2011 में घटकर 29% हो गया।
- 2026 तक यह 11% पर आ सकता है।
15-59 वर्ष (कार्यशील आयु वर्ग):
- 1971 में यह 53% था, जो 2011 में बढ़कर 63% हो गया।
- इस वृद्धि का मतलब है कि भारत में कामकाजी उम्र की आबादी अधिक हो रही है।
60+ वर्ष (वृद्ध आयु वर्ग):
- 2001 में यह 7% था, और 2026 तक 12% हो सकता है।
- इससे बुजुर्गों के लिए स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा की जरूरतें बढ़ेंगी।
आयु समूह पिरामिड, 1961, 1981, 2001 एवं 2026
2. क्षेत्रीय भिन्नताएँ
- कुछ राज्यों में बाल आयु वर्ग की संख्या अधिक है, जबकि अन्य में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है।
- उत्तर भारत में युवा आबादी अधिक है, जबकि दक्षिण भारत में वृद्ध जनसंख्या बढ़ रही है।
- आयु संरचना के मामले में विकसित देशों की स्थिति को प्राप्त करने लगा है
- छोटे आयु समूहों में जनसंख्या का अनुपात काफी अधिक है और वृद्धजनों का अनुपात अपेक्षाकृत कम है
3. आयु संरचना में बदलाव के प्रभाव
- शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की मांग बढ़ेगी।
- रोज़गार के अवसर और कार्यबल की स्थिति प्रभावित होगी।
- बुजुर्गों की देखभाल के लिए सामाजिक योजनाएँ आवश्यक होंगी।
4. भविष्य की संभावनाएँ
- भारत के युवा कार्यबल का सही उपयोग किया जाए, तो यह आर्थिक विकास को तेज़ कर सकता है।
- सरकार को शिक्षा, कौशल विकास और स्वास्थ्य नीतियों पर ध्यान देना होगा।
भारत में गिरता हुआ स्त्री-पुरुष अनुपात
स्त्री-पुरुष अनुपात क्या होता है?
यह बताता है कि किसी देश या क्षेत्र में प्रति 1000 पुरुषों पर कितनी महिलाएँ हैं। यह एक महत्वपूर्ण सामाजिक संकेतक है जो महिलाओं की स्थिति, सुरक्षा और अधिकारों की झलक देता है।
1. भारत में स्त्री-पुरुष अनुपात का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
- 1901 में : प्रति 1000 पुरुषों पर 972 महिलाएँ थीं।
- 1961 में : यह घटकर 941 हो गया।
- 2001 में : यह 927 तक गिर गया, जो सबसे कम था।
- 2011 में : हल्की वृद्धि हुई और यह 943 हो गया।
2. बाल लिंग अनुपात में गिरावट
- 1961 में : 0-6 आयु वर्ग में स्त्री-पुरुष अनुपात 976 था।
- 2001 में : यह घटकर 927 हो गया।
- 2011 में : यह और कम होकर 914 हो गया।
3. स्त्री-पुरुष अनुपात में गिरावट के कारण
भारत में महिलाओं की संख्या में गिरावट सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारणों से जुड़ी हुई है:
मुख्य कारण:
1. कन्या भ्रूण हत्या और लिंग चयनात्मक गर्भपात
- आधुनिक तकनीकों का दुरुपयोग कर गर्भ में ही कन्या को समाप्त कर देना।
2. लड़कियों की उच्च मृत्यु दर
- कुपोषण, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, और बालिका के साथ भेदभाव।
3. सामाजिक और सांस्कृतिक कारण
- लड़कों को ज़्यादा महत्व देना
- दहेज प्रथा का डर
- लड़कियों को आर्थिक बोझ समझना
4. क्षेत्रीय भिन्नताएँ
भारत में अलग-अलग राज्यों में स्त्री-पुरुष अनुपात में स्पष्ट अंतर देखने को मिलता है:
उत्तर भारत में (अल्प अनुपात):
- पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश
- यहाँ लड़कों को प्राथमिकता ज़्यादा दी जाती है।
- भ्रूण हत्या और भेदभाव के मामले अधिक।
दक्षिण भारत में (बेहतर अनुपात):
- केरल, तमिलनाडु
- यहाँ महिलाओं को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में ज़्यादा अवसर मिलते हैं।
- सामाजिक जागरूकता बेहतर है।
5. सरकार के प्रयास और कानून
भारत सरकार ने स्त्री-पुरुष अनुपात सुधारने और कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए कई क़ानूनी और सामाजिक कदम उठाए हैं:
1. पीएनडीटी अधिनियम, 1994
- कन्या भ्रूण हत्या रोकनागर्भ में लिंग जांच करने पर कानूनी प्रतिबंध
- अल्ट्रासाउंड और अन्य तकनीकों का दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त नियम बनाए गए।
2. "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" अभियान (2015)
- कन्या भ्रूण हत्या रोकना
