परिचय
- यह अंश ‘रामचरितमानस’ के ‘अयोध्या कांड’ से लिया गया है |
- इस अंश मे राम के वन गमन के बाद भरत की मनोदशा को दिखाया गया है |
- भरत का राम के प्रति अत्यधिक प्रेम भाव है |
- राम के वन गमन से अन्य माताएँ और अयोध्या के नगरवासी भी अत्यंत दुखी हैं |
(1)
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े ॥
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहीँ मैं काहा।।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी ।। सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू ।।
मैं प्रभु कृपा रीति जिय जोही। हारेंहूँ खेल जितावहिं मोही।।
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।
संदर्भ
कवि : तुलसीदास
कविता : भरत राम का प्रेम
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्या कांड से ली गई हैं | इन पंक्तियों मे राम वन गमन के बाद भरत की मनोदशा का वर्णन किया गया है | भरत बहुत ज्यादा दुखी हैं और अपनी वेदना तथा राम के प्रति अपना प्रेम प्रकट कर रहे हैं |
व्याख्या
- चित्रकूट मे मुनि वशिष्ठ अपनी बात कहकर भरत को आदेश देते हैं की तुम अपने मन की बात कह दो , संकोच मत करो |
- इसके बाद भरत सभा मे राम के सामने खड़े हो गए , भारत इतने भावुक हो गए की वे रोने लगे |
- जो कुछ मैं कह सकता था वो सब तो मुनिनाथ ने कह डाला , मैं अपने स्वामी राम का स्वभाव जनता हूँ , उन्होंने तो अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं किया |
- और मुझ पर तो उनकी विशेष कृपया और प्यार है मैंने खेल मे भी कभी उन्हे गुस्सा होते नहीं देखा |
- बचपन मे भी मैंने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरा मन काभी नहीं तोड़ा |
- मेरे हारने पर भी प्रभु मुझे जीता दिया करते थे , मेरे प्रेम के प्यासे नैन उनका दर्शन पाना चाहते हैं और हमेशा उनके साथ ही रहना चाहते हैं |
(2)
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा ।।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली ।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली ।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उद्धि अवगाहू ।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू ।।
हृदय हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू ।।
साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ।।
संदर्भ
कवि : तुलसीदास
कविता : भरत राम का प्रेम
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्या कांड से ली गई हैं | इन पंक्तियों मे राम वन गमन के बाद भरत की मनोदशा का वर्णन किया गया है | भरत बहुत ज्यादा दुखी हैं और अपनी वेदना तथा राम के प्रति अपना प्रेम प्रकट कर रहे हैं |
व्याख्या
- यहाँ भरत कहते हैं की मुझसे श्रीराम इतना प्रेम करते हैं की विधाता को यह सहन नहीं हुआ और विधाता ने नीच माता के बहाने मेरे और प्रभु राम के बीच दूरी पैदा कर दी |
- यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता , क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र होता हैं अर्थात जिसको पूरी दुनिया पवित्र माने असल मे वही पवित्र होता है अगर मैं यह कहूँ की मैं सही हूँ तो यह बात सही नहीं होगी |
- माता नीच हैं और मैं सच्चा साधु हूँ ऐसा विचार हृदय मे लाना ही करोड़ों दुराचारों के बराबर है|
- भरत कहते हैं की क्या भला कोदो की काली बाली मे अच्छा धान फल सकता है ? क्या काली घोंघी उत्तम कोटी का मोती उत्पन्न कर सकती है ?
- कहने का भाव यह है की यदि माता कैकेयी नीच है तो उसका बेटा अच्छा कैसे हो सकता है
- अब भरत खुद को दोषी मानते हुए अपनी बात कह रहे हैं ,मैं सपने मे भी किसी को दोष नहीं देना चाहता | मैं ही अभागा हूँ |
(3)
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ ऐहि घाएँ।।
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबड़ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तापस तीछी ।।
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ।।
संदर्भ
कवि : तुलसीदास
कविता : भरत राम का प्रेम
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के अयोध्या कांड से ली गई हैं | इन पंक्तियों मे राम वन गमन के बाद भरत की मनोदशा का वर्णन किया गया है | भरत बहुत ज्यादा दुखी हैं और अपनी वेदना तथा राम के प्रति अपना प्रेम प्रकट कर रहे हैं |
व्याख्या
- इस दुनिया ने यह देखा है की किस प्रकार माता की कुबुद्धि के कारण पिता को भी मृत्यु प्राप्त हो गई अर्थात राम को वनवास मिला और राम से बिछड़ने के कारण ही महाराज दशरथ का निधन हुआ |
- सभी माताएँ राम के वियोग से दुखी हैं , और उनका दुख मुझसे देखा नहीं जाता अवध के सभी नगरवासी असहनीय दुख झेल रहे हैं |
