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भू – संसाधन तथा कृषि Geography Book 2 class 12 Chapter 3 Notes


Book Chapter 3


भू – संसाधन तथा कृषि 



भूमि एक प्राकृतिक संसाधन है

मनुष्य भू - संसाधन का उपयोग विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए करता है

आपने अपने चारों ओर भूमि के कई उपयोग देखे होंगे 

  • खेती करना 
  • विद्यालय बनाना 
  • घर बनाना 
  • सड़क निर्माण 
  • चारागाह
  • पार्क
  • सिनेमा घर
  • अस्पताल

भूराजस्व विभाग भू-उपयोग संबंधी अभिलेख रखता है।


भू-उपयोग वर्गीकरण 


1 . वनों के अधीन क्षेत्र 

  • वर्गीकृत वन क्षेत्र तथा वनों के अंतर्गत वास्तविक क्षेत्र दोनों पृथक हैं। 
  • सरकार द्वारा वर्गीकृत वन क्षेत्र का सीमांकन इस प्रकार किया जहाँ वन विकसित हो सकते हैं। 
  • भूराजस्व अभिलेखों में इसी परिभाषा को सतत अपनाया गया है। 


2. बंजर व व्यर्थ भूमि 

  • वह भूमि जो प्रचलित प्रौद्योगिकी की मदद से कृषि योग्य नहीं बनाई जा सकती, 
  • जैसे- बंजर पहाड़ी भूभाग, मरुस्थल आदि को  कृषि अयोग्य व्यर्थ-भूमि में वगीकृत किया गया है।


3. गैर कृषि-कार्यों में प्रयुक्त भूमि

  • इस संवर्ग में बस्तियाँ (ग्रामीण व शहरी) अवसंरचना (सड़कें, नहरें आदि) उद्योगों, दुकानों आदि हेतु भू-उपयोग सम्मिलित हैं। 
  • द्वितीयक व तृतीयक कार्यकलापों में वृद्धि से इस संवर्ग के भू-उपयोग में वृद्धि होती है।


4. स्थायी चरागाह क्षेत्र 

  • इस प्रकार की अधिकतर भूमि पर ग्राम पंचायत या सरकार का स्वामित्व होता है। 
  • इस भूमि का केवल एक छोटा भाग निजी स्वामित्व में होता है। 
  • ग्राम पंचायत के स्वामित्व वाली भूमि को 'साझा संपत्ति संसाधन' कहा जाता है। 


5. विविध तरु-फसलों व उपवनों के अंतर्गत क्षेत्र 

  • इसमें वह भूमि सम्मिलित है जिस पर उद्यान व फलदार वृक्ष हैं। 
  • इस प्रकार की अधिकतर भूमि व्यक्तियों के निजी स्वामित्व में है।


6. कृषि योग्य व्यर्थ भूमि

  • वह भूमि जो पिछले पाँच वर्षों तक या अधिक समय तक परती या कृषिरहित है 
  • भूमि उद्धार तकनीक द्वारा इसे सुधार कर कृषि योग्य बनाया जा सकता है। 


7. वर्तमान परती भूमि 

  • वह भूमि जो एक कृषि वर्ष या उससे कम समय तक कृषिरहित रहती है, वर्तमान परती भूमि कहलाती है।
  • भूमि की गुणवत्ता बनाए रखने हेतु भूमि का परती रखना एक सांस्कृतिक चलन है। 
  • इस विधि से भूमि की क्षीण उर्वरकता या पौष्टिकता प्राकृतिक रूप से वापस आ जाती है। 


8. पुरातन परती भूमि 

  • यह भी कृषि योग्य भूमि है जो एक वर्ष से अधिक लेकिन पाँच वर्षों से कम समय तक  कृषिरहित रहती है। 
  • अगर कोई भूभाग पाँच वर्ष से अधिक समय तक कृषि रहित रहता है तो इसे कृषि योग्य व्यर्थ भूमि में सम्मिलित कर दिया जाता है।


9. निवल बोया क्षेत्र 

  • वह ( भूमि जिस पर फ़सलें उगाई व काटी जाती हैं वह निवल बोया गया क्षेत्र कहलाता है