- बालिकाओं की शिक्षा और सुरक्षा को बढ़ावा देना
- इस अभियान से जनजागरूकता बढ़ी और समाज में बालिकाओं के प्रति सोच बदलने की कोशिश हुई।
6. भविष्य की संभावनाएँ (Future Possibilities)
1. लड़कियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सशक्तिकरण
- यदि बालिकाओं को समान अवसर, अच्छी शिक्षा, पोषण और स्वास्थ्य सेवाएँ मिलें, तो स्त्री-पुरुष अनुपात में सुधार संभव है।
- महिला सशक्तिकरण से समाज में लड़कियों की इज्ज़त और सुरक्षा बढ़ेगी।
2. जागरूकता और कानूनों का प्रभावी क्रियान्वयन
- केवल कानून बनाना काफी नहीं, उनका सख्ती से पालन और जनता में जागरूकता भी ज़रूरी है।
- शिक्षा, मीडिया, स्कूलों और पंचायतों के ज़रिए समाज को जागरूक किया जा सकता है।
साक्षरता (Literacy)
साक्षरता का मतलब है — पढ़ने, लिखने और समझने की क्षमता। यह किसी भी व्यक्ति को शिक्षित बनने की पहली सीढ़ी पर खड़ा करती है।
1. साक्षरता का महत्व
- यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास की नींव है।
- साक्षर व्यक्ति सिर्फ पढ़ता-लिखता नहीं, बल्कि वह समाज, परिवार और देश के विकास में योगदान भी करता है।
- वह स्वास्थ्य, रोजगार और नागरिक जिम्मेदारियों को बेहतर ढंग से समझता है।
2. भारत में साक्षरता दर की स्थिति
- 1991-2001: इस दौरान साक्षरता दर 16.3% बढ़ी।
- 2001-2011: साक्षरता दर में 10.4% की वृद्धि हुई।
- पुरुषों की साक्षरता दर महिलाओं की तुलना में अधिक रही।
3. लैंगिक असमानता
- पुरुषों की तुलना में महिलाओं की साक्षरता दर कम है।
- लड़कियों की शिक्षा में भेदभाव, आर्थिक स्थिति और सामाजिक कारण इसके प्रमुख कारण हैं।
- हालांकि, सरकार की योजनाओं और जागरूकता अभियानों से महिला साक्षरता दर में सुधार हो रहा है।
4. सामाजिक समूहों में साक्षरता दर में अंतर
- अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) समुदायों में साक्षरता दर अन्य समूहों की तुलना में कम है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की तुलना में साक्षरता दर कम है।
5. सरकार के प्रयास और शिक्षा योजनाएँ
- सर्व शिक्षा अभियान (SSA) – सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देने के लिए।
- मिड-डे मील योजना – गरीब बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु।
- बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ – लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए।
6. भविष्य की संभावनाएँ
1. साक्षरता दर बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयास
- सरकार, समाज और निजी संस्थाओं को मिलकर शिक्षा के क्षेत्र में निवेश बढ़ाना होगा।
- प्रत्येक नागरिक तक शिक्षा पहुँचाना मुख्य लक्ष्य होना चाहिए।
2. महिला शिक्षा पर विशेष ध्यान
- लड़कियों को स्कूल भेजना, उन्हें माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित करना ज़रूरी है।
- महिला सशक्तिकरण का सबसे मजबूत रास्ता शिक्षा ही है।
3. डिजिटल साक्षरता को बढ़ावा देना
- आज के समय में सिर्फ पढ़ना-लिखना काफी नहीं, डिजिटल ज्ञान (जैसे– मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट) भी ज़रूरी है।
- डिजिटल लर्निंग से ग्रामीण और दूरदराज़ के लोगों तक शिक्षा पहुँचाई जा सकती है।
4. व्यावसायिक प्रशिक्षण (Vocational Training)
- केवल किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि कौशल विकास भी ज़रूरी है।
- युवाओं को रोज़गारोन्मुख शिक्षा देकर उन्हें स्वावलंबी बनाया जा सकता है।
ग्रामीण-नगरीय विभिन्नताएँ
भारत में अधिकांश जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, लेकिन शहरीकरण धीरे-धीरे बढ़ रहा है।
1. ग्रामीण और शहरी जनसंख्या का अनुपात
2001 की जनगणना :-
- 72% जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में थी।
- 28% लोग शहरों में रहते थे।
2011 की जनगणना :-
- ग्रामीण जनसंख्या घटकर 68.8% रह गई।
- शहरी जनसंख्या बढ़कर 31.2% हो गई।
इसका क्या मतलब है?
