बाजार दर्शन Class 12 Chapter-11 Book1 Aroh Chapter Summary
0Team Eklavyaदिसंबर 09, 2024
बाजार दर्शन
लेखक का उद्देश्य
इस निबंध में लेखक ने बाजार के आकर्षण, उसकी जादुई प्रकृति, और मानव मन पर उसके प्रभावों को विवेचित किया है। बाजार को केवल वस्तुओं के आदान-प्रदान का स्थान न मानकर, जीवन की जरूरतों और इच्छाओं के बीच के संतुलन को समझने का माध्यम बताया गया है।
बाजार का आकर्षण और मनोवैज्ञानिक प्रभाव
बाजार केवल वस्तुओं का स्थान नहीं है, बल्कि यह लोगों को आकर्षित करने का एक महत्वपूर्ण साधन भी है। उसकी सजावट और आमंत्रण ऐसा वातावरण बनाते हैं, जो लोगों को अपनी ओर खींचता है। कई बार, बाजार की प्रस्तुति और व्यक्ति की क्रय शक्ति (पैसे की पावर) उसे अपनी आवश्यकता से अधिक सामान खरीदने के लिए प्रेरित करती है, जिससे वह अनायास ही अपनी इच्छाओं के आगे झुक जाता है।
खाली मन और बाजार का प्रभाव
यदि मन खाली हो, तो बाजार का जादू और अधिक गहराई से असर करता है। बाजार में जाने से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी होता है कि वास्तव में हमें क्या चाहिए, क्योंकि बिना किसी योजना के बाजार में जाना व्यक्ति को अधिक खर्च करने के लिए प्रेरित कर सकता है। जब मन खाली हो और जेब भरी हो, तो बाजार का प्रभाव सबसे अधिक होता है, क्योंकि ऐसे समय में व्यक्ति सजावट और प्रस्तुति से प्रभावित होकर अपनी आवश्यकताओं से परे खरीदारी कर लेता है।
जरूरत बनाम इच्छाएँ
बाजार जरूरतों को पूरा करने का स्थान है, लेकिन इसका आकर्षण लोगों को अक्सर उनकी इच्छाओं के जाल में फँसा देता है। लेखक बताते हैं कि बाजार का यह आकर्षण व्यक्ति को असंतोष और तृष्णा से भर सकता है, जिससे उसकी आवश्यकताएँ और इच्छाएँ आपस में उलझ जाती हैं। यदि व्यक्ति यह स्पष्ट नहीं कर पाता कि वह वास्तव में क्या चाहता है, तो बाजार का भ्रम उसे भटकाकर न केवल उसकी क्रय शक्ति को कमजोर कर सकता है बल्कि मानसिक शांति को भी नष्ट कर सकता है।
चूरन वाले भगत जी का दृष्टांत
भगत जी का जीवन बाजार के जादू से पूरी तरह अछूता है, क्योंकि वे अपनी आवश्यकताओं को भली-भांति समझते हैं और केवल वही खरीदते हैं जो वास्तव में उनके लिए जरूरी होता है। बाजार का सारा आकर्षण और जादू उन पर बेअसर रहता है, क्योंकि उनका मन खाली नहीं, बल्कि उद्देश्य और संकल्प से भरा हुआ है। भगत जी का दृष्टांत यह सिखाता है कि जब मन और उद्देश्य स्पष्ट होते हैं, तो बाजार का प्रभाव कमजोर पड़ जाता है और व्यक्ति अपने फैसले पर दृढ़ बना रहता है।
बाजार का नैतिक पक्ष और मानवता पर प्रभाव
बाजार का उपयोग आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होना चाहिए, न कि अनावश्यक संचय के लिए, क्योंकि संचय की प्रवृत्ति से समाज में असंतुलन पैदा होता है। लेखक मानते हैं कि आधुनिक बाजार और अर्थशास्त्र मानवता के लिए विडंबना बन गए हैं, जहाँ शोषण और कपट को बढ़ावा मिलता है। बाजार में कपट बढ़ने से सद्भाव घटता है, जिससे भाईचारे और परस्पर विश्वास को नुकसान पहुँचता है। ऐसे बाजार, जो शोषण और छल-कपट पर आधारित होते हैं, मानवता के मूलभूत मूल्यों को नष्ट कर देते हैं और समाज को विभाजित कर देते हैं।
निष्कर्ष
बाजार का वास्तविक उद्देश्य आवश्यकता पूर्ति है, लेकिन इच्छाओं और तृष्णा के जाल में फँसकर लोग अक्सर अपना संतुलन खो देते हैं। यदि व्यक्ति अपने लक्ष्य स्पष्ट रखे और अपनी आवश्यकताओं को सही ढंग से पहचाने, तो बाजार को सच्चा और लाभकारी बनाया जा सकता है। लेखक बाजार को मानवता और नैतिकता के लिए एक परीक्षा का स्थल मानते हैं, जहाँ व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं के बीच भेद करना सीखना चाहिए। यह समझ न केवल व्यक्ति के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए लाभकारी हो सकती है।