साझा संपत्ति संसाधन

भूमि के स्वामित्व के आधार पर इसे मोटे तौर पर दो वर्गों में बाँटा जाता है- 

1. निजी भूसंपत्ति 

  • इस प्रकार की भूमि पर व्यक्तियों का निजी स्वामित्व अथवा कुछ व्यक्तियों का सम्मिलित निजी स्वामित्व होता है।

2. साझा संपत्ति संसाधन

इस प्रकार की भूमियाँ सामुदायिक उपयोग हेतु राज्यों के स्वामित्व में होती हैं। साझा संपत्ति संसाधन पशुओं के लिए चारा घरेलू उपयोग हेतु ईंधन, लकड़ी तथा साथ ही अन्य वन उत्पाद जैसे- फल, रेशे, गिरी, औषधीय पौधे आदि उपलब्ध कराती हैं।

  • ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन छोटे कृषकों तथा अन्य आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के व्यक्तियों के जीवन-यापन में इन भूमियों का विशेष महत्व है; क्योंकि इनमें से अधिकतर भूमिहीन होने के कारण पशुपालन से प्राप्त आजीविका पर निर्भर होते हैं 

  • साझा संपत्ति संसाधनों को सामुदायिक प्राकृतिक संसाधन भी कहा जा सकता है, जहाँ सभी सदस्यों को इसके उपयोग का अधिकार होता है सामुदायिक वन, चरागाहों, ग्रामीण जलीय क्षेत्र तथा अन्य सार्वजनिक स्थान साझा संपत्ति संसाधन के ऐसे उदाहरण हैं


भारत में कृषि भू-उपयोग

भू-संसाधनों का महत्व उन लोगों के लिए अधिक है जिनकी आजीविका कृषि पर निर्भर हैं:

1. कृषि पूर्णतया भूमि पर आधारित है अतः ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीनता प्रत्यक्ष रूप से वहाँ की गरीबी से संबंधित है। 

2. भूमि की गुणवत्ता कृषि उत्पादकता को प्रभावित कर है जो अन्य कार्यों में नहीं है। 

3. ग्रामीण क्षेत्रों में भू-स्वामित्व का आर्थिक मूल्य के अतिरिक्त  सामाजिक मूल्य भी हैं तथा प्राकृतिक आपदाओं या निजी विपत्ति में एक सुरक्षा की भाँति है एवं समाज में प्रतिष्ठा बढ़ाता है।



भारत में फसल ऋतुएँ 

हमारे देश के उत्तरी व आंतरिक भागों में तीन प्रमुख फ़सल ऋतुएँ- खरीफ, रबी व जायद के नाम से जानी जाती है।

1. खरीफ की फसलें अधिकतर दक्षिण-पश्चिमी मानसून के साथ बोई जाती हैं जैसे- चावल, कपास, जूट, ज्वार, बाजरा व अरहर आदि। 

2. रबी की ऋतु अक्टूबर-नवंबर में शरद ऋतु से प्रारंभ होकर मार्च-अप्रैल में समाप्त होती है। फ़सल जैसे- गेहूँ, चना, तथा सरसों आदि फ़सलों की बुवाई में सहायक है। 

3. जायद एक अल्पकालिक ग्रीष्मकालीन फ़सल ऋतु है जो रवी की कटाई के बाद प्रारंभ होता है। इस ऋतु में तरबूज, खीरा, ककड़ी. सब्ज़ियाँ , चारा इत्यादि 



कृषि के प्रकार 

आर्द्रता के प्रमुख उपलब्ध स्रोत के आधार पर कृषि को सिंचित कृषि तथा वर्षा निर्भर (बारानी) कृषि में वर्गीकृत किया जाता है।

1. रक्षित सिंचाई कृषि 

  • रक्षित सिंचाई का मुख्य उदेश्य आर्द्रता की कमी के कारण फ़सलों को नष्ट होने से बचाना है
  • वर्षा के अतिरिक्त जल की कमी को सिंचाई द्वारा पूरा किया जाता है।
  • इस प्रकार की सिंचाई का उद्देश्य अधिकतम क्षेत्र को पर्याप्त आर्द्रता उपलब्ध कराना है।

2. उत्पादक सिंचाई कृषि

  • उत्पादक सिंचाई का उद्देश्य 
  • फ़सलों को पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध कराकर अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करना है। 
  • उत्पादक सिंचाई में जल निवेश की मात्रा रक्षित सिंचाई की अपेक्षा अधिक होती है।