- श्रीराम लक्ष्मण और सीता जी के साथ मुनियों का वेश धारण करके बिना पैरों मे कुछ पहने नंगे पाँव ही वन मे चल दिए , शिवशंकर ही इस बात के साक्षी हैं की इतने दुखों के बाद भी मैं जिंदा हूँ |
- आगे भरत खुद को कठोर हृदय का बताते हुए कह रहे हैं की निषाद राज का प्रेम देख कर भी मेरा हृदय नहीं पिघल रहा |
- अब मैंने यहाँ आकार सब कुछ अपनी आँखों से देख लिया है , और यह जड़ जीव जिंदा रहकर सभी दुख सहेगा , जिनको देख कर भयानक सांप और बिच्छू भी अपना विष त्याग देते है , ऐसे हैं श्री राम |
- भरत कहना चाहते हैं की जो अच्छे लोगों के साथ बुरे काम करते हैं ईश्वर उन्हे अवश्य दंड देता है (जैसा कैकेयी ने श्री राम के साथ किया )
- कैकेयी श्रीराम को अपना शत्रु मानने लगी थी ,अपने बेटे को सत्ता दिलाने के लिए ऐसा किया और उसका दंड उसी के बेटे को श्रीराम से अलग होकर मिल रहा है |
परिचय
- यहाँ गीतावली से दो पद लिए गए हैं , पहले पद मे राम के वन गमन के बाद माता कौशल्या के हृदय की वेदना को दिखाया गया है|
- दूसरे पद मे माँ कौशल्या राम के वियोग मे उनके घोड़ों की बुरी हालत देखकर राम से एक बार वापस अयोध्या लौट आने का निवेदन कर रही हैं |
(1)
जननी निरखति बान धनुहियाँ।
बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ।।
कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
"उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे" ।।
कबहुँ कहति यों "बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया।
बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया“
कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी।।
संदर्भ -
कवि : तुलसीदास
कविता : पद
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि तुलसीदास द्वारा रचित गीतावली से ली गई हैं | पहले पद मे राम के वन गमन के बाद माता कौशल्या के हृदय की वेदना को दिखाया गया है |
व्याख्या
- माता कौशल्या श्रीराम के खेलने वाले धनुष बाण को देखती हैं , और उनकी सुंदर नन्ही जूतियों को अपने हृदय और आँखों से बार बार लगाती हैं |
- तभी पहले की तरह सुबह सुबह जाकर माता कौशल्या श्रीराम को प्यारे प्यारे वचन कहकर जगाने लगती हैं ‘हे पुत्र उठो तुम्हारे सुंदर चेहरे पर तुम्हारी माता बलिहारी जाती है उठो तुम्हारे सभी भाई और मित्र दरवाजे पर खड़े हैं और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं |
- और कभी माता कौशल्या कहती है , भैया बहुत देर हो गई है है महाराज के पास जाओ और अपने साथियों को बुलाकर जो अच्छे लगे वैसा भोजन खो |
- और अंत मे जैसे ही उन्हे वनगमन की बात याद आती है की श्रीराम तो यहाँ नहीं है , तो वह बहुत ज्यादा दुखी हो जाती हैं और उस दुख मे वे एक चित्र की तरह स्थिर रह जाती हैं |
- तुलसीदास कहते है उस समय माता कौशल्या की स्थिति उस मोर के समान हो जाती है जो अपने पंखों को देखकर खुश होकर नाचता है और जैसे ही उसकी नजर अपने पाँव पर जाती है वह रोने लगता है |
(2)
राघौ! एक बार फिरि आवौ।
ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ ।।
जे पय प्याइ पोखि कर पंकज वार वार चुचुकारे।
क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले ! ते अब निपट बिसारे।।
भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे।।
सुनहु पथिक ! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो।
तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो ।।
संदर्भ -
कवि : तुलसीदास
कविता : पद
प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि तुलसीदास द्वारा रचित गीतावली से ली गई हैं | पहले पद मे राम के वन गमन के बाद माता कौशल्या के हृदय की वेदना को दिखाया गया है |
व्याख्या
- माता कौशल्या कहती है , हे राघव तुम एक बार तो जरूर लौट आओ , एक बार फिर से आजाओ , ये अयोध्या तुम्हें बुला रही है |
- एक बार यहाँ आकर अपने इन घोड़ों को देख लो और फिर वापस वन मे चले जाना लेकिन एक बार तो लौट कर आजाओ |
- इन घोड़ों को तुमने पानी पिलाया था , और प्यार से स्पर्श करते थे और इन्हे अब तुम भूल गए हो |
- तुम इन जीवों को भूल गए हो अब ये जीव कैसे जियेंगे , भरत जानते हैं की ये घोड़े आपको बहुत प्रिय हैं और वे इनकी अच्छे से देखभाल भी करते हैं |
- लेकिन फिर भी ये घोड़े दिन प्रतिदिन बहुत ज्यादा कमजोर होते जा रहे हैं जैसे मानो कमाल के फूल पर पाला पड़ गया हो |
- माता कौशल्या पथिकों से कहती हैं , सुनो यदि तुम्हें वन मे राम मिल जाएं तो उनसे माता का यह संदेश कहना की मुझे सबसे बढ़कर इन घोड़ों की ही चिंता है , और उन्हे घोड़ों की हालत के बारे मे बता देना |