[ भरत राम का प्रेम- तुलसीदास ] - (काव्य खण्ड हिंदी ) अंतरा- व्याख्या

[ भरत राम का प्रेम- तुलसीदास ] - (काव्य खण्ड हिंदी ) अंतरा- व्याख्या

( कविता- भरत राम का प्रेम व्याख्या )

( Summary)

  • यह कविता तुलसीदास द्वारा रचित " रामचरितमानस" के "अयोध्याकांड" से ली गई है !
  • इस कविता में उस समय का वर्णन किया गया है जब श्री राम वनवास चले जाते हैं। !

पुलकि सरीर सभां भाए  ठाढे़ |  नीरज नयन नेह जल बाढे़  || 
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा | एहि तें अधिक कहौं मैं कहा || 
मैं जानउं नीज नाथ सुभाऊ   अपराधिहु पर कोह न  काऊ || 
मो पर कृपा सनेहु  बिसेखी खेलत खुनिस न कबहुं देखी || 
सिसुपन तें परिहरेउं न संगू | कबहुं मोर मन भंगू || 
मैं प्रभु कृपा रीति जियं जोही | हारेंहु खेल जितावहिं मोंहि || 
महुं  सनेह बस सनमुख कही न बैन | दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन ||

व्याख्या- 1

  • यह उस समय की बात है जब भरत वशिष्ठ मुनि और कुछ स्नेह जानों के साथ राम से मिलने के लिए वन जाते हैं !
  • भरत, वशिष्ठ मुनि बाकी सभी स्नेहजन राम के सामने बैठे होते हैं और एक सभा होती है, जो उस सभा में वशिष्ठ मुनि अपनी बात कह चुके होते हैं !
  • और अब वह भरत से कहते हैं अपने यहां आने का कारण बताएं !
  • भरत इतने भावुक हो गए कि वह रोने लगे !
  • जो कुछ मैं कह सकता था वह सब तो मोनिनाथ ने कह डाला !
  • मैं अपने स्वामी राम का स्वभाव जानता हूं, उन्होंने तो अपराधी पर भी कभी क्रोध नहीं किया, और मुझ पर तो उनकी विशेष कृपा और प्यार है मैंने खेल में भी कभी उन्हें गुस्सा होते नहीं देखा !
  • बचपन में भी मैंने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा और उन्होंने भी मेरा मन कभी नहीं तोड़ा !
  • मेरे हारने पर भी प्रभु मुझे जीता दिया करते थे !
  • मेरे प्रेम के प्यासे नयन उनका दर्शन पाना चाहते हैं और हमेशा उनके साथ रहना चाहते हैं !

बिधि ना सकेउ सहि मोर दुलारा |बिचु जननी मिस पारा ||
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा | अपनी समूझि साधु सुचि को भा ||
मातु मंदि मैं साधु सुचाली | उर अस  आनत कोटि कुचाली || 
फरह कि कोदव बालि सुसाली | मुकता प्रसव कि संबुक काली || 
सपनेहुं दोसक लेसु न काहू | मोर अभाग उदधि अवगाहू || 
बिनु समझें निज अघ परिपाकू | जारिउं जायं जननि कहि काकू || 
ह्रदयं हेरि हारेउं सब ओरा | एकहि भांति भलेंहि भल मोरा || 
गुर गोसाइं साहिब सिय रामू लागत मोहि नीक परिनामू || 
साधु सभां गुरु प्रभु निकट कहउं सुथल सति भाउ | 
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ ||

व्याख्या- 2

  • यहां भरत कहते हैं की, मुझसे श्रीराम इतना प्रेम करते हैं कि विधाता को यह सहन नहीं हुआ और विधाता ने नीच माता के बहाने मेरे और प्रभु राम के बीच दूरी पैदा कर दी !
  • यह भी कहना आज मुझे शोभा नहीं देता, क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है आधार जिसको पूरी दुनिया पवित्र माने असल में वही पवित्र होता है अगर मैं यह कहूं कि मैं ही सही हूं तो यह सही बात नहीं होगी !
  • माता नीच है और मैं सच्चा और साधु हूं ऐसा विचार हृदय में लाना ही करोड़ों दुराचारो के समान है !
  • भरत के आते हैं की क्या कोदव की बाली अच्छा धान दे सकती है ?
  • क्या काला घोंगा श्रेष्ठ मोती दे सकता है ?
  • अर्थात जो दुराचारी माता है उसका पुत्र तो दुराचारी ही होगा !
  • अब भरत खुद को दोषी मानते हुए अपनी बातें कह रहे हैं, मैं सपने में भी किसी को दोष नहीं देना चाहता क्योंकि जो कुछ भी हुआ है वह मेरे अब भाग्य के समुंद्र के कारण ही हुआ है !
  • मैंने अपने पापों का परिणाम समझे बिना अपनी माता को भला बुरा कहा और उनके हृदय को ठेस पहुंचाई !
  • मैंने यह पाप किए है, मेरा भाग्य ही दोषी है, अब मेरा भला कौन कर सकता है !
  • एक ही प्रकार से मेरा भला हो सकता है, श्रीराम ही मेरा भला कर सकते हैं !
  • मैं यहां सभी बैठे गुरुजनों के बीच जो भी कह रहा हूं वह मेरा प्रेम है या झूठ इसे तो सिर्फ मुनि वशिष्ट और श्री राम ही जानते हैं !

भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुंमती जबतू सबु साखी ||
देखी न जाहि विकल महतारी। जरहि  दूसह जर पुर  नर नारी ||
महीं सकल अनस्थ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ||
सुनि बन गवन कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि वेष लखन सिय साथा ||
बिन पानाहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेऊ ऐहि घाए ||
बहुरि निहारि निषद सनेह। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ||
अब सबुत ऑखिन्ह देखाउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ||
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीची। तजहि विषम बिष तापस तीछी  ||
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि ||
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ||

व्याख्या- 3

  • इस दुनिया ने यह देखा है कि किस प्रकार माता की कुबुद्धि के कारण पिता को भी मृत्यु प्राप्त हो गई अर्थात राम को वनवास मिला और राम से बिछड़ने के कारण ही महाराज दशरथ का निधन हुआ !
  • सभी माताएं राम के वियोग से दुखी हैं और उनका दुख मुझसे देखा नहीं जाता अवध के सभी नर और नारी असहनीय दुख से जल रहे हैं !
  • आगे भरत दुख जताते हुए कहते हैं कि यह सब जो भी अनर्थ हुआ है यह सब मेरी वजह से ही हुआ है !
  • श्रीराम लक्ष्मण और सीता जी के साथ मुनियों का वेश धारण करके बिना पैरों में कुछ पहने नंगे पांव ही वन में चले गए, शिवशंकर ही इस बात के साक्षी है कि इतने दुखों के बाद भी मैं जिंदा हूं !
  • आगे भरत खुद को कठोर हृदय का बताते हुए कह रहे हैं कि, निषाद राज का प्रेम देखकर भी मेरा ह्रदय नहीं पिघला !
  • अब मैंने यहां आकर सब कुछ अपनी आंखों से देख लिया है, और यह जड़ जीव जिंदा रह कर सभी दुख रहेगा जिनको देखकर भयानक सांप और बिच्छू भी अपने विष को त्याग देते हैं ऐसे हैं श्रीराम !
  • भरत कहना चाहते हैं कि जो अच्छे लोगों के साथ भी बुरे कर्म करते हैं ईश्वर उन्हें अवश्य दंड देता है ( जैसा कैकई ने श्रीराम के साथ किया) !
  • कैकई श्रीराम को अपना शत्रु मानने लगी थी अपने बेटे को सत्ता दिलाने के लिए ऐसा किया और उसका दंड उसी के बेटे को श्रीराम से अलग होकर मिला !

विशेष- (1)

  1. इन पंक्तियों में भरत का राम के प्रति अनन्य प्रेम प्रकट हुआ है !
  2. इन पंक्तियों में अनुप्रास, रूपक, उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया गया है !
  3. यह अवधी भाषा में लिखित है !
  4. कवि की भाषा सरल एवं सहज है !
  5. पंक्तियों में लयात्मकता है एवं गेयता है !
  6. यह छंद युक्त काव्य है !

विशेष- (2)

  1. इन पंक्तियों में भरत श्रीराम के प्रति प्रेम को प्रकट करते हुए राम के वनवास को अपना दुर्भाग्य मानते हैं !
  2. इन पंक्तियों में अनुप्रास, रूपक, उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया गया है !
  3. यह अवधी भाषा में लिखित है !
  4. कवि की भाषा सरल एवं सहज है !
  5. पंक्तियों में लयात्मकता है एवं योग्यता है !
  6. बिधि न ---------- परिनामू मैं चौपाई छंद है !
  7. साधु ----------- रघुराउ में दोहा छंद है !

विशेष (3)

  1. इन पंक्तियों में भरत खुद को बनवासा कारण मानते हैं और स्वयं को अपराधी मानते हैं !
  2. इन पंक्तियों में अनुप्रास, रूपक, उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया गया है !
  3. यह अवधी भाषा में लिखित हैं !
  4. कवि की भाषा सरल एवं सहज है !
  5. पंक्तियों में लयात्मकता है एवं गेयता है !

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