वर्षा निर्भर कृषि

1. शुष्क भूमि कृषि

  • भारत में शुष्क भूमि खेती मुख्यतः उन प्रदेशों तक सीमित है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 सेंटीमीटर से कम है। इन क्षेत्रों में शुष्कता को सहने में सक्षम फ़सलें जैसे- रागी, बाजरा, मूंग, चना तथा ग्वार (चारा फसलें) आदि उगाई जाती हैं इन क्षेत्रों में आर्द्रता संरक्षण तथा वर्षा जल के प्रयोग के अनेक विधियाँ अपनाई जाती हैं।

2. शुष्क भूमि कृषि

  • भारत में शुष्क भूमि खेती मुख्यतः उन प्रदेशों तक सीमित है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 सेंटीमीटर से कम है। इन क्षेत्रों में शुष्कता को सहने में सक्षम फ़सलें जैसे- रागी, बाजरा, मूंग, चना तथा ग्वार (चारा फसलें) आदि उगाई जाती हैं इन क्षेत्रों में आर्द्रता संरक्षण तथा वर्षा जल के प्रयोग के अनेक विधियाँ अपनाई जाती हैं।



खाद्यान्न फसल

भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था में खाद्यान्नों की महत्ता को इस तथ्य से मापा जा सकता है कि देश के समस्त बोये क्षेत्र के दो-तिहाई भाग पर खाद्यान्न फ़सलें उगाई जाती हैं। देश के सभी भागों में खाद्यान्न फ़सलें प्रमुख हैं, भले ही वहाँ जीविका निर्वाह अर्थव्यवस्था या व्यापारिक कृषि अर्थव्यवस्था हो।


अनाज

भारत में कुल बोये क्षेत्र के लगभग 54 प्रतिशत भाग पर अनाज बोये जाते हैं। भारत विश्व का लगभग  11 प्रतिशत अनाज उत्पन्न करके अमेरिका व चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। भारत विविध प्रकार के अनाजों का उत्पादन करता है जैसे - चावल, गेहूँ , ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी आदि


1. चावल  

  • भारत की अधिकतर जनसंख्या का मुख्य भोजन चावल है। यद्यपि यह एक उष्ण आर्द्र कटिबंधीय फ़सल है,
  • इसकी अनेक किस्में हैं जो विभिन्न कृषि जलवायु प्रदेशों में उगाई जाती है।
  • इसकी कृषि पूर्वी भारत के कई भागों से लेकर उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क परंतु सिंचित क्षेत्र पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश व उत्तरी राजस्थान में सफलतापूर्वक की जाती है।
  • दक्षिणी राज्यों तथा पश्चिम बंगाल में जलवायु अनुकूलता के कारण एक कृषि वर्ष में चावल की दो या तीन फ़सले बोई जाती है।
  • पश्चिम बंगाल के किसान चावल की तीन फ़सलें उगा लेते हैं जिन्हें औस, अमन तथा बोरों कहा जाता है।
  • परंतु हिमालय तथा देश के उत्तर-पश्चिम भागों में यह दक्षिण-पश्चिम मानसून ऋतु में खरीफ फसल के रूप में उगाई जाती है।
  • भारत विश्व का 22.07 प्रतिशत चावल उत्पादन करता है
  • तथा चीन के बाद भारत का विश्व में दूसरा स्थान है (2018)।


2. गेहूं  

  • भारत में चावल के पश्चात् गेहूँ दूसरा प्रमुख अनाज है।
  • भारत विश्व का 12.8 प्रतिशत गेहूँ उत्पादन करता है (2017)।
  • यह मुख्यतः शीतोष्ण कटिबंधीय फ़सल है। अतः इसे शरद् अर्थात् रवी ऋतु में बोया जाता है।
  • इस फ़सल का 85 प्रतिशत क्षेत्र भारत के उत्तरी मध्य भाग तक केंद्रित है
  • रबी फ़सल होने के कारण यह सिंचाई की सुविधा वाले क्षेत्रों में ही उगाया जाता है।
  • देश के कुल बोये क्षेत्र के लगभग 14 प्रतिशत भाग पर गेहूँ की कृषि की जाती है।
  • गेहूँ के प्रमुख उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान हैं।
  • मध्य प्रदेश , हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर में गेहूँ को कृषि वर्षा आधारित है तथा उत्पादकता कम है।