- लोग गाँवों से शहरों की ओर जा रहे हैं, बेहतर जीवन, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की तलाश में।
- इससे शहरीकरण बढ़ रहा है, और शहरों पर दबाव भी बढ़ रहा है (जैसे– आवास, ट्रैफिक, प्रदूषण)।
2. शहरीकरण के कारण
भारत में लोग तेजी से गाँवों से शहरों की ओर जा रहे हैं। इसके पीछे कई महत्वपूर्ण कारण हैं:-
आर्थिक विकास और रोज़गार के अवसर
- शहरों में कारखाने, कंपनियाँ, व्यापार और सेवाओं के क्षेत्र तेजी से बढ़ रहे हैं।
- इससे रोज़गार के अवसर अधिक हैं, जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।
3. बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनशैली
- शहरों में उपलब्ध होते हैं:अच्छे अस्पताल,उच्च शैक्षिक संस्थान,और सुविधाजनक जीवनशैली
- लोग बेहतर जीवन की तलाश में शहरों का रुख करते हैं।
4. गाँवों में कृषि पर निर्भरता घटना
- खेती से आमदनी घट रही है, और कृषि अब बहुत भरोसेमंद पेशा नहीं रही।
- मशीनों का उपयोग और भूमि की कमी ने ग्रामीणों को शहरों की ओर पलायन के लिए मजबूर किया है।
3. गाँवों और शहरों के बीच असमानताएँ
आजीविका :
- गाँवों में कृषि मुख्य रोजगार है, जबकि शहरों में औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में अधिक अवसर हैं।
आय और जीवन स्तर :
- शहरों में लोगों की आय अधिक होती है, जबकि गाँवों में गरीबी अधिक है।
सुविधाएँ :
- शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और मनोरंजन की सुविधाएँ शहरों में बेहतर हैं।
- गाँवों में अभी भी सड़कों, बिजली, पानी और इंटरनेट की समस्या बनी हुई है।
आवास और बस्तियाँ :
- शहरों में झुग्गियाँ (Slums) बढ़ रही हैं क्योंकि गाँवों से लोग रोजगार की तलाश में आ रहे हैं।
4. शहरीकरण से जुड़ी समस्याएँ
- गाँवों से शहरों की ओर पलायन (Migration)।
- शहरों में भीड़भाड़, ट्रैफिक और महंगाई।
- झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की संख्या बढ़ना।
5. ग्रामीण विकास के लिए आवश्यक उपाय
- गाँवों में शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाएँ सुधारनी होंगी।
- रोज़गार के अवसर बढ़ाने के लिए उद्योग और छोटे व्यवसायों को प्रोत्साहित करना होगा।
- शहरीकरण को नियंत्रित करने के लिए गाँवों में ही बेहतर जीवन सुविधाएँ प्रदान करनी होंगी।
भारत की जनसंख्या नीति
भारत की जनसंख्या को नियंत्रित करने और सामाजिक-आर्थिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए जनसंख्या नीति बनाई गई है।
1. भारत की पहली जनसंख्या नीति (1952)
- भारत ने 1952 में पहली बार जनसंख्या नियंत्रण के लिए नीति अपनाई।
- इस नीति का मुख्य उद्देश्य जनसंख्या वृद्धि की दर को नियंत्रित करना और परिवार नियोजन को बढ़ावा देना था।
- इसे स्वास्थ्य और सामाजिक विकास से जोड़ा गया।
2. जनसंख्या नीति के मुख्य लक्ष्य
- जनसंख्या वृद्धि दर को कम करना।
- परिवार नियोजन को बढ़ावा देना।
- मातृ एवं शिशु मृत्यु दर को घटाना।
- स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार करना।
- शिक्षा और महिलाओं के सशक्तिकरण पर जोर देना।
3. 1975-76 के दौरान परिवार नियोजन अभियान
- इस दौरान सरकार ने जबरन नसबंदी (Sterilization) अभियान चलाया, जिससे जनता में असंतोष फैला।
- बाद में स्वैच्छिक परिवार नियोजन को बढ़ावा दिया गया।
4. राष्ट्रीय जनसंख्या नीति (2000)
लक्ष्य : 2045 तक जनसंख्या को स्थिर करना।
मुख्य बिंदु:
- 2010 तक कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate - TFR) को 2.1 तक लाना।
- सभी के लिए स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराना।
- बच्चों और महिलाओं के लिए पोषण और टीकाकरण कार्यक्रम।
- शिक्षा को बढ़ावा देना, खासकर लड़कियों के लिए।
5. परिवार नियोजन के साधन
- नसबंदी
- पुरुषों के लिए वासेक्टॉमी
- महिलाओं के लिए ट्यूबेक्टॉमी
- गर्भनिरोधक गोलियाँ और कॉन्डम उपलब्ध कराना।
6. जनसंख्या नीति की सफलता और चुनौतियाँ
- जनसंख्या वृद्धि दर घटी, लेकिन कुछ राज्यों में यह अभी भी अधिक बनी हुई है।
- उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में परिवार नियोजन को और बढ़ाने की ज़रूरत है।
- महिला शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देना आवश्यक है।
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