3. ज्वार 

  • देश के कुल बोये क्षेत्र के 16.5 प्रतिशत भाग पर मोटे अनाज बोये जाते हैं। इनमें ज्वार प्रमुख है
  • यह दक्षिण व मध्य भारत के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों की प्रमुख खाद्य फ़सल है।
  • महाराष्ट्र राज्य अकेला, देश की आधे से अधिक ज्वार उत्पादन करता है।
  • अन्य प्रमुख ज्वार उत्पादक राज्यों में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना हैं।
  • दक्षिण राज्यों में यह खरीफ़ तथा रबी दोनों ऋतुओं में बोया जाता है।
  • परंतु उत्तर भारत में यह खरीफ़ की फ़सल है तथा मुख्यतः चारा फ़सल के रूप में उगायी जाती है।


4. बाजरा  

  • भारत के पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम भागों में गर्म तथा शुष्क जलवायु में बाजरा बोया जाता है।
  • यह फ़सल इस क्षेत्र के शुष्क दौर तथा सूखा सहन करने में समर्थ है।
  • यह एकल तथा मिश्रित फ़सल के रूप में बोया जाता है।
  • बाजरा उत्पादक प्रमुख राज्य महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, राजस्थान व हरियाणा है।


5. मक्का   

  • मक्का एक खाद्य तथा चारा फ़सल है जो निम्न कोटि मिट्टी व अर्धशुष्क जलवायवी परिस्थितियों में उगाई जाती है।
  • यह फ़सल कुल बोये क्षेत्र के केवल 3.6 प्रतिशत भाग में बोई जाती है।
  • यह पूर्वी तथा उत्तर पूर्वी भारत को छोड़कर देश के लगभग सभी हिस्सों में बोई जाती है।
  • मक्का के प्रमुख उत्पादक राज्य कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान व उत्तर प्रदेश हैं।


6. चना

  • चना मुख्यतः वर्षा आधारित फ़सल है यह रबी की ऋतु में बोई जाती है।
  • इस फ़सल को सफलतापूर्वक उगाने के लिए वर्षा की केवल एक या दो हल्की बौछारों या एक या दो बार सिंचाई की आवश्यकता होती है।
  • हरियाणा, पंजाब तथा उत्तरी राजस्थान में हरित क्रांति की शुरुआत से चने के फ़सल क्षेत्रों में कमी आई है तथा इसके स्थान पर गेहूँ की फ़सल बोई जाती है।
  • इस फ़सल के प्रमुख उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश ,उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना तथा राजस्थान है।
  • इसकी उत्पादकता कम है तथा सिंचित क्षेत्रों में भी इसकी उत्पादकता में एक वर्ष से दूसरे वर्ष के बीच उतार-चढ़ाव पाया जाता है।


7. अरहर  

  • यह देश की दूसरी प्रमुख दाल फ़सल है।
  • इसे लाल चना तथा पिजन पी. के नाम से भी जाना जाता है।
  • यह देश के मध्य तथा दक्षिणी राज्यों के शुष्क भागों में वर्षा-आधारित परिस्थितियों तथा सीमांत भूक्षेत्रों पर बोई जाती है।
  • देश के अरहर के कुल उत्पादन का लगभग एक तिहाई भाग अकेले महाराष्ट्र से आता है।
  • अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात तथा मध्य प्रदेश हैं।
  • इस फ़सल की प्रति हेक्टेयर उत्पादकता कम तथा अनियमित है।


8. तिलहन 

  • खाद्य तेल निकालने के लिए तिलहन की खेती की जाती है।
  • मालवा पठार, मराठवाड़ा, गुजरात, राजस्थान के शुष्क भागों तेलंगाना व आंध्र प्रदेश के रायलसीमा प्रदेश,
  • भारत के प्रमुख तिलहन उत्पादक क्षेत्र हैं।
  • भारत की प्रमुख तिलहन फ़सलों में मूंगफली, तोरिया, सरसों, सोयाबीन तथा सूरजमुखी सम्मिलित है।


9. मूंगफली  

  • भारत विश्व में 18.8 प्रतिशत मूँगफली का उत्पादन करता है (2018)
  • यह मुख्यतः शुष्क प्रदेशों की वर्षा-आधारित खरीफ फ़सल है।
  • परंतु दक्षिण भारत में यह रबी ऋतु में बोई जाती है।
  • गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश इसके अग्रणी उत्पादक राज्य हैं।
  • तमिलनाडु में जहाँ भी यह फ़सल आंशिक रूप से सिंचित है,


10. सरसों 

  • तोरिया व सरसों में बहुत से तिलहन सम्मिलित हैं, जैसे- राई सरसों, तोरिया व तारामीरा आदि।
  • भारत के मध्य व उत्तर-पश्चिमी भाग में रबी में बोई जाती है।
  • सिचाई के प्रसार बीज सुधार तथा प्रौद्योगिकी के साथ इनके उत्पादन में वृद्धि हुई है।
  • इनके उत्पादन का एक-तिहाई भाग राजस्थान से आता है तथा अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य हरियाणा, तथा मध्य प्रदेश हैं।


11. अन्य तिलहन 

  • सोयाबीन तथा सूरजमुखी भारत के अन्य महत्वपूर्ण तिलहन हैं।
  • सोयाबीन अधिकतर मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र में बोया जाता है। दोनों राज्य मिलकर देश का लगभग 90 प्रतिशत
  • सोयाबीन पैदा करते हैं।
  • सूरजमुखी की फ़सल राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना तथा इससे जुड़े हुए महाराष्ट्र के भागों में है


रेशेदार फसलें 


ये फसलें हमें कपड़ा, थैला, बोरा व अन्य कई प्रकार का सामान बनाने के लिए रेशा प्रदान करते हैं। कपास तथा जूट भारत को दो प्रमुख रेशेदार फ़सलें हैं। 


1. कपास 

  • कपास एक उष्ण कटिबंधीय फ़सल है जो देश के अर्ध-शुष्क भागों में खरीफ़ ऋतु में बोई जाती है।
  • देश विभाजन के समय भारत का बहुत बड़ा कपास उत्पादन क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया।
  • पिछले 50 वर्षों में भारत में इसके क्षेत्रफल में लगातार वृद्धि हुई है।
  • भारत, छोटे रेशे वाली (भारतीय) व लंबे रेशे वाली (अमेरिकन) दोनों प्रकार की कपास का उत्पादन करता है।
  • अमेरिकन कपास को देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में 'नरमा' कहा जाता है।
  • भारत का कपास के उत्पादन में विश्व में चीन के पश्चात दूसरा स्थान है।
  • देश के समस्त बोए क्षेत्र के लगभग 4.7 प्रतिशत क्षेत्र पर कपास बोया जाता है।
  • कपास के अग्रणी उत्पादक राज्य- गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, पंजाब तथा हरियाणा हैं।


2. जूट   

  • जूट का प्रयोग मोटे वस्त्र, थैला, बोरे व अन्य सजावटी सामान बनाने में किया जाता है।
  • यह पश्चिम बंगाल तथा पूर्वी भागों की एक व्यापारिक फ़सल है।
  • विभाजन के दौरान देश का विशाल जूट उत्पादक क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान (बांग्ला देश) में चला गया।
  • आज भारत विश्व का लगभग 60 प्रतिशत जूट उत्पादन करता है।


रोपड़ फसलें 


1. गन्ना

  • गन्ना एक उष्ण कटिबंधीय फ़सल है।
  • भारत में इसकी खेती अधिकतर सिंचित क्षेत्रों में की जा सकती है।
  • गंगा-सिंधु के मैदानी भाग में इसकी अधिकतर बुवाई उत्तर-प्रदेश तक सीमित है।
  • पश्चिम भारत में गन्ना उत्पादक प्रदेश महाराष्ट्र व गुजरात तक विस्तृत है।
  • दक्षिण भारत में इसकी कृषि कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना व आंध्र प्रदेश के सिंचाई वाले भागों में की जाती है।
  • ब्राजील के बाद भारत दूसरा बड़ा गन्ना उत्पादक देश था
  • उत्तर प्रदेश देश का 40 प्रतिशत गन्ना उत्पादन करता है।
  • इसके अन्य प्रमुख उत्पादक राज्य महाराष्ट्र ,कर्नाटक तथा तमिलनाडु ,आंध्र प्रदेश हैं.


2. चाय 

  • चाय एक रोपण कृषि है जो पेय पदार्थ के रूप में प्रयोग की जाती है।
  • चाय की पत्तियों में कैफ़िन तथा टैनिन को प्रचुरता पाई जाती है।
  • भारत में चाय की खेती 1840 में असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में प्रारंभ हुई जो आज भी देश का प्रमुख चाय उत्पादन क्षेत्र है।
  • बाद में इसकी कृषि पश्चिमी बंगाल के उपहिमालयी भागों (दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी तथा कूचबिहार जिलों) में प्रारंभ की गई।
  • दक्षिण में चाय की खेती पश्चिमी घाट की नीलगिरी तथा इलायची की पहाड़ियों के निचले ढालों पर की जाती है।
  • भारत चाय का अग्रणो उत्पादक देश है तथा विश्व का लगभग 21.22 प्रतिशत चाय का उत्पादन करता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय चाय का भाग घटा है।
  • चाय-निर्यातक देशों में भारत का चीन के पश्चात् विश्व में दूसरा स्थान है (2018)।


3. कॉफ़ी

  • कॉफ़ी एक उष्ण कटिबंधीय रोपण कृषि है।
  • इसके बीजों को भूनकर पीसा जाता है तथा एक पेय के रूप में प्रयोग किया जाता है।
  • कॉफ़ी की तीन किस्में हैं; अरेबिका, रोबस्ता व लिबेरिका हैं।
  • भारत अधिकतर उत्तम किस्म की 'अरेबिका' कॉफ़ी का उत्पादन करता है, जिसकी अंतर्राष्टीय बाजार में बहुत माँग हैं।
  • परंतु भारत में विश्व का केवल 3.17 प्रतिशत कॉफ़ी का उत्पादन होता है।
  • ब्राजील, वियतनाम, इंडोनेशिया, कोलंबिया, होंडुरास, इथियोपिया तथा पेरू के बाद भारत का विश्व में आठवाँ स्थान है (2018)।
  • कर्नाटक, केरल व तमिलनाडु में पश्चिम घाट की उच्च भूमि पर इसकी कृषि की जाती है।
  • देश के समस्त कॉफ़ी उत्पादन का दो-तिहाई से अधिक भाग अकेले कर्नाटक राज्य से आता है।



भारत में कृषि विकास


आजादी से पहले भारतीय कृषि एक जीविकोपार्जी अर्थव्यवस्था जैसी थी। बीसवीं शताब्दी के मध्य तक इसका प्रदर्शन बड़ा दयनीय था। यह समय भयंकर अकाल व सूखे का समय था । देश के विभाजन के दौरान लगभग एक-तिहाई सिंचित भूमि पाकिस्तान में चली गई। परिणामस्वरूप स्वतंत्र भारत में सिंचित क्षेत्र का अनुपात कम रह गया। 


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सरकार का तात्कालिक उद्देश्य खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाना था जिसमें निम्न उपाय अपनाए गए

  • व्यापारिक फ़सलों की जगह खाद्यान्नों का उगाया जाना।
  • कृषि गहनता को बढ़ाना तथा कृषि योग्य बंजर तथा परती भूमि को कृषि भूमि में परिवर्तित करना।
  • प्रारंभ में इस नीति से खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ा, लेकिन 1950 के दशक के अंत तक कृषि उत्पादन स्थिर हो गया।
  • इस समस्या से उभरने के लिए गहन कृषि जिला कार्यक्रम (IADP) तथा गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (IAAP) प्रारंभ किए गए।
  • परंतु 1960 के दशक के मध्य में लगातार दो अकालों से देश में अन्न संकट उत्पन्न हो गया।
  • परिणामस्वरूप दूसरे देशों से खाद्यान्नों का आयात करना पड़ा।
  • 1960 के दशक के मध्य में गेहूँ (मैक्सिको) तथा चावल (फिलिपींस) की किस्में जो अधिक उत्पादन देने वाली नई किस्में थीं, कृषि के लिए उपलब्ध हुई।


'हरित क्रांति'

1. भारत ने इसका लाभ उठाया तथा पैकेज प्रौद्योगिकी के रूप में पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश तथा गुजरात के सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में, रासायनिक खाद के साथ इन उच्च उत्पादकता की किस्मों (HYV) को अपनाया।

2. नई कृषि प्रौद्योगिकी की सफलता हेतु सिंचाई से निश्चित जल आपूर्ति पूर्व आपेक्षित थी। कृषि विकास की इस नीति से खाद्यान्नों के उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई

3. हरित क्रांति ने कृषि में प्रयुक्त कृषि निवेश, जैसे उर्वरक, कीटनाशक, कृषि यंत्र आदि कृषि आधारित उद्योगों तथा छोटे पैमाने के उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन दिया।

4. कृषि विकास की इस नीति से देश खाद्यान्नों के उत्पादन में आत्म-निर्भर हुआ। लेकिन प्रारंभ में 'हरित क्रांति' देश के सिंचित भागों तक ही सीमित थी; फलस्वरूप कृषि विकास में प्रादेशिक असमानता बढ़ी।

5. योजना आयोग ने 1988 में कृषि विकास में प्रादेशिक संतुलन को प्रोत्साहित करने हेतु कृषि जलवायु नियोजन प्रारंभ किया। इसने कृषि, पशुपालन तथा जलकृषि को विकास हेतु संसाधनों के विकास पर भी बल दिया।


कृषि उत्पादन में वृद्धि तथा प्रौद्योगिकी का विकास 

  • पिछले पचास वर्षों में कृषि उत्पादन तथा प्रौद्योगिकी में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई है।
  • बहुत-सी फ़सलों जैसे चावल तथा गेहूँ के उत्पादन तथा पैदावार में प्रभावशाली वृद्धि हुई है अन्य फ़सलो मुख्यतः गन्ना, तिलहन तथा कपास के उत्पादन मे प्रशंसनीय वृद्धि हुई है।
  • सिंचाई के प्रसार ने देश में कृषि उत्पादन बढ़ाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • इसने आधुनिक कृषि प्रौद्योगिकी जैसे बीजों की उत्तम किस्में, रासायनिक खादों, कीटनाशकों तथा मशीनरी के प्रयोग के लिए आधार प्रदान किया है।


भारतीय कृषि की समस्याएँ 

1. अनियमित मानसून पर निर्भरता

  • भारत में कृषि क्षेत्र का केवल एक-तिहाई भाग ही सिंचित है।
  • शेष कृषि क्षेत्र में फसलों का उत्पादन प्रत्यक्ष रूप से वर्षा पर निर्भर है।
  • दक्षिण-पश्चिम मानसून की अनिश्चितता व अनियमितता से सिचाई हेतु नहरी जल आपूर्ति प्रभावित होती है।
  • दूसरी तरफ राजस्थान तथा अन्य क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम तथा अत्यधिक अविश्वसनीय है।
  • अधिक वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी काफी उतार-चढ़ाव पाया जाता है। फलस्वरूप यह क्षेत्र सूखा व बाद दोनों सुभेद्य हैं। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखा एक सामान्य परिघटना है लेकिन यहाँ यदा-कदा बाद भी आ जाती है।
  • वर्ष 2006 और 2017 में महाराष्ट्र, गुजरात तथा राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में आई आकस्मिक बाढ़ इस परिघटना का उदाहरण है। सूखा तथा बाढ़ भारतीय कृषि के लिए संकट बने हुए हैं।


2. निम्न उत्पादकता 

  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा भारत में फसलों की उत्पादकता कम है।
  • भारत में अधिकतर फसलों जैसे चावल, गेहूँ, कपास व तिलहन की प्रति हेक्टेयर पैदावार अमेरिका, रूस तथा जापान से कम है।
  • भूसंसाधनों पर अधिक दवाव के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तुलना में भारत में श्रम उत्पादकता भी बहुत कम है।
  • देश के विस्तृत वर्षा निर्भर विशेषकर शुष्क क्षेत्रों में अधिकतर मोटे अनाज, दालें तथा तिलहन की खेती की जाती है तथा यहाँ इनकी उत्पादकता बहुत कम है।


3. ऋणग्रस्तता

  • आधुनिक कृषि में लागत बहुत आती है।
  • सीमांत और छोटे किसानों की कृषि बचत बहुत कम या न के बराबर है।
  • अतः वे सघन संसाधन दृष्टिकोण से की जाने वाली कृषि में निवेश करने में असमर्थ हैं।
  • इन समस्याओं से उबरने के लिए, बहुत से किसान विविध संस्थाओं तथा महाजनों से ऋण लेते हैं।
  • कृषि से कम होती आय तथा फ़सलों के खराब होने से वे कर्ज के जाल में फँसते जा रहे हैं।


4. भूमि सुधारों की कमी 

  • भूमि के असमान वितरण के कारण भारतीय किसान लंबे समय से शोषित हैं। अंग्रेजी शासन के दौरान, तीन भूराजस्व प्रणालियों- महालवाड़ी, रैयतवाड़ी तथा जमींदारी में से जमींदारी प्रथा किसानों के लिए सबसे अधिक शोषणकारी रही है।
  • स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात्, भूमि सुधारों को प्राथमिकता दी गई, लेकिन ये सुधार कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण पूर्णतः फलीभूत नहीं हुए।
  • अधिकतर राज्य सरकारों ने राजनीतिक रूप से शक्तिशाली जमींदारों के खिलाफ़ कठोर राजनीतिक निर्णय लेने में टालमटोल किया।
  • भूमि सुधारों के लागू न होने के परिणामस्वरूप कृषि योग्य भूमि का असमान वितरण जारी रहा जिससे कृषि विकास में बाधा रही है।


5. छोटे खेत  विखंडित जोत 

  • भारत में सीमांत तथा छोटे किसानों की संख्या अधिक है। 60 प्रतिशत से अधिक किसानों के पास एक हेक्टेयर से छोटे भूजोत हैं और लगभग 40 प्रतिशत किसानों को जोतों का आकार तो 0.5 हेक्टेयर से भी कम है।
  • बढ़ती जनसंख्या के कारण इन जोतों का औसत आकार और भी सिकुड़ रहा है।
  • इसके अतिरिक्त भारत में अधिकतर भूजोत बिखरे हुए हैं। कुछ राज्यों में तो एक बार भी चकबंदी नहीं हुई है।
  • वे राज्य जहाँ एक बार चकबंदी हो चुकी है वहाँ पुनःचकबंदी की आवश्यकता है क्योंकि अगली पीढ़ी में भूमि बँटवारे की प्रक्रिया से भूजोतों का दोबारा विखंडन हो गया है।
  • विखंडित व छोटे भूजोत आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी हैं।


6. वाणिज्यीकरण का अभाव 

  • अधिकतर किसान अपनी जरूरत या स्वयं उपभोग हेतु फ़सलें उगाते हैं।
  • इन किसानों के पास अपनी जरूरत से अधिक उत्पादन के लिए पर्याप्त भू-संसाधन नहीं हैं।
  • अधिकतर उपांत तथा छोटे किसान खाद्यान्नों की कृषि करते हैं, जो उनकी पारिवारिक जरूरतों को पूरा करती है।
  • सिंचित क्षेत्रों में कृषि का आधुनिकीकरण तथा वाणिज्यीकरण हो रहा है।


7. व्यापक अल्प रोजगारी 

  • भारतीय कृषि में विशेषकर असिंचित क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अल्प रोजगारी पाई जाती है।
  • इन क्षेत्रों में ऋत्विक बेरोजगारी है जो 4 से 8 महीने तक रहती है।
  • फ़सल ऋतु में भी वर्ष-भर रोजगार उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि कृषि कार्य लगातार गहन श्रम वाले नहीं है।
  • अतः कृषि में कार्यरत लोगों को वर्ष-भर कार्य करने के अवसर प्राप्त नहीं होते।


कृषि योग्य भूमि का निम्नीकरण 

  • सिंचाई और कृषि विकास की दोषपूर्ण नीति इससे मृदा उर्वरक क्षमता कम हो रही है
  • यह समस्या विशेषकर सिंचित क्षेत्रों में भयावह है।
  • कृषि भूमि का एक बड़ा भाग जलाक्रांतता, लवणता तथा मृदा क्षारता के कारण बंजर हो चुका है।
  • अत्यधिक कीटनाशक रसायनों के प्रयोग से मृदा में जहरीले तत्वों का सांद्रण हो गया है